गतांक से आगे इतिहास
चाहे नारी के विषय में कुछ भी कहता है लेकिन हमें वर्तमान को देखने की जरुरत है,
और यह भी सच है कि आज अगर हम सही और
तर्कपूर्ण निर्णय ले पाएंगे तो निश्चित रूप से हमारा इतिहास गौरव करने
लायक होगा. हमें इस बात को भी समझना होगा कि इतिहास के निर्माण में वर्तमान का
बड़ा योगदान है. यह बात भी काबिलेगौर है कि इतिहास हमें वर्तमान को समझने की दृष्टि
देता है और वर्तमान एक तरफ तो इतिहास बनाता है और वहीँ दूसरी तरफ भविष्य की सारी
नींव वर्तमान पर ही टिकी होती है. कुछ परम्परावादी आज भी इतिहास के दुहाई देते हैं और
इतिहास को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखना अच्छा लेकिन वर्तमान को इतिहास के परिप्रेक्ष्य
में देखना अखरता है. क्योँकि हर काल की अपनी कुछ व्यवस्थाएं होती हैं और उन
व्यवस्थाओं का प्रभाव मानव जीवन पर सीधे तौर पर पड़ता है इसलिए हमें बहुत सजग रहने
की आवश्यकता है.
नारी के वर्तमान जीवन और
स्थितियों की बात करें तो हमारे सामने स्थिति संतोषजनक नहीं है. हम बेशक उसे चमक
दमक के साथ देख रहे हैं, तथ्यों और आंकड़ों
पर गौर करें तो कुछ-कुछ स्थिति ऐसी ही दिखती है. लेकिन जो सोच हमारी नारी के प्रति
होनी चाहिए थी या हम जो दावे कर रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है . हम जो कुछ कह रहे
हैं वैसा कर नहीं नहीं रहे हैं, और जैसा कर रहे हैं वह दिल
को द्रवित कर देने वाला है. इसलिए हमें क्षण-क्षण पर अपने आप को विश्लेषित करने की
आवश्यकता है. अगर हम ऐसा कर पायेंगे तो निश्चित रूप से भविष्य को सुनहरा बना सकते
हैं लेकिन यह सिर्फ एक कल्पना ही की जा सकती है.
पिछले कुछ वर्षों से नारी की
स्वतंत्रता और अधिकारों को लेकर बहुत सी बातें की जा रही हैं. लेकिन स्थिति यह है
कि हम जिस स्तर पर थे उस स्तर से भी नीचे गिर रहे हैं और आये दिन कहीं तेज़ाब फेंका
जा रहा है, कहीं सामूहिक बलात्कार किया जा
रहा है, कहीं पर उसका वर्षों तक शारीरिक शोषण किया जा रहा है
और भी ना जाने ऐसे कई नकारात्मक पहलू हैं जो हमारे सामने उभरकर आये हैं. जिस देश
की संसद में बलात्कार और शारीरिक शोषण को लेकर बहस हो रही हो उस देश कि स्थिति
क्या हो सकती है, लेकिन यह बात भी गौर करने योग्य है कि यह
बात सिर्फ भारत की ही नहीं है विश्व में ज्यादातर देशों में नारी की यही स्थिति है
और दिनों दिन उसे हम देह ही समझने की कोशिश में है इसलिए तो उसके साथ हर पल
अमानवीय व्यवहार हो रहा है और पूरा विश्व अँधेरे की गर्त की तरफ बढ़ रहा है और हम
दुहाई दे रहे हैं कि हम विकास के पथ पर अग्रसर हैं. यह कैसा विकास ? जिसमें मानव ही सुरक्षित न हो. बहुत गंभीरता से सोचता हूँ तो कुछ ऐसे पहलू
सामने आते हैं जिनके बारे में सोचकार यह लगता है कि दुनिया का भविष्य अंधकारमय है.
