25 अक्तूबर 2012

पुतले और वास्तविकता

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यह संसार एक मेला है , यहाँ जो भी आता है अपना समय बिता कर चला जाता है आने - जाने का यह क्रम आदि काल से चला आ रहा है . पूरी कायनात को जब हम देखते हैं तो यह ही महसूस होता है कि इस जहां में कुछ भी नित्य नहीं है , शाश्वत नहीं है . अगर कहीं  कुछ शाश्वत है तो उसे हम ईश्वर की संज्ञा से अभिहित करते हैं . जो नित्य रहने वाला है , तीनो कालों में जो एक जैसा है , जिस पर किसी का भी प्रभाव नहीं होता , जिसकी सत्ता जड़ और चेतन दोनों में समायी है , जो सदा एक रस रहने वाला है , ऐसी ना जाने कितनी उपमाएं इस शाश्वत सत्ता के साथ जोड़ी जाती हैं और यह क्रम अनवरत रूप से इस संसार में चला रहता है . विश्व का कोई भी देश हो किसी न किसी रूप में वहां की जनता इस अदृश्य सत्ता के प्रति नतमस्तक रहती है , और उसी को जीवन का आधार मानती है . जहाँ तक भारतवर्ष  का सम्बन्ध है यह तो सृष्टि के प्रारंभ से ही ऋषि मुनियों की धरती रहा है   सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञानसे आलोकित करने वाले देश के रूप में इसे ख्याति प्राप्त है . लेकिन परिवर्तन की मार इस पर भी पड़ी है और यह भी प्रकृति के कोप आधार बनता रहा है . कभी मनुष्य के कारण तो कभी प्रकृति के कारण, फिर भी इस देश की सभ्यता और संस्कृति आज तक पूरे विश्व के लोगों का पथ प्रदर्शन करती रही है और आने वाले समय में ??? इस देश की अगर यही हालत रही तो इस देश की सभ्यता और संस्कृति पर कई तरह के प्रश्नचिन्ह खड़े हो सकते हैं और आज जो हम अपने अतीत की दुहाई देते फिरते हैं वह भी हमसे नहीं हो पायेगा . तब  हम मात्र राम - रावण करते रह जायेंगे और , पुतलों के जलने की ख़ुशी में अपने जीवन के महत्वपूर्ण पलों को गवां देंगे , और इस धुन में यह भी भूल जायेंगे कि हम भी पुतले हैं और संभवतः पुतलों का कोई संसार नहीं होता , कोई अस्तित्व नहीं होता .  

आजकल पुतला जलाना एक प्रथा बन चुका है .जब भी कोई किसी नियम को तोड़ता है , या मानवीय  भावनाओं के खिलाफ कोई व्यक्ति कार्य करता है तो हम उसका पुतला जलाते हैं . लेकिन उस पुतला जलाने का किसी पर क्या असर होता है , यह मेरी समझ से बाहर है . पुतला जला लेने के बाद मैंने आज तक किसी के जीवन और चरित्र को बदलते हुए नहीं देखा और जो लोग पुतला जलाने में शामिल होते हैं संभवतः किसी न किसी तरह से वह भी उस व्यवस्था का हिस्सा होते हैं . ऐसी स्थिति में पुतला जलाना मात्र मनोरंजन ही होता है , और आज तक मैं यही देखता आया हूँ . लेकिन बड़ी गंभीरता से सोचता हूँ तो पुतला जलाने का आशय तो कुछ और है और जिस उद्देश्य से हम पुतला जला रहे हैं वह कुछ और है , यहाँ पर पुतला जलाना हमारे सामने एक विरोधाभास पैदा करता है , लेकिन हमारे पास कोई अवकाश नहीं कि हम उस विरोधाभास को दूर कर सकें और सही और वास्तविक परिप्रेक्ष्यों में इन चीजों को देख सकें . आज हमारे सामने जो स्थितियां हैं उनके मद्देनजर हमें सभी चीजों के वास्तविक मूल्यों को टटोलने की जरुरत है . उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक महता को समझने की हमें महती आवश्यकता है , जो आशय इन सभी परम्पराओं और मान्यताओं का है उसी सही परिप्रेश्य में उद्घाटित करने की जिम्मेवारी हमारी ही है और संभवतः हम उस जिम्मेवारी का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर रहे हैं , जो आने वाली पीढ़ियों के लिए बड़ा खतरनाक साबित होगा . 

