22 जुलाई 2011

पिया तुम कहाँ चले गए

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हाल कैसे करूँ वयांअजीब समां आया है 
साँसों में है बैचनीदिल भी घबराया है
इन्तजार में तुम्हारेहम बेसुध से हो गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
इजहार कबूल करदिल को था थाम लिया
सब बन्धन तोड़करसोच को था अंजाम दिया
तुम्हारी याद मेंसुख चैन मेरे लुट गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
अहसास मिलन काअभी हुआ ही थोडा था
विरह से उठकरअपने को तुमसे जोड़ा था
फिर उसी हाल मेंतुम भी मुझे छोड़ गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
मात्र स्मरण सेबिन बादल के होती बरसात
दिन तो ख़्वाब में कट जाताभारी पड़ती रात
याद में तुम्हारी रो-रोकररक्तिम नैन हो गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
मधुर आवाज की गूंजलगी कानों को सताने
गुलाबी होंठों की मंद मुस्कानलगी जलबे दिखाने
तुम्हारी अदा पर कायलघायल हम हो गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
ना कोई सन्देशना कोई खबर आने की 
ना कोई निशानीना कोई चीज दिल बहलाने की
पथ तुम्हारा निहारतेनैन मेरे सो गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
तुम्हें खोजने भी निकलूंराह कैसे पाऊं
सन्देश भी तुम्हें भेजूंसन्देशी किसे बनाऊं
बस मिलन के इन्तजार में, तेवर मेरे बदल गए
पिया तुम कहाँ चले गए...................!
डायरी के जर्द पन्नों से......!

15 जुलाई 2011

चाहता हूँ मैं

59 टिप्‍पणियां:

भीड़ - भाड़ की इस दुनिया से दूर
सुंदर सी नगरी बसाना चाहता हूँ मैं
प्यार और सहयोग हो जहाँ
ऐसा मंच सजाना चाहता हूँ मैं
वैर, ईर्ष्या, नफरत ना हो जहाँ
ऐसा घर बनाना चाहता हूँ मैं  .

मानव - मानवता को समझे
ऐसी दृष्टि बनाना चाहता हूँ मैं
हो जहाँ पूजा इंसान की खुदा समझकर
ऐसे मानव पुजारी बनाना चाहता हूँ मैं
सर जहाँ पर झुके सभी का
ऐसे मंदिर बनाना चाहता हूँ  मैं .

नर - नारी में जो भेद मिटाए
ऐसे शख्श बनाना चाहता हूँ मैं
मानव की कीमत  मानव पहचाने
ऐसे पारखी बनाना चाहता हूँ मैं
मर मिटे जिनके लिए सारा जहाँ
ऐसे किरदार निभाना चाहता हूँ मैं .

अपने लिए नहीं तो ना सही
मानवता के लिए मिट जाना चाहता हूँ मैं
मिटाने पर भी ना मिटे कभी
वो निशान बन जाना चाहता हूँ मैं
हो अगर दुनिया में दूसरा कोई
वो इंसान बन जाना चाहता हूँ मैं .

अपने लिए काँटों की ही सही
सबके लिए फूलों की सेज सजाना चाहता हूँ मैं
विदा होने पर भी ना कभी  विदाई हो
ऐसा मेहमान बन जाना चाहता हूँ मैं
हों चाहे लाख मुसीबतें मेरे पथ में
सबके लिए सुगम पथ बनाना चाहता हूँ मैं .


शांति प्यार की महक फ़ैलाने
सुमनों सा बिछ जाना चाहता हूँ मैं
नफरत को जो प्यार में बदल दे
ऐसा प्रेमी बन जाना चाहता हूँ मैं
तुम " केवल "  एक बार दे दो इजाजत मुझे
बस तुम्हारे लिए ही मिट जाना चाहता हूँ मैं .

मुंबई आतंकी हमले को देखकर मन बहुत दुखी है , हर बार मानव ही मानव को निशाना बना रहा है , मुझे अपने कॉलेज के दिनों में लिखी यह कविता याद आ गयी ...आज यही प्रस्तुत है .......!

