25 मई 2011

यादें जो आज भी

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कॉलेज से पास आउट होने के बाद मैं कभी उस कॉलेज में नहीं गया जहाँ मैंने जिन्दगी के तीन महत्वपूर्ण वर्ष बहुत कुछ सीखने में गुजारे थे. मेरा कॉलेज एक नदी के किनारे स्थित था. कॉलेज के बाहर एक बड़ा मैदान था. मैदान तथा कॉलेज दोनों ऐतिहासिक थे. कभी-कभी मुझे कॉलेज की भव्यता तथा नक्काशी पर सोचने का मौका मिलता तो मैं सहज ही उस अदृश्य सत्ता के प्रति आस्थाबोध से समर्पित हो जाता. मेरा सोचना सिर्फ सोचना होता! परन्तु मेरे जहन में कई प्रश्न जरुर पैदा करता. कभी-कभी तो मेरा मन एक कल्पना लोक तक जा पहुँचता. मैं सब बर्दाश्त कर लेता.....बस यही संतोष था.
कॉलेज से पूर्व जब मैं स्कूल में पढता था तो यहाँ आकर स्कूल की यादें रह रहकर जब भी मेरे जहन में उमड़ती तो मैं रोमांचित हो जाता. मेरे स्कूल का भवन बहुत ही दयनीय हालत में था लेकिन कॉलेज एकदम भव्यसुन्दर तथा व्यवस्थित. मेरे गाँव के लोग बहुत भोले-भाले मेहनती न्यायप्रिय तथा ईमान्दार थे. वहां का वातावरण तथा आबोहवा इस वातावरण से भिन्न थी. जहां मेरे गाँव में हर किसी को एक दुसरे की चिंता रहती थी, वहीँ पर मेरे कॉलेज में किसी का किसी से कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं था. सबको अपनी-अपनी पड़ी होती यहाँ पर हर किसी को अपने काम से मतलब होता. बेबजह वक़्त बर्बाद करने की प्रवृति किसी में नहीं थी. मेरे कॉलेज के प्राध्यापकों के पास डिग्रियांउपाधियाँ और उपलब्धियां सब कुछ था. हर कोई अपने उपर गर्व  करता थाहर कोई खुद को दुसरे से श्रेष्ठ समझता. खैर!! मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं था, लेकिन इन सबसे मेरा वास्ता पड़ता था तो एक उत्सुकता सी बनी रहती इन सबसे बात करने की और इनसे कुछ सीखने की. मुझे कॉलेज की हर चीज अच्छी लगती प्राध्यापकव्यवस्था और छात्र.
सबसे अच्छे  मुझे मेरे दोस्त लगते जिनमें संजीव और शालिनी को मैं बहुत पसंद करता. मेरे दोस्तों की और मेरी एक अलग पहचान थी. मैं उन सबसे भिन्न प्रवृति का था. लेकिन दोस्त तो आखिर दोस्त ही हैं ना. संजीव और शालिनी से मेरी खूब बनती थी. दोनों का बात करने का लहजा तथा ज्ञान का स्तर काफी ऊँचा था. संजीव हमेशा कल्पनापूर्ण बातें करता तथा भविष्य के लिए नयी योजनायें बनाने की इच्छा उसकी होती. वह व्यक्तिगतसामाजिक तथा राजनीतिक सुधार तथा बदलाव की बातें हमेशा किया करता था. शालिनी एक शान्त स्वभाव की लड़की थी. प्यार  से बात करना और सलीके से पेश आना उसकी खूबी थी. ऐसे लगता था कि वह काफी सुलझी हुई हो, परन्तु मैंने कभी उसे जानने की कोशिश ही नहीं की.
संजीव से जब भी मिलना होता मैं हमेशा उससे कुछ सामयिक मुद्दों पर बात करता. मेरी इच्छा हमेशा नए-नए विषयों पर चर्चा करने की होती. एक दिन मैंने और संजीव ने समाज की विसंगतियों पर चर्चा करना शुरू कर दिया. परत दर परत हम कई पहलुओं को खोलते गए. मैं आध्यात्मिक प्रवृति का व्यक्ति हूँ, इसलिए मैं प्रत्येक वस्तु को बहुत बड़े नजरिये और समग्र परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास करता और संजीव भौतिकवादी दृष्टिकोण लेकर हमेशा अपने मत की स्थापना में बड़े से बड़ा तर्क  देता. पर अंततः वह मेरी कई बातों से सहमति जताता. इसका मुझे भी संतोष था.
