04 नवंबर 2015

मनुष्य : मान्यता और मानसिकता

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‘मनुष्य’ शब्द जब भी जहन में आता है तो मन ‘कल्पना’ में कहीं खो जाता है, और वह कल्पना मनुष्य जाति के इतिहास और वर्तमान का आकलन करते हुए भविष्य की और ले जाती है. हालांकि यह भी सच है कि मनुष्य कभी भी भविष्य के बारे में कुछ भी दृढ रूप से नहीं कह सकता. लेकिन वह इतिहास का आकलन तो कर ही सकता है, वर्तमान को तो विश्लेषित कर ही सकता है और उसी आधार पर भविष्य की रूपरेखा तय कर सकता है. एक और पहलू यहां बहुत महत्वपूर्ण है, वह यह कि मनुष्य अपनी सोच के आधार पर अपनी दुनिया का निर्माण करता है. अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस दृष्टि से सोच रहा है. हमें इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरुरत है कि मनुष्य की सोच को निर्मित करने में उसके परिवेश की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. अक्सर मनुष्य की सोच और समझ का विकास उसके परिवेश पर निर्भर करता है, और जैसा परिवेश मनुष्य को प्रारम्भिक अवस्था में प्राप्त होता है उसकी सोच और समझ का निर्माण काफी हद तक उसी परिवेश के आधार पर होता है.  क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहता है ऐसे में उसकी सोच का दायरा अपने व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा सामाजिक हित में होना जरुरी है. व्यक्तिगत लाभ की सोच चाहे, परिवार के स्तर पर हो, समाज या समुदाय के स्तर पर हो या देश और विश्व के स्तर पर वह काफी हद तक दूसरों के लिए लाभदायक नहीं होती. वह कहीं न कहीं पर व्यक्ति के अपने स्वार्थ से जुड़ी होती है और जहां पर व्यक्तिगत लाभ सर्वोपरि हैं वहां पर हम किसी ‘दूसरे का हित’ कैसे सोच सकते हैं?

किसी ‘दूसरे का हित’ जैसे शब्द हमें प्रेरित करते हैं किसी के लिए भी कार्य करने के लिए, और मनुष्य एक
ऐसा जीव है जो इतना क्षमतावान है कि वह ‘दूसरे’ के हित के लिए कार्य कर सकता है. हम इतिहास उठाकर देखें तो हमें इस पहलू के कई प्रमाण मिल जायेंगे कि इस धरा पर ऐसे भी मनुष्य हुए हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व प्राणी मात्र के हित के लिए अर्पित किया है और मनुष्य ही नहीं प्रकृति के हर पहलू के साथ उन्होंने सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने जीवन को जिया है. मनुष्य जीवन के विषय में किसी ने यह भी खूब कहा है कि “अपने लिए जिया तो क्या जिया, है जिन्दगी का मकसद औरों के काम आना”. इस पंक्ति में तो किसी दूसरे के काम आना ही ‘जिन्दगी का मकसद’ बताया गया है, इसके अलावा जिन्दगी का और क्या मकसद हो सकता है. जिन्दगी के मकसद पर कई लोगों ने अपने तरीके से विचार किया है और जिसको जो श्रेष्ठ लगा उसने उसी अनुरूप कार्य करने का प्रयास किया है. लेकिन भाव वही रहा ‘दूसरों’ के लिए कुछ करने का. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में कौन सी चीज बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है?

मनुष्य की सोच और उसके कर्म का आकलन करें तो हमें यह बात समझने में देर नहीं लगेगी कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में उसकी सोच की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. मनुष्य जैसे सोचता है वैसे ही अपने लक्ष्य निर्धारित करता है और उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह वैसे ही प्रयास भी करता है.अब हमें यह देखना है कि मनुष्य के लक्ष्य, सोच, मान्यता और उसकी मानसिकता का क्या प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है. हमें यह बात भली प्रकार से समझ लेनी चाहिए कि मनुष्य की सोच का विकास उसकी मान्यता पर निर्भर करता है और उस मान्यता का क्रियान्वयन उसकी मानसिकता का आधार है. हालांकि यह बात भी सच है कि मान्यता का कोई भौतिक आधार नहीं होता और उसे हम कल्पना भी नहीं कह सकते. वह मनुष्य का एक अहसास है जो हमेशा उसे अपनी और खींचती है. ‘मान्यता’ और ‘मानसिकता’ को परिभाषित करना थोड़ा कठिन है. इन दोनों में एक महीन सा अंतर है, लेकिन जहां मान्यता का प्रभाव समष्टिगत है तो वहीँ पर मानसिकता व्यक्तिनिष्ठ है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जहां मान्यता किसी समुदाय, समाज, जाति और देश का हिस्सा होती है, वहीं मानसिकता काफी हद तक व्यक्तिगत होती है. लेकिन कई बार किसी व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव भी किसी दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता है. इसलिए मानसिकता और मान्यता का एक दूसरे के साथ अन्योयाश्रित सम्बन्ध प्रतीत होता है, और हम मान्यता और मानसिकता को एक दूसरे से अलग नहीं कर पाते. मान्यता का प्रभाव व्यक्ति पर ताउम्र रहता है, लेकिन मानसिकता परिवेश, समय और स्थिति के अनुसार बदलती रहती है. फिर भी यह तो तय है कि ऐसी परिस्थिति में भी मान्यता कहीं न कहीं पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर ही रही होती है. शेष अगले अंक में....!!!                    

