कल दोपहर कुर्सी पर बैठा
मैं किसी विचार में मगन था. अचानक मेरी नजर सामने खिल रहे फूलों के गमलों पर पड़ी.
अनायास ही मेरे चेहरे पर रौनक छा गयी. लगभग 300
गमलों पर दृष्टिपात करने के बाद अचानक मेरी दृष्टि एक सुन्दर से
खिले फूल पर टिक गयी. बहुत देर निहारा मैंने उसे, उसकी
सुन्दरता, शालीनता, भोलापन
सब कुछ. एक जीवन्त अहसास कुछ देर ऐसा लगा कि मैं उस फूल में समा गया हूँ. बहुत
आत्मीयता से उसने मुझे गले लगाया है, और अपना कोमल और
निश्छल प्रेम अनवरत मुझ पर बरसा रहा है, कुछ पल तक मैं
विस्मृत कर गया खुद को और शामिल हो गया उस फूल के माध्यम से इस अनन्त प्रकृति में
और प्रकृति से परमात्मा में. मैंने शरीर की सत्ता से बाहर कई बार खुद को महसूस
किया है और आज फिर उसकी पुनरावृति इस फूल के माध्यम से हुई. इतने में किसी ने मुझे
कहा सर कैसे हैं?? मुझे सुना नहीं. उन्हें लगा कि शायद
मुझे कोई समस्या है, इसलिए आत्मीयता से पास आये और कहने
लगे, सर आप ठीक तो हैं ना? एकाएक
मेरा ध्यान भंग हुआ और मेरे चहरे को देखकर वह चुप हो गए, बिना कुछ कहे वह वहां से चले गए और शाम को जब मुझे मिले तो अपनी अनुभूति
बताने लगे और मुझे कहने लगे तुम सच में धन्य हो......बस इतना कह कर फिर रुक गए.
मैंने कुछ जानना नहीं चाहा लेकिन जब वह कुछ बोलने लगे तो फिर रुके नहीं और मैं
सुनता रहा, और बार-बार मैं कृतज्ञ हो रहा था उस फूल के
लिए. याद आया मुझे वह शे'र और सुना दिया उसे ‘क्या खूब है जीना फूलों का, हँसते आते हैं और हँसते चले जाते हैं’. काश मैं भी यही सोचता इस जीवन के बारे में और
करता वह सब कुछ जो उस फूल ने मुझे दिया है.
जीवन भी क्या है ? अभी मैंने अस्तित्व की तलाश पर भी कुछ लिखने का एक
छोटा सा प्रयास किया और उस वक़्त में सोच भी इसी बारे में रहा था. लेकिन एक फूल ने
जिस तरह मुझे अपने आगोश में लिया वह अनुभव जीवन में बहुत कुछ दे गया. उस फूल की
उपलब्धि उसकी सुन्दरता नहीं, उसकी पंखुड़ियां नहीं, किसी हद तक उसकी सुगन्ध भी नहीं. उसकी उपलब्धि का आधार है उसका अपनापन, वह हमेशा हर परिस्थिति में मुस्कुराता है, उसके
मन में किसी के लिए वैर नहीं, कोई विरोध नहीं, कोई ईर्ष्या नहीं. वह तो निश्छल रूप से लुटा रहा है खुद को, और वह किसी एक के लिए नहीं, बल्कि पूरी कायनात
के लिए हैं. तितली भी उस पर बैठती है , भवंरा उस
पर गुंजन करता है, व्यक्ति उसे ईश्वर के चरणों में
समर्पित करके अपनी मनोकामना पूरी करता है, और फूल को
देखिये हम उसे उसके बजूद से अलग करते हैं, लेकिन फिर भी वह हँसते-हँसते हमारी ख़ुशी में शामिल हो जाता है. यहाँ मुझे अज्ञेय जी द्वारा रचित
कविता सत्य तो बहुत मिले एकदम आँखों के सामने घूम गयी और फिर एक बार मैं उस फूल के प्रति नतमस्तक हुआ.
