31 दिसंबर 2011

जब तुझे रुकना ही नहीं है तो

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समयसोचता हूँ तू किसी दिन अगर ठहर जाता तो मेरी सांसों का यह सफ़र भी थोड़ी देर के लिए विश्राम पाता और मैं करता तुझसे बातें तेरे साथ बिताये लम्हों कीऔर उस वक़्त मुझे लगता तू कहीं नहीं है और मैं भी कहीं नहीं. हम दोनों की एकात्मकता यह स्थापित करती कि जीवन और जगत संचालित हैं किसी अदृश्य सत्ता सेऔर वह अदृश्य सत्ता हम दोनों को बतला रही है जीवन के मायनें. तुम हमेशा उस अदृश्य सत्ता से निभा जाते होलेकिन मैं हमेशा तेरे अच्छे होने का इन्तजार करता रहता. तू अच्छा कब है और कब बुरा यह आज तक कोई नहीं जान पाया. लेकिन इस बात को सभी स्वीकार करते हैं कि वक़्त बड़ा बलवान होता है’. कई बार इस बात को सुनकर मेरे मन में भ्रम भी हुआलेकिन सच्चाई यही है. अब मैं भी यही मानता हूँ और आज तेरे सामने नतमस्तक हूँ. तुझे एक सीमा में बांधकर विदा करने के लिए. हालाँकि जो पैमाना हमने तुझे विदा करने के लिए तय किया है वह तो प्रकृति का बदलाब हैऋतुओं का रूपांतरण है और उस प्राकृतिक बदलाब में हमनें तुझे भी शामिल किया. चलो आज मानते हैं कि एक साल के रूप में तू हमसे विदा हो रहा है. लेकिन सच यह है कि यह सब सोच है और किसी हद तक यह सोच प्रासंगिक भी. ना जाने कब से यह सब चल रहा है और ना जाने कब तक चलता रहेगामेरी साँसों का सफ़र जब तक इस रूप में तेरे साथ है तब तक तो है हीऔर ना जाने कितने रूपों में रहा हैऔर ना जाने कब तक रहेगा. खैर बहुत हो चुकी बातें तुमसे और जितनी करूँगा काम तो आने वाली नहीं. जब तुझे रुकना ही नहीं है तो  मैं कैसे कहूँ कि तू ठहर जा.
याद आएगा तू मुझे  2011 के रूप में सांसों के अंतिम सफ़र तकजीवन की नियति तक. क्योँकि तुझसे बहुत अच्छी यादें जुडी हैं  मेरी वर्ष 2011 के रूप में. पता ही नहीं चला कि तू जीवन से कब जुदा हो गया. लेकिन जब पीछे मुड़कर देखा तो सच में तू मुझसे जुदा हो रहा है. अहसास हुआ मुझे आज तेरे होने काबहुत कुछ खोने और उससे ज्यादा कहीं पाने का. क्या-क्या नहीं दिया तूने मुझे पूरे   दिनों  मेंयह सब सोच कर रोमांचित हो रहा हूँ मैं और आने वाले वर्षों में जीवन जीने की प्रेरणा ले रहा हूँहालाँकि यह भी सच है कि जीवन और साँसों का सफ़र अनिश्चित हैलेकिन यह भी सही है कि साँसों के सफ़र के साथ ही जीवन का सफ़र भी जुड़ा रहेगा. बस यह बात