22 मार्च 2016

‘माँ’ की ही अभिव्यक्ति हूँ ‘मैं’

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राह चलते
जीवन के सफ़र में
मंजिल को तय करते
मिले मुझे लोग कई
अपनी-अपनी विशेषता से भरपूर
जिनमें अक्स देखा मैंने
अपनी भावनाओं का, अपने विचारों का
समर्थन का-विरोध का
प्रेम का-नफरत का, अच्छे और बुरे का भी
जितने नज़ारे हैं,
इस जहान में-उस जहन में
जितने अनुभव हैं, दुनिया में
एक-एक कर सब समेटे हैं मैंने
अपनी आँखों से-अपने मन से-अपने हृदय से
लेकिन इन सबसे परे पाया है मैंने
 ‘माँकी ममता को.

माँ का होना ही मेरा होना है
यूं माँ-माँ होती है, अक्सर लोग कहते हैं
लेकिन जितना मैंने पाया है
माँ को समझना आसान नहीं,
उसके अहसासों को शब्दों में बांधना  
कल्पनाओं और वास्तविकता को समझना
सामान्य बुद्धि का काम नहीं
नहीं होती है वह जुदा
अपने अक्स से
नहीं होता कोई अन्तर, उसके मन-वचन और कर्म में  
वह संजीदा है हर हाल में हर किसी के लिए
उसकी ममता में नहीं भेद अपने-पराये के लिए
समदृष्टि और समभाव की प्रतिमूर्ति है
माँ मेरे लिए.

सोचता हूँ कभी तनहाई में
क्या कुछ किया मैंने अपनी माँ के लिए?
यूं एक दिन उस चर्चा में, मैं भी शामिल हुआ था
जहाँ बखान कर रहे थे, अजीज मेरे
अपनी माँ की खुशियों के लिए किये गए
प्रयासों का,
वह मूल्य आंक रहे थे माँ की ख़ुशी का
भौतिक वस्तुओं से, अपनी उपलब्धियों से, अपनी शान भरी जिन्दगी से
लेकिन........
उनकी.... माँ उनसे दूर है
वह अकेले जीने को मजबूर है
बेटे उसे भेजते हैं चंद पैसे
उसका भी उन्हें गरूर है.

यूं माँ के प्रति फर्ज निभाना
काम मुश्किल है.
मैंने जब भी माँ के बारे में सोचा
मेरी कल्पना हमेशा बोनी साबित हुई
और कर्म अपंग हो गया
माँ के हर अहसास का मैं कर्जदार हो गया
जिन चीजों को मैंने समझा कि माँ की इसमें ख़ुशी है
तो मेरा यह अनुमान भी हमेशा आधारहीन साबित हुआ.
माँ बस माँ है
उसकी कोई व्याख्या नहीं
बजूद मेरा कुछ भी नहीं है
उसके सिवा
मैंने खुद को जब गहरे से विश्लेषित किया
तो पाया कि
माँ की बेहतर अभिव्यक्ति हूँ मैं
इस जहान में सबसे बेहतर रचनाकार है माँ
एक अद्भुत शिल्पकार है माँ
जो कष्ट सहनकर बनाती है एक जीवन
इस दुनिया के लिए
वह अर्पित कर देती है अपने कलेजे के टुकड़े को
देश की बेहतरी के लिए.

माँ ही जीवन है मेरा, उसकी ही छाया हूँ मैं
मेरी आँखों में रोशनी बेशक हो,
लेकिन दृष्टि माँ ने ही दी है मुझे
जुबान है मुँह में मेरे
भाषा और मिठास, माँ ने दी है मुझे
क्या अच्छा है, क्या बुरा
क्या सच है, क्या झूठ
क्या प्रेम है, क्या नफरत
इस सबकी पहचान दी है माँ ने मुझे
मेरे जीवन के सफ़र में
हर अहसास की साक्षी है माँ
मैंने जब-जब भी सोचा अपने बजूद के बारे में
तो हर बार यही पाया कि
मैं कहीं नहीं हूँ, कुछ भी नहीं
सिर्फ माँ की अभिव्यक्ति हूँ मैं

ठीक कवि की कविता की तरह
शिल्पकार की मूर्ति की तरह
चित्रकार की कूची से अभिव्यंजित
एक बड़े फलक पर उकेरे चित्र की तरह
सृजन हूँ में माँ का,
उसी से बजूद है मेरा
उसी की अभिव्यक्ति हूँ मैं

08 मार्च 2016

एक ऐसा विश्व जहाँ सिर्फ इनसान रहते हों

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पहचानों के दायरे में सिमटता इनसान संभवतः अपनी वास्तविक पहचान को भूल गया है. ऐसा कौन सा समय रहा होगा जब मनुष्य ने खुद को मनुष्य के रूप में समझा होगा. इतिहास का गहन अध्ययन करने के पश्चात इस बात के संकेत कम ही मिलते हैं कि इनसान ने इस धरती पर जन्म लेने के बाद खुद को इनसान के रूप में प्रस्तुत किया हो. वह अधिकतर पहचानों के दायरे में खुद को बांधता हुआ प्रतीत होता है. उसकी शंकाएं और संभावनाएं अधिकतर निर्मूल हैं, लेकिन फिर भी वह खुद की एक पहचान बताते और बनाते हुए आगे बढ़ रहा है, और उसका लक्ष्य उस पहचान को कायम रखते हुए ‘व्यक्तिगत’ रूप से एक ‘नयी’ पहचान कायम करने का रहा है. ऐसे में हम देखते हैं कि इनसान के रूप में जन्म लेने वाला प्राणी कभी इनसान की तरह व्यवहार नहीं कर पाया है. वह अधिकतर खुद को “दूसरों से श्रेष्ठ” साबित करने की होड़ में आगे बढ़ रहा है. इस तथाकथित श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए इनसान ने कई ऐसे कदम उठाये हैं, जिनके बारे में सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं, हृदय बैचैनी से काँप उठता है,  दिमाग सोचने पर मजबूर हो जाता है, कि इस धरती पर ऐसा भी कोई कालखंड रहा होगा जब इनसान ने सबसे ज्यादा नुकसान इनसान का ही किया. हमें इनसान के द्वारा इनसान के बजूद तक को मिटाने के लिए किये गए प्रयासों के भरपूर चिन्ह देखने को मिलते हैं, लेकिन ऐसे प्रयासों का जिक्र कम ही मिलता है, जब इनसान ने मानवता की रक्षा और इंसानियत के लिए अपने सर्वस्व को अर्पित किया हो. अगर ऐसे चिन्ह कहीं मिलते भी हैं तो उनकी संख्या बहुत ही कम है. मनुष्य द्वारा अपनी एक विशेष पहचान को कायम करने के लिए किये गए प्रयासों और उनके परिणामों पर अगर हम गौर करें तो बहुत से ऐसे पहलू हमारे सामने आते हैं जो सर्वथा निर्मूल हैं, एक भ्रान्ति के सिवा कुछ भी नहीं.

मनुष्य द्वारा खुद की एक नयी पहचान को कायम करने के लिए बनाये गए दायरों को अगर हम देखें तो हमें आसानी से समझ आता है कि यह प्रयास कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा कि मेरी कमीज दूसरे की कमीज से ज्यादा सफ़ेद है, हालाँकि मुझे यह भी पता है कि दूसरे की कमीज भी सफ़ेद ही है, लेकिन मेरा प्रयास खुद की कमीज को ज्यादा सफ़ेद सिद्ध करने का है. मनुष्य की श्रेष्ठता की सारी कहानी सिर्फ कमीज के सफ़ेद होने और ज्यादा सफ़ेद होने की ही कहानी जैसी लगती है, लेकिन इस यथार्थ को कोई समझना नहीं चाहता, अगर कोई इसे समझने का प्रयास करेगा तो उसे भी उसी वर्ग के लोगों द्वारा बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा, उसके जीवन को दूभर किया जाएगा, यहाँ तक कि उसके मानवीय अधिकार भी छीन लिए जायेंगे. इसलिए अधिकतर मनुष्य अपनी संसारिक पहचान को बनाये रखने के प्रयास करता है, और ऐसा ही प्रयास मनुष्य का रहा है कि वह अपनी पहचान के लिए हमेशा सजग रहे. उसे जो पहचान उसके देश, धर्म, समाज, भाषा, जाति, वर्ग, वर्ण आदि द्वारा प्रदान की गयी है, वह हर हाल में उस पहचान की रक्षा करे, किसी भी स्थिति में उस पहचान से सम्बन्धित नियमों का उलंघन नहीं होना चाहिए. अगर किसी के द्वारा भूल से भी इन तथाकथित नियमों और सीमाओं का उलंघन होता है तो उसके लिए सजा का प्रावधान ऐसा किया गया है कि सोचकर ही दिल दहल जाता है.

आज हम जिस विश्व में जी रहे हैं वहां कई तरह की चीजें एक साथ घटित हो रही हैं. ऐसा नहीं है कि इससे
पहले यह सब कुछ न हुआ हो, यह सब कुछ पहले से ही होता आ रहा है, और संभवतः किसी भी घटना के पीछे इतिहास को जोड़ दिया जाता है. पहचानों के दायरे में बंधे इनसान के सामने आज कई तरह की चुनौतियां हैं, एक तरफ वह इन चुनौतियों से लड़ना चाहता है, वहीं दूसरी और वह अपनी तथाकथित पहचान को बनाये रखना चाहता है. उसकी यात्रा दो नावों में एक साथ सफ़र करने की है, वह परम्परा और आधुनिकता को साथ लेकर बढ़ना चाहता है, लेकिन इसी द्वंद्व में वह सब कुछ खो भी देता है, क्योँकि परम्परा के स्थान पर आधुनिकता आई है, उसके पास एक ही विकल्प है, या तो वह परम्परा को साथ लेकर जीवन जिए या फिर आधुनिकता को साथ लेकर. दोनों जीवन दर्शनों को साथ लेकर जीवन जीना एक सामान्य मनुष्य के लिए बहुत चुनौती भरा है. परम्परा और आधुनिकता की जहाँ तक बात है उसमें भी पहली जरुरत मनुष्य को अपनी सोच को बदलने की है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि आज का परम्परावादी इनसान पाषाणकालीन तकनीक के साथ जी रहा है, वह तकनीकी और भौतिक स्तर पर आज के दौर के साथ जी रहा है या ऐसा भी कह सकते हैं कि वह भौतिक रूप से समय के साथ जी रहा है, लेकिन जहाँ तक सोच का सवाल है, उस पर कई प्रश्न किये जा सकते हैं. जो पहचान उसे प्रकृति की विविधता के कारण मिली थी, उस पहचान को कहीं खोकर वह कृत्रिम पहचान को बनाये रखने के लिए कृतसंकल्प है.

इनसान की कृत्रिम पहचान ने उसे इनसान से जुदा करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. कई बार मुझे ऐसा आभास होता है कि यह सब, कुछ लोगों द्वारा इनसान से अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किया गया है. हम देखते हैं कि एक इनसान के जन्म के साथ ही उसकी जाति, धर्म आदि निर्धारित हो जाता है और पूरा जीवन उस इनसान से यह अपेक्षा की जाती है कि वह उसका पालन करेगा. उसी दायरे में वह बंध कर रहेगा. एक हद तक यह ठीक भी लगता है, लेकिन दूसरी और हम देखते हैं कि जाति और धर्म के नाम पर आज तक दुनिया के इतिहास में कई हृदय विदारक घटनाएँ घटी हैं. मनुष्य की पहली पहचान जाति हो गयी है, उसी के हिसाब से उसका धर्म निर्धारित हुआ है. यह बड़ा अजीब सा है पहलू है. धर्म का जहाँ तक लक्ष्य है वह मनुष्य के आचरण से सम्बन्धित है. काफी हद तक धर्म मनुष्य का व्यक्तिगत मामला लगता है, लेकिन धर्म के मामले में ऐसा होता कहाँ है? आज मनुष्य की सबसे बड़ी लड़ाई जाति और धर्म से है. एक ही धरा पर रहने वाले इनसान, एक ही तरह से जीवन यापन करने वाले लोग धर्म के नाम पर कैसे एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं यह हमें आये दिन देखने को मिलता रहता है. कुछ तथाकथित लोग धर्म को एक खौफ की तरह प्रचारित करते हैं और जाति उनके लिए मनुष्य की भावनाओं से खेलने का एक महत्वपूर्ण अस्त्र है. शेष अगले अंकों में......