04 जुलाई 2011

सुर और साहित्य

55 टिप्‍पणियां:
जब भी मुझे कहीं अकेले में बैठने का अवसर मिलता है तो मैं महसूस  हूँ कि इस सृष्टि के कण - कण में संगीत है. इसमें सुर समाया है . लेकिन हम उस संगीत को अनुभव नहीं कर पाते . आज हम भौतिकता में इतने रम चुके हैं कि हमारे पास कहाँ वक्त है उस संगीत को सुनने, का अनुभव करने का , और दूसरी तरफ हमारी जीवन  शैली इस तरह की  बन चुकी है कि हम कहाँ ध्यान देते हैं कि इस अखंड ब्रह्माण्ड की रचना में संगीत का अपना महत्व है . "बिंग बैंग" सिद्धांत  की यह मान्यता है कि इस सृष्टि का निर्माण जब हुआ था तब भयंकर विस्फोट हुआ था . अगर विस्फोट हुआ तो ध्वनि तो निकली होगी ना और वही ध्वनि इस सृष्टि के निर्माण का आधार है और उस ध्वनि के कुछ अंशों को हम शब्दबद्ध कर संगीत के माध्यम से संगीतमय बनाकर उसका आनंद लेते हैं . यह बात भी कितनी रोचक है कि संगीत की विपुल राशि इन्हीं अक्षरों में समाहित है . सरगम यानि सा  , रे , , , , , नि , इन सात अक्षरों में संगीत समाहित है .

इस विषय पर कभी गंभीरता से बात करूँगा ...लेकिन आज आप मेरी पोस्ट "अक्षर साधना" को हिंदी  ब्लॉग जगत की चर्चित पॉडकास्टर आदरणीय अर्चना चावजी की कर्णप्रिय आवाज में सुनें . आदरणीय अर्चना जी से जब मैंने इस पोस्ट का पॉडकास्ट  तैयार करने  के लिए प्रार्थना की तो उन्होंने "मेरे मन की"  इस प्रार्थना को सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस पोस्ट को अपनी मधुर आवाज देकर मुझे कृतार्थ कर दिया . उनकी आवाज का कायल मैं ही नहीं बल्कि पूरा ब्लॉग जगत है . आवाज ही  नहीं बल्कि शब्दों को पढने का उनका अंदाज और वाक्य में शब्दानुरूप उतार - चढ़ाव का भी पूरा ध्यान जो उनकी इस विधा और विशेषज्ञता को सिद्ध करता है ...तो लीजिये प्रस्तुत है अक्षर साधना अब आदरणीय अर्चना चावजी जी कर्णप्रिय आवाज  में ....आप उनके प्रोत्साहन के लिए उनके ब्लॉग मेरे मन की  पर भी टिप्पणी कर सकते हैं .....!

01 जुलाई 2011

अक्षर साधना

48 टिप्‍पणियां:
ध्वनि क्या है? अक्षर क्या है? शब्द क्या है? हमारा भाषा विज्ञान और व्याकरण हमें इनकी  परिभाषाओं से अवगत करवाते हैं. लेकिन वास्तविकता में हम उसकी मूल अस्मिता के विषय में नहीं जानते कि अक्षर की भी कोई मूल अस्मिता होती है. लेकिन जैसे ही हम अक्षरों के विषय में सोचते हैं तो एक रोचक सा संसार हमारे सामने उपस्थित होता है. हम जितनी गहराई से अक्षर को समझते हैं उतनी ही हम उसकी महत्ता को समझते हैं और फिर उतना ही वह अक्षर हमारे व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है. क्या वास्तविकता में ऐसा है कि अक्षर की भी कोई महत्ता, अस्मिता है? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, और इसका हल हमारी बुद्धि के सापेक्ष पक्ष की ही खोज हो सकता है.