अच्छी तरह से मेरे जहन में रहनी चाहिएफिर मैं किसी भी हालत में तुझे विस्मृत नहीं कर पाऊंगा और अगर मैंने तुझे कभी विस्मृत नहीं किया तो यह निश्चित है कि मेरे जीवन की सार्थकता किसी न किसी तरीके से सिद्ध ही हो जाएगी. क्योँकि मैंने जीवन में सफल लोगों से यही सुना है कि वक़्त की कद्र करोऔर यह भी सुना है कि जो वक़्त की कद्र करता है वक़्त उसकी कद्र करता हैइसलिए मुझे हमेशा तेरी कद्र का भान रहे . फिर भी वर्ष 2011 के रूप में तुझे अच्छी यादों के साथ विदा कर रहा हूँअब हम फिर वहीँ से शुरू करेंगे जहाँ से हमने तेरा साथ लिया थाजब तू आया था तो हमने खूब मस्ती की थी और तेरा स्वागत किया था हमने एक जनवरी 2011 के रूप में. आज फिर एक जनवरी है और उसे हम 2012 कहेंगे और सोचेंगे कि नया साल आया है और यह प्रक्रिया अनवरत चल रही है और चलती रहेगी. हम जीवन को एक प्रक्रिया के तहत जीते हैं और वह प्रक्रिया दिन, महीनों और सालों के रूप में हमारे जीवन में घटित होती है. 
खैर अब समय तू वर्ष 2012 के रूप में हमारे सामने हैं. हर किसी की जिन्दगी का अपना मकसद है और हर कोई जीवन को सफल बनाने में लगा है. इसलिए जब तू 2012 के रूप में हम सबके साथ है तो कामना यही है कि हर किसी को सुमति प्राप्त हो और हर कोई संकीर्णताओं से उपर उठकर देशसमाज और मानवता के लिए कार्य करे. आज जो रूप मानव का हमारे सामने है उससे हमें राहत मिले. देश और दुनिया में जो अशांति फैली हुई है वह जितनी जल्दी हो सके समाप्त हो और इस सुंदर सी धरती का वातावरण और सुंदर हो जाए. पूरी कायनात खुदा का कुनबा है और इस में रहने वाला हर एक प्राणी खुदा की खुबसूरत कृति है. ऐसा वातावरण बने कि हम इस पूरी कायनात से प्रेम कर सकें. हमारी शुभकामनाएं तभी असर करेंगी जब हमारा आचरण और कर्म सही होगा. इसलिए खुद के जीवन और चरित्र को विश्लेषित करने का भी एक अवसर तू हमें प्रदान कर रहा है और हम ऐसा कर पायें. जब धरती पर सभी मानवीय मूल्यों को धारण कर जीवन जीयेंगे तब हमारा अपना जीवन तो सार्थक होगा ही औरों के लिए भी हम प्रेरणा और सुख का कारण बनेंगे. इसी कामना के साथ आप सभी को नववर्ष 2012 की हार्दिक शुभकामनाएं. ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आने वाला वर्ष हम सब की जिन्दगी में ढेर सारे सुखद अहसास लाये और हम सबका जीवन खुशियों से सराबोर हो. इन्हीं कामनाओं के साथवर्ष 2012  तेरा स्वागत है.

