यह संसार एक मेला है , यहाँ जो भी आता है अपना समय बिता कर चला जाता है आने - जाने
का यह क्रम आदि काल से चला आ रहा है . पूरी कायनात को जब हम देखते हैं तो यह ही महसूस होता है कि
इस जहां में कुछ भी नित्य नहीं है , शाश्वत नहीं है . अगर कहीं कुछ शाश्वत है तो उसे
हम ईश्वर की संज्ञा से अभिहित करते हैं . जो नित्य रहने वाला है , तीनो कालों में जो एक जैसा है , जिस पर किसी का भी प्रभाव नहीं होता , जिसकी सत्ता
जड़ और चेतन दोनों में समायी है , जो सदा एक रस रहने वाला है , ऐसी ना जाने कितनी उपमाएं इस शाश्वत सत्ता के साथ जोड़ी जाती हैं और यह
क्रम अनवरत रूप से इस संसार में चला रहता है . विश्व का कोई भी देश हो किसी न किसी
रूप में वहां की जनता इस अदृश्य सत्ता के प्रति नतमस्तक रहती है , और उसी को जीवन का आधार मानती है . जहाँ तक भारतवर्ष का सम्बन्ध है यह तो सृष्टि के प्रारंभ से ही ऋषि मुनियों की धरती रहा है सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञानसे आलोकित करने वाले देश के
रूप में इसे ख्याति प्राप्त है . लेकिन परिवर्तन की मार इस पर भी पड़ी है और यह भी
प्रकृति के कोप आधार बनता रहा है . कभी
मनुष्य के कारण तो कभी प्रकृति के कारण, फिर भी इस देश की
सभ्यता और संस्कृति आज तक पूरे विश्व के लोगों का पथ प्रदर्शन करती रही है और आने
वाले समय में ??? इस देश की अगर यही हालत रही तो इस देश की
सभ्यता और संस्कृति पर कई तरह के प्रश्नचिन्ह खड़े हो सकते हैं और आज जो हम अपने
अतीत की दुहाई देते फिरते हैं वह भी हमसे नहीं हो पायेगा . तब हम मात्र राम - रावण करते रह जायेंगे और , पुतलों के जलने की ख़ुशी में अपने जीवन के
महत्वपूर्ण पलों को गवां देंगे , और इस धुन में यह भी भूल
जायेंगे कि हम भी पुतले हैं और संभवतः पुतलों का कोई संसार नहीं होता , कोई अस्तित्व नहीं होता .
आजकल पुतला जलाना एक प्रथा बन चुका है .जब भी कोई किसी नियम को तोड़ता है , या मानवीय भावनाओं के
खिलाफ कोई व्यक्ति कार्य करता है तो हम उसका पुतला जलाते हैं . लेकिन उस पुतला जलाने का किसी पर क्या असर होता है , यह मेरी समझ से बाहर है . पुतला जला लेने के बाद मैंने आज तक किसी के जीवन और चरित्र को बदलते हुए नहीं
देखा और जो लोग पुतला जलाने में शामिल होते हैं संभवतः किसी न किसी तरह से वह भी
उस व्यवस्था का हिस्सा होते हैं . ऐसी स्थिति में पुतला जलाना मात्र मनोरंजन ही
होता है , और आज तक मैं यही देखता आया हूँ . लेकिन बड़ी गंभीरता से सोचता हूँ तो पुतला जलाने का आशय तो
कुछ और है और जिस उद्देश्य से हम पुतला जला रहे हैं वह कुछ और है , यहाँ पर पुतला जलाना हमारे सामने एक विरोधाभास पैदा करता है ,
लेकिन हमारे पास कोई अवकाश नहीं कि हम उस विरोधाभास को दूर कर सकें
और सही और वास्तविक परिप्रेक्ष्यों में इन चीजों को देख सकें . आज हमारे सामने जो स्थितियां हैं उनके मद्देनजर हमें सभी चीजों के वास्तविक
मूल्यों को टटोलने की जरुरत है . उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक महता को समझने की
हमें महती आवश्यकता है , जो आशय इन सभी परम्पराओं और मान्यताओं का
है उसी सही परिप्रेश्य में उद्घाटित करने की जिम्मेवारी हमारी ही है और संभवतः हम
उस जिम्मेवारी का निर्वाह सही ढंग से नहीं कर रहे हैं , जो
आने वाली पीढ़ियों के लिए बड़ा खतरनाक साबित होगा .
राम और रावण धर्म और अधर्म के प्रतीक नहीं , बल्कि धर्म और प्रतिधर्म के प्रतीक हैं . राम बेशक हमारी
आस्था के केंद्रबिंदु हैं , जीवन की प्रेरणा के स्रोत हैं ,
मानवीय मूल्यों के रक्षक हैं और भी ना जाने क्या - क्या ? लेकिन रावण ? ? इसका तो नाम लेना भी हम बड़ा कष्टकारी
समझते हैं . रावण के लिए हमारे जहन में सम्मान नहीं , अपमान
है . वह निकृष्ट है , दुराचारी है , व्यभिचारी
है . यह रावण के जीवन का एक पहलू है . लेकिन इसके अलावा रावण हमारे सामने क्या है ?
यह सोचने का विषय है . अगर हम राम को ईश्वर का रूप या ईश्वर ही कह
दें तो भी इस बात पर गहनता से विचार करना होगा कि रावण में ऐसी क्या अद्भुत बात थी
जिसे मारने के लिए ईश्वर को इस संसार में अवतार लेना पड़ा . इतिहास के गर्भ में हमें इस प्रश्न का उत्तर जरुर खोजना
चाहिए . राम और रावण को इतिहास के परिप्रेक्ष्य में हम शायद नहीं देख पाए . हमारी
एकांगी दृष्टि और सोच ने राम और रावण दोनों के व्यक्तित्वों को समझने का अवसर नहीं
दिया . आज जिस रूप में राम और रावण हमारे सामने हैं , उससे
तो यही लगता है कि हम इन दोनों के जीवन मकसद को सही परिप्रेक्ष्यों में नहीं समझ
पाए .
आज जिस रूप में राम और रावण
हमारे सामने हैं . वह काव्य की कल्पना के आधार पर हैं , इतिहास के आधार पर नहीं ,और शायद
यही भूल हम आज तक करते आये हैं . इतिहास के आधार पर
हमने इनके व्यक्तित्वों का विश्लेषण किया ही नहीं और न ही करने की जरुरत समझी . भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनेकों पक्ष हैं जो राम और रावण के माध्यम से अभिव्यक्त हुए हैं . उस काल की स्थितियां और परिवेश भी कई रोचक जानकारियों से भरा रहा है . यह
भी इन दोनों के माध्यम से अभिव्यक्त हुआ है
. हम तकनीकी रूप से कितने सक्षम थे, इस बात का अंदाजा भी हमें इस काल के इतिहास को देखने से पता चल सकेगा और कई ऐसे अनछुए पहलू हैं जो मात्र राम और रावण के माध्यम से
ही हमारे सामने आ पायेंगे , लेकिन इसके लिए हमें अपनी एकांगी दृष्टि , कपोल
कल्पना को छोड़कर इतिहास के गर्भ में झांकना होगा और मंथन करने पर जो कुछ हमें हासिल होगा, उसे समाज के साथ सांझा करना होगा . राम
और रावण मात्र पुतलों का खेल नहीं, यह जीवन की विविध
संस्कृतियों को समझने जैसा है , जीवन को वास्तविकता से जोड़ने
जैसा है .