अब बात करते हैं कि ध्वनि क्या है ? आम तौर पर "आवाज" को हम व्याकरणिक या भाषा वैज्ञानिक
दृष्टिकोण से ध्वनि कहते हैं. अध्यात्म या योग में इसके लिए "नाद" शब्द का प्रयोग किया जाता है लेकिन "योग" में जिस ध्वनि के लिए "नाद" शब्द का प्रयोग किया जाता है वह हमारे अंतर्मन की ध्वनि है, उसे हम महसूस कर सकते हैं, लेकिन किसी भी परिस्थिति में अभिव्यक्त नहीं. जिसे हमने साधना के बल पर महसूस किया है, उसे अभिव्यक्त कैसे करेंगे. उसे महसूस करने के लिए हमने साधना की और इस साधना के लिए एक ख़ास प्रक्रिया की आवशयकता होती है. इडा , पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के माध्यम से सांस को केन्द्रित कर, नियंत्रित कर ध्यान के माध्यम से इस "नाद" को सुना जाता है, महसूस किया जाता है, और जहाँ तक "योग" का सम्बन्ध है "वह है दो चीजों का मिलन"....लेकिन यह कैसी चीजें होनी चाहिए....किस तरह का मिलन और उसकी चरम सीमा क्या है? योग को परिभाषित करते हुए महाऋषि पतंजलि अपने महाभाष्य में लिखते हैं "चितवृतिनिरोधयोगः" अर्थात हमारे चित में, हमारे अंतःकरण में जो वृतियां है उनका निरोध करना उन्हें एक सापेक्ष दिशा की तरफ ले जाना और अंतःकरण में उठने वाले हर नकारात्मक भाव का शमन करते हुए चित्त  को (आत्मा को परमात्मा से) जोड़ना ही योग है. लेकिन इस जुड़ाव के लिए भी कोई ना कोई माध्यम तो चाहिए ही, और वह माध्यम ‘अक्षर’ ही है. 

अक्षर का एक पक्ष है यह भी है जब हम साधना करते हैं तो किसी न किसी अक्षर की रटन करते हैं....लेकिन जब तक वह अक्षर रटन रहता है तब तक वह प्रभावकारी नहीं होता उसे प्रभावकारी बनाने के लिए उसके मूल तत्व और उसके मूल भाव को समझते हुए उसके साथ संवेदनात्मक रूप से जुड़ना होता है, तब कहीं वह अक्षर प्रभावकारी होता है वर्ना हम जितनी भी साधना कर लें, तप कर लें, जप कर लें सब अनिष्ट ही रहेगा. अगर साधना में सफलता को प्राप्त करना है तो अक्षर को समझना होगा और संसार की तमाम ताकतें इसी ‘अक्षर’ में निहीत हैं.

वास्तविकता में ध्वनि को चिन्हित करने के लिए अक्षर का निर्माण हुआ है और उस ध्वनि के हर भाव को हर संवेग को उस अक्षर ने खुद में समाहित किया है. जिसके कारण हम खुद को सहजता से अभिव्यक्त कर पाते हैं. हम जितनी ध्वनि को महत्ता देते हैं उससे ज्यादा कहीं अक्षर की महत्ता हैअक्षर अपने में मूर्त है वह चेतना का प्रतिबिम्ब है. हमारी भावनात्मक और संवेदनात्मक चेतना उस अक्षर में निहित है. जिस तरह हम ध्वनि को ना तो तोड़ सकते हैं, ना मरोड़ सकते हैं, उसी तरह हम उसमें कुछ जोड़ भी नहीं सकते हैं.  ‘ध्वनि तो ध्वनि’ है बस उसे हम सुन सकते हैं और अगर संवेदनशील हैं तो महसूस कर सकते हैं, वर्ना हमारे लिए ध्वनि के कोई मायने नहीं. इसी तरह ‘अक्षर तो अक्षर’ है. उसने ध्वनि का वरण अपने में किया हुआ है. ध्वनि जब स्वतन्त्र थी तब भी उसकी महत्ता थी. लेकिन अक्षर ने उसे खुद में समाहित करके उसे मूर्त रूप देने का प्रयास किया. इसलिए अक्षर ज्यादा  महत्वपूर्ण हो गया. उसे हम देख सकते हैं, उच्चारित कर सकते हैं. लेकिन सुनने के रूप में तो वह ध्वनि ही है. हाँ यह बात अलग है कि यहाँ अक्षर साधना बन गया ‘योग’ बन गया, जिसने दो को जोड़ दिया. अगर सुनने वाला नहीं होगा तो कहने वाला क्या करेगा, और अगर कहने वाला नहीं होगा तो सुनने वाला क्या करेगा, जब दोनों का समन्वय हो जाता है दोनों एक दूसरे में पूरी तरह से समाहित हो जाते हैं तो वहीँ ‘योग’ हो जाता है.

