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12 अक्टूबर 2016

जीवन सफर का एक पड़ाव और समय की सीमा

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जीवन एक सफर है और शरीर इस सफर का एक पड़ाव. भारतीय दर्शन में निहित तत्व हमें इस पहलू की जानकारी बखूबी देता है. जीव और शरीर दोनों को अलग करके देखें तो भारतीय दर्शन की पक्की मान्यता है कि शरीर की यात्रा सीमित है और जीव की यात्रा अनन्त है. जीव शरीरों में रहते हुए, शरीरों से कुछ समय के लिए बंधा हुआ प्रतीत जरुर होता है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है. जीव सूक्ष्म है और शरीर सथूल, जीव चेतन है और शरीर जड़शरीर नाशवान हैउसकी यात्रा सीमित हैउसे एक दिन मिटना ही है. लेकिन जीव के विषय में यह मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा अनन्त से उद्भूत और अनन्त में विलीन होने की यात्रा है. इस ब्रह्माण्ड में जितने भी प्राणी हैंसबके शरीर की एक सीमा हैलेकिन इन शरीरों में विचरण करने वाले जीव के विषय में मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा इन शरीरों से होते हुए मनुष्य जन्म तक की यात्रा है. मनुष्य जीवन को इस यात्रा का आखिरी पड़ाव भी माना गया है (मानुष जन्म आखरी पौड़ी, तिलक गया ते बारी गयी). इसलिए मनुष्य जीवन को इस पूरी कायनात में श्रेष्ठ माना गया हैऔर इसे बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया है.
मनुष्य जीवन को इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न होने वाले जीवों में श्रेष्ठ क्यों माना गया हैइस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है. हालाँकि हमारे धर्म-ग्रन्थसाधू-सन्तपीर-पैगम्बरऋषि-मुनि आदि इस विषय में हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ क्यों माना गया हैउनकी मान्यता है कि मनुष्य जन्म में जीव (आत्मा) इतना चेतन होता है कि वह अपने निज स्वरुप परम पिता परमात्मा को जानकार उसमें विलीन हो सकता है. जैसे ही कोई जीव ईश्वर का बोध हासिल करता है तो वह आवागमन के चक्कर से रहित हो जाता है और उसे जिस मकसद के लिए यह शरीर मिला था वह मकसद पूरा हो जाता है. अब यहाँ एक सवाल और भी उठता है कि मनुष्य ईश्वर की जानकारी कैसे हासिल कर सकता हैईश्वर को प्राप्त करने का माध्यम क्या हैउसे कब पाया जा सकता हैईश्वर वास्तव में है क्याऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन पर वर्षों से विचार किया जाता रहा है. लेकिन इस धरती पर बसने वाले मनुष्यों में से अधिकतर आज तक ईश्वर के प्रति आस्थ्वान रहे हैंऔर अनेक ऐसे हैं जिन्होंने ईश्वर के बोध को हासिल करने के विषय में अपना मत दिया है. उसी आधार पर दुनिया भर में यह मान्यता प्रचलित है कि ईश्वर का कोई रूप-रंग-आकार नहीं है. वह निराकार हैसत्त-चित्त-आनन्द स्वरुप है. उसका कोई और ओर-छोर नहींकोई आदि-मध्य और अंत नहींवह देश और काल की सीमा से परे है. वह जाति-मजहब-वर्ण आदि से मुक्त है. इसलिए मनुष्य को भी ईश्वर से जुड़कर इन ईश्वरीय गुणों को अपनाने की सलाह दी जाती है और संसार इस दिशा में अग्रसर भी है. जैसा कि आज का वातावरण से इंगित भी होता है.
लेकिन अगर हम गहराई से विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य आज वास्तव में खुद से कहीं दूर चला गया है. वह भौतिक चका-चौंध में इस तरह से रम गया है कि उसे खुद के करीब जाने का कभी अवसर ही नहीं मिलता. वह जन्म से लेकर जीवन के रहते तक भौतिक चीजों को इकठ्ठा करने में ही अपना समय लगाता है और अंततः उसके हाथ क्या लगता हैइस बात से हम सभी भली-भांति परिचित हैं. लेकिन फिर भी संसार का आकर्षण ऐसा है कि मनुष्य सब-कुछ जानते समझते हुए भी इस और आकृष्ट होता चला जाता है और एक समय ऐसा आता है कि वह इसी में रम कर इसी का हो जाता है. मनुष्य का इस संसार की बेहतरी के लिए योगदान देना अलग बात है और इस संसार के वशीभूत होकर जीवन जीना अलग बात है. दोनों बातों के अन्तर को जब हम समझ जाते हैं तो जीवन के प्रति हमारा नजरिया ही बदल जाता है और हम फिर जीवन की सार्थकता के विषय में सोचना शुरू करते हैंऔर यही वह पड़ाव है जब हम संसार के कार्य करते हुए भी अपने जीवन के मूल लक्ष्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए आगे बढ़ते हैं.