12 अक्तूबर 2015

जन्मदिन और जीवन की प्रासंगिकता

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जीवन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है. मनुष्य जीवन के विषय में शायद तब भी कोई विचार नहीं करता जब वह बहुत गहरे संकट में होता है. यहाँ तक कि मनुष्य जब मृत्यु शैय्या पर होता है तब भी वह जीवन की प्रासंगिकता के विषय में नहीं, बल्कि अपनी बनी-बनायी दुनिया के विषय में सोचता है. उसका मन इस पहलू पर भी विचार करता है कि उसके न होने से कई लोगों का जीवन किस तरह से प्रभावित हो सकता है. मनुष्य जीवन भर कुछ ‘बेहतर’ करने की आशा से जीता है. लेकिन इस बेहतर में उसके अपने जीवन पहलू, उसकी अपनी जरूरतें, अपनी इच्छाएं और लालसाएं ज्यादा जुडी होती हैं. इन सबकी पूर्ति के लिए वह निरन्तर सोचता है, विचारता है और ऐसा प्रयास भी करता है कि उसे कम से कम समय में अधिक से अधिक लाभ प्राप्त हो और वह अपना जीवन सुखपूर्वक जी सके. अधिकतर लोगों का जीवन के प्रति यही नजरिया होता है और वह इसी तरह जीवनयापन करते हुए आगे बढ़ते हैं.
जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा भी हो, हम जीवन में कुछ भी अर्जित करना चाहते हों. लेकिन एक बात तो तय है कि जीवन अपनी गति से चलता है. हम न तो उसकी समय सीमा बढ़ा सकते हैं और न ही यह हमारे वश में है कि हम उस गति को कम कर सकते हैं. जीवन तो साँसों के सफ़र का उत्सव है. साँसों की यह लड़ी जब तक चल रही है, तब तक जीवन है और जैसे ही इस लड़ी का क्रम टूटा जीवन-जीवन नहीं रह जाता. हम ‘काल’ से बंधे हुए हैं और ‘साँसों की पूंजी’ हमारे पास सीमित है. अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसका उपयोग कैसे करते हैं. क्योँकि मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसके पास यह अधिकार है कि वह अपने जीवन के लिए क्या लक्ष्य निर्धारित करता है और किस तरह से वह जीवन को जीता है. इसलिए अध्यात्म की भाषा में मनुष्य जीवन को ‘कर्म योनि’ की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, और यह भी बताया जाता है कि मनुष्य जन्म इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त चर अचर प्रकृति में सर्वश्रेष्ठ है. इसकी सर्वश्रेष्ठता के कई पहलू हमारे सामने हैं और ऋषि-मुनियों, गुरु-पीर-पैगम्बरों ने मनुष्य जीवन की सर्वश्रेष्ठता के इन पहलूओं को हमारे सामने लाने का प्रयास भी किया है. साथ ही मनुष्य को यह भी निर्देश दिया है कि वह जीवन को किस तरह से जिए और किस तरह के लक्ष्य वह अपने लिए निर्धारित करे.
मनुष्य जीवन की महत्ता और उसके जीवन लक्ष्यों के निर्धारण पर लम्बे समय से विचार किया जाता रहा है. लेकिन अभी तक कोई ऐसा निष्कर्ष हमारे सामने नहीं है कि मनुष्य को जीवन सिर्फ इसी कार्य के मिला है. मनुष्य के जीवन के लक्ष्य देश, काल और समय के अनुसार बदलते रहे हैं. इसलिए हम देखते हैं कि पूरे विश्व में मानव जीवन के लक्ष्यों में एकरूपता देखने को नहीं मिलती. लेकिन एक बात तो तय है कि मनुष्य का जन्म और जीवन के विकास की प्रक्रिया