06 दिसंबर 2011

चतुर्वर्ग फल प्राप्ति और वर्तमान मानव जीवन...3

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गत अंक से आगे....हमारी तृष्णा जीर्ण नहीं हो रही है बल्कि हम ही जीर्ण होते जा रहे हैं. लेकिन मानवीय स्वभाव है कि वह इस बात को महसूस ही नहीं कर पाता और जीवन भर अपने मन की इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए तरसता रहता है. मानव को पहले तो अपनी इच्छा और आवश्यकता में अंतर महसूस होना चाहिएकि उसकी इच्छा क्या हैऔर आवश्यकता क्या हैआवश्यकता की पूर्ति के लिए दिन रात प्रयास जरुरी हैंलेकिन इच्छा?? यह किसी भी स्तर पर पूरी होने वाली नहीं है यह तो बढती ही जाती है और एक दिन ऐसा होता है जब हम इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने जीवन से भी हाथ धो बैठते हैं. अर्थ तो हमारे जीवन का आधार है, लेकिन उसी सीमा तक जहाँ तक वह हमारे लिए सुखदायी है. वर्ना अर्थ-अनर्थ करने में देर नहीं लगाताकबीर साहब ने सुन्दर शब्दों में कहा है ‘माया महाठगिनी हम जानीतिरगुन फांसी लिए बोले माधुरी वानी’ लेकिन यहाँ ‘माया’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अर्थ बेशक हमारे जीवन का आधार है लेकिन सिर्फ उसी सीमा तक जहाँ तक वह हमारी मानसिक शान्ति में बाधक नहीं बनता. इसलिए हमारे संत यही कहते हैं कि साईं इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय’ और यही अर्थ का सही मंतव्य है. नहीं तो अनुभव के आधार पर सिकंदर ने भी कहा था कि ‘मेरे दोनों हाथ मेरी अर्थी से बाहर रखें जाएँ, ताकि दुनिया यह जान सके कि विश्व विजेता सिकंदर आज खाली हाथ जा रहा है’. तो यह है अर्थ??? बाकी मंतव्य अपना-अपना सोच अपनी-अपनी.
जीवन के चतुर्वर्ग में काम को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. हमारे जीवन दर्शन में काम की महता का वर्णन बहुत व्यापक तरीके से किया गया है. अगर इसे जीवन सम्बन्धों और सृष्टि का आधार कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आचार्य चाणक्य ने ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र  में धर्मअर्थ और काम का स्मरण इन शब्दों में किया है ‘धर्मार्थकामेभ्यो नमः’ (1) अर्थात मैं धर्मअर्थ और काम को नमस्कार करता हूँ. काम क्या हैयह एक विचारणीय प्रश्न हैआज तक इस बात पर गहनता से विचार होता आया है. आचार्य वात्सयायन को काम विषयक ग्रन्थ की रचना के कारण संसार में बहुत ख्याति प्राप्त हैअपने ग्रन्थ कामसूत्र के विषय में वह कहते हैं:
   रक्षन्धर्मार्थकामानां स्थितिं स्वां लोकवर्तिनीम।    
अस्य शास्त्रस्य तत्वज्ञो भवत्येव जितेन्द्रियः।।
इस शास्त्र के अनुसार काम तत्व का ज्ञाता व्यक्ति धर्मअर्थकाम और लोकाचार को जानने वाला बनता है तथा अपनी इन्द्रियों पर संयम प्राप्त कर लेता है. इस शास्त्र को जानने वाला कभी व्यभिचारी नहीं हो सकता. यह सही मन्तव्य है उनके ग्रन्थ का लेकिन हम कितना समझ पाए हैं उनके मंतव्य को? भारतीय मनीषयों ने काम को एक महती शक्ति के रूप में माना है जो दो रूपों में प्रकट होती है पहली बाह्य रूप में ‘भौतिक कार्यों के रूप में प्रकट होने वाली’ और दूसरी ‘आन्तरिक रूप में अंतःकरण की क्रियाओं द्वारा प्रकट होने वाली चैतन्य शक्ति’. अथर्ववेद में काम को सर्वप्रथम देवोंपितरों तथा मनुष्यों से पूर्व उत्पन्न होने वाला माना गया है. ‘कामस्तदग्रे समवर्तत’ (1) काम वास्तव में चितयंत्र को चलाने वाली मन की अद्भुत शक्ति है और जो व्यक्ति इसे सही परिप्रेक्ष्य में जीता है. वह वास्तव में जीवन की सार्थकता सिद्ध कर लेता है. लेकिन दिन रात काम विषयक चिंतन करने वाला व्यक्ति कभी भी जीवन में सफल नहीं हो सकता. ऋषियों ने हजारों वर्षों के बाद काम विषयक चिंतन करने वाले व्यक्तियों के लिए यह निष्कर्ष निकाला कि ‘न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति अर्थात यदि वर्षों तक काम का उपभोग किया जाए तो भी काम शांत नहीं होता. अग्नि में आहुति डालने से वह बुझती तो नहीं किन्तु अधिकाधिक प्रज्वलित जरुर होती है. इसलिए काम का चिंतन और उसकी तरफ प्रवृत रहने वाला हमेशा अधोगति को प्राप्त होता है. हालाँकि यह भी एक अनुभूत सत्य है कि काम का आनंद ब्रह्म आनंद के सामान हैबेशक क्षणिक ही सही लेकिन आनंद तो प्राप्त होता ही है. लेकिन यह आनंद तब ही प्राप्त होता है जब दो विपरीत लिंगी मनवचनभावना और शरीर से एक दुसरे को समर्पित होते हैं. काम का मंतव्य सृष्टि का निर्माण है ना कि भोग. भोग और वासना के रूप में काम जीवन के लिए कष्टकारी है. यानि इसके परिणाम बेहतर नहीं हैऔर जीवन और सृष्टि के आधार के रूप में काम से बढकर कोई आनंद नहीं है. 
लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो स्थिति बहुत दयनीय है. आये दिन मानव की करतूतों का जिक्र होता रहता है. एक बात तो हम समझ लें कि जो मनुष्य जीवन की मूल इन्द्रियों को दबाने का ढोंग करता है उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता. हाँ उन पर नियंत्रण जरुर किया जा सकता है और यह आवशयक भी है. हम सांस लेना कैसे छोड़ सकते हैं? फूलों को देखकर किसका मन हर्षित नहीं होता. इसलिए किसी नर-नारी के एक दूसरे के आमने-सामने आने पर आकर्षण स्वाभाविक है और यह प्राकृतिक प्रक्रिया है. हमें जीवन सन्दर्भों को सही परिप्रेक्ष्य में समझने की आवशयकता है और जो जीवन का आधार हैं, उसे सही ढंग से क्रियान्वित करने की जरुरत है. यही काम की महता है.
मोक्ष के विषय में क्या कहूँ? यहाँ इतने विचारइतनी मान्यताएं है कि किसी का भी अंत नहीं है. लेकिन जहाँ तक मैंने अनुभव किया है मोक्ष जीवन की सहजता का नाम है. हम मोक्ष को जीवन से परे मानते हैं. लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है. जीव शरीर में रहते हुए ही मोक्ष का अनुभव कर सकता हैजीवन से परे नहींजीवन रहते हुए हम ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं, जीवन के बाद नहींतो फिर हम कैसे कहते हैं कि जीवन के बाद मोक्ष है. गीता में स्पष्ट उल्लेख है कि:
      वासांसि जीर्णानि यथा विहायनवानि गृह्णाति नरो ऽपराणि।             
         तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।  (2/22/72) 
अर्थात जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता हैउसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करती है. इससे यह स्पष्ट होता है कि एक शरीर को छोड़ने के बाद आत्मा नया शरीर धारण करती है. यह उल्लेख लगभग सभी धर्म ग्रंथों में मिल जाता है, और हमें इस बात को भी समझ लेना चाहिए कि जीवन से परे मोक्ष नहीं है और मोक्ष का मतलब है, आवागमन के चक्कर से मुक्त होना और आवागमन के चक्कर से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है?? यह विचारणीय है. जब तक आत्मा शरीरों में है तब तक वह बंधन में है और जैसे ही शरीरों का बंधन टूटा आत्मा की मुक्ति हुईलेकिन आत्मा जब तक परमात्मा में विलीन नहीं हुई तब तक मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकती. इसलिए इस जीवन का लक्ष्य अगर कहीं बताया गया है तो वह है परमात्मा की प्राप्ति करते हुए आत्मा की मुक्ति. उसे बंधन रहित करना है, जैसे ही आत्मा के बंधन कटे उसे मोक्ष मिल गया.
लेकिन आज यह धारणा भी कहीं पर बदलती जा रही हैहम धर्म और अध्यात्म को ही नहीं समझ पाए. पूजा और कर्मकांड में अंतर नहीं कर पाए और जीवन को बिना लक्ष्य के जी रहे हैं. हमें गहरे आत्मविश्लेषण की आवश्यकता है, और जब हम सभी मंतव्यों को सामने रखकर जीवन जीयेंगे तो निश्चित रूप से इनसान खुदा का प्रतिबिम्ब तो है ही उसमें वह गुण भी प्रकट हो जायेंगे और इस सुन्दर सी धरती पर रहने वाला खुदा का रूप इनसान खुद खुदा से कम नहीं होगा. किसी शायर ने भी क्या खूब कहा है:
                                           आदम खुदा नहीं,
                                           लेकिन खुदा के नूर से आदम जुदा नहीं।
आज जरूरत है खुद को पहचानने कीहमारे सामने जो हमारे जीवन के मानक है उन्हें क्रियान्वित करने की. हालंकि ऐसे विषयों पर चिरकाल से लिखा जाता रहा है और जितना लिखेंगे यह विस्तृत होता जाएगा. लेकिन अब यह विषय समाप्त. फिर कभी किसी रूप में चर्चा करेंगे. प्रेरक प्रतिक्रियाओं के लिए आपका आभार. 

