30 जनवरी 2012

उपलब्धि का आधार...1

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कल दोपहर कुर्सी पर बैठा मैं किसी विचार में मगन था. अचानक मेरी नजर सामने खिल रहे फूलों के गमलों पर पड़ी. अनायास ही मेरे चेहरे पर रौनक छा गयी. लगभग 300 गमलों पर दृष्टिपात करने के बाद अचानक मेरी दृष्टि एक सुन्दर से खिले फूल पर टिक गयी. बहुत देर निहारा मैंने उसेउसकी सुन्दरताशालीनताभोलापन सब कुछ. एक जीवन्त अहसास कुछ देर ऐसा लगा कि मैं उस फूल में समा गया हूँ. बहुत आत्मीयता से उसने मुझे गले लगाया हैऔर अपना कोमल और निश्छल प्रेम अनवरत मुझ पर बरसा रहा हैकुछ पल तक मैं विस्मृत कर गया खुद को और शामिल हो गया उस फूल के माध्यम से इस अनन्त प्रकृति में और प्रकृति से परमात्मा में. मैंने शरीर की सत्ता से बाहर कई बार खुद को महसूस किया है और आज फिर उसकी पुनरावृति इस फूल के माध्यम से हुई. इतने में किसी ने मुझे कहा सर कैसे हैं?? मुझे सुना नहीं. उन्हें लगा कि शायद मुझे कोई समस्या हैइसलिए आत्मीयता से पास आये और कहने लगेसर आप ठीक तो हैं ना? एकाएक मेरा ध्यान भंग हुआ और मेरे चहरे को देखकर वह चुप हो गएबिना कुछ कहे वह वहां से चले गए और शाम को जब मुझे मिले तो अपनी अनुभूति बताने लगे और मुझे कहने लगे तुम सच में धन्य हो......बस इतना कह कर फिर रुक गए. मैंने कुछ जानना नहीं चाहा लेकिन जब वह कुछ बोलने लगे तो फिर रुके नहीं और मैं सुनता रहाऔर बार-बार मैं कृतज्ञ हो रहा था उस फूल के लिए. याद आया मुझे वह शे'र और सुना दिया उसे ‘क्या खूब है जीना फूलों काहँसते आते हैं और हँसते चले जाते हैं’. काश मैं भी यही सोचता इस जीवन के बारे में और करता वह सब कुछ जो उस फूल ने मुझे दिया है.
जीवन भी क्या है ? अभी मैंने अस्तित्व की तलाश पर भी कुछ लिखने का एक छोटा सा प्रयास किया और उस वक़्त में सोच भी इसी बारे में रहा था. लेकिन एक फूल ने जिस तरह मुझे अपने आगोश में लिया वह अनुभव जीवन में बहुत कुछ दे गया. उस फूल की उपलब्धि उसकी सुन्दरता नहींउसकी पंखुड़ियां नहींकिसी हद तक उसकी सुगन्ध भी नहीं. उसकी उपलब्धि का आधार है उसका अपनापनवह हमेशा हर परिस्थिति में मुस्कुराता हैउसके मन में किसी के लिए वैर नहींकोई विरोध नहींकोई ईर्ष्या नहीं. वह तो निश्छल रूप से लुटा रहा है खुद कोऔर वह किसी एक के लिए नहींबल्कि पूरी कायनात के लिए हैं. तितली भी उस पर बैठती है , भवंरा उस पर गुंजन करता हैव्यक्ति उसे ईश्वर के चरणों में समर्पित करके अपनी मनोकामना पूरी करता हैऔर फूल को देखिये हम उसे उसके बजूद से अलग करते हैं, लेकिन फिर भी वह हँसते-हँसते हमारी ख़ुशी में शामिल हो जाता है. यहाँ मुझे अज्ञेय जी द्वारा रचित कविता सत्य तो बहुत मिले एकदम आँखों के सामने घूम गयी और फिर एक बार मैं उस फूल के प्रति नतमस्तक हुआ.