हमारे जीवन में हमारी
उपलब्धि का आधार क्या है? हम
जीवन में किसे उपलब्धि मानते हैं. उपलब्ध और उपलब्धि में
सिर्फ एक मात्रा का अन्तर है. ‘ई’ की मात्रा
उपलब्धि में है और उपलब्ध में नहीं. अंग्रेजी में इन
दोनों के लिए जो शब्द प्रयोग किये जाते हैं एक को हम Achievement कहते हैं और दूसरे को Available कहते
हैं. जो आज उपलब्ध है कल वह समाप्त हो सकता है, फिर वह
आ सकता है. लेकिन उपलब्धि के मामले में ऐसा नहीं. वह एक बार आती है, फिर आती है, फिर आती है लेकिन उसके रूप अलग अलग
होते हैं, वह निरंतरता बनाये रखती है. वह हमारे जीवन को
मूल्यवान बनाती है. लेकिन एक सहज सा प्रश्न उठता है कि उपलब्धि
का आधार क्या हो ? उसके मानक क्या हैं ? कौन सी हद है उपलब्धि की और कौन पात्र है उपलब्धि का ? अनायास ही यह प्रश्न उठ सकते हैं और इन प्रश्नों का उठना हमें अपनी
वास्तविक उपलब्धि की तरफ अग्रसर करेगा.
बात मूल बिन्दु की करते हैं. वेदों से लेकर आज तक हमारे पास जितने भी
ग्रन्थ हैं सबके निष्कर्ष लगभग एक जैसे हैं. अगर निष्कर्ष एक जैसे हैं तो निश्चित
रूप से आधार भी एक जैसा होगा. हमें जो उपरी भिन्नताएं नजर आती हैं, अगर हम भिन्नताओं के इस आधार को पहचान लें तो
किसी हद तक हम भी उपलब्धि के करीब पहुँच सकते हैं. उस फूल की तरह जिसे देखने
मात्र से ही हमें ईश्वर का अहसास होने लगता है, हम खुद
की अस्मिता को भूल कर उस फूल में खो जाते हैं. हमारा
खुद को भूलकर उस फूल के प्रेमपाश में बंध जाना उस फूल की उपलब्धि को निर्धारित
करता है, और उस फूल में सिर्फ हम ही नहीं, बल्कि इस कायनात का हर जीव समा सकता है. अब हम खुद को ही देखें, इस इनसानी जन्म को कहा तो सर्वश्रेष्ठ जाता है. निश्चित रूप से यह ईश्वर
की सर्वश्रेष्ठ कृति है. ईश्वर ने इसे अपने रूप में उतारा है और खुद जब ईश्वर ने
धरती पर अवतार लिया तो मानव तन का ही सहारा लिया और दुनिया का मार्गदर्शन किया
खासकर इनसानों का. उसे अवतरित होना पड़ा इनसानों को समझाने के लिए, उन्हें जीवन की सार्थकता की पहचान करवाने के लिए. तैतरीय उपनिषद में
इसे यूँ अभिव्यक्त किया गया है :
यतो वा इमानि भूतानि
जायन्ते, येन जातानि जीवन्तिI
यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्तिI तद्विजिज्ञासस्वI तद्ब्रह्मेतिI (तै०उ0 312)
यह सब प्रत्यक्ष
दिखने वाले प्राणी जिससे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके सहारे जीवित रहते हैं, तथा अन्त में प्रयाण करते हुए
जिसमें प्रवेश करते हैं, उसको जानने की इच्छा कर और वही
ब्रह्म है. अब जब सृष्टि का आधार
ही ब्रह्म है तो उसे जानना आवश्यक है और मानव जीवन का लक्ष्य भी वही है. यानि
उपलब्धि का आधार ईश्वर है हम सब इससे पैदा हुए हैं और इसी में समायेंगे. शेष अगले अंकों में ....!