जीवन और साहित्य एक दूसरे के पर्याय हैं . जिस तरह जीवन की कोई सीमा नहीं , उसी तरह साहित्य को भी किसी सीमा में बांधना असंभव सा प्रतीत होता है . सीमा तो शरीरों की है . लेकिन भाव तो शाश्वत है , भाव मानव जीवन की अमूल्य पूंजी है और इसे अभिव्यक्त करने के माध्यम भी कई है . शब्द अपने आप में निर्जीव होता, लेकिन अर्थ उसे जीवन देता है और एक मधुर आवाज उस शब्द को अमर करती है . मधुर आवाज और शब्द का अद्भुत संगम ही हमें आनंद की पराकाष्ठा तक ले जाता है, और हम भाव विभोर हो जाते हैं . इन्हीं शब्दों और आवाज के अद्भुत संगम ने संगीत जैसी कला को जन्म दिया और आज हम चाहे जैसी परिस्थिति में हो संगीत हमारे जीवन का अहम् हिस्सा है . पिछले दिनों मैंने सार्थक ब्लॉगिंग के कुछ पहलूओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया था . जिसे चार पोस्टों में मैंने आपसे सांझा किया . आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रियाएं भी मुझे प्राप्त हुई और आदरणीय अर्चना जी ने तो मुझे हतप्रभ कर दिया . इन चारों पोस्टों को स्वर देकर .....! तो आइये पहले अवगत करवाते हैं, आपकी चुनिन्दा प्रतिक्रियाओं से.......!
सार्थक ब्लॉगिंग की ओर इस श्रृंखला के पहले भाग से लेकर अंतिम भाग तक आप सबकी प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई जिनमें से कुछ यहाँ शामिल कर रहा हूँ ......!
चला बिहारी ब्लॉगर बनने सलिल वर्मा जी ने कहा … केवल राम जी, बड़ी वृहत जानकारी आपने प्रस्तुत की है.. एक ज्ञानवर्धक श्रृंखला!! गिरधारी खंकरियाल जी का कहना है …गहन अध्ययन के बाद किया गया विवेचन . कुछ जगहों पर वर्तिका का संपादन छुट गया है. उपेन्द्र नाथ बहुत ही अच्छी प्रस्तुति. ... आज के समय में ब्लागिंग की सार्थकता से इंकार नहीं किया जा सकता है. अपनी बात कहने का ये महत्वपूर्ण साधन है. मनोज कुमार जी इस आलेख को ब्लॉगिंग का अच्छा नमूना बता रहे हैं यह आलेख सार्थक ब्लॉगिंग का अच्छा नमूना है। SKT ने कहा… सुंदर विवेचन ! सृष्टि, मानव सृष्टि पर आपकी दृष्टि के हम कायल हुए!
दूसरे भाग पर आपकी टिप्पणियाँ कुछ इस तरह प्राप्त हुई .......!