इस शरीर की यात्रा कितनी हैयह हम में से कोई नहीं जानता. जहाँ तक जीवन का प्रश्न हैयह महीनों और सालों की यात्रा तय नहीं करताबल्कि इसकी यात्रा क्षणों में तय होती है. हम जब भी कोई निर्णय लेते हैं वह क्षण की ही उपलब्धि होती है. हमारी सफलता-असफलतासुख-दुःखलाभ-हानि सब क्षण की उपज हैं. यह बात अलग है कि इनका जीवन और जीवन के प्रति हमारे नजरिए से सीधा सम्बन्ध होता है. फिर भी विचारवान मनुष्य इन सब परिस्थितियों में विचलित नहीं होता. सुख में ज्यादा खुश महसूस नहीं करता और दुःख में ज्यादा रोना नहीं रोता. वह हमेशा एक सी अवस्था में रहने का प्रयास करता है. गीता में इसी अवस्था को ‘स्थितप्रज्ञ’ की अवस्था कहा गया है और मनुष्य से यह भी अपेक्षा की गयी है कि वह अपने जीवन में रहते हुए इस अवस्था को प्राप्त करेऔर हम सबका यह प्रयास भी होना चाहिए.
उपरोक्त बातों को केन्द्र में रखकर मैं भी जीवन के विषय में सोचने-समझने का प्रयास वर्षों से कर रहा हूँ. आज जब में जीवन के पैंतीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ तो बीते हुए पलों को विश्लेषित करने की बजाय आने वाले पलों के विषय में गम्भीरता से सोच रहा हूँ. हालाँकि बीते हुए पलों ने मुझे कुछ सीख दी हैअनुभव दिए हैंकुछ लक्ष्य दिए हैं. लेकिन अब जब मैं कुछ-कुछ जीवन के विषय में समझ रहा हूँ तो मुझे इस बात का बहुत गहराई से अनुभव हुआ है कि जीवन (शरीर) की यात्रा एक सामूहिक यात्रा हैलेकिन जीव या जिसे हम आत्मा कहते हैंउसकी यात्रा अकेली यात्रा है. आत्मा की यात्रा में हमारा कोई साथी नहींकोई सहयोगी नहींयह अकेले (जीव) की अकेली यात्रा है. लेकिन शरीर में रहते हुए जीवन की यात्रा सामूहिक सहयोग की यात्रा है. शरीर जब तक हैतब तक सांसारिक रिश्ते-नाते हैंसुख-दुःख हैंमतलब वह सब कुछ है जो हम इस दृश्यमान जगत में महसूस करते हैं. लेकिन इन सबमें हम वास्तविक आनन्द को नहीं खोज सकते. हम जीवन में जिस चीज को पाने के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष करते हैंउस चीज की प्राप्ति के बाद हमें किसी और चीज की लालसा फिर से उत्पन्न होने लगती है और यह क्रम अनवरत चलता रहता है. लेकिन जब हम आत्मिक रूप से इस ईश्वर के साथ जुड़ जाते हैं तो फिर संसार हमें एक औपचारिकता मात्र लगता है. फिर जीवन का हर कर्म दूसरे की ख़ुशी के लिए किया जाता हैऔर ऐसा जीवन सही मायनों में जीवन कहलाता है. लेकिन यह होता तब है जब हम स्वार्थों से ऊपर उठकर जीवन को जीने की कोशिश करते हैं. वैसे जब से जीवन को समझना शुरू किया हैइसके ऐसे अनेक पहलू अनुभूत किये हैं कि सोच कर मन रोमांच से भर जाता हैऔर ऐसे भाव पैदा होते हैं कि दूसरों की ख़ुशी के लिए और कार्य किया जाए. कोशिश भी यही है और लक्ष्य भी यही है. देखते हैं अपने जीवन रहते हम कितना सफल हो पाते हैंयह भविष्य के गर्भ में हैलेकिन प्रयास जारी है.
जीवन की इस यात्रा में आप सबका सहयोग और प्रेरणा मेरे लिए हमेशा ऊर्जा का काम करते रहे हैं. पिछले छह वर्षों से मैं लगातार अंतर्जाल पर सक्रीय हूँयोगदान कितना हैयह तो नहीं कह सकता. लेकिन आप सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा हैसमझा हैपाया है. जितना स्नेह और सम्मान मेरे अंतर्जाल के साथियों ने मुझे दिया हैउतना ही जीवन के अनेक पलों में साथी रहे बंधुओं ने दिया है. इस स्नेहसम्मान और प्रेरणा के लिए मैं हृदय से सबका आभारी हूँ.

12 अक्टूबर 2011

जीवन और जन्मदिन

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जीवन एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है. साँसों का यह सफ़र इंसान को किस पड़ाव तक ले जाए यह निश्चित नहीं है. जब तक साँसें चल रही है जीवन है, सांसें रुकी की नहीं जीवन समाप्त समझो. लेकिन साँसों के रुकने से जीवन समाप्त नहीं होता हमें यह बात समझ लेनी चाहिए. हालाँकि इस जीवन के बारे में यह कहा जाता है कि "पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात / देखते ही छुप जायेगा ज्यों तारा प्रभात". किसी हद तक तो यह बात सही भी लगती है. लेकिन जब गहरे में उतरकर देखते हैं तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि जीवन की तो सीमा है, लेकिन जीव की नहीं. जीव की यात्रा अनन्त है और जीवन की सीमित. जीव परमात्मा का अंश है, तो जीवन प्रकृति का. यह बात भी गौर करने योग्य है कि प्रकृति परमात्मा की छाया है और हम भी प्रकृति का एक अंश, यह भी सही है कि जिन तत्वों से जीवन का निर्माण हुआ है, जीवन की समाप्ति पर वह तत्व अपने-अपने मूल में मिल जाते हैं और फिर नव निर्माण होता है. यह प्रक्रिया अनवरत चल रही है सृष्टि के प्रारम्भ से, और चलती रहेगी अनंत काल तक. बस जीवन के प्रति अगर यही समझ बनी रहती है तो जीवन का सफर सुखदायी और आनंदमय बना रहता है, और हम साँसों के इस सफर को तय करते हैं पूरी संजीदगी के साथ. 
 