मुझे इतिहास का ज्यादा ज्ञान नहीं परन्तु दर्शन पर मेरी अच्छी पकड़ हैइसलिए हम दोनों जब किसी घटना पर विचार करते तो वह घटना का इतिहास-दर्शन हो जाता. संजीव किसी भी घटित घटना के कारणों तथा उसके किसी ऐतिहासिक पक्ष को खोजने की कोशिश जरुर करता. आज की बहस में हमने कई मुद्दों पर चर्चा की लेकिन शहर के एक  प्रतिष्ठित  व्यक्ति द्वारा प्रताड़ित ‘रामदीन’ द्वारा की गयी  आत्महत्या की चर्चा पर हम जयादा केन्द्रित रहे.
खैर समय यूँ बीतता गया और हम अपने लक्ष्यों की तरफ बढ़ते रहे अब वह समय नजदीक था जब हमें इस कॉलेज से विदा लेनी थी. जब हम एक दूसरे से जुदाई के बारे में सोचते तो आँखें भर आती. लेकिन जब हम किसी से भी मिलते हैं तो जिन्दगी के किसी मोड़ पर बिछुड़ना स्वाभाविक है. जीवन का यह क्रम है इसलिए ज्यादा दुःख नहीं होता. अब वह दिन हमारे सामने था जब हमें कॉलेज से विदा किया गया, मैं संजीव और शालिनी एक दूसरे के आसपास ही बैठे थे और सारा समय हमने इन तीन वर्षों में बिताये हर एक क्षण को याद किया और भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा की. हम तीनो का लक्ष्य स्पष्ट था. हम तीनो एक दूसरे के प्रेरणास्रोत थे लेकिन आगे की पढाई के लिए शायद ही अब साथ रह पातेकोशिश थी कि एक दुसरे से सम्पर्क बनाये रखा जाए लेकिन वक़्त की मार के साथ यह भी सम्भव नहीं हो पाया.
संजीव और शालिनी से कभी कोई सम्पर्क नहीं हुआ कॉलेज से पास आउट होने के बाद. मैंने कुछ सपने सजाये थे, उन्हें पूरा करने में लगा रहा कई वर्ष और काफी हद तक मुझे सफलता भी मिली. जब भी संजीव और  शालिनी के बारे में सोचता तो ऑंखें भर आती. मैंने उन्हें अपनी हर सफलता पर बहुत याद किया और हमेशा सोचा काश! आज वह मेरे साथ होते तो मेरी उपलब्धियों पर उन्हें मुझसे ज्यादा ख़ुशी होती.
जीवन आगे बढ़ता गया. मुझे पता है धरती गोल है तो कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर कुछ न कुछ घटित होता है, जो आपको अचम्भित कर देता है. अब जब मैं कुछ समय पहले अपने कॉलेज के आसपास वाली गलियों में घूम रहा था तो अचानक मुझे संजीव दिख गया. वह मेरे सामने था और मैं उसके. लेकिन वह मुझे पहचान नहीं पाया. मैं जब कॉलेज में पढता था तो बहुत साधारण तरीके से रहता था. लेकिन अब थोडा बदलाब मुझ में भी आ चुका था हर एक चीज को लेकर. संजीव थोड़ी देर किसी अपरिचित की तरह मुझे देखता रहा, लेकिन मैंने जब उसे उसके नाम के साथ पुकारा तो वह सोच में पड़ गया. मैंने ज्यादा देर किये बिना उसे गले से लगा लिया, वह और भी हतप्रभ! फिर मैंने उसे अपना नाम बताया और वह रो पड़ा.
देखने वाले सब देखते रहे मैं और संजीव ख़ुशी के आंसुओं से भीग गए. हालाँकि संजीव का घर उस शहर में नहीं था. फिर भी हम दोनों ने साथ रहने का मन बना लिया. संजीव ने शालिनी के बारे में बताया मैंने बिना देर किये उससे मिलने की इच्छा जाहिर की. शालिनी से सम्पर्क साधा गया. बात संजीव ने कीकि आज आपके यहाँ आ रहा हूँ. जब हम वहां पहुंचे तो मुझे देखकर शालिनी एकदम पहचान गयी और गले लग गयी. दो दिन तक मैं संजीव और शालिनी एक साथ रहे. खूब सारी बातें की और एक दूसरे के बारे में जाना.
जीवन भी क्या हैएक यक्ष प्रश्न. लेकिन हमें हमेशा संजीदा रहना चाहिए, जीवन में मानवीय भावनाओं के प्रतिहमारी जिन्दगी में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आने वाला हर एक व्यक्ति महत्वपूर्ण है. बस हम उसकी कदर कर पायें. यह जिन्दगी कितनी है यह किसी को पता नहीं. लेकिन जितने लम्हें हम जियें जीवन को खूबसूरती प्रदान करते हुए जियें.