राम और रावण धर्म और अधर्म के प्रतीक नहीं , बल्कि धर्म और प्रतिधर्म के प्रतीक हैं . राम बेशक हमारी आस्था के केंद्रबिंदु हैं , जीवन की प्रेरणा के स्रोत हैं , मानवीय मूल्यों के रक्षक हैं और भी ना जाने क्या - क्या ? लेकिन रावण ? ? इसका तो नाम लेना भी हम बड़ा कष्टकारी समझते हैं . रावण के लिए हमारे जहन में सम्मान नहीं , अपमान है . वह निकृष्ट है , दुराचारी है , व्यभिचारी है . यह रावण के जीवन का एक पहलू है . लेकिन इसके अलावा रावण हमारे सामने क्या है ? यह सोचने का विषय है . अगर हम राम को ईश्वर का रूप या ईश्वर ही कह दें तो भी इस बात पर गहनता से विचार करना होगा कि रावण में ऐसी क्या अद्भुत बात थी जिसे मारने के लिए ईश्वर को इस संसार में अवतार लेना पड़ा .  इतिहास के गर्भ में हमें इस प्रश्न का उत्तर जरुर खोजना चाहिए . राम और रावण को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में हम शायद नहीं देख पाए . हमारी एकांगी दृष्टि और सोच ने राम और रावण दोनों के व्यक्तित्वों को समझने का अवसर नहीं दिया . आज जिस रूप में राम और रावण हमारे सामने हैं , उससे तो यही लगता है कि हम इन दोनों के जीवन मकसद को सही परिप्रेक्ष्यों में नहीं समझ पाए . 

आज जिस रूप में राम और रावण हमारे सामने हैं . वह काव्य की कल्पना के आधार पर हैं , इतिहास के आधार पर नहीं ,और शायद यही भूल हम आज तक करते आये हैं . इतिहास के आधार पर हमने इनके व्यक्तित्वों का विश्लेषण किया ही नहीं और न ही करने की जरुरत समझी . भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनेकों पक्ष हैं जो राम और रावण के माध्यम से अभिव्यक्त हुए हैं . उस काल की स्थितियां और परिवेश भी कई रोचक जानकारियों से भरा रहा है . यह भी इन दोनों के  माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है  .   हम तकनीकी रूप से कितने सक्षम थे, इस बात का अंदाजा भी हमें इस काल के इतिहास को देखने से पता चल सकेगा  और कई ऐसे अनछुए पहलू हैं जो मात्र राम और रावण के माध्यम से ही हमारे सामने आ पायेंगे , लेकिन इसके लिए हमें अपनी एकांगी दृष्टि , कपोल कल्पना को छोड़कर इतिहास के गर्भ में झांकना होगा और मंथन करने पर जो कुछ हमें हासिल होगा, उसे समाज के साथ सांझा करना होगा . राम और रावण मात्र पुतलों का खेल नहीं, यह जीवन की विविध संस्कृतियों को समझने जैसा है , जीवन को वास्तविकता से जोड़ने जैसा है .

