गतांक से आगे.......! मनुष्य ने सृष्टि के प्रारंभ से लेकर
आज तक कर्म और भाग्य के द्वंद्व को समझने की कोशिश की है और इस दिशा में उसे काफी
हद तक सफलता भी मिली है. कठोपनिषद
में कर्म की अनित्यता पर विचार किया गया है "जानाम्यह
शेवधिरित्यनित्यं, न ह्यध्रुवै:
प्राप्यते हि ध्रुवं तत्”. (10/217)
अर्थात मैं यह जानता हूँ कि कर्मफल निधि अनित्य है, क्योँकि अनित्य साधनों द्वारा वह नित्य (परमात्मा) को प्राप्त नहीं कर
सकता. अगर इस बात पर
गहनता से विचार करें तो हम पाएंगे कि मनुष्य कर्मफल के मोह से बच नहीं सकता,
और इसलिए जब वह कर्म करता है तो हर प्रकार के कर्म में उस
कर्म की सफलता के लिए प्रार्थना को महत्व देता है. यह अनुभव रहा है कि जीवन में जब
भी कर्म को सिर्फ कर्म के दृष्टिकोण से किया जाता है तो सफलता की सम्भावना ज्यादा
बलवती हो जाती है, और अगर कर्म सिर्फ और सिर्फ प्राणी मात्र
की भलाई के लिए किया जा रहा है तो वह सफलता के साथ-साथ आनंद देने वाला भी होता है. अगर यह भाव जीवन में बन जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति कर्म
और भाग्य के द्वंद्व से मुक्त होकर सिर्फ और सिर्फ कर्म को ही महता देगा,
और ऐसी स्थिति में वह बहुत सी भ्रांतियों का शिकार होने से बचा
रहेगा, जिसे वह भाग्य मानकर अपने को कोसता रहता है उसके लिए
उसके मन में कर्म का भाव पैदा होगा और इस कर्म के भाव का पैदा होना उसके जीवन में
क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा. गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को इस भाव को यूं
समझाते हैं :-काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः / क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा. (4/12
/158) कि इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों की सिद्धि
चाहते हैं, फलस्वरूप वह देवताओं की पूजा करते हैं.
निसंदेह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र ही प्राप्त होता है. लेकिन दूसरी तरफ इस बात पर भी बल देते हैं कि "कर्मणो ह्यपि
बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः / अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः”. (4 /27/163). कर्म की बारीकियों को समझना अत्यंत कठिन है. अतः मनुष्य को चाहिए की वह यह
ठीक से जाने कि कर्म क्या है? विकर्म क्या है और अकर्म क्या
है? अगर मनुष्य यह निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है कि किया
जाने वाला कर्म जीवन में क्या भूमिका निभाएगा, उसका फल क्या होगा
और उस कर्म की चरम परिणति क्या होगी यह सब जानना आवश्यक है. अगर इस चिंतन से कोई भी कर्म किया जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति
ब्रह्म भाव में खुद को स्थापित कर लेगा और उसकी एक-एक दुआ उसके जीवन को बदलने वाली
होगी, और निश्चित रूप से वह महसूस करेगा कि किस तरह से दुआ
का एक लफ्ज जीवन की दिशा को परिवर्तित करता है.
इस सृष्टि में मानव जीवन की उत्पति और इसके जीवन रहस्यों को समझने की जब हम चेष्टा करते हैं तो पाते
इस सृष्टि में मानव जीवन की उत्पति और इसके जीवन रहस्यों को समझने की जब हम चेष्टा करते हैं तो पाते
हैं कि इस जीवन
की कुछ पहेलियाँ ऐसी हैं जिहें समझना कठिन है, और
प्रार्थना और दुआ के सन्दर्भ में तो और भी रोचक और असमंजस की स्थिति है . मनुष्य
कहीं ईश्वर की सर्वव्यापकता
को स्वीकारता है तो उसे मंदिर,
मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों की आवश्यकता नहीं
पड़ती जहाँ कहीं उसके मन का भाव प्रार्थना के जाग्रत हुआ उसके हाथ उठ गए वह झुक
गया उसने ईश्वर को याद कर लिया उसके सामने अपनी फरियाद रख दी अपनी मांग रख दी, जो कुछ उसे चाहिए वह इस निराकार और सर्वव्यापी सत्ता से कह दिया और खुद
चिंता मुक्त हो गया. लेकिन कहीं पर ऐसा भी भाव है जहाँ वह इबादत के लिए, प्रार्थना के लिए मीलों की दूरी तय
करता है, दिनों का समय लगाता है और फिर किसी विशेष स्थान पर
पहुँच कर वह प्रार्थना करता है, लेकिन फिर भी प्रार्थना पूरी
नहीं होती उसका वहां से विश्वास उठ जाता है. वह दूसरी तरफ चल पड़ता है और यह
सिलसिला अनवरत चलता रहता है. लेकिन मनुष्य है कि वह कर्म तो कर रहा है लेकिन उसकी
दिशा सही नहीं है. अगर जब दिशा ही सही नहीं है तो फिर दशा कैसे बदलेगी. अपनी दशा
को बदलने के लिए उसे अपनी दिशा में परिवर्तन करना होगा और वह परिवर्तन बड़ी आसानी
से हो सकता है. सबसे पहले उसे ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूप को समझना होगा और
इस बात को गहनता से मन में बिठाना होगा कि साकार
सत्ता की एक सीमा है उसका हर स्तर पर एक दायरा
है, लेकिन निराकार-सर्वव्यापक सत्ता सीमा से परे है, वह हमारी कल्पना का हिस्सा नहीं है, इसलिए साकार और निराकार-सर्वव्यापक
दोनों सत्ताओं के सामने की गयी प्रार्थना का अपना महत्व है .
अगर हम इस सृष्टि का गहनता से विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इस दृश्यमान जगत में जितनी भी योनियाँ हैं वह सब भोग योनियाँ है, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है. इस आधार पर देखें तो भोग योनियाँ और कर्म योनी और इन सबकी (अंडज, पिंडज, उतभुज, सेतज) रचना में ईश्वर की भूमिका महत्वपूर्ण है. इस आधार पर देखें तो मनुष्य ही ईश्वर की एक ऐसी कृति है जिसे उसने चेतना का चरम सोपान प्रदान किया है, और हमारे ऋषि मुनि हमेशा इस बात पर चिंतन करते रहे कि आखिर इस चेतना का क्या औचित्य है ? क्योँकि उन्हें लगता है कि "भोजन भोग निद्रा भय, यह सब पशु पुरख सामान " अगर यह चारों लक्षण इंसान और पशुओं में एक जैसे हैं तो फिर इंसान कि क्या महता है ? क्योँ उसे यह जीवन प्रदान किया गया है ? हालाँकि हम संसार में विचरते हैं लेकिन शायद इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं, कि हमारे इस जीवन की क्या महता है ? हम तो मायावी संसार को देखकर इसमें इतने रम जाते हैं की अपनी वास्तविक स्थिति को ही भूल जाते हैं, और अगर ऐसा नहीं होता तो आज संसार के यह हालात नहीं होते. कुछ बिंदु अगले अंक में..!