vidya सार्थक लेख...टिप्पणियां पाने से खुशी तो मिलती है...मानव स्वभाव है...मगर हम स्वयं आपने आलोचक बने तो रचनात्मकता निश्चित ही बनी रहेगी.. डा. अरुणा कपूर. जी ने महत्वपूर्ण बात कही : मात्र सृजन को ही धर्म मान कर चलने वाले लेखक आज के जमाने में मिलने मुश्किल है...सृजन के पीछे कोई न कोई उद्देश्य जरुर होता ही है!...देखना यह है कि उद्देश्य लेखक को किसी भी तरह का लाभ पहुंचाने के बावजूद भी पाठक गण को भी लाभकारक सिद्ध हो!...बहुत सुन्दर विषय!...धन्यवाद! shikha varshney जी ने इस बात पर ध्यान दिलाते हुए कहा " आपके सृजन का पहला और अंतिम पुरस्कार आपके वह प्रशंसक हैं जिन्हें आपसे व्यक्तिगत रूप से कोई लेना देना नहीं लेकिन फिर भी वह आपके लिए दिल में सम्मान रखते हैं ." मेरे ख़याल से यही मुख्य बात है.टिप्पणियों पर बहस बहुत हो चुकी है.वह सार्थक लेखन की गारंटी नहीं - सहमत.परन्तु लेखन के लिए हौसलाफजाई का माध्यम अवश्य ही हैं.अंत में - ब्लॉग्गिंग को ब्लॉग्गिंग ही रहने दो .....:) कुल मिलाकर बहुत अच्छा विश्लेषण और सार्थक लेखन. Rahul Singh जी की बात बहुत गौर करने वाली है : अवधारणा और विवरणमूलक चर्चा के साथ बिंदुवार और भी स्पष्ट किया जाना आवश्यक है. दूसरे शब्दों में ब्लागिंग और ब्लागेतर लेखन में क्या कोई खास, साफ और ठोस फर्क बताया जा सकता है. चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ब्लागिंग तो रचनाकार को विधा और शैली चुनने के साथ साथ मकसद का विस्तार भी देताहै। यह तो क्षितिज है :) रचना दीक्षित जी की चिंता बाजिब है : यदि विकासकाल में ही उसके कायदे निर्धारित हो जाएँ तो विकास सही दिशा में होता है . अन्यथा दिशाहीन विकास रचनात्मकता खो बैठता है और कुछ समय पश्चात ही निरर्थक लगने लगता है. संजय @ मो सम कौन ? जी कह रहे हैं : मैनेजमेंट की शुरुआती पढ़ाई में एक चैप्टर ’एफ़िशियेंट’ और ’इफ़ैक्टिव’ पर हुआ करता था, वैसा ही कुछ ’सफ़ल’ और ’सार्थक’ के बारे में समझा जा सकता है। प्राथमिकताएं सबकी अपनी अपनी होती हैं। अच्छा लगा पढ़ना। पी.एस .भाकुनी : बेशक टिप्पणियां किसी भी रचना को आयाम देते हैं किन्तु सिर्फ टिप्पणियों की संख्या के आधार पर रचना का मुल्यांकन नहीं किया जा सकता है.....सुंदर प्रस्तुति...! anju(anu) choudhary इस बात से सहमत होती हुई कहती हैं कि " मात्र और मात्र सार्थक सृजन ,चर्चा के लिए सृजन या पुरस्कार के लिए सृजन ? या फिर सृजन ही मेरा धर्म है . जैसे कहा जाता है कि कला - कला के लिए , कला जीवन के लिए " . .... इन सब से हट कर बस एक ही बात ...सृजन ...कभी नहीं रुकता...उसे सबके सामने आना ही हैं...किसी का पहले या किसी का बाद में ...बिना किसी उम्मीद के ...बिना किसी इच्छा के .....!
तीसरे भाग पर आपकी प्रतिक्रियाएं ऐसी रहीं ........!
दर्शन कौर 'दर्शी' जी को तो हमारी बात समझ ही नहीं आई .....हा..हा..हा..! लेकिन फिर भी ऐसे अपनी बात कही ...केवल,... मुझे कुछ समझ आया कुछ नहीं ..पर जो समझ आया वो ईमानदारी से लिखा प्रतीत होता हैं ....एक बार नहीं अपितु कई बार पढ़ चुकी हूँ ...टिपण्णी लिखने में भी सहज नहीं हो पाती हूँ ..पर फिर भी हमेशा तुम्हारे ब्लॉग पर आती हूँ कई बार टिपण्णी नहीं लिख पाती हूँ ओके या बहुत अच्छा ,बढियां कहकर तुम्हारे मेहनती लेख के साथ इन्साफ करना ठीक नहीं लगता ...तुम इसी तरह लिखते रहो ..