12 अक्तूबर 2012

साँसों के सफ़र का उत्सव

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भारतीय संस्कृति में उत्सव का बड़ा महत्व है. उत्सव शब्द सुनते ही हमारे जहन में एक रोमांच सा भर जाता हैमन ख़ुशी की कल्पना से झूम उठता हैऔर ऐसा लगने लगता है जैसे सारा वातावरण खुशियों से सराबोर होउत्सव मात्र हंसी-ख़ुशीनाच-गान या खेल का नहीं होताउत्सव तो जीवन की नैसर्गिकता का होता हैजहाँ हम साकार और निराकार को इकमिक महसूस करते हैं. वास्तविकता में उत्सव अपने में एक बृहत् अर्थ समाये हुए हैयह तो उस हर चीज का होता हैजहाँ लोग अपने पराये के भेद भूल जाते हैंदेशों की सरहदें यहाँ कोई मायने नहीं रखतीभाषायी भिन्नता यहाँ कोई अड़चन पैदा नहीं करती और किसी प्रकार का कोई मानसिक द्वंद्व यहाँ नहीं रहताअगर कुछ रहता है तोवह एक उत्सव! बस एक उत्सव,  उसके सिवा कुछ भी नहीं , और अगर हम साँसों के इस सफर को उत्सव में तब्दील कर पायें तो जीवन की महता बढ़ जायेजीवन कालजयी हो जाये.
हम उत्सव तो मनाते हैं सबकी ख़ुशी के लिएदूसरों की ख़ुशी में खुद को शामिल करना उत्सव की चरम सीमा है .जब किसी समारोह में लोगों को एक दुसरे से मिलते हुए देखता हूँ तो मन ख़ुशी से भर जाता है. उनका परस्पर सौहार्द भरा मिलन और मुस्कराहट भरा स्वागत एक आनंद देता है.  लेकिन दूसरे ही पल हमारी मानसिक दीवारें हमें घेर लेती हैंहमारी संकीर्णता हम पर हावी हो जाती हैतब सब कुछ ऐसा लगनेलगता है जैसे कुछ हुआ ही नहीं होयहाँ कोई ख़ुशी थी ही नहींकोई प्रेम नहीं था. एकदम भिन्न वातावरण और ऐसे वातावरण में  हमारे लिए उत्सव एक औपचारिकता बन जाता हैकुछ मजबूरी को निभाने जैसामात्र कुछ करने जैसा.  बस कर लिया या करना है उससे आगे कोई ख्याल नहीं फिर हम जुड़ ही नहीं पाए उत्सव से तो वास्तविक खुशी कहाँआनंद कहाँजब हम वास्तविक रूप से उत्सव से जुड़ ही नहीं पाए तो आनंद की बात कहीं दूर हैऔर जब हम आनंद और खुशी को समझ ही नहीं पाए तो फिर जीवन के उत्सव होने की बात कहीं दूर है. जीवन एक उत्सव है यह सोचना भी बेमानी होगीएक कपोल कल्पना जैसे
इस धरा पर जब कोई नवजात जन्म लेता है तो सब उत्सव मनाते हैं. माँ को सबसे अधिक ख़ुशी होती है. पिता का हृदय भी आनंद से भर जाता है. दादा-दादीनाना-नानीचाचा-चाची ना जाने कितने रिश्ते उससे जुड़ जाते हैं. सिर्फ यह रिश्ते ही नहीं बल्कि समाज की कई ओर चीजें  भी उससे जुड़ जाती हैंफिर धीरे-धीरे उस नवजात का जीवन क्रम शुरू होता है. वह जीवन के सफ़र की ओर अग्रसर होता है. कई बार नहींबल्कि हर बार यह सुना जाता है कि बचपन बड़ा सुहाना होता है. लेकिन सबका बचपन सुहाना हो ऐसा सम्भव नहीं. यहाँ तो दरिन्दगी इतनी बढ़ चुकी है कि हम नवजात को जन्म से पहले  ही मार रहे हैं. जो जन्म लेकर इस धरा पर जीवन यापन कर रहे हैं वह भी कहाँ सुरक्षित हैं? हर कोई इस धरा पर परेशानियां झेल रहा है. हर किसी को जीवन में कुछ खोने का डर बना रहता है. जो कि काफी हद तक स्वाभाविक भी है ओर मानवीय वयवहार के अनुकूल भी. लेकिन मुश्किल वहां पर खड़ी हो जाती है जब हम मोहवश किसी को अपना मान लेते हैं, ओर उसके खोने का डर हमें हमेशा सताए रखता है. जीवन  में मोह और नासमझी हमारे जीवन उत्सव से हमें परेशानियों की और अग्रसर करते हैं. ऐसे हालात में हमारे जीवन में उत्सव का महत्व कम होता चला जाता है और एक दिन हम ऐसे मोड़ पर पहुँचते हैं जहाँ उत्सव कहीं पीछे छुट जाता है और मजबूरियाँ और औपचारिकताएँ जीवन का हिस्सा बन जाती हैं. फिर जीवन-जीवन नहीं रहता तो उत्सव-उत्सव कहाँ रहेगा? 
मानव इस धरा पर एक ऐसा प्राणी है जो काफी हद तक प्रकृति को अपने अनुकूल कर सकता है. आज तक उसने ऐसे प्रयास किये भी हैं. उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है और उसी सफलता के आधार  पर वह अपने प्रयासों को जारी रखे हुए है. उसके इन प्रयासों के पीछे हमारे शास्त्रों की यह मान्यता भी कहीं सटीक बैठती है कि इस ब्रह्माण्ड में जितनी भी कायनात है वह सब भोग योनियाँ हैं और मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो कर्म योनि प्राप्त है. जिसे बुद्धि और विवेक की सौगात ईश्वर द्वारा प्रदत है. ईश्वर ने जिसे अपने प्रतिरूप के