27 नवंबर 2011

चतुर्वर्ग फल प्राप्ति और वर्तमान मानव जीवन...2

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गत अंक से आगे.... भारतीय जीवन सन्दर्भों को जब हम गहराई से विश्लेशित करते हैं तो हम पाते हैं कि यहाँ जीवन के विषय में बहुत व्यापक और गहन विचार किया गया है. जीवन की सार्थकता को निर्धारित करने के लिए वर्षों से ऋषि मुनियों ने गहन चिन्तन किया और जो भी निष्कर्ष निकला उसे सभी के साथ साँझा किया और भी उसी आधार पर अपनी धारणा समाज के सामने रखी. चिरकाल में उसने सिद्धांत का रूप ले लिया और सिद्धांत में फिर समय और स्थिति के अनुरूप आंशिक परिवर्तन तो हो सकते हैं, लेकिन सिद्धांत पूरी तरह से नहीं बदल सकता. चतुर्वर्ग फल प्राप्ति के विषय में यह बात सटीक बैठती है. हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि विश्व का कोई भी देश ऐसा नहीं जहाँ मानवीय मूल्य निर्धारित ना किये गए होंजीवन का कोई लक्ष्य ना निर्धारित किया गया हो. अब हमें देखना है कि जिस चतुर्वर्ग (धर्मअर्थकाम और मोक्ष) को यहाँ जीवन का साध्य माना गया हैउन चतुर्वर्ग की क्या प्रासंगिकता है.
सबसे पहले आता है धर्मधर्म क्या है? इसका आधार क्या हैधर्म मानव को जीवन जीने की शिक्षा देता है. यब बात स्वीकार्य है. धर्म की परिभाषा को लेकर बहुत समय से चिन्तन किया जाता रहा है. समय और स्थिति के अनुसार जिसे जो सही लगा उसने वह अभिव्यक्त कर दिया. लेकिन फिर भी एक बात तो स्वीकार्य है कि धर्म का मूल भाव व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाना है. उसे क्या करना हैक्या नहीं? इन सब बातों का विषद विवेचन धार्मिक ग्रंथों में हुआ है. आज जिन्हें हम धर्म कहते हैं वास्तविकता में वह धर्म नहीं वह तो जीवन जीने की पद्धतियाँ हैंवह वास्तविकता में एक विचार है और जब बहुत से लोगों ने उस विचार का अनुसरण करना शुरू कर दिया और वह विचार पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के मार्गदर्शन का कारण बनता रहा तो वह विचारधारा हो गया. विचार एक व्यक्ति का हो सकता है और जब उसी विचार को बहुत से लोगों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाया जाता है तो वह विचारधारा कहलाती है. यही कुछ जिन्हें आज हम धर्म कहते हैं उनकी स्थिति भी है. जहाँ तक ज्ञात है ‘सनातन धर्म’ को सबसे प्राचीन धर्म कहा जाता है. थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि सनातन धर्म विश्व का सबसे प्राचीन धर्म है. लेकिन अगर सनातन शब्द को देखें तो सना+तन सना मतलब सटा हुआबिलकुल पासबहुत नजदीकजितना समझ सकते हैं उतनाजितना महसूस कर सकते हैं उतना. यानि जो सना हुआ है जो हमारे सबसे नजदीक हैऔर तन का मतलब शरीर यानि सनातन वह हुआ और शरीर के सबसे नजदीक है और वह है ईश्वर. यानि ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला सनातनी हुआजिसने सनातन को स्वीकार कर लिया जिसने जीवन जीने की इस पद्धति को