हमारे जीवन में हमारी उपलब्धि का आधार क्या हैहम जीवन में किसे उपलब्धि मानते हैं. उपलब्ध और उपलब्धि में सिर्फ एक मात्रा का अन्तर है. ‘ की मात्रा उपलब्धि में है और उपलब्ध में नहीं. अंग्रेजी में इन दोनों के लिए जो शब्द प्रयोग किये जाते हैं एक को हम Achievement कहते हैं और दूसरे को Available  कहते हैं. जो आज उपलब्ध है कल वह समाप्त हो सकता हैफिर वह आ सकता है. लेकिन उपलब्धि के मामले में ऐसा नहीं. वह एक बार आती हैफिर आती हैफिर आती है लेकिन उसके रूप अलग अलग होते हैंवह निरंतरता बनाये रखती है. वह हमारे जीवन को मूल्यवान बनाती है. लेकिन एक सहज सा प्रश्न उठता है कि उपलब्धि का आधार क्या हो ? उसके मानक क्या हैं ? कौन सी हद है उपलब्धि की और कौन पात्र है उपलब्धि का ? अनायास ही यह प्रश्न उठ सकते हैं और इन प्रश्नों का उठना हमें अपनी वास्तविक उपलब्धि की तरफ अग्रसर करेगा.
बात मूल बिन्दु की करते हैं. वेदों से लेकर आज तक हमारे पास जितने भी ग्रन्थ हैं सबके निष्कर्ष लगभग एक जैसे हैं. अगर निष्कर्ष एक जैसे हैं तो निश्चित रूप से आधार भी एक जैसा होगा. हमें जो उपरी भिन्नताएं नजर आती हैंअगर हम भिन्नताओं के इस आधार को पहचान लें तो किसी हद तक  हम भी उपलब्धि के करीब पहुँच सकते हैं. उस फूल की तरह जिसे देखने मात्र से ही हमें ईश्वर का अहसास होने लगता हैहम खुद की अस्मिता को भूल कर उस फूल में खो जाते हैंहमारा खुद को भूलकर उस फूल के प्रेमपाश में बंध जाना उस फूल की उपलब्धि को निर्धारित करता हैऔर उस फूल में सिर्फ हम ही नहींबल्कि इस कायनात का हर जीव समा सकता है. अब हम खुद को ही देखेंइस इनसानी जन्म को कहा तो सर्वश्रेष्ठ जाता है. निश्चित रूप से यह ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है. ईश्वर ने इसे अपने रूप में उतारा है और खुद जब ईश्वर ने धरती पर अवतार लिया तो मानव तन का ही सहारा लिया और दुनिया का मार्गदर्शन किया खासकर इनसानों का. उसे अवतरित होना पड़ा इनसानों को समझाने के लिएउन्हें जीवन की सार्थकता की पहचान करवाने के लिए. तैतरीय उपनिषद में इसे यूँ अभिव्यक्त किया गया है : 
                             यतो वा इमानि भूतानि जायन्तेयेन जातानि जीवन्तिI
                            यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्तितद्विजिज्ञासस्वतद्ब्रह्मेतिI (तै०उ0 312)
 यह सब प्रत्यक्ष दिखने वाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैंउत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं, तथा अन्त में प्रयाण करते हुए जिसमें प्रवेश करते हैंउसको जानने की इच्छा कर और वही ब्रह्म है. अब जब सृष्टि का आधार ही ब्रह्म है तो उसे जानना आवश्यक है और मानव जीवन का लक्ष्य भी वही है. यानि उपलब्धि का आधार ईश्वर है हम सब इससे पैदा हुए हैं और इसी में समायेंगे. शेष अगले अंकों में ....!