पूरे विश्व में लगभग एक जैसी ही है. इसीलिए तो महापुरुषों ने एक नूर ते सब जग उपज्या  कह कर जीवन और जगत की एकरूपता को समझाने का प्रयास किया है. लेकिन फिर भी मनुष्य अपनी बुद्धि-विवेक और परिस्थिति के हिसाब से अपनी प्राथमिकताएं खुद तय करता है. जीवन में उसके अपने लक्ष्य हैं और यह होने भी चाहिए. जहाँ तक दार्शनिकों और गुरु-पीर-पैगम्बरों का सवाल है वह तो मनुष्य को यह बात समझाने का प्रयास करते हैं कि मनुष्य को जीवन किस मकसद के लिए मिला है और उसी मकसद की और वह उसका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं. गुरु-पीर-पैगम्बर मनुष्य को जीवन जीने की पद्धति सिखाते रहे हैं और उसके जीवन में उच्च आदर्शों की स्थापना हेतु प्रेरित करते रहे हैं. लेकिन यहाँ यह जरुरी नहीं कि हर व्यक्ति गुरु-पीर-पैगम्बरों के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करे और उसी अनुसार अपने जीवन के लक्ष्य निर्धारित करे. यह सब कुछ मनुष्य की अपनी सोच पर निर्भर करता है और जहाँ तक जीवन लक्ष्य का प्रश्न है वह मनुष्य को अपनी सोच से ही निर्धारित करना होता है. दूसरों के बताये हुए मार्ग का अनुसरण करते हुए मनुष्य कभी भी महानता की सीमा तक नहीं पहुँच सकता. हाँ इतना जरुर है कि वह अगर किसी आदर्श का अनुसरण करते हुए जीवन जी रहा है तो अपने मनुष्य होने का प्रमाण दे सकता है. मानवीय आदर्शों की स्थापना में उसका योगदान गिना जा सकता है. लेकिन यहाँ इस बात पर ध्यान देना जरुरी है कि हम किसी का भी अनुसरण कर रहे हों वहां हम अपनी वुद्धि का जरुर प्रयोग करें. अगर हम ऐसा करते हैं तो हम अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व कायम कर सकते हैं.
जीवन और जीवन की प्रासंगिकता मनुष्य के सामने यक्ष प्रश्न की तरह है, और इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य को अपने विवेक से खोजने का प्रयास करना चाहिए. क्योँकि मनुष्य जीवन भर बाहर की दुनिया को विश्लेषित करने का प्रयास करता रहता है और यह होना भी चाहिए. लेकिन जितना वह बाहर की दुनिया पर ध्यान केन्द्रित करता है उतना ही वह अपने भीतर भी ध्यान केन्द्रित करे तो परिणाम उत्साहजनक हो सकते हैं. क्योँकि जीवन की वास्तविक यात्रा भीतर से शुरू होती है और उसका कोई अन्त नहीं है. मनुष्य भीतर से जितना बेहतर होगा बाहर की दुनिया वह उतनी ही बेहतर बनाने का प्रयास करेगा. हम व्यावहारिक जीवन में देखते हैं कि मनुष्य की सोच किस कदर उसके और उसके सम्पर्क में आने वाले मनुष्यों के जीवन को प्रभावित करती है. इसलिए जीवन में हर कर्म का महत्व अधिक बढ़ जाता है. हमारे जीवन की प्रासंगिकता का निर्धारण किसी जीवन के किसी एक पहलू से नहीं होता, इसके लिए हमें सतत अभ्यास करते हुए, मानवीय मूल्यों को जीवन में धारण करते हुए जीवन के सफ़र को तय करना होता है. अगर हम ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारे जन्म का लक्ष्य तय हो जाता है और जीवन की प्रासंगिकता का निर्धारण भी, लेकिन अन्तिम निर्णय फिर भी हमें अपने ही विवेक के अनुसार लेना होगा.

