29 अप्रैल 2013

मात्र देह नहीं है नारी...3

13 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे इतिहास चाहे नारी के विषय में कुछ भी कहता है लेकिन हमें वर्तमान को देखने की जरुरत है, और यह भी सच है कि आज अगर हम सही और तर्कपूर्ण निर्णय ले पाएंगे तो निश्चित रूप से हमारा इतिहास गौरव करने लायक होगा. हमें इस बात को भी समझना होगा कि इतिहास के निर्माण में वर्तमान का बड़ा योगदान है. यह बात भी काबिलेगौर है कि इतिहास हमें वर्तमान को समझने की दृष्टि देता है और वर्तमान एक तरफ तो इतिहास बनाता है और वहीँ दूसरी तरफ भविष्य की सारी नींव वर्तमान पर ही टिकी होती है. कुछ परम्परावादी आज भी इतिहास के दुहाई देते हैं और इतिहास को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना अच्छा लेकिन वर्तमान को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना अखरता है. क्योँकि हर काल की अपनी कुछ व्यवस्थाएं होती हैं और उन व्यवस्थाओं का प्रभाव मानव जीवन पर सीधे तौर पर पड़ता है इसलिए हमें बहुत सजग रहने की आवश्यकता है.

नारी के वर्तमान जीवन और स्थितियों की बात करें तो हमारे सामने स्थिति संतोषजनक नहीं है. हम बेशक उसे चमक दमक के साथ देख रहे हैं, तथ्यों और आंकड़ों पर गौर करें तो कुछ-कुछ स्थिति ऐसी ही दिखती है. लेकिन जो सोच हमारी नारी के प्रति होनी चाहिए थी या हम जो दावे कर रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है . हम जो कुछ कह रहे हैं वैसा कर नहीं नहीं रहे हैं, और जैसा कर रहे हैं वह दिल को द्रवित कर देने वाला है. इसलिए हमें क्षण-क्षण पर अपने आप को विश्लेषित करने की आवश्यकता है. अगर हम ऐसा कर पायेंगे तो निश्चित रूप से भविष्य को सुनहरा बना सकते हैं लेकिन यह सिर्फ एक कल्पना ही की जा सकती है. 

पिछले कुछ वर्षों से नारी की स्वतंत्रता और अधिकारों को लेकर बहुत सी बातें की जा रही हैं. लेकिन स्थिति यह है कि हम जिस स्तर पर थे उस स्तर से भी नीचे गिर रहे हैं और आये दिन कहीं तेज़ाब फेंका जा रहा है, कहीं सामूहिक बलात्कार किया जा रहा है, कहीं पर उसका वर्षों तक शारीरिक शोषण किया जा रहा है और भी ना जाने ऐसे कई नकारात्मक पहलू हैं जो हमारे सामने उभरकर आये हैं. जिस देश की संसद में बलात्कार और शारीरिक शोषण को लेकर बहस हो रही हो उस देश कि स्थिति क्या हो सकती है, लेकिन यह बात भी गौर करने योग्य है कि यह बात सिर्फ भारत की ही नहीं है विश्व में ज्यादातर देशों में नारी की यही स्थिति है और दिनों दिन उसे हम देह ही समझने की कोशिश में है इसलिए तो उसके साथ हर पल अमानवीय व्यवहार हो रहा है और पूरा विश्व अँधेरे की गर्त की तरफ बढ़ रहा है और हम दुहाई दे रहे हैं कि हम विकास के पथ पर अग्रसर हैं. यह कैसा विकास ? जिसमें मानव ही सुरक्षित न हो. बहुत गंभीरता से सोचता हूँ तो कुछ ऐसे पहलू सामने आते हैं जिनके बारे में सोचकार यह लगता है कि दुनिया का भविष्य अंधकारमय है.

नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अगर एक है तो
दूसरा भी है और दोनों में से किसे श्रेष्ठ कहें यह बड़ा बचकाना सा विश्लेषण होगा. लेकिन दुनिया के इतिहास पर नजर दौड़ा कर देखें तो ऐसा कभी लगा ही नहीं कि नारी और पुरुष को सामान दृष्टि से देखा गया हो. पुरुष की सोच हमेशा वर्चस्ववादी रही है और उसे अपने श्रेष्ठ होने का हमेशा भान रहा है, लेकिन मुझे आज तक इस सवाल का जबाब नहीं मिल पाया कि आखिर पुरुष अपनी श्रेष्ठता किस आधार पर निर्धारित करता है? हाँ यह भी सत्य है कि इतिहास में कुछ काल ऐसा रहा है जब नारी को पुरषों से श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है, लेकिन यह बहुत अल्पकाल के ही हुआ है. फिर भी प्रश्न यह नहीं है कि इतिहास में क्या हुआ है और क्या होना चाहिए, प्रश्न तो यह है कि किस आधार पर नारी और पुरुष की श्रेष्ठता का निर्धारण किया जाता है और क्योँ? लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है वह यही कि नारी और पुरुष में श्रेष्ठता का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही वास्तविक स्थिति भी है.  

यह तो बात कहने भर में सही लगती है लेकिन मैंने देखा है कि हम (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) लड़की के जन्म होने पर उतने खुश नहीं होते जितने की लड़के जन्म पर. हर कोई जब विवाह करता है तो उसे यही चाह होती है कि उसकी पहली संतान लड़का ही हो और यह भाव नारी में भी देखा गया है, लड़के के पैदा होने की चाह में कई बार हम अपनी पारिवारिक स्थिति तक को भी दावं पर लगा देते हैं. विवाह का मतलब तो सिर्फ इतना ही था कि हम वंश को आगे बढ़ाएं और वह लड़के और लड़की के सवाल पर नहीं टिका है. लेकिन स्थिति इसके उलट है, जब हम आज तक मानसिक रूप से इस पहलू को ही नहीं समझ पाए तो फिर जो कुछ भी हम कह रहे हैं वह कहाँ तक सत्य है. इस प्रश्न का हल हर कोई अपने तरीके से खोजेगा लेकिन वास्तविक हल कोई नहीं होगा. लड़के के जन्म पर अति उत्साहित होना और लड़की के जन्म पर वह ख़ुशी न होना यह नारी को देह समझने से ही तो जुडा है. जबकि संवेदनात्मक धरातल पर दोनों में कोई अंतर नहीं.   शेष अगले अंकों में

27 अप्रैल 2013

मात्र देह नहीं है नारी...2

13 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे   हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के परिदृश्य पर अगर दृष्टिपात करें तो स्थितियां संतोषजनक नहीं है. व्यक्ति का सोच के स्तर पर संकीर्ण होना आने वाले भविष्य के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान के लिए भी दुखदायी साबित हो रहा है. ऐसी स्थिति में हमारे सामने कई समस्याएं पैदा हो रहीं हैं, नारी को मात्र देह समझने की सोच भी इसी का परिणाम है. आज की स्थिति पर अगर गौर करें और उसी आधार पर भविष्य की कल्पना करें तो सोच कर ही डर लगता है. लेकिन इतना कुछ होने के बाबजूद हम हैं कि संभलने का ही नाम नहीं ले रहे हैं और दिन प्रतिदिन एक ऐसी गर्त की तरफ जा रहे हैं जहाँ से मानवीय अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है. 