24 जनवरी 2012

तुम्हारी तस्वीर

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मेरे मेज पर सजी 
तुम्हारी उस खुबसूरत 
तस्वीर ने 
कल मुझसे एक सवाल किया 
" बहुत दिन हो गए 
तुमने मुझसे कुछ कहा नहीं " 
मैं स्तब्ध ... सोचता रहा 
उस सवाल को ......!

मुझे निरुतर देख 
फिर उसने कहा 
" बहुत दिन हो गए 
आईना देखे हुए " 

फिर उसी लहजे में 
" अब नहीं रही 
जिन्दगी में 
मोहब्बत की खुशबू  
अब नहीं रहा 
प्यार का वह पागलपन 
नहीं रही वह दीवानगी 
रहा नहीं वह अपनापन " 

एक सांस में ऐसे कहा 
मेरी जिन्दगी
अब .......!
जिन्दगी नहीं रही 
और तुम्हारी  
तु  म्हा  री 
जि....न्द....गी 
प्रश्न चिन्ह ?????? हो गयी .                                           

20 जनवरी 2012

अस्तित्व की तलाश .. 2

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गत अंक से आगे....आखिर क्या कारण है कि कुछ लोगों का अस्तित्व उनके ना होने पर भी बना रहता है और कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन की दौड़ में जीते जी खो जाते हैं. वह साँसें तो ले रहे हैं, चल फिर तो रहे हैं. भोजनभोग और निद्रा सब कुछ कर रहे हैं. लेकिन फिर भी अधूरे हैं. उनके जीवन का कोई लक्ष्य नहींकोई आधार नहींकोई सोच नहीं. बस जी रहे हैं जिन्दगी एक अनजान की तरह जो खुद के साथ होते हुए भी खुद से नहीं मिल पाते, इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता हैखैर यहाँ आज तक यही तो होता आया है. हमारे दर्शन में तो पहले ही स्पष्ट है कि "आये हैं सो जायेंगेराजा रंक फकीर.  एक सिंहासन चढ़ चलेएक बाँध जंजीर" जो जंजीरों में बंध गया उसने खुद को खो दिया. वह खुद को भूल गया. उसके जीवन का कोई मकसद नहीं रहा. लेकिन जिसने खुद से बात कर लीखुद की भावना को समझ लिया वह जीवन के मकसद के करीब पहुच गया. संभवतः उसने अपने अस्तित्व को पहचान लिया और सजग हो गयाजीवन के प्रति.
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इनसान खुद के अस्तित्व को कैसे पहचानेयह बड़ा जटिल प्रश्न हैऔर संभवतः इसका हल इतनी आसानी से निकलने वाला नहीं. जिनको इसका हल मिल गयाउनके जीवन की दुबिधा समाप्त हो गयी. लेकिन ऐसा आज तक बहुत कम लोगों के साथ हुआ है. अस्तित्व को तलाशना असाध्य वीणा को बजाने जैसा है. यहाँ सब बड़े-बड़े अहंकारी हार जाते हैं और जो खुद को उस किरीटी तरु को समर्पित कर देता है, वह वीणा बजाने में सफल हो जाता है. यही अस्तित्व है. हम किसी वाद्य यंत्र को देखते हैं. कहीं से क्या ऐसा प्रतीत होता है जो उसकी महता को बताता हो. देखने में वह वाद्य धातुलकड़ी या किसी से भी निर्मित होता है. लेकिन उस वाद्य का अस्तित्व तो उससे निसृत होने वाली मधुर ध्वनि से है और वह ध्वनि कोई अनाडी नहीं निकाल सकता. उसका स्पर्श करने से तो स्वर भंग हो जाता है. लेकिन जब कोई साधक उसे बजाता है तो उस निर्जीव सी वस्तु से निसृत स्वर हमें आनंद के सागर में डुबो देता है. अब वहां एक ऐसा वातावरण बना जिसने हमें सोचने पर विवश कर दिया. साधक का अस्तित्व स्वर से जुड़ गयाऔर वाद्य का अस्तित्व साधक से जुड़ गया. वाद्य से मधुर ध्वनि निसृत हो सकती है, लेकिन उसके लिए साधक चाहिएअब साधक मधुर ध्वनि से वातावरण को सहज बना सकता है, लेकिन उसे वाद्य चाहिए. दोनों का मकसद ध्वनि हो गया. साधक का भी और वाद्य का भी. जब तक दोनों का तालमेल बना रहा, दोनों का अस्तित्व बना रहाऔर जब किसी एक ने दुसरे की महता को कमतर आँका अस्तित्व तलाशने से महरूम हो गए. जीवन जीने के आनंद से वंचित हो गए. 
अस्तित्व के मामले में यही बात सभी पर लागू होती है. जिस तरह शरीर आत्मा के बगैरऔर आत्मा शरीर के बगैर कोई पहचान नहीं रखते. लेकिन आत्मा के लिए शरीर का होना ही काफी नहीं है और शरीर के लिए आत्मा का होना. दोनों की सत्ता एक दुसरे से भिन्न नहीं. दोनों का एक दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. शरीर स्थूल है और आत्मा सूक्षमशरीर क्षणभंगुर है और आत्मा कालातीत. आत्मा परमात्मा का अंश है, तो शरीर प्रकृति का. लेकिन यह दोनों एक ही सत्ता के दो रूप हैं. किसी हद तक हम सोच सकते हैं कि आत्मा के कारण शरीर का अस्तित्व है और शरीर के कारण आत्मा का. लेकिन जिस अस्तित्व की बात में कर रहा हूँ यह अस्तित्व का अगला पड़ाव है , और जिसने इसकी पहचान कर ली वह सवंर गया.
हम खुद को नहीं खोज पातेक्योँकि हम खुद को जकड देते हैं कभी भाषा मेंकभी जाति मेंकभी धर्म मेंकभी मजहब मेंऔर कहीं संसारिक रिश्तेदारियों में. निभाने के तौर पर तो यह सब ठीक हैं, लेकिन हम खुद की पहचान इन्हें बना लें तो यह हमारे लिए सही नहीं होगा. हम अपना अस्तित्व इन्हें मान लें तो बड़ी भूल हो जायेगी. क्योँकि  "जो दीसे सगल विनासेज्यों बादल की छाहीं". जो कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है वह सब नष्ट होने वाला हैऔर जो खुद ही एक दिन नष्ट हो जायेगा उसे हम अपना अस्तित्व कैसे मान लेंगे. खुद के अस्तित्व को तलाशना है तो निर्लेप भाव से संसारिक दायित्वों को निभाते हुएआत्मा को परमात्मा में स्थापित करते हुए जीवन की यात्रा को तय करें. बिना किसी पूर्वाग्रह केतब हम पायेंगे कि इस सृष्टि में जो भी प्राणी हैं, वह हमसे गहरा रिश्ता रखते हैं और अगर हम ऐसा भाव बनाने में कामयाब हो जाते हैं तो अपने अस्तित्व को स्थापित करते हुए हम उसे कायम रख पायेंगे

