पिछले दो अंकों में मैंने भ्रष्टाचार के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया , तथा यह प्रश्न मेरे मन में उभर कर आया कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, क्या सच में वह कारगर हैं ? लेकिन मैंने यही पाया कि फिलहाल तो ऐसा कोई तरीका नजर नहीं आ रहा है जिससे भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सहायता मिल सके , और अभी तक कोई ऐसा तरीका ईजाद हुआ हो यह भी नजर नहीं आ रहा है , लेकिन फिर भी मैंने यह कहा था कि इंसान को आशा का दामन नहीं छोड़ना नहीं चाहिए . हमें अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने चाहिए और जब तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आता तब तक डटे रहना चाहिए . लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि ऐसी दृढ़ता अभी तक किसी भी आन्दोलनकारी में नजर नहीं आ रही है . 10-15 दिन खूब हो हल्ला होता है और फिर सब ठंडे बस्ते में चला जाता है , और अगर यही कुछ होता रहा तो यह कहना चाहिए कि हम क्या करना चाहते हैं, और क्या कर रहे हैं , क्या होना चाहिए और क्या नहीं, इस विषय में हम स्पष्ट नहीं हैं . सबसे पहले तो यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि कोई लक्ष्य निर्धारित करना तो आसान है लेकिन उसे अंजाम तक पहुचाना उतना ही कठिन .जब हमारा लक्ष्य अंजाम तक पहुच जाता है तो स्वतः ही हमें उसके परिणाम नजर आने लगते हैं . बस एक आवश्यकता है सही कदम बढ़ाने की अगर सही दिशा और सही तरीके से कदम बढाए जाएँ तो कुछ भी असंभव नहीं .
अब बात मुद्दे की वर्ष 2011 को भ्रष्टाचार विरोधी वर्ष कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. इस वर्ष दो भिन्न -भिन्न क्षेत्रों के महारत हासिल व्यक्तियों ने "अनशन" किया भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए . लाखों की संख्या में हमारे देशवासियों ने भी इन दो महानुभावों का समर्थन किया . लेकिन दोनों की कार्यप्रणाली और विचार भिन्न रहे . हालाँकि मुद्दा तो एक ही था . लेकिन एक ही मुद्दे पर विचार भिन्न -भिन्न थे . और हो भी क्योँ ना... एक का सम्बन्ध योग जैसी परम्परागत और उच्च विद्या से है तो दुसरे महानुभाव को सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में ख्याति हासिल है . एक को लोकपाल बिल चाहिए तो दूसरे ने सीधे ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध "सत्याग्रह" का आह्वान कर दिया . लेकिन तरीका "अनशन" का ही अपनाया . एक का अनशन तुडवाने के लिए सरकार आगे आई और दुसरे का अनशन तुडवाने के लिए आध्यात्मिक जगत के महानुभावों ने प्रयास किया . कुल मिलाकर अगर स्थितियों का आकलन किया जाए तो बहुत कुछ विरोधाभासी लक्षण हमारे सामने आते हैं और बहुत सारी स्थितियों से आप सभी अवगत भी हैं . चलिए अब बात करते हैं "अनशन" की , कि आखिर अनशन क्योँ किया जाए ? अनशन के क्या लाभ हैं ? और क्या हासिल हुआ है आज तक अनशन से जिसने भी अनशन किया है ?
पहले "अनशन" शब्द को देखते हैं . "अनशन" शब्द का हिंदी में अगर अर्थ देखा जाये तो वह अर्थ निकलता है : "अन्न का त्याग करना या निराहार होना" , लेकिन वयुत्पति के आधार पर इस शब्द को निरुक्त में देखते हैं तो वहां यह इस तरह मिलता है . "अशनम्" अर्थात 'खाना निगलना' इसके साथ अगर "न" समास का प्रयोग किया जाए तो यह "अनशनम् " बनेगा और यहाँ इस शब्द का अर्थ रहता है अन्न को ग्रहण करना , लेकिन अगर अन्न का त्याग करने के लिए किसी शब्द का प्रयोग सही तौर पर किया जाए तो वह है "अन्नानशम" जिसका अर्थ हुआ अन्न को ग्रहण ना करना . तो अनशन शब्द पहले तो अपने आप में मूल अस्मिता से हटा हुआ शब्द है लेकिन हिंदी में इसका प्रयोग "अनशन" ही किया जाता है और यह आज प्रचलन में भी है . खैर कभी - कभी तो यह भी कहा जाता है कि शब्द को नहीं उसकी भावना को देखना चाहिए . चलिए अब देखते हैं इस शब्द के मूल में निहित भाव को . "अनशन" एक तरह की तपस्या है , अन्न का त्याग करना एक तरह की साधना है और उस कार्य की सिद्धि 'अनशन' का प्रतिफल है . अब देखें अनशन का तरीका कोई भी हो अन्न का त्याग करना या फिर खुद का त्याग करना . जब हममें किसी चीज को पाने की उत्कट इच्छा पैदा हो जाती है तो तब हम कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए की इच्छा बड़ी या उद्देश्य . इच्छा का सम्बन्ध व्यक्ति से है तो उद्देश्य का सम्बन्ध सामाजिक हित से है . इच्छा में व्यष्टि भाव है तो, उद्देश्य में समष्टि भाव .
हमारे देश में अनशन करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है . लेकिन उसका तरीका अलग अलग रहा है . रावण ने भी तो अनशन ही किया था और सोने की लंका प्राप्त कर ली , हिरणकश्यप द्वारा किये गए कार्य को हम क्या अनशन की कोटि में नहीं रखेंगे , अगर अनशन इच्छा या उदेश्य पूर्ति का साधन है तो फिर हमें इन कार्यों को इसी कोटि में रखना चाहिए . लेकिन ऐसा नहीं है . रावण और हिरणकश्यप द्वारा किये गए कार्य व्यक्तिगत इच्छा पर आधारित थे , उस तपस्या में उनका व्यक्तिगत स्वार्थ छिपा था और उस स्वार्थ की सिद्धि के लिए वह जप तप करते रहे अंततः उनके हाथ क्या लगा यह कहने की बात नहीं है . इस भ्रष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन में एक नाम सबसे उभर कर सामने आया वह आया "महात्मा गाँधी जी" का और अन्ना जी को दुसरे गाँधी की संज्ञा से भी अभिहित किया गया . लेकिन यह बात भी दीगर है कि "अन्ना" जी और "गाँधी" जी दो अलग -अलग बिन्दुओं की तरह हैं ,जो कभी एक दुसरे से नहीं मिल सकते . अन्ना जी के समय की परिस्थितियाँ अलग है , और गाँधी जी के समय की परिस्थितियां अलग . एक अपनी व्यवस्था से लड़ रहा है तो दुसरे ने विदेशी हुकूमत से लडाई लड़ी है . एक को आजादी के लिए याद किया जाता है तो दुसरे को ??? किस लिए याद किया जाएगा . लेकिन जो भी व्यवस्था से लड़ने का जो माहौल इस वर्ष बना इसके लिए अन्ना जी और बाबा रामदेव जी बधाई के पात्र हैं और यह बात भी हमें नहीं भूलनी चाहिए कि इन दोनों आंदोलनों में आम जनता की भूमिका भी कम नहीं है ....!
बाकी फिर कभी ....फिलहाल इस विषय को विराम देते हैं ...आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं के लिए आपका धन्यवाद ....! एक तो समय का अभाव और दूसरा लेपटॉप ख़राब ....! सब चुका रहे हैं अनशन पर लिखने का हिसाब ....!.
बाकी फिर कभी ....फिलहाल इस विषय को विराम देते हैं ...आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रियाओं के लिए आपका धन्यवाद ....! एक तो समय का अभाव और दूसरा लेपटॉप ख़राब ....! सब चुका रहे हैं अनशन पर लिखने का हिसाब ....!.