हम अपने आस-पास की प्रकृति को देखें थोडा सा इसे महसूस करें तो हम समझ पायेंगे कि दुनिया में कोई ऐसी चीज नहीं जिसके दो पहलू न हों. यह पूरी सृष्टि (अंडज, पिंडज, उतभुज और सेतज) और इसकी सत्ता में कोई ऐसी चीज नहीं जिसका दूसरा पक्ष न हो, हर  एक चीज के दो पक्ष हैं और एक का दूसरे के साथ अन्योन्यश्रित सम्बन्ध हैं, इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती. ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने बड़ा प्रश्न पैदा होता है. आये दिन आंकड़े आते रहते हैं और बताते रहते हैं कि हर दिन कितनी लड़कियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है. जिसे हम भ्रूण हत्या कहते हैं. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि वहां नारी और पुरुष दोनों जिम्मेवार हैं. ऐसी स्थिति में नारी ही नारी की दुश्मन हो जाती है. तथ्य तो चौंकाने वाले हैं और यह हमेशा बदलते रहते हैं, लेकिन मनुष्य की सोच कब परिवर्तित होगी यह अनिश्चित है. नारी पर सबसे पहला हमला गर्भ में होने से ही हो जाता है. ऐसी स्थिति में दुनिया कहाँ जा रही है, यह सबसे बड़ा प्रश्न है? मनुष्य की सोच कितनी संकीर्ण और घृणित हो चुकी है उसकी पराकाष्ठा है, यह भ्रूण ह्त्या. इस सारी प्रक्रिया में डॉक्टर और स्त्री पुरुष जिम्मेवार हैं. अगर कोई एक भी इस पक्ष में नहीं होता तो शायद यह नहीं होता. लेकिन सबके स्वार्थ ऐसे हैं कि दिल दहल जाता है.

कुछ अपवादों को अगर छोड़ दिया जाये तो आज भी लड़की को समाज के लिए बोझ माना जाता है. यह
स्थिति तब है जब हम खुद को आधुनिक और उत्तर आधुनिक मानते हैं. बहुत गहन विश्लेषण के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मनुष्य आज भी वहीँ खड़ा है जहाँ वह हजारों वर्ष पहले खड़ा था. आज बेशक उसके सामने जीवन जीने के भरपूर विकल्प मौजूद हैं लेकिन सोच के स्तर पर वह बहुत दयनीय स्थिति में है और आये दिन उसकी सोच के भयंकर परिणाम हमारे सामने आ रहे हैं. इतिहास के परिप्रेक्ष्य में अगर नारी को देखें तो दो बड़ा उदहारण हमारे सामने आते हैं जिनमें नारी के अपमान के कारण पूरी कि पूरी सत्ता और राजपाठ तहस नहस हो गया था. लेकिन कहीं पर वह परिस्थितिजन्य भी था. जो कुछ इतिहास में सीता और द्रौपदी के साथ हुआ वह अकारण भी नहीं था. लकिन जो भी था वह निश्चित रूप से दुखदायी था और उसी आधार पर तत्कालीन समाज और शासन सताओं पर उसका प्रभाव रहा है. वहां तो नारी का अपमान मात्र हुआ था और आज क्या कुछ नारी के साथ हो रहा है यह बड़ा दर्दनाक है.

हमारे देश में ही नहीं बल्कि संसार भर में वेद सबसे प्राचीन माने जाते हैं, और वैदिक संस्कृति के आधार पर ही हम यह मानते हैं कि जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं . ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहा गया है कि ‘स्त्री ही ब्रह्मा बभूविथ  8/33/19  अर्थात गृहस्थाश्रम में स्त्री ही ब्रह्मा का स्वरूप है.  ऋग्वेद के ही मंडल 1 सूक्त 48 में नारी के स्वरूप का वर्णन किया गया है. इसमें कहा गया है कि ‘नारी उषा काल के समान सुख देने वाली है’. इसलिए वेदों के बाद के साहित्य में भी नारी के उज्ज्वल और  प्रेरक रूप की चर्चा हुई है. लेकिन हमें यह बात भी नहीं भूलनी चाहिए कि उस समय नारी का चरित्र और जीवन दोनों प्रेरक रहे हैं. आज के सन्दर्भ में उनकी तुलना नहीं की जा सकती हाँ अगर हम वहां से कुछ प्रेरणा ले सकें तो निश्चित रूप से हमारे समाज का नक्शा बदल सकता है. लेकिन यह सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. यथार्थ इससे कहीं कोसों दूर है. जहाँ तक भारतीय संस्कृति की बात है वहां आज भी कन्या के रूप में नारी की पूजा का प्रचलन है, लेकिन उसका भी वास्तविक रूप हमारे सामने नहीं है. बस हम कुछ औपचारिकतावश यह सब कुछ करते हैं और अपने आपको बड़ा कर्मयोगी सिद्ध करते हैं.