रूप में जन्म दिया हैइसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है. परमात्मा ने जो कुछ भी मानव को दिया है उसके आधार पर उसे श्रेष्ठ कहा जाये, किसी हद तक इस बात को माना जा सकता है. लेकिन यह एक पैमाना नहीं है जीवन की श्रेष्ठता का. यह जीवन की श्रेष्ठता का एक पहलू हो सकता है. जीवन की श्रेष्ठता के तो अनेक आयाम हैं. अगर हम उन्हें पूरी तरह से भी जीवन में अपना लें तो भी कहीं पर कोई कमी रह जाएगी. फिर भी अगर हम जीवन में कुछ करने के लिए प्रयासरत हैं तो कुछ न कुछ तो हमारे हाथ लगेगा ही. बस यही समझ है जो हमें जीवन की श्रेष्ठता की और ले जाती है. अगर हम जीवन में श्रेष्ठता के मानक भी छू पाएंगे तो भी बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. जीवन में नए मानक बनाना तो विरलों के हाथ में होता है. ऐसे इनसान तो ब्रह्माण्ड में कभी-कभी ही पैदा होते हैं और ऐसे इनसानों के व्यक्तित्व और विचारों की चमक इनती तेज होती है जो हजारों वर्षों तक फीकी नहीं पड़ती. लेकिन अफ़सोस कि ऐसे इनसानों की संख्या को आज हम अँगुलियों पर गिन सकते हैं , जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कर्मों से इतिहास की धारा को बदला है और हमारे लिए जीवन के नए और उदात मानक अख्तियार किये हैं. आये दिन जनसंख्या बढ़ने के नए-नए आंकड़े तो आते रहते हैं, लेकिन श्रेष्ठता के आंकड़े कोई नहीं बना सकता. आज हम जिन इनसानों को महान होने का दर्जा देते हैं वह किसी एक क्षेत्र में सिद्धहस्त थे. उसी कारण हम उन्हें महान की संज्ञा से अभिहित करते हैं. सम्पूर्ण इनसान तो आज तक कोई पैदा ही नहीं हुआ और ना ही होने की सम्भावना है. लेकिन इनसान कितना नासमझ है कि उसे अगर कहीं कोई छोटी सी उपलब्धि हासिल हो जाती है तो वह खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है और यही आभासी श्रेष्ठता का पहलू उसे जीवन में अभिमान की तरफ अग्रसर करता है. किसी उपलब्धि पर अभिमान को तरजीह देना और किसी को अपने से निम्न समझना अंधकार की तरफ बढ़ना है. जीवन में सब कुछ हासिल करके विनम्र बने रहें तो हम जरुर प्रकाश की तरफ अग्रसर होंगे और यही जीवन का मंतव्य भी है. 
सुकरात को विश्व में एक एक निर्भीक दार्शनिक के रूप में ख्याति प्राप्त है. लेकिन जैसे-जैसे सुकरात की प्रसिद्धि बढती जाती है तो वह खुद को अज्ञानी घोषित करता जाता है. जिस व्यक्ति (सुकारत) को पहले अपनी प्रसिद्धि पर गर्व होता था उसने ही अन्तिम समय में कहा था कि "मैं जीवन में कुछ सीख नहीं पायामुझे कुछ पता नहींमैं सबसे बड़ा अज्ञानी हूँ".  सुकरात का खुद को सबसे बड़ा अज्ञानी कहना यह दर्शाता है कि उन्होंने जगत का सबसे बड़ा ज्ञान हासिल कर लिया. हमारे जीवन की जितनी भी उपलब्धियां हैं, उन्हें ऐसे भी अभिव्यक्त किया जा सकता है.  जैसे हम एक सागर के किनारे खड़े हों तो हमारी दृष्टि कितनी दूर तक देख पाएगी और हम उस सागर से क्या समेट पाएंगे हो सकता है हम जो समेटें वह हमारे किसी काम का न हो लेकिन हम समेट रहे हैं इस भ्रम में कि मैंने सबसे ज्यादा समेट लिया है. मेरी क्षमता हर किसी से कहीं अधिक है.  लेकिन जब वास्तविकता सामने आ गयी कि मैं चाहे जितने भी यतन कर लूं मैं इस सागर को खुद में नहीं समेट सकता तो फिर जितना भी समेटा है वही सुख का कारण है. लेकिन जो घटित होता है वह इसके विपरीत होता है. उसका कारण भी हम ही होते हैं. क्योँकि हमें जिस दिशा कि तरफ बढ़ना होता है उस दिशा कि तरफ हम बढ़ते नहीं तो फिर उलटी दिशा में चलकर व्यक्ति कहाँ मंजिल तक पहुँच पायेगा. जब वह मंजिल तक पहुंचेगा ही नहीं तो फिर जीवन का उत्सव कहाँ फिर वह ख़ुशी कहाँ और सच तो यह है कि जिन चीजों में हम ख़ुशी ढूंढते हैं वही कहीं हमारे लिए दुःख का कारण भी बन जाती है. हम जीवन को उत्सव तभी बना पाएंगे  जब जीवन कि वास्तविकता से जुड़ जायेंगे.
मेरे जन्मदिन के इस अवसर पर आपने मुझे जो शुभकामनाएं प्रेषित की उसके लिए आप सबका तहे दिल से आभारी हूँ. आपका यह प्रेम मुझे अनवरत मिलता रहेयही कामना है. आपके प्रेम और सहयोग से यह जीवन उत्सव बन जाए और साँसों का यह सफ़र आसानी से तय हो जाये तो जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाए.