गत अंक से आगे.....आम जनमानस बोली में ही अपने भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता
है, उसके जीवन का हर पहलू बोली के माध्यम से बड़ी खूबसूरती के साथ अभिव्यक्त होता
है. हम अगर भाषा का गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि भाषा में प्रयुक्त कुछ
शब्द भाव सम्प्रेषण में बाधक होते हैं. इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि संसार की
अधिकतर भाषाओं में प्रयोग होने वाले शब्द आसपास की बोलियों से लिए गए होते हैं,
लेकिन बोली में अधिकतर शब्द मौलिक और भाव के बिलकुल निकट होते हैं. इसलिए भाषा के
बजाय बोली भाव सम्प्रेषण के लिए ज्यादा सहज है, सार्थक है और स्वीकार्य भी. भाषा
और बोली के सम्बन्ध में कई आयाम हमारे सामने हैं और दुनिया में जितने भी शोध आज तक
हुए हैं वह यह बताते हैं कि मौलिक सृजन की मंजिल हमेशा बोली के रास्ते पर चलकर ही
तय होती है. बेशक अन्त में उसे भाषा ही कहा जाता है.
हम
यहाँ भाषा और बोली के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार करने के बजाय इस पहलू पर विचार
करने की कोशिश करेंगे कि हम किस (भाषा/बोली) माध्यम से बच्चों को शिक्षा देने का
प्रयास करें, जिससे कि वह अधिक से अधिक मौलिक सृजन कर सकें. हम अधिकतर यही मानते
हैं कि भाषा तो सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है, लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना
चाहिए कि भाषा मात्र अभिव्यक्ति का ही माध्यम नहीं, वह हमारे सृजन और चिन्तन का भी
आधार है. इसलिए हम जिस भाषा या बोली के करीब हैं, वही हमारे चिन्तन और सृजन के
आधार को पुष्ट करती है. यह भी एक तथ्य है कि मनुष्य जिस भाषा को अपने बचपन में
सीखता है वह उसी भाषा/बोली के माध्यम से ही सोचता है. जब सोच का आधार बचपन में
सीखी हुई भाषा है तो स्वाभाविक है कि अभिव्यक्ति और सृजन के लिए भी वह उपयुक्त
होगी.
एक
अवोध बालक बोलना अपने परिवेश से सीखता है, लेकिन जब हम उसे शिक्षा से जोड़ने का
प्रयास करते हैं तो हम उसे किसी अन्य भाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रयास
करते हैं. दुनिया में यह चलन कम है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में अगर बात की जाए तो
यहाँ अनेक बोलियाँ हैं, फिर क्षेत्रीय भाषाएँ हैं और फिर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय
भाषाएं. अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हमारे देश में अंग्रेजी का प्रचलन जोरों
पर है. हर किसी माँ-बाप की इच्छा है कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा
ग्रहण करे, साथ ही उनका यह भी प्रयास है कि वह किसी अच्छे से निजी विद्यालय में
पढ़े. जिससे कि उसे एक बेहतर काम मिल सके और उसका जीवनयापन बेहतर तरीके से हो सके.
बाजारवाद
के इस दौर में व्यक्ति को एक मशीन की तरह प्रयोग किया जा रहा है, और व्यक्ति की
विवशता यह है कि वह न चाहते हुए भी इसके लिए खुद को प्रस्तुत कर रहा है. बाजारवाद
व्यक्ति को भविष्य का एक सुनहरा सपना दिखाता है और हर व्यक्ति से यह अपेक्षा करता
है कि वह उसके मत से सहमत होते हुए खुद को उसके साथ चलने के लिए सहमत कर ले, अगर
कोई सहमत नहीं है तो उसे बाजारवाद विवशता से अपनी और मोड़ने की कोशिश करता है. ऐसे
में सबसे पहले जिस पहलू पर वह मार देता है वह है, मनुष्य की भाषा और उसका रहन-सहन.
मनुष्य में जब यह परिवर्तन हो जाते हैं तो वह सहज ही बाजारवाद के हाथों की कठपुतली
बन जाता है. इसका सबसे बड़ा असर मनुष्य की बोली और स्थानीयता पर होता है. बाजारवाद बोली,
स्थानीयता और परम्परा को पिछड़े होने की निशानी मानता है, जब व्यक्ति को यह बोध हो
जाता है कि अपनी बोली-स्थानीयता और अपनी परम्पराओं का पालन करना पिछड़े होने की
निशानी है तो वह जल्द से जल्द इनका त्याग करने की कोशिश करता है. जैसे ही व्यक्ति
इस और आकृष्ट होता है तो वह अपनी बोली-वेशभूषा-रहन सहन आदि का त्याग करते हुए
आधुनिक होने का सपना देखता है. लेकिन सच तो यह है कि व्यक्ति की आधुनिकता उसके
पहरावे और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में नहीं है, वह उसके विचारों से झलकनी चाहिए.
आज
जहाँ पूरी शिक्षा व्यवस्था बाजारवाद के हाथों संचालित हो रही है तो ऐसे में हम
कैसे यह तय करें कि हम अपने बच्चे को किस भाषा माध्यम से शिक्षा दें कि वह एक
बेहतर सृजक बन सके, एक अच्छा विचारक बन सके. उसके जहन में मौलिक चिन्तन का बीज
बोने के लिए जरुरी है कि उसे हम उस भाषा से जोड़ें जो आगे चलकर उसे अभिव्यक्ति और
चिन्तन के बेहतर अवसर उपलब्ध करवा सके. इन सब पहलूओं को जब हम ध्यान में रखते है
तो हम पाते हैं कि व्यक्ति जिस परिवेश में अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में
रहता है, वह उसी हिसाब से अपनी अभिव्यक्ति के विषय और क्षेत्र को चुनता है. इसलिए
जरुरी है कि हम भावी पीढ़ियों को ऐसा वातावरण प्रदान कर सकें जिससे वह अपनी
प्राकृतिक क्षमताओं का बेहतर से बेहतर प्रयोग कर सके और इसके लिए जरुरी है अपने आसपास
एक सकारात्मक वातावरण तैयार करें. जिससे इस देश में पलने वाला हर एक बच्चा जब वह
अपने पैरों पर खड़ा हो सके. वह देश और दुनिया को कुछ बेहतर देन देते हुए अपने जीवन के
सफर को तय कर सके. हम भी यह कोशिश करें कि हम अपने बच्चों को भाषा और बोली के
प्रति सजग करते हुए उन्हें अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ते हुए आगे बढ़ें.