अपना लियाजो ईश्वर को हाजिर-नाजर कर अपने जीवन को जीना चाहता है. वह सनातनी हुआऔर उसके द्वारा अपनाया जाने वाला धर्म हुआ है सनातनजो सदा रहने वाला हैजो कभी परिवर्तित होने वाला नहीं है. दूसरे शब्दों वही सनातन है. इसलिए सनातन धर्म सबसे पुराना धर्म हुआऔर इसे हमें पुराना नहीं बल्कि पहला धर्म कहना चाहिएदुसरे शब्दों में इस यूँ भी कहा जा सकता है कि जो ईश्वरीय नियमों के अनुकूल जीवन जीता है वह सनातनी हुआ क्योंकि वह ईश्वर को अंग-संग महसूस करते हुए जीवन को जी रहा है. उसके सामने जीवन का कोई भ्रम नहीं. कोई दुविधा नहीं अगर कुछ है तो वह है ईश्वर की सत्ता और यह ईश्वर सत्ता उसे जीवन दर्शन देती है. जीवन को जीने की प्रेरणा देती है.
धर्म का मूल भाव तो यह है इनसान को जीवन जीने की समझ देना. लेकिन आज हमारे सामने ना जाने कितने धर्म हैं, कितने दर्शन हैं. किसी परिप्रेक्ष्य में अगर हम दखें तो यह सही भी लगता है लेकिन जहाँ पर हमारे जहन में संकीर्णताएं पैदा हो जाती हैं तो वहां धर्म-धर्म नहीं रह जाता वह बन्धन बन जाता है, और बन्धनों में जकड़ा हुआ इनसान फिर क्या प्रगति करेगा और क्या सोचेगायह विचारणीय प्रश्न है.
अब बात आती है अर्थ की: अर्थ से अभिप्राय है धनअजीविका-जीवन जीने का साधन. तन के सुख के लिए जिस माध्यम से हम धन अर्जित करते हैं वह है हमारा कर्म. हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही हम पाते भी हैं. अर्थ का प्रयोजन सिर्फ जीवन जीने की सुविधा है. जिस कर्म को करने से हमारे जीने की जरूरतें पूरी हो जाएँ उतने तक ही वह सही है. हमारे देश में यह परिकल्पना की गयी है कि ‘मैं भी भूखा ना रहूँसाधू भी भूखा ना जाये’, बस यहाँ तक ही धन की प्रासंगिकता है. अपने से पहले अपने अतिथि के बारे में सोचना. खुद से पहले किसी दुसरे को तरजीह देना यह अर्थ का उद्देश्य बताया गया है. अर्थ किस तरह अर्जित किया जाए यह भी बहुत विचार हुआ है यहाँ. अर्थ की क्या महता है.कौन-कौन सी चीजें अर्थ के तहत आती हैं और कौन सी नहीं यह सब बखूबी अभिव्यक्त हुआ है. हालाँकि पैस के प्रचलन से पहले यहाँ वस्तु के बदले वस्तु का सिद्धांत प्रचलित था वैसी स्थिति में व्यक्ति की निर्भरता व्यक्ति पर अधिक थी और समाज के ज्यादा एक दुसरे पर आश्रित थे. उस स्थिति में धन नहीं वस्तु मायने रखती थी और वस्तु के बदले वस्तु दी जाती थी तो गुणवता बनी रहती थी.
लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य को देखें तो सब कुछ उल्टा -पुल्टा नजर आता है. आज तो स्थिति यह हो गयी है कि हमारे पास धन आये चाहे हमें उसके लिए किसी भी हद तक गिरना पड़े. हमें अपनी अस्मिता से समझौता करना पड़ेऐसा परिद्रश्य आज हमारे सामने है. जहाँ तक व्यक्ति को धन की जरुरत जीवन जीने के लिए थी लेकिन आज वह अपनी लालसाओं की पूर्ति के लिए धन का उपयोग कर रहा है और इस बात को भूल गया है कि ‘तृष्णा ना जीर्णःवयमेव जीर्णः’ शेष अगले अंक में....!!! 