18 सितंबर 2015

ज्ञान-विज्ञान और मानवीय संघर्ष...2

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गत अंक से आगे.. अधिकतर यह देखा गया है कि जो व्यक्ति जितने विराट व्यक्तित्व का स्वामी होगा, उसमें ज्ञान की सम्भावना  उतनी ही अधिक होगी. उस व्यक्ति के लिए हमारा दृष्टिकोण अध्यात्म के आधार पर विकसित होता है. कई बार तो हम ऐसा भी सोच-समझ लेते हैं कि अमुक व्यक्ति में कोई अदृश्य या दैवीय शक्ति काम कर रही है, जिससे इस व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना चुम्बकीय है, लेकिन अधिकतर ऐसा नहीं होता. महान चरित्र वाले अधिकतर व्यक्ति परिस्थितियों की उपज होते हैं, जीवन के यथार्थ को समझने वाले होते हैं. जीवन का यह यथार्थ किसी को एक पल में समझ आता है और कोई इसे लाख कोशिश करने के बाद भी नहीं समझ पाता. कुछ ऐसे भी होते हैं जो इसे जानते तो हैं, लेकिन समझते नहीं. कुछ ऐसे भी होते हैं जिनका इस यथार्थ से हर पल वास्ता पड़ता है, मगर यह उनके अहसास का हिस्सा नहीं बन पाता. जीवन के यथार्थ के विषय में हम जितना चिन्तन करेंगे, उतना ही हम पायेंगे.       
अब यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हम जीवन में किसे यथार्थ माने और किसे नहीं? यह एक गम्भीर  प्रश्न है और इसी प्रश्न को सुलझाने के लिए मनुष्य चिरकाल से प्रयत्नशील है. जीवन की वास्तविक स्थिति और यथार्थ पर उसने आज तक जितना चिन्तन किया है उसके आधार पर उसने अपनी कुछ अवधारणायें भी बनायीं हैं और काफी हद तक मनुष्य के जीवन को उन अवधारणाओं ने प्रभावित भी किया है. लेकिन बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम नजरअंदाज कर रहे हैं, और इसी कारण हमारे मानवीय चिन्तन का उत्कृष्ट पहलू कभी सामने ही नहीं आ पाया है. बल्कि वक़्त की नजाकत को समझने की अगर हम कोशिश करें तो पता चलता है कि जो कुछ किया जाना चाहिए था, या होना चाहिए था, सब कुछ उसके विपरीत किया जा रहा है. ऐसी स्थिति में हम यह निर्धारित नहीं कर पा रहे हैं कि वास्तविकता क्या है?
जीवन की वास्तविकता को समझने का जहाँ तक प्रश्न है उसके विषय में भी अनेक मत प्रचलित हैं और हर कोई मत अपने को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की फिराक में है. वह भी बिना किसी तर्क के. जीवन का यथार्थ और उससे जुड़े हुए पहलूओं को समझने की दिशा में कदम बढ़ाना एक विशद बहस का हिस्सा हो सकते हैं और होना भी ऐसा ही चाहिए. कुछ लोगों ने कोशिश भी की है, लेकिन अब तक कोई ऐसा सिद्धान्त या दर्शन प्रचलित नहीं हो पाया जिसमें हम जीवन की वास्तविकता को समझते हुए आगे बढ़ने का प्रयास कर सकें. हाँ जो कुछ हमारे पास उपलब्ध है वह हमें सकून देता है, कुछ हद तक हमें जीवन को सहज बनाने की तरफ ले जाता है, लेकिन उस सीमा तक नहीं, जिसकी अपेक्षा की जाती है. यह भी एक सत्य है कि ज्ञान और विज्ञान आज तक इस पहलू को सुलझाने की कोशिश करते रहे हैं और उन्हें आंशिक रूप से सफलता भी इसमें प्राप्त हुई है.