इतिहास और संस्कृति चाहे नारी के विषय में कुछ कहे हमें उससे आगे बढ़कर अपने परिवेश की तरफ ध्यान देने की जरुरत है. हम इतिहास को दोहरा नहीं सकते लेकिन संस्कृति का निर्माण तो कर ही सकते हैं. ऐसी स्थिति में जब हमारे पास एक दूसरे के करीब आने के हजारों विकल्प मौजूद हैं तो क्योँ न हम इस दिशा में कदम बढ़ाएं. लेकिन आज ऐसा होने के बजाय हम विपरीत दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. आये दिन भ्रूण हत्याएं होती हैं, बलात्कार होते हैं और दहेज़ के नाम पर खरीद फरोख्त होती है. नारी की देह बिकती है, अस्मिता हर दिन दावं पर लगती है और हम हैं कि अपने में ही मस्त हैं. समाज का एक तबका ही नहीं बल्कि आज पूरा समाज आज इस गिरफ्त में है. कोई एक वर्ग नारी पर यह जुल्म नहीं कर रहा है बल्कि राजा से रंक तक सब इसमें शामिल हैं. शेष अगले अंकों में...!!!

25 अप्रैल 2013

मात्र देह नहीं है नारी...1

14 टिप्‍पणियां:
पिछले कुछ अरसे से नारी शब्द एक तरह से बहस का मुद्दा बना हुआ है. सड़क से संसद तक इस मुद्दे पर चर्चाएँ होती रही हैं. अख़बारों के प्रत्येक पृष्ठ पर उसकी दास्तान अभिव्यक्त की जा रही है और समाचार चैनल बहुत कलात्मक और रहस्यमयी ढंग से उसके जीवन की कहानी को लोगों को दिखा रहे हैं. न्यू मीडिया के जितने भी साधन है वहां भी हर तरह से नारी शब्द गूंज रहा है. इतना ही नहीं कुछ धार्मिक और सामाजिक संगठन भी नारी के लिए चिन्तनशील हैं. देश ही नहीं विश्व के हर हिस्से में यह सब अभिव्यक्त किया जा रहा है और एक तरह से नया वातावरण और नयी बहस, यूं भी कहा जा सकता है एक नया आन्दोलन हमारे सामने शुरू होता नजर आ रहा है . लेकिन इस सब के पीछे की जो कहानी है वह बड़ी करुण है, बहुत दर्दनाक है, काफी खौफनाक है और हद तो ऐसी है कि इस कहानी को सुनकर देखकर ऐसा लगता है कि इस चमकती-दमकती दुनिया का क्या होगा ???

इस नारी की दास्तान भी बड़ी अजीब है. दुनिया के इतिहास में अगर कुछ कालखंड को छोड़ दें तो इसकी
स्थिति बड़ी दयनीय नजर आती है. आज तक इसे भोग और विलास की वस्तु ही समझा जाता रहा है, और ऐसा प्रयास हर कालखंड में किया जाता रहा है कि इसे स्वतन्त्र सत्ता कभी नहीं दी जाए. पुरषों की स्वयं के श्रेष्ठ होने की सोच ने इसके सामने कई चुनौतियां पैदा की हैं और आज तक नारी उन सब चुनौतियों का का सामना करती आ रही है. काल कोई भी रहा हो, शासन कैसा भी रहा हो,  राजा से रंक तक हर पुरुष ने नारी की स्वतंत्रता को लेकर प्रश्नचिन्ह खड़े किये हैं और आज तक भी वही किया जा रहा है. दुनिया में काफी भौतिक विकास हुआ, आदमी ने सूरज-चाँद तक जाने की कल्पना की और वह अपने मंतव्यों में सफल भी हुआ, लेकिन अफ़सोस इस बात का रहा कि उसे धरती पर ठीक से चलना अभी तक नहीं आया. दुनिया का उपलब्ध इतिहास यह जानकारी देता है कि आज तक मानव का इतिहास ज्यादातर शोषण और अत्याचार का रहा है. ऐसा कोई कालखंड नहीं जिसमें कोई युद्ध नहीं हुआ हो. अब अगर युद्ध हुआ है तो निश्चित रूप से जानमाल की भरपूर क्षति हुई है और उस कालखंड में तो उसका प्रभाव रहा है लेकिन आने वाली पीढ़ियों के भी वह खौफनाक बना रहा है, और इस सबका दंश कुछ ऐसे लोग भी झेलते हैं जिनको इन सबसे कुछ लेना देना नहीं. लेकिन फिर भी यह सब घटित हो रहा है और संभवतः होता रहेगा.

दुनिया की इस व्यवस्था पर अगर हम दृष्टिपात करें तो हर एक का किसी दूसरे से अन्योन्यश्रित सम्बन्ध है. यह भी महसूस किया जा सकता है कि हम एक दूसरे से गहरा ताल्ल्लुक रखते हैं. जितनी भी प्रकृति है इसका प्रत्येक कण हमारे साथ जुड़ा हुआ है  और यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि मनुष्य भी प्रकृति का ही अंश है. जिस तरह से पशु-पक्षी, पेड़-पौधे प्रकृति का अंग हैं उसी तरह से मनुष्य भी प्रकृति का हिस्सा है, लेकिन फिर भी कुछ मायनों में मनुष्य अद्भुत है, श्रेष्ठ है. जिसके कारण इसे धरती पर सबसे बड़ा स्थान प्राप्त है. एक तरफ तो मनुष्य श्रेष्ठ है, यह बात समझ में आती है लेकिन इसी मनुष्य ने धरती के हर बशर का जिन दूभर किया है यह समझ से परे है. जितना प्राकृतिक दोहन मनुष्य करता है उतना शायद ही कोई करता हो, लेकिन मनुष्य की भूख है कि मिटने का नाम ही नहीं लेती और आज स्थिति ऐसी है कि सब कुछ होते हुए भी वह भूखा का भूखा ही नजर आता है. इस भूख में इसकी काम की भूख भी सर्वश्रेष्ठ है. काम की इस भूख ने उसके जीवन पर विपरीत असर किया है और आज ऐसी स्थिति पैदा की है कि मनुष्य के सामने जीवन का कोई और विकल्प नजर नहीं आता. उसकी काम की भूख ने उसे जानवर से भी बदतर स्थिति में पहुंचा दिया है और आज हालत तो इतने दर्दनाक हैं कि जिसका कोई अंदाजा नहीं ???

आज अगर हम देखें तो दुनिया सतही तौर पर विकास के रास्ते पर अग्रसर है. दुनिया में बड़े - बड़े उद्योग स्थापित हो रहे हैं, चौड़ी सड़कें बनायीं जा रही हैं, सूचना तकनीक के साधनों का अभूतपूर्व विकास किया जा रहा है. लेकिन इतना सब कुछ होने के बाबजूद भी मानव की सोच और समझ निरंतर गिरती जा रही है और उसकी के परिणाम स्वरूप दुनिया में भ्रष्टाचार तेजी से फ़ैल रहा है और हर व्यक्ति इसकी गिरफ्त में आता जा रहा है. अगर यही स्थिति रही तो भविष्य की दुनिया कैसी होगी यह तो कल्पना से परे है. हम चाह तो रहे हैं कि दुनिया का स्वरूप सुंदर हो जाये, मनुष्य-मनुष्य के ज्यादा करीब आ जाये, लेकिन असर इसके विपरीत हो रहे हैं और परिणाम बेहद खौफनाक है. जिस तरह की घटनाएं आज के परिवेश में घटित हो रहीं हैं वह तो हमारे मनुष्य होने पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े करती हैं. ऐसी स्थिति में हमारा क्या कर्तव्य है यह तो हमें ही सोचना होगा ??? आज जिस परिवेश में हम जी रहे हैं वह हमें हमारे पूर्वजों की देन है और आने वाली पीढियां जिस परिवेश में अपना जीवन यापन करेंगी वह उन्हें हमारी देन होगी. आज हम अपने अतीत पर बहुत गौरवान्वित होते हैं, यह तो ठीक है लेकिन क्या आने वाली पीढियां ऐसा कर पाएंगी यह सबसे बड़ा मुद्दा है ?? शेष अगले अंकों में