22 नवंबर 2011

मृत्यु से पहले

53 टिप्‍पणियां:
कुछ आवश्यक कारणों से  " चतुर्वर्ग फल प्राप्ति और वर्तमान मानव जीवन " वाली  इस पोस्ट का अगला भाग पोस्ट नहीं कर सका हूँ ....आप सबसे क्षमा याचना सहित यह कविता पोस्ट कर रहा हूँ ......!


मनुष्य जो मुक्ति की,
सुख,शांति की चाह रखता है
उसे मौत से डर लगता है?
मन और बुद्धि
आत्मा से अलग नहीं...!
योग्यताएं है आत्मा की
और इस देह का भान
अर्थात देहाभिमान...!

काम, क्रोध,
लोभ, मोह, अहंकार
विकार हैं इस देह के
तो जब तक हम
स्वयं को
देह की बजाय
आत्मा नहीं मानते
छूट नहीं सकते
ये विकार ...!

तो त्याग कर इन विकारों को
और तोड़कर
इस देहाभिमान को
जी लो कुछ क्षण
मृत्यु से पहले........!                                                  

07 नवंबर 2011

चतुर्वर्ग फल प्राप्ति और वर्तमान मानव जीवन...1

32 टिप्‍पणियां:
जीवन की नियति और परिणति क्या है,  इस बात से सभी भली भांति अवगत हैं. लेकिन फिर भी हम सब कुछ जानते हुए अनजान बने रहते हैं. सब कुछ हमारे सामने घटित होता है.  फिर भी हम मूकदर्शक की भूमिका निभाते हैं. हमारे सामने ना जाने कितने ऐसे अवसर आते हैं जब हम जीवन और इसकी महता को नजर अंदाज करते हैंऔर बहुत कम बार ऐसा होता है कि हम जीवन को महता दें और फिर कोई निर्णय लेंजहाँ तक मानव जीवन का सम्बन्ध है, उसे परमात्मा ने चेतना बख्शी है. उसके जीवन का लक्ष्य निर्धारित किया है. लेकिन इनसान है कि वह सबसे पहले तो भौतिकता में रमना चाहते हैं. खूब सारा यश अर्जित करना चाहते हैंधन-दौलतमहल-माड़ियांकुटुम्ब-कबीला न जाने कितने भ्रम हमारे सामने हैं. हालाँकि यह भी हमारे जीवन के साथ गहरा ताल्लुक रखते हैं, और इन सभी का सृजन मानव ने अपने आपको सुखी करने के लिए किया है. लेकिन जब अपने वास्तविक लक्ष्य को भुला दिया जाता है और सब कुछ अर्जित किया जाता है तो फिर क्या उसे हम समझदारी कहेंगे?
किसी से पूछो कि आपके जीवन का लक्ष्य क्या हैआप जीवन में क्या हासिल करना चाहते हैंकभी आपने यह सोचा कि आपको यह जीवन क्योँ मिला हैतो हर व्यक्ति का जबाब अलग-अलग होता है. ऐसा जबाब सुनकर कभी मन हर्षित हो जाता है तो कभी निराशा हाथ लगती है और फिर सहज ही ध्यान जाता है, हमारे पास उपलब्ध जो धर्म ग्रन्थ है, उनकी तरफ या फिर संतों की जो रचनाएं और उनमें वर्णित जो जीवन दर्शन हमारे पास है उनमें हम जीवन का सार ढूंढते हैं. लेकिन फिर भी हमारी समस्या का समाधान नहीं होता, वह वैसी की वैसी बनी रहती है और हमारा जीवन सफ़र चलता रहता है. ना जाने कब से हम इस विचार को अपने मन में धारण करते आये हैं कि इस जीवन का कुछ तो लक्ष्य है. लेकिन फिर भी हमारा अनजान बना रहना कष्ट का कारण बनता है हमारे लिएजबकि हमारे धर्म ग्रन्थ हमें बार-बार चेतन करते हैं कि ‘मानुष जन्म दुर्लभ हैहोत ना बारम्बार’ जो है ही दुर्लभजो फिर दुबारा नहीं हो सकता जिसकी प्राप्ति सौभाग्य से हुई है हम ऐसे जीवन का लक्ष्य क्या निर्धारित करें? यह यक्ष प्रश्न हमें बैचेन करता रहता है. जिनकी बैचेनी बढ़ जाती है वह तो