जीवन के वास्तविक पहलूँओं को समझने के लिए हम ‘ज्ञान’ और ‘विज्ञान’ में से एक का चुनाव करते हैं. सतही तौर पर देखा जाए तो दोनों हमें जीवन के लक्ष्य तक ले जाने के साधन हैं. हालाँकि ‘ज्ञान’ यह दावा करता है कि मनुष्य का जीवन एक विशेष मकसद के लिए मिला है और मनुष्य जन्म के बाद उसे ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करनी है. मोक्ष की प्राप्ति के लिए उसे इस जीवन में अच्छे कर्म करने हैं और फिर जब उसके ‘प्राण’ इस शरीर से निकलेंगे तो उसे ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होगी. लेकिन ‘विज्ञान’ ने अब तक ऐसी कोई रूपरेखा मनुष्य के समक्ष नहीं रखी, हाँ इतना जरुर है कि विज्ञान भी इस सृष्टि के संचालन के लिए ‘उर्जा’ को जिम्मेवार मानता है और यह भी मानता है की यह सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है. विज्ञान जिसे ‘ऊर्जा’ कह रहा है, ज्ञान उसे ‘ईश्वर’ का दर्जा दे रहा है. विज्ञान इस उर्जा को समझने की कोशिश कर रहा है तो ज्ञान का दावा है कि यह ऊर्जा ‘ईश्वर’ है और उसने इसे समझ लिया है.  यह भी एक विचित्र तथ्य है कि विज्ञान जिसे ‘ऊर्जा’ और ज्ञान जिसे ‘ईश्वर’ कह रहा है उसके आधार पर देखा जाए तो दोनों का मानना है कि इस सृष्टि का निर्माण इसी से हुआ है. ज्ञान कई बार इसे ‘परमतत्व’ कहता है तो विज्ञान इसे ‘तत्व’ की संज्ञा से अभिहित कर रहा है. ज्ञान कहता है कि यह ‘परमतत्व’ न तो पैदा किया जा सकता है और न ही यह ख़त्म होता है, यह अजर, अमर अविनाशी है, जिसे अध्यात्म ‘स्वयंभू’ भी कहता है. अब जरा इसी आधार पर विज्ञान को देखने की कोशिश करें तो, विज्ञान जिसे ‘तत्व या पदार्थ’ कह रहा है उसके विषय में भी विज्ञान की लगभग ऐसी ही मान्यता है. विज्ञान कहता है कि इस सृष्टि का मूल कारण पदार्थ है, और पदार्थ को न तो पैदा किया जा सकता है और न ही उसे समाप्त किया जा सकता है. इससे तो ज्ञान की वह धारणा भी बलबती हो जाती है जो उसने ‘परमतत्व’ के ‘स्वयंभू’ होने के सन्दर्भ में कहा है, क्योँकि विज्ञान का मानना है कि पूरी सृष्टि इसी तत्व के आधार पर संचालित हो रही है. विज्ञान तो काफी हद तक इस बात से भी सहमत है कि अगर पदार्थ की ऊर्जा को समझ लिया जाए तो उससे मनचाहे कार्य करवाए जा सकते हैं. ज्ञान भी इसी का दावा करता है और कहता है कि अगर हम दैवीय शक्तियों को सिद्ध कर लेते हैं तो हम मनचाही उपलब्धियां प्राप्त कर सकते हैं.
ज्ञान और विज्ञान के दृष्टिकोण से हम सृष्टि की उत्पति के विषय को समझने का प्रयास करें तो बात एकदम स्पष्ट हो जाती है. मात्र शब्दों के हेर-फेर के कारण हमें यह दोनों लगा लगते हैं. यह बात अलग है कि ‘ज्ञान’ को समझने के लिए हमें ‘विज्ञानसम्मत’ चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है. जब तक हम ज्ञान को समझने के लिए विज्ञान सहारा नहीं लेते तब तक ज्ञान हमारे लिए लाभदायक नहीं हो सकता. हम जीवन में सबसे बड़ी भूल ही यह करते हैं कि हम ज्ञान और विज्ञान को एक दूसरे का विरोधी मानते हैं. लेकिन हमें समझना तो यह चाहिए कि विज्ञान ही वह माध्यम है जो हमें ज्ञान की पराकाष्ठा तक ले जाता है. इसे हम यूं भी कह सकते हैं कि विज्ञान एक पद्धति है जिसके माध्यम से हम ज्ञान तक पहुँचते हैं. विज्ञान ही ज्ञान तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त करता है. शेष अगले अंक में. 