12 मई 2011

वो आये और

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जीवन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है . हमारा जीवन कितना है इस बात को कोई भी नहीं जानता लेकिन फिर भी हम सब अपने - अपने ढंग से जीवन के लिए कुछ न कुछ निर्धारित करते हैं . कई बार हमें सफलता मिलती है तो कई बार असफलता लेकिन फिर भी हम अनवरत रूप से जीवन की गति को बनाये रखते हैं और यह होना भी चाहिए . जहाँ तक मैं अपने सन्दर्भ में बात करूँ एक ही बात बचपन से सोची है कि जीवन एक क्षण है हम जीवन को वर्षों , महीनों , सप्ताहों या फिर दिनों में नहीं बल्कि  क्षणों में जीते हैं और क्षण हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है ..किसी विचारक ने कहा है कि " हमें जीवन में क्षणों की चिंता करनी चाहिए मिनटों और घंटों की चिंता तो स्वतः ही हो जाएगी" इस विषय में मैंने जब भी सोचा है तो वक्त की महता सदा मेरे सामने रही है और इसलिए जितना संभव हो सकता है जीवन के हर पहलु को बड़ी संजीदगी से जीता हूँ और सदा खुश रहता हूँ . इस धरती पर रहते हुए जितने भी इंसानों से संपर्क कर पाऊँ और उनके सुख दुःख में शामिल हो पाऊँ इससे बड़ा क्या लक्ष्य जीवन का निर्धारित किया जा सकता है . बस एक कोशिश है जीवन को सफल बनाने की और उसी तरफ सदा उन्मुख रहता हूँ . इसलिए जहाँ पर भी जो भी कार्य करता हूँ वहां पर सबका सम्मान और आदर करने का दिल करता है और ब्लॉग जगत में भी यही कुछ करने के मन सदा रहता है . हालाँकि मैं अभी भी यह मानता हूँ कि मैं अभी बहुत छोटा हूँ ब्लॉगिंग की दुनिया में ..लेकिन आप सबका साथ प्यार और आशीर्वाद मुझे सदा मिला है और यही कामना है कि यह अनवरत रूप से मिलता रहे .