आज जब मैंने जीवन के 29 वर्षों का सफर  तय कर लिया तो बहुत सी बातों के विषयों में सोचा और
आकलन किया खुद का, और खुद के कर्मों का बस यही कि जीवन जिस दिशा में जा रहा है और जिस गति से जा रहा है, अगर वही दिशा  और गति  बनी रहे तो भी कहीं न कहीं जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाए. लेकिन इसके लिए मुझे बहुत संभल कर चलना है. क्योँकि इस संसार में खुद को पाक-साफ रखना बहुत कठिन कार्य है, लेकिन फिर भी कोशिश तो की जा सकती है और बस यही  प्रयास अनवरत जारी रहता है. हालाँकि यह मानवीय स्वभाव है कि वह कभी भी एक सी चीजों पर केन्द्रित नहीं रहता और उसे रहना भी नहीं चाहिए. मन की चंचलता और बुद्धि की तार्किकता उसे जीवन भर संघर्षरत रखती है और मानव अपनी उपलब्धियों से खुद को गर्वित महसूस करता है. लेकिन यह बात हमेशा मेरे जहन में रहती है कि "क्षणिकता" से "वास्तविकता" की और बढ़ा जाए, अन्धकार से प्रकाश  की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, भौतिकता से अध्यात्म की ओर  अगर यह सब हो जाता  है तो निश्चित रूप से जीवन मृत्यु से अमरत्व की ओर बढ़ जाएगा ओर जीवन का लक्ष्य सिद्ध हो जायेगा. लेकिन यह होगा तब ही जब हमारा-आपका सहयोग और प्रेम परस्पर बना रहेगा. 

आज मन बहुत द्रवित है. सोचा अपने जीवन के हर पहलु को तो बहुत सी बातें नजर आयीं. ब्लॉगजगत का दिया हुआ प्यार और सम्मान मेरी आखों में आंसू ले आया. जब मैंने ब्लॉगिंग की दुनिया में प्रवेश किया था तो एक सामान्य पाठक के रूप में और आज भी खुद को ब्लॉगिंग के विस्तृत पटल पर एक सामान्य पाठक ही मानता हूँ. आज जो भी कुछ कर पाता हूँ यह सब आपके प्रेम और सहयोग का ही परिणाम है. आपकी प्रेरणादायी टिप्पणियाँ ही नहीं बल्कि समय -समय पर व्यक्तिगत रूप दिए गए आपके सुझाब भी मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं. इसके अलावा आपका अपनापन तो मेरे लिए खुदा की सौगात से कम नहीं. इसलिए आज नतमस्तक हूँ आप सबके सामने. कल जब पोस्ट लिख रहा था तो कुछ नाम मेरे जहन में उभर आये थे. लेकिन जब पूरी सूची देखी तो लगा कि इतने सारे नामों के लिए तो एक अलग से पोस्ट लिखनी पड़ेगी और फिर सोचा कि ब्लॉग जगत ने जो कुछ मुझे दिया है उसके लिए धन्यवाद कहना, एक औपचारिकता को निभाने जैसा होगा.

हालाँकि सूचना और तकनीक के इस दौर में आभासी रिश्तों की बात की जाती है और इसे एक तरह से आभासी दुनिया कहा जाता है. लेकिन मैंने जहाँ तक अनुभव किया मुझे काफी हद तक ऐसा प्रतीत नहीं हुआ. जिस भी व्यक्ति से बात हुई सबने सहयोग और प्रेम की ही बात की. माध्यम कोई भी रहा हो (टेलीफोन, फेसबुक, ऑरकुट, मेल) आदि. लेकिन मैंने सबको सहयोग देते हुए पाया. इसलिए खुद को बहुत खुशनसीब समझ रहा हूँ. अब तो लगता है कि जीवन का सफर एक नए दौर की तरफ चल पड़ा और यह दौर और यह रिश्ते मुझे जरुर कोई नया मुकाम देंगे. इसी आशा के साथ....! अब आप सब तो यही कहेंगे न ........ !
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आज की इस पोस्ट का पॉडकास्ट ब्लॉग जगत की चर्चित पॉडकास्टर आदरणीय अर्चना जी के सौजन्य से आप मेरी आवाज में सुन सकते हैं ...आदरणीय अर्चना जी ने मेरे मन की भावनाओं को समझते हुए आपकी नजर यह पोस्ट पेश की ...आशा है आपको यह प्रयास पसंद आएगा ...!