13 सितंबर 2015

ज्ञान-विज्ञान और मानवीय संघर्ष...1

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ज्ञान और विज्ञान जीवन के दो पहलू है. ज्ञान जहाँ हमारी भीतरी समझ को विकसित करता है, वहीं विज्ञान हमारी बाहरी उलझन को सुलझाने की कोशिश करता है. ज्ञान और विज्ञान मिलकर जीवन को जो अर्थ प्रदान करते हैं, वह हम किसी और माध्यम से प्राप्त नहीं कर सकते. जैसे पक्षी को ऊँची उड़ान के लिए दो पंखों के सही सलामत होने की आवश्यकता होती है, उसी तरह एक मनुष्य को बेहतर जीवन जीने के लिए ज्ञान और विज्ञान दोनों की बेहतर समझ की आवश्यकता होती है. सैद्धान्तिक तौर पर देखें को ऐसा आभास होता है कि ज्ञान और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन जब हम गहराई से आकलन करते हैं तो पाते हैं कि यह दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के सहायक हैं, पूरक हैं. ठीक उसी तरह जैसे एक सिक्के के दो पहलू अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुदा नहीं होते. ज्ञान और विज्ञान के सन्दर्भ में भी इस बात को इसी तरह समझा जा सकता है.
हम जब मनुष्य के विकास की कहानी को समझने की कोशिश करते हैं तो उसके विषय में विज्ञान के अलग मत हैं, तो ज्ञान उसे अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश करता है. लेकिन इतना तो तय है कि इस धरा पर जीवन का विकास हुआ है. इस विकास के पीछे की कहानी कुछ भी हो, लेकिन जो कुछ हमें नजर आ रहा है, समझ आ रहा है, उसे कैसे बेहतर रूप दिया जा सकता है यह विचारणीय प्रश्न है. मनुष्य का भौतिक विकास (शारीरिक विकास) प्रकृति पर निर्भर करता है, लेकिन उसका मानसिक विकास उसके परिवेश पर निर्भर करता है. वेदों से लेकर आज तक के उपलब्ध साहित्य का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह बात हमें आसानी से समझ आती है कि हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, समाज सुधारकों और वैज्ञानिकों का अधिकतर चिन्तन मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने के लिए समर्पित रहा है. उन्होंने प्रकृति के रहस्यों को भी इसलिए समझने की कोशिश की कि इन रहस्यों को समझकर जीवन के लिए क्या बेहतर प्राप्त किया जा सकता है. यह स्थिति आज भी हम देख रहे है कि विज्ञान का प्रयास मनुष्य के जीवन को खुशहाल बनाने का है और इसके लिए विज्ञान निरन्तर प्रयासरत है.
ज्ञान जहाँ हमें किसी बात को बिना तर्क के स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है वहीं विज्ञान हमें यह समझाने की कोशिश करता है कि जो कुछ भी घटित होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण जरुर होता है. बिना कारण के कार्य हो ही नहीं सकता. हर एक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण जरुर होता है, विज्ञान उस कारण को तर्क के आधार पर सिद्ध करने की कोशिश करता है और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास उसका रहता है. लेकिन ऐसी स्थिति में हम ज्ञान के महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते. विज्ञान के माध्यम से निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए भी हमें ज्ञान की आवश्यकता होती है, इसलिए यह जरुरी है कि हम जीवन के हर पहलू में ज्ञान और विज्ञान दोनों को शामिल करें और एक बेहतर जीवन की कल्पना के साथ आगे बढ़ते हुए मानवीय पहलूओं को उजागर करें.
ज्ञान और विज्ञान ने मनुष्य को आज तक जो कुछ भी दिया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर इन दोनों के आधार पर जीवन जिया जाता तो दुनिया का स्वरूप ही कुछ और होता. लेकिन ऐसा नहीं हो सका और जैसा वातावरण आज निर्मित किया जा रहा है उसके आधार पर तो हम यही कह सकते हैं कि भविष्य में भी ऎसी कोई सम्भावना हमें नजर आती हुई नहीं दिखाई दे रही है, जिस आधार पर हम आश्वस्त हो सकें कि इतने समय बाद मनुष्य की सोच इतनी विकसित हो जाएगी कि वह किसी का कोई अहित करने की क्षमता नहीं रखेगा. वह सबसे प्रेम करेगा और अपने हित के बजाय किसी दूसरे के हित को तरजीह देगा. बल्कि जो वातावरण बन रहा है वह तो यह बता रहा है कि स्थितियां इसके उलट होने वाली हैं, और आने वाले भविष्य में मनुष्य को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे.  
ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि आखिर मनुष्य का संघर्ष किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए है, वह जो कुछ कर रहा है, उसको करने के बाद उसे क्या हासिल होने वाला है. इतिहास के अनेक प्रसिद्ध और पराक्रमी व्यक्तियों की कहानियां हमारे सामने हैं. एक तरफ रावण, दुर्योधन, सिकन्दर, हिटलर जैसे व्यक्ति हैं तो दूसरी तरफ राम, कृष्ण, बुद्ध और गाँधी जैसे विराट व्यक्तित्व के मालिक हैं. बड़ी सूक्षमता से अगर हम इन सबके चरित्रों का विश्लेषण करें तो एक बात साफ़ नजर आती है, वह यह कि इन सबमें अपने उद्देश्य के प्रति सर्वस्व को न्योछावर करने का भाव है. हाँ यह बात अलग है कि रावण जैसे चरित्रों का उद्देश्य कुछ और है और राम जैसे आदर्शों का लक्ष्य कुछ और है, लेकिन जहाँ तक समर्पण का प्रश्न है वह इन सब में एक जैसा दिखाई देता हैं. लक्ष्य के प्रति समर्पित होने से पहले हमें लक्ष्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है. जरुरी नहीं है कि हम किसी महान उद्देश्य के लिए ही संघर्ष करेंगे तो तभी हमारी महता सिद्ध होगी. जबकि होगा तो यह ही कि हम छोटे-छोटे मानवीय संघर्ष करते हुए अपने जीवन को महान बना सकते हैं. जितने भी हमारे सामने विराट व्यक्तित्व के चरित्र हैं उनके जीवन और कर्म का सूक्ष्मता से जब हम निरीक्षण करेंगे तो हम एकदम समझ जायेंगे. शेष अगले अंक में.