एक सुखद और प्रेरणादायक  अनुभव रहा हिंदी भवन दिल्ली  में हुए कार्यक्रम का . वहां मैं लगभग सभी ब्लॉगर्स से रूबरू हुआ . सभी से कुछ न कुछ सीखने को मिला और मेरी जिज्ञासा शांत होती रही . इस कार्यक्रम  में भाग लेने के लिए मैं  पहले ही दिल्ली पहुँच चुका था और वहां से मुझे वापिस धर्मशाला आना था, यह पहले की योजना थी ललित शर्मा जी ने भी दिल्ली आने के साथ साथ अपने धर्मशाला आने का कार्यक्रम तय कर रखा था और मेरे मन में बहुत उत्साह था उनके धर्मशाला आगमन को लेकर . एक मई की शाम को मैं कश्मीरी गेट बस अड्डा पहुंचा जहाँ पर ललित शर्मा जी के साथ राजीव तनेजा जी भी उपस्थित थे देखकर प्रसंता हुई और फिर हमने आगे का सफ़र शुरू किया 6:50 पर हमारी बस थी और हमने टिकट लिया लेकिन सीटें बहुत पीछे मिलीं मुझे तो कोई फर्क नहीं पड़ता यकीन ललित जी के बारे सोच कर थोडा अजीब भी लगा कोशिश तो मैंने  की लेकिन सफल नहीं हो पाया . खैर सफ़र तो तय करना ही था . हम मई की  सुबह धर्मशाला पहुँच गए और आगे का कार्यक्रम उस दिन का निर्धारित नहीं था सोचा था कि मेक्लोडगंज जायेंगे शाम तक लेकिन ललित जी चक्करदार रास्तों के चक्कर में फंस गए और सोये तो शाम तक उठ न सके . मैं तो आते ही नाश्ता करने के बाद अपने कार्यस्थल चला  गया था लेकिन जब आकर देखता हूँ तो ललित जी सो ही रहे थे खैर शाम को हम धर्मशाला शहर घुमने निकले लेकिन जल्द ही वापिस आ गए . 3 मई का कोई कार्यक्रम निर्धारित नहीं किया हाँ 4 मई  के लिए कार्यक्रम मैंने निर्धारित कर दिया था और उस विषय में मेरी बात हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय क्षेत्रीय केंद्र धर्मशाला  के निदेशक से हो चुकी थी और उन्होंने अपनी सहर्ष अनुमति भी दे दी थी . 4 मई को हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय क्षेत्रीय केंद्र धर्मशाला के हिंदी और पत्रकारिता विभाग द्वारा एक सेमीनार का आयोजन किया गया . जिसकी अध्यक्षता आदरणीय ललित शर्मा जी ने की . विषय था " हिंदी भाषा और न्यू मीडिया : संभावनाएं एवं चुनौतियां" . हिंदी और पत्रकारिता विभाग के विद्यार्थियों के साथ - साथ  अंग्रेजी विभाग   के विद्यार्थियों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई जो इस विषय और सेमीनार की महता को दर्शाता है . हालाँकि केंद्र में एक और कार्यक्रम की तैयारियां चल रहीं थी फिर भी हमारे पास जितना स्थान था भरा था . यह देखिये सेमीनार की चित्रमयी झलक :-
जय प्रकाश जी मंच सञ्चालन  करते हुए  
केंद्र निदेशक ललित शर्मा जी का स्वागत करते हुए
मैंने स्वागत किया केंद्र निदेशक डॉ . कुलदीप चंद  "अग्निहोत्री" जी का
ललित शर्मा जी और  डॉ . कुलदीप चंद  अग्निहोत्री जी चिन्तन करते हुए
केंद्र निदेशक विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए 
ललित शर्मा  विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए

कुछ कहने की अपेक्षा सुनना बेहतर समझता हूँ 

सभी के विचारों को सुनते विद्यार्थी
प्रिंट मीडिया ने भी सराहा प्रयास को

सेमीनार में क्या कहा गया इस विषय पर आप ललित शर्मा की रिपोर्ट या फिर प्रिंट मीडिया में जो छपा हैं देख सकते हैं . 4 मई  को सेमिनार होने के बाद हम  मेक्लोडगंज की तरफ निकले और फिर 5 मई को हमने काँगड़ा के किले का दौरा किया 6 मई को हम नूरपुर किले को देखने के लिए गए और फिर 7 मई  को ललित शर्मा जी धर्मशाला से दिल्ली रवाना  हो गए . उनके धर्मशाला आगमन और उनके द्वारा किये गए कार्यों और ब्लॉगिंग पर की गयी चर्चा के कारण मुझे यह कहना है कि वह आये और मुझे बहुत कुछ सिखा गए और जब जाने लगे तो आँखों में आंसू आना स्वाभाविक ही थे ना ....!