धन्यवाद ! संध्या शर्मा जी ने लिखा ब्लॉगिंग के लिए आवश्यक विभिन्न पहलूओं पर आपके विचार बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. और इस विधा को सशक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है... " निसंदेह आप आने वाली पीढ़ियों के लिए नए आयाम स्थापित कर रहे हैं , और सृजन को एक नया क्षितिज प्रदान कर रहे हैं " उपयोगी जानकारी से भरे इस आलेख के लिए बहुत-बहुत आभार ...! सुबीर रावत जी तो सोच में पड़ गए : आपकी पोस्ट बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है. इतने गंभीर विषय लेकर आप चलते हैं कि इसको पढने के लिए तन्हा होना बहुत जरूरी हो जाता है, और फिर दुबारा पढ़कर ही कुछ पल्ले पड़ता है. सचमुच आपकी इस तन्मयता का कायल हूँ. अब ब्लॉगिंग जैसे नए व नीरस विषय को उठाकर आपने एक सार्थक बहस छेड़ ही है. आभार !! ब्लॉ.ललित शर्मा का अंदाज काबिल -ए- तारीफ है कल ही एक मित्र ने चर्चा के दौरान कहा कि - केवल राम जो लिखता है वह समझ नहीं आता, क्या लिख गया और मेरी भी समझ नहीं आता कि क्या कमेंट लिखुं।---------- मेरी भी आज यही स्थिति है क्योंकि………………आज होली है। इसलिए इसी से काम चलाएं, "हम आपकी लेखनी के कायल हैं, इतना अच्छा आप कैसे लिख लेते हैं?" :):) हरकीरत ' हीर' जी ने हमारी बात को ही हथियार बना लिया और कहा " जब हम तथ्यपूर्ण विषय जैसे इतिहास आदि पर लिख रहे हों तो और भी सजग रहने की आवश्यकता होती है , क्योँकि यहाँ हमें तथ्य को सही ढंग से प्रस्तुत करना है और तथ्य को प्रस्तुत करने के लिए हमें तर्क की आवश्यकता होती है , राजनीति जैसे विषयों पर लिखने के लिए हमें सापेक्ष दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है और सच को सच की तरह प्रस्तुत करना टेढ़ी खीर हो सकता है . लेकिन ब्लॉगिंग जिसे हम अभिव्यक्ति की नयी क्रांति कहते हैं उसके स्वभाव के अनुकूल अगर हम काम करते हैं तो निश्चित रूप से हम इसकी स्वायतता को बरकरार रख पायेंगे और विचारों की स्पष्टता इसके स्वभाव को और ज्यादा प्रभावी बनाएगी . विचारों की स्पष्टता के कारण लेखन में एक अजीब आकर्षण पैदा होता है और वही आकर्षण पाठक को बार - बार उस विषय को पढने को मजबूर करता है " lgta hai bloging par kitaab likhi ja rahi hai ....agrim shubhkamnayein .....:)) वाणी गीत जी के विचार भी महत्वपूर्ण हैं …ब्लॉगिंग में मौलिक अभिव्यक्ति की सहजता बहुत मायने रखती है , वैसे तो पाठक वर्ग पर निर्भर करता है वह क्या पढना चाहता है !अच्छी प्रस्तुति !
अब हम चौथे भाग तक पहुँच गए .....! काजल कुमार Kajal Kumar जी भाषा पर बात करते हुए कहते हैं : यहां बहुत से लोगों के अपने अपने एजेंडें हैं. जहां तक भाषा की बात है जिसके थाली में जितना है, जीम कर चला जाता है . डॉ॰ मोनिका शर्मा ने कहा…यही पूरी श्रृंखला सभी के लिए उपयोगी रही है .... सार्थक चिंतन प्रस्तुत करती पोस्ट....प्रवीण पाण्डेय ने कहा…सबके लिये बार बार पठनीय..Amrita Tanmay ने कहा… ब्लॉगिंग के अद्भुत संसार के नायाब हीरे की कलम से निकली.. अनमोल आलेख..अरुण चन्द्र रॉय जी ने सुझाब देते हुए कहा बढ़िया चर्चा केवल जी. थोड़े उदहारण के साथ चर्चा करेंगे तो अच्छा रहेगा.......! इन सब प्रतिक्रियाओं के साथ इस पॉडकास्ट को सुनना अपने आप में एक नया अनुभव रहेगा .....किसी भी प्रकार की गलती के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ .......!