नारी और पुरुष एक दूसरे के
पूरक हैं. एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती. अगर एक है तो
दूसरा भी है और दोनों में से किसे श्रेष्ठ कहें यह बड़ा बचकाना सा विश्लेषण होगा. लेकिन दुनिया के इतिहास पर नजर दौड़ा कर देखें तो ऐसा कभी लगा ही नहीं कि नारी और पुरुष को सामान दृष्टि से देखा गया हो. पुरुष की सोच हमेशा वर्चस्ववादी रही है और उसे अपने श्रेष्ठ होने का हमेशा भान रहा है, लेकिन मुझे आज तक इस सवाल का जबाब नहीं मिल पाया कि आखिर पुरुष अपनी श्रेष्ठता किस आधार पर निर्धारित करता है? हाँ यह भी सत्य है कि इतिहास में कुछ काल ऐसा रहा है जब नारी को पुरषों से श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है, लेकिन यह बहुत अल्पकाल के ही हुआ है. फिर भी प्रश्न यह नहीं है कि इतिहास में क्या हुआ है और क्या होना चाहिए, प्रश्न तो यह है कि किस आधार पर नारी और पुरुष की श्रेष्ठता का निर्धारण किया जाता है और क्योँ? लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है वह यही कि नारी और पुरुष में श्रेष्ठता का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही वास्तविक स्थिति भी है.
दूसरा भी है और दोनों में से किसे श्रेष्ठ कहें यह बड़ा बचकाना सा विश्लेषण होगा. लेकिन दुनिया के इतिहास पर नजर दौड़ा कर देखें तो ऐसा कभी लगा ही नहीं कि नारी और पुरुष को सामान दृष्टि से देखा गया हो. पुरुष की सोच हमेशा वर्चस्ववादी रही है और उसे अपने श्रेष्ठ होने का हमेशा भान रहा है, लेकिन मुझे आज तक इस सवाल का जबाब नहीं मिल पाया कि आखिर पुरुष अपनी श्रेष्ठता किस आधार पर निर्धारित करता है? हाँ यह भी सत्य है कि इतिहास में कुछ काल ऐसा रहा है जब नारी को पुरषों से श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है, लेकिन यह बहुत अल्पकाल के ही हुआ है. फिर भी प्रश्न यह नहीं है कि इतिहास में क्या हुआ है और क्या होना चाहिए, प्रश्न तो यह है कि किस आधार पर नारी और पुरुष की श्रेष्ठता का निर्धारण किया जाता है और क्योँ? लेकिन जहाँ तक मेरी समझ है वह यही कि नारी और पुरुष में श्रेष्ठता का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और यही वास्तविक स्थिति भी है.
यह तो बात कहने भर में सही
लगती है लेकिन मैंने देखा है कि हम (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) लड़की के जन्म होने
पर उतने खुश नहीं होते जितने की लड़के जन्म पर. हर कोई जब विवाह करता है तो उसे यही
चाह होती है कि उसकी पहली संतान लड़का ही हो और यह भाव नारी में भी देखा गया है,
लड़के के पैदा होने की चाह में कई बार हम अपनी पारिवारिक स्थिति तक
को भी दावं पर लगा देते हैं. विवाह का मतलब तो सिर्फ इतना ही था कि हम वंश को आगे
बढ़ाएं और वह लड़के और लड़की के सवाल पर नहीं टिका है. लेकिन स्थिति इसके उलट है,
जब हम आज तक मानसिक रूप से इस पहलू को ही नहीं समझ पाए तो फिर जो
कुछ भी हम कह रहे हैं वह कहाँ तक सत्य है. इस प्रश्न का हल हर कोई अपने तरीके से
खोजेगा लेकिन वास्तविक हल कोई नहीं होगा. लड़के के जन्म पर अति उत्साहित होना और
लड़की के जन्म पर वह ख़ुशी न होना यह नारी को देह समझने से ही तो जुडा है. जबकि
संवेदनात्मक धरातल पर दोनों में कोई अंतर नहीं. शेष अगले अंकों में