31 जुलाई 2015

वैज्ञानिक उन्नति और मानवीय पहलू...2

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गतांक से आगे उपरी तौर पर देखा जाए तो पूरे विश्व में मानवीय पहलुओं की दुहाई देने वालों की कमी नहीं है. लेकिन यथार्थ में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसका चेहरा बड़ा विद्रूप है. कई बार तो ऐसा लगता है कि मनुष्य जो कुछ कह रहा है या जो कुछ उसके द्वारा किया जा रहा है वह एक झूठ का पुलिन्दा होने के सिवा कुछ भी नहीं, आज के हालातों पर गौर करें तो स्थिति एकदम स्पष्ट हो जाती है और वह बहुत ही भयावह नजर आती है. एक तरफ तो वैज्ञानिक उन्नति हो रही है और दूसरी तरफ मानव उतना ही पूर्वाग्रहों में फंसता नजर आ रहा है. होना तो यह चाहिए थी कि वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ मनुष्य भी तार्किक सोच रखता, और उन सब भ्रमों और भ्रांतियों से मुक्त होता, जो उसके लिए दुःख का कारण हैं. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. जो कुछ भी हो रहा है, वह सब कुछ वैज्ञानिक उन्नति के विपरीत है. आज भी मनुष्य जाति, धर्म, भाषा, रंग आदि के आधार पर लड़ाई-झगडे कर रहा है और दिनों-दिन यह सब कुछ बढ़ रहा है. फिर कैसी वैज्ञानिक उन्नति और कैसे मानवीय पहलू. गम्भीरता से सोचने की जरुरत है. एक बात बड़ी विचित्र है, जितना-जितना मनुष्य का वैज्ञानिक (भौतिक) विकास होता जा रहा है, उतनी-उतनी मानवीय पहलुओं में कमी होती जा रही है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं, जब मनुष्य ही मनुष्य के खून का प्यासा बनकर, अपने बजूद को मिटा देगा. लेकिन यह सब कुछ किसी विशेष उद्देश्य के कारण नहीं होगा, बल्कि कूछ लोग अपने अहम् की तुष्टि के लिए यह सब कुछ करेंगे, रहेंगे तो वह भी नहीं, लेकिन कुछ बेहतर इनसान भी इनकी नासमझियों के शिकार होंगे और मानवता चीत्कार कर अपने अस्तित्व की भीख मांगने पर मजबूर होगी.                     
अगर हम मनुष्य के प्रारम्भिक जीवन को देखें तो हमें मालूम होता है कि प्रारम्भ से उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को बनाये रखने का रहा है. इसे यूं भी कह सकते हैं कि, अपने अहम् की तुष्टि का रहा है. क्योँकि मनुष्य अपनी चेतना के कारण खुद को सबसे विशिष्ट मानता रहा है. किसी हद तक यह बात सही है. लेकिन जब यह चेतना विध्वंस का रूप धारण कर लेती है तो फिर उसके परिणाम बहुत दुखदाई होते हैं. हालाँकि मनुष्य को इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह इस प्रकृति का अभिन्न अंग है. जिस तरह से वह आज प्रकृति का दोहन कर रहा है, उसके साथ खिलवाड़ कर रहा है उससे तो यही लगता है कि आने वाला समय मनुष्य के लिए बहुत दर्दनाक होगा. एक कटु सत्य यह भी है कि मनुष्य विकास के नाम पर जो कुछ कर रहा है उसके परिणाम बहुत ही वीभत्स होंगे और मनुष्य की चेतना तब जागेगी जब सब कुछ उसके पास से लुट चूका होगा.
आज जो वैज्ञानिक विकास हो रहा है वह किसी हद तक मनुष्य के लिए सुखदायी है. इस वैज्ञानिक विकास को हम मनुष्य का भौतिक विकास होना भी कह सकते हैं. विज्ञान जिस अवधारणा पर काम करता है अगर हम उसे अपने  जीवन में भी लागू करें तो जीवन की स्थिति और भी सुखद तथा प्रासंगिक हो सकती है. विज्ञान की कार्य अवधारणा ज्ञात से अज्ञात की और बढ़ने की है, तर्क से तथ्य को जानने की है, अव्यवस्थित को व्यवस्थित करने की है, संहार के बजाय नव निर्माण की है, परम्परा पर चलने के बजाय नवीन प्रयोग की है. विज्ञान जिन आयामों को लेकर काम करता है उसका एक ही मकसद है ‘सही तथा सटीक’ जानकारी. जिस विषय में जो बिलकुल सार्थक है उसे जानने की कोशिश विज्ञान की है, और विज्ञान अगर ऐसा नहीं कर पाता तो वह कभी आगे नहीं बढ़ पायेगा. विज्ञान नवीनता का परिचायक है. इसके माध्यम से हम अपने आसपास के रहस्यों को समझने की कोशिश कर रहे हैं और जो कुछ हमारे लाभ के अनुकूल है उसे नया रूप देकर अपने जीवन का हिस्सा बना रहे हैं. मनुष्य को एक बार कभी नहीं भूलनी चाहिए कि जो कुछ उसने वैज्ञानिक विकास किया है उसके लिए सब कुछ उसने प्रकृति से अर्जित किया है. काफी हद तक विचार और तकनीक भी. उसी विचार और तकनीक के आधार पर वह निरन्तर आगे बढ़ रहा है और अपने जीवन में कुछ परिवर्तन कर पा रहा है. इन परिवर्तनों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है. शुरू से लेकर आज तक जो कुछ भी उसने अर्जित किया है, उसमें प्रकृति की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन दुःख इस बात का है कि मनुष्य इतना सब कुछ होने के बाबजूद भी वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पा रहा है. मानवीय पहलुओं के कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक उन्नति के बाबजूद भी नहीं बदले हैं, जबकि यथार्थ के धरातल पर उनका कोई ख़ास बजूद नहीं है. 

दुनिया के आज तक के उपलब्ध इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य के अस्तित्व में आने के साथ ही उसके संघर्षों का दौर भी शुरू हो गया. लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोगों की तादाद बढती गयी, विश्व की कई सभ्यताओं ने जन्म लिया और अपने चरम को हासिल किया. लेकिन आज उन महान सभ्यताओं के कहीं कोई ख़ास चिन्ह हमें देखने को नहीं मिलते. सभ्यताएं बनी और फिर चरम पर पहुँचने के बाद अपने अस्तित्व को खो बैठी. आखिर ऐसा क्योँ हुआ? अगर हम इस प्रश्न पर विचार करें तो हमें बात समझ में आती है कि यह सब कुछ मनुष्य की भूलों के कारण हुआ. प्रकृति का आज तक जितना नुक्सान मनुष्य ने किया है, उससे कहीं अधिक नुक्सान मनुष्य ने मनुष्य का किया है. किसी भी सभ्यता के पनपने के साथ ही संघर्ष भी साथ ही शुरू हुए हैं और जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ता जा रहा है उसके संघर्षों का दौर और ज्यादा विकराल रूप धारण करता जा रहा है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन संघर्षों में मनुष्य ने कुछ ख़ास हासिल नहीं किया, बल्कि सब कुछ खोया ही है. दुनिया में जितने भी युद्ध हुए हैं उनके कारणों को और परिणामों को जब हम देखते हैं तो बात एकदम स्पष्ट हो जाती है.