14 जनवरी 2012

अस्तित्व की तलाश .. 1

30 टिप्‍पणियां:
इस प्रकृति को जब भी भीतर की आँख से देखता हूँ तो बहुत कुछ अप्रत्याशित सा महसूस होता है , और जब इसके करीब जाकर इसको अपने पास महसूस करता हूँ तो भाव विभोर हो जाता हूँ . यह एक बार नहीं बल्कि कई बार होता है . इस अनुभूति का कोई निश्चित क्रम नहीं है . कोई समय नहीं है और कोई सीमा भी नहीं . सब कुछ अप्रत्याशित है . सब कुछ अनुभूति के स्तर पर घटित होता , अभिव्यक्त नहीं हो पाता , एक अनुभव बन जाता है जीवन के क्रम में . जीवन अनिश्चित है और इस अनुभव का जीवन में दखल भी अनिश्चित है . हर किसी के लिए एक सी प्रकृति में अनुभव अलग है . आज तक प्रकृति में भी परिवर्तन हुए हैं . लेकिन एक ही समय में , एक ही वातावरण में रहने वाले इंसानों के अनुभव अलग - अलग हैं , यह बहुत अद्भुत बात है . एक ही माता पिता से जन्म लेने वाले दो जुडवा बच्चों के अनुभव अलग हैं . सोच अलग है , व्यवहार अलग है . ऐसा बहुत कुछ अलग है जिसकी कल्पना करना हमारे मस्तिष्क से बाहर है , और यही है वह जिसे हम अस्तित्व कहते हैं . 