इसका हल तलाशने की कोशिश करते हैं, और जो इस बैचेनी को महसूस नहीं कर पाते वह गुमनाम जीवन जी कर काल का ग्रास बनते हैं. जन्म तो लिया था आत्मा का मिलन परमात्मा से हो इसके लिएआवागमन के चक्कर से मुक्ति मिले इसके लिएलेकिन हुआ इसके विपरीत ‘ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम’ ना संसार में सही ढंग से जी सके और ना कुछ कर सके. ‘ना माया मिली ना राम’ और बिना कुछ किये पहुंच गए शमशान. जीवन को जब गहराई से सोचा जाता है तो इसकी महता का पता चलता है. लेकिन हमारे पास ऐसा अवसर कम ही बन पाता है जब हम गहराई से इसके बारे में सोचें. लेकिन हमारे धर्म-ग्रन्थऋषि-मुनिहमेशा जीवन की वास्तविकता को समझने की कोशिश करते रहेऔर जो कुछ उन्होंने अनुभूत किया उसे हम सभी के साथ सांझा करने का प्रयत्न करते रहे. आज भी उनके द्वारा रचे गए ग्रन्थ हमारा मार्गदर्शन करते हैं.
हमारे धर्म ग्रंथों में जीवन का लक्ष्य चतुर्वर्ग फल प्राप्ति बताया है और वह चतुर्वर्ग हैं, धर्मअर्थकाममोक्ष. यहाँ तक कि हमारे साहित्य शास्त्रियों ने भी जब साहित्य के प्रयोजन पर विचार किया तो उन्होंने ने भी इस चतुर्वर्ग फल प्राप्ति को साहित्य का प्रयोजन निर्धारित किया. अलंकार सिद्धांत के उदभावक आचार्य भामह का कथन ध्यान देने योग्य है:-
धर्मार्थकाममोक्षाणां वैचक्ष्व्यं कलासु च.
प्रीतिं करोति कीर्ति च साधुकाव्यनिबन्धनम्.
हमारे साहित्य में जीवन सन्दर्भों को बखूबी उद्घाटित किया गया है. पहले तो जीवन को चार भागों में बांटा गया (ब्रह्मचर्यगृहस्थवानप्रस्थ और संन्यासऔर उन्हें जीवन की चार अवस्थाएं भी कहा जाता है. जीवन की चार अवस्थाएं और जीवन के चार पुरुषार्थ (धर्मअर्थकाममोक्ष) कुल मिलाकर जीवन को अपने लक्ष्य की तरफ जन्म से ही अग्रसर रखते हैं. लेकिन मनुष्य फिर भी ध्यान नहीं दे पाता. सब कुछ व्यवस्थित होते हुए भी वह अव्यवस्था का शिकार बना रहता है. सब कुछ स्पष्ट होते हुए भी वह भ्रम में रहता है. इसे हम क्या कहेंमानव की नादानी या फिरमानव की अज्ञानता? कारण कुछ भी हो हमें जीवन सन्दर्भों की तरफ अपन ध्यान लगाना चाहिए. हम जीवन को जितना समझने की कोशिश करेंगे उतनी ही हमें इसकी महता का अहसास होगा. शेष अगले अंक में........!

28 अक्तूबर 2011

मोहब्बत और जुदाई

54 टिप्‍पणियां:
याद 
जब मोहब्बत की
दिल को सोंप दिया तुम्हें , सहज ही
और तब तुमने कहा ......
"बहुत याद आते हो तुम"
एक अजीब सा अहसास हुआ
आज जब जिन्दगी वीरान हो गयी
तुम्हारी याद तडपाती है
तुम तो हमेशा याद  रहते हो
लेकिन ...........!
एक अरसा हो गया
खुद को याद किये .
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx

जुदाई 

हम और तुम
जब बंध रहे थे
जीवन के उस अप्रतिम रिश्ते में
किसने तोड़ी  वह डोर ??
जिससे हम और तुम बंधे थे
अब जुदा हैं.....
साथ होते हुए भी 
xxxxxxxxxxxxxxxx

 मोहब्बत

तन्हाई में 
या भीड़ में
तुम यह ख्याल रखना
जब भी तुम्हारे हांथों की
खनकेगी वह कांच की चूड़ियाँ
समझ लेना
आज भी ...........
बेपनाह मोहब्बत है दिल में
तुम्हारे लिए .