21 जुलाई 2015

वैज्ञानिक उन्नति और मानवीय पहलू...1

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आज से पांच हजार साल पहले के इतिहास की तरफ जब हम देखते हैं तो, हमें मनुष्य के होने के कुछ चिन्ह दिखाई देने शुरू हो जाते हैं. मनुष्य ही क्योँ हमें इतिहास के इस पहलू पर भी ध्यान देना होगा कि मनुष्य के होने से पहले इस धरा पर क्या था? और उसकी उत्पत्ति कैसे हुई? हो सकता है इस बात पर भी विचार किया गया हो कि इस धरा पर प्रकृति और जीवन की उत्पत्ति से पहले क्या था? यह बात अलग है कि किसी एक निष्कर्ष पर अभी तक मनुष्य पहुंचा हो. वैसे एक बात तो सभी कोणों से सही है कि इस धरती पर अगर कोई सर्वश्रेष्ठ जीव है तो वह है मनुष्य’. मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने के अपने-अपने कारण हैं. हम जिस पहलू से और जिस कोण से उसे देखने की कोशिश करेंगे, वह पहलू हमें सकारात्मक ही प्रतीत होगा, और हम मनुष्य की उपलब्धियों पर गौर करते हुए आगे बढ़ते नजर आयेंगे, और यह भी सोचेंगे कि इन पांच हजार सालों में मनुष्य ने कितना वैज्ञानिक विकास किया है, कितनी भौतिक सुख-सुविधाएँ उसने अपने लिए जुटाई हैं और किस तरह से अपने जीवन को पाषाण युगसे निकाल कर अंकीय युग’ (Digital Age) तक पहुंचाया है. मनुष्य इस अंकीय युगसे भी आगे निकल जाना चाहता है और पूरे ब्रहमांड में अपनी जीवटता के आधार पर अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना चाहता है. इसी श्रेष्ठता के भाव ने उसे हमेशा क्रियाशील बनाये रखा है और वह निरन्तर प्रगति करते हुए आगे बढ़ रहा है.

लेकिन इस पूरी प्रगति के दूसरे पहलू को देखें तो यह बड़ा दर्दनाक और इतना वीभत्स है कि मनुष्य के होने पर भी सन्देह होने लगता है. मनुष्य जिसे ईश्वरका प्रतिरूप कहा गया है, जो ईश्वर के जैसा है. यह हम सबकी मान्यता है और भारत के सन्दर्भ में देखा जाए तो यहाँ इस मान्यता को बड़ी मजबूती से स्थापित करने की कोशिश की गयी है. यहाँ तो मनुष्य ही नहीं बल्कि प्रकृति के हर पहलू को ईश्वर का प्रतिरूप ही माना गया है. एक मान्यता तो यह भी है कि यह सारी सृष्टि ईश्वर के द्वारा सृजित है. वही इसे उत्पन्न करने वाला, चलाने वाला और इसे नष्ट करने वाला है. अगर मनुष्य को इन सब बातों की जानकारी है, और यही उसकी मान्यता है तो फिर उसकी दौड़ समाप्त हो जानी चाहिए. उसके मन से भेदभाव मिट जाने चाहिए, और पूरी दुनिया में सिर्फ मानवीय पहलुओं का ही बोलबाला होना चाहिए. 

हालाँकि आदर्शों के हिसाब से मानवीय पहलुओं का आकलन किया जाए तो मनुष्य ने अपने लिए बहुत ऊँचे आदर्श तय किये हैं, और ऐसा नहीं है कि आज इन आदर्शों की कोई कीमत नहीं है, या मनुष्य इन आदर्शों को समझने की कोशिश नहीं कर रहा है. वह सब कुछ कर रहा है लेकिन प्रगति कुछ नहीं हो रही है. सब कुछ विपरीत दिशा में जा रहा है और दिन-प्रतिदिन भौतिक चकाचौंध में मनुष्य अपने अस्तित्व को ही नष्ट कर रहा है. जो संकेत आज हमें मनुष्य की वैज्ञानिक उन्नति दे रही है अगर उसका सही ढंग से आकलन किया जाए तो स्थिति संभालने का मौका भी हमारे पास नहीं है. लेकिन जरा रुकें और सोचें कि यह सब कुछ क्योँ किया जा रहा है और इसका क्या लाभ मानवता को होने वाला है. मैंने एक बड़ी अर्थपूर्ण पंक्ति कभी पढ़ी थी कि आज तक अच्छा युद्ध और बुरी शान्ति कभी नहीं हुई’. इतिहास उठाकर देखें तो पता चलता है कि जब भी युद्ध हुआ है उसके परिणाम कभी सार्थक नहीं रहे हैं और शान्ति कभी भी बुरी नहीं हुई है. हमारे यहाँ सत्य और अहिंसाको बढ़ी महता प्रदान की गयी है, लेकिन यह सब बातों तक या कहने तक ही सीमित हो गया है. इन सब आदर्शों की कोई व्यावहारिकता आज की दुनिया में कहीं नजर नहीं आ रही है. हालाँकि उपरी तौर पर देखा जाए तो पूरे विश्व में मानवीय पहलुओं की दुहाई देने वालों की कमी नहीं है. लेकिन यथार्थ में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसका चेहरा बड़ा विद्रूप है. शेष अगले अंक में....