पूरी प्रकृति पांच तत्वों का मिश्रण है और चेतना का स्रोत एक ही है . लेकिन विविधता इतनी कि जितनी आँखें उतने नज़ारे , जितने मस्तिष्क उतने विचार , जितने ह्रदय उतनी भावनाएं , जितने मन उतनी इच्छाएं . सब कुछ अप्रत्याशित सा जान पड़ता है , और जब हम इस सब अप्रत्याशित को करीब से अनुभव करते हैं तो हम खुद को अद्भुत पाते हैं . खुद को धन्य पाते हैं . खुद को हम खुदा का तोहफा मानते हैं . लेकिन ऐसा अनुभव हमें जीवन में होता नहीं . क्योँकि हमारे पास समय नहीं . खुद के करीब आने का . खुद के भीतर झाँकने का . खुद से प्रेम करने का . खुद को महसूस करने का . लेकिन एक तलाश हम जिन्दगी में जरुर करते हैं . जिसे हम अस्तित्व कहते हैं . यह तलाश हम बचपन से जीवन के निर्वाण तक करते हैं . जन्म से मृत्यु तक करते , आत्मा से परमात्मा तक करते हैं . आशा से निराशा तक करते हैं . लेकिन हमारे हाथ क्या लगता है ? यह हमारी तलाश पर निर्भर करता है . हम खोजना क्या चाह रहे हैं ? हमारी आवश्यकता क्या है ? जिसने अपनी आवश्यकता को पहचान लिया , उसका लक्ष्य आसन हो गया . उसके सामने कठिनाईयां भी हैं , लेकिन दृढ निश्चयी है तो लक्ष्य तक जरुर पहुंचेगा ..और उसका लक्ष्य तक पहुंचना उसके अस्तित्व का बोध करवाता है .
अब प्रश्न उठता है कि अस्तित्व की तलाश जरुरी क्योँ है ? क्या बिना अस्तित्व के भी जिया जा सकता है ? अस्तित्व की तलाश व्यक्ति नहीं करता , ना ही उसे इसकी जरुरत है . लेकिन एक बात बहुत महत्वपूर्ण है वह यह कि अस्तित्व की तलाश उसका स्वभाव है . वह इसके बिना जी ही नहीं सकता . वह चाहता नहीं है कि वह अस्तित्व को तलाशे , लेकिन फिर भी स्वभाववश इस तरफ अग्रसर होता है . जिसने खुद के  इस स्वभाव को पहचान लिया वह अस्तित्व के लिए चिंतित तो नहीं लेकिन सजग जरुर होता है , और वहीँ से शुरू होता है जीवन की सार्थकता का सफ़र . हमारे धर्म ग्रन्थ इस विषय पर गहनता से प्रकाश डालते हैं . जीवन एक रोचक सफ़र है . अगर हम इसे जियें तो , एक ऐसा अनुभव है जिसका कोई सानी नहीं . लेकिन हम जीवन को जीते ही कहाँ हैं ? सबसे बड़ी भूल तो यहाँ होती है . हमारे पास साँसे होती हैं जिन्हें हम बिना लक्ष्य के जीते हैं और फिर विदा हो जाते हैं . हमारे जाने के बाद ना तो कोई हमारा अस्तित्व होता है और न कोई याद . यह क्रम चलता रहा है सदियों से . जिनका अस्तित्व है , जिन्हें हम याद करते हैं वह शरीर रूप में विद्यमान नहीं , लेकिन उनका अनुभव हमारे पास है . उन्होंने जो महसूस करने के बाद अभिव्यक्त किया वह हमारे पास है और जब तक वह हमारे पास है तव तक उनका अस्तित्व बना रहा है , और बना रहेगा .   
शेष अलगे अंकों में ........!                                                       

09 जनवरी 2012

खुश जमाना रहेगा

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उम्मीद है, वक्त यूँ ही सुहाना रहेगा 
हमारी दुआ से खुश जमाना रहेगा 
भुला देना गम जिन्दगी के सब
यही बात आज हर दीवाना कहेगा   
बदल दो सोच सब बदल जाएगा 
आशा में ख़ुशी का खजाना रहेगा
यूँ तो जुदा नहीं है कोई, किसी से 
जब तक है शमा, परवाना रहेगा 

05 जनवरी 2012

हँसते - हँसते

46 टिप्‍पणियां:
दिल मेरा लूट गये, हँसते-हँसते
पैमाने टूट गयेहँसते-हँसते
पीने का शौक रहा हमें इस कदर
मयखाने छूट गये, हँसते-हँसते
महफ़िल में छाई रही ख़ामोशी
तराने फूट गये, हँसते-हँसते
दूरियाँ मंजूर नहीं मोहब्बत में 
दिवाने रूठ गये, हँसते -हँसते 
शमा जली ही नहीं रात भर
परवाने झूठ हुए, हँसते-हँसते