29 दिसंबर 2016

उलझ रहा हूँ मैं

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आज सोच रहा हूँ
बीते हुए कल के विषय में
उलझ रहा हूँ
भविष्य की योजनाओं में
खाका खींच रहा हूँ
आने वाले दिन की
गतिविधियों का
द्वंद्व है मन में
भूत और भविष्य का.

सोच रहा हूँ
इनसान की फितरत के बारे में
कहानी याद कर रहा हूँ
आज तक के उसके सफर की
समझ रहा हूँ उसकी भविष्य की योजनायें
चाँद से मंगल की यात्रा तय कर ली है उसने
लेकिन अफ़सोस इस बात का भी हुआ
कि, उसने अब तक ठीक से धरती पर भी
चलना नहीं सीखा है.

आज जिस गति से वह गुलाम हो गया 
मशीन का
उसे इनसान से बेहतर लगने लगी है मशीन
लेकिन भूल गया वह इस बात को कि
वह मशीन तो बना सकता है
लेकिन इनसान नहीं
वह मशीन से काम ले सकता है
लेकिन उसमें इनसान जैसा भाव नहीं.

मैं समझने की कोशिश कर रहा हूँ
एक चौराहे पर
भीख मांगते हुए बच्चे के भावों को
उस निराश बुढिया के दर्द को
जिसका आधुनिक बेटा उसे इस चौराहे पर छोड़ गया है,
मैं सोच रहा हूँ उस जवान लड़की के बारे में
जिसे कोई अपने चुंगल में फंसाकर यहाँ ले आया
और धकेल दिया
जिस्म के धंधे के बाजार में
मैं देख रहा हूँ उस मेहनतकश इनसान को
जिसने हजारों इंटों से ऊँचे महल खड़े कर दिए
लेकिन खुद आज भी बेघर है
सामने से आता निराश किसान
जिसके खेत का चावल
कम्पनी का लेवल चढ़ने के बाद
60 से 100 रूपये किलो में बिक गया
एक बुनकर का कपड़ा
हजारों में बिकता है बाजार में
लेकिन वह आज भी
तड़प रहा है
अपना तन ढकने के लिए

मैं उलझ गया हूँ
झोंपड़ी और महल के विमर्श में  
मैं फंस गया हूँ
सड़क और पगडण्डी के बीच
मैं निराश हूँ भूखे पेट सोने वाले
इनसान के सामने बर्बाद किये अन्न से
मैं जैसे-जैसे समझ रहा हूँ
उतना-उतना उलझ रहा हूँ
इतने में एक आवाज आ रही है
हमने पिछले साल के बजाय
इतनी तरक्की कर ली है
लेकिन वर्षों देख रहा हूँ
उस गली के लोगों का जीवन और भी
दूभर हो गया है,
जिस गली में नेता
विकास का भाषण देकर आया था.