अक्षरों से शब्द बनते हैं. लेकिन अक्षर के मूल में भी ध्वनि रहती है और शब्द के मूल में अक्षर. अब शब्द  ज्यादा प्रभावकारी हो गया. क्योँकि उसने कई अक्षरों को अपने में समाहित कर लिया और खुद अक्षर को मूर्त रूप देते हुए अक्षर को प्रभावकारी बना दिया. ध्वनि को सहेजने के लिए अक्षर बना, अक्षर को सहजने के लिए शब्द बना और अब शब्द ने अर्थ को ध्वनित करना शुरू कर दिया उसने अर्थ रूपी प्राण को पा लिया, और शब्द ने जब अर्थ और संवेदना को अपने में धारण कर लिया तो उसकी शक्ति और स्वरूप में परिवर्तन आ गया. अब शब्द बेजान नहीं उसमें जान है. ध्वनि रूपी तत्व नें शब्द रूपी शरीर धारण किया और और अर्थ रूपी आत्मा ने उसे जीवन दे दिया और अर्थ को पाकर शब्द की  सत्ता बदल गयी और अक्षर का महत्व बढ़ गया. इसी अक्षर ने फिर शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्ति के नए द्वार खोले. मानव को मानव से ही नहीं बल्कि ईश्वर से जुड़ने की शक्ति प्रदान की. पूरी सृष्टि हालाँकि अक्षर पर निर्धारित है लेकिन यह अभिव्यक्त शब्द के माध्यम से होती है. शब्द  साकार और अर्थ निराकार. जैसे "शरीर के बिना आत्मा का और आत्मा के बिना शरीर का महत्व" यही बात "शब्द और अर्थ" पर भी लागू होती है. दोनों का महत्व  समान है यह बात अलग है कि शब्द की महता उसके अर्थ के कारण है. लेकिन इसे भी हमें स्वीकारना होगा कि शब्द अपने आप  में एक ईकाई है, जो हमारी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का सशक्त माध्यम है.

वर्तमान परिदृश्य पर अगर दृष्टिपात करें तो ऐसा लगता है कि हम शब्दों के प्रति नासमझ हो गए हैं. शब्द के प्रति हमारा रुझान कम हो गया है. हम उसे महसूस नहीं करते बस उसे कहते हैं और कह कर भूल जाते हैं. लेकिन अगर हमारे मन, वचन और कर्म में एकरूपता है तो हमारा व्यक्तित्व संसार के लिए अनुकरणीय हो जायेगा. हमारा कहा हुआ हर शब्द एक ब्रह्मअस्त्र की भांति काम करेगा. हम अगर किसी के लिए दुआ करेंगे तो वह भी कबूल होगी. लेकिन आज जब देखता हूँ कि हमारे घरों में शब्दों का स्वरूप बदल गया है तो संवेदना कहाँ रहेगी, वह भावना ही कहाँ जो एक शब्द के उच्चारण से पैदा होती है. आज माँ को माँ या माता नहीं बल्कि मम्मा या ‘Mom’ शब्द से ज्यादा उच्चारित किया जाता है. नमस्ते या नमस्कार की जगह ‘गुड मोर्निंग’ Good Morning ने ले ली है. यह शब्द सिर्फ संकेत मात्र है, अगर ऐसे शब्दों को गिनवाना शुरू करूँ तो संख्या काफी हो जाएगी. कभी-कभी लगता है कि हम खुद को भूल गए हैं. अगर हम इन व्यावहारिक शब्दों के मूल को देखें तो यह गहरे अर्थ ध्वनित करते हैं. जैसे अगर कोई अनजान व्यक्ति भी हमें बेटा कह कर पुकारे तो हममें उसके प्रति एक अपनापन सा पैदा हो जाता है, और सिर्फ शब्दों के माध्यम से हम एक दुसरे के साथ बंधे रहते हैं. जीवन का कोई भी क्षेत्र हो जन्म  से लेकर अंतिम सांस तक अक्षर हमारा साथी है. काश हम इसे साध पाते और अपने जीवन, घर, परिवार, समाज, देश और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अनुकरणीय और सुखमय संसार का निर्माण कर पाते.
इस आलेख को आप आदरणीय अर्चना चावजी की कर्णप्रिय आवाज में यहाँ सुन सकते हैं.