‘मनुष्य’ शब्द जब भी जहन में आता है तो मन ‘कल्पना’
में कहीं खो जाता है, और वह कल्पना मनुष्य जाति के इतिहास और वर्तमान का आकलन करते
हुए भविष्य की और ले जाती है. हालांकि यह भी सच है कि मनुष्य कभी भी भविष्य के
बारे में कुछ भी दृढ रूप से नहीं कह सकता. लेकिन वह इतिहास का आकलन तो कर ही सकता
है, वर्तमान को तो विश्लेषित कर ही सकता है और उसी आधार पर भविष्य की रूपरेखा तय
कर सकता है. एक और पहलू यहां बहुत महत्वपूर्ण है, वह यह कि मनुष्य अपनी सोच के
आधार पर अपनी दुनिया का निर्माण करता है. अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह
किस दृष्टि से सोच रहा है. हमें इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरुरत है कि मनुष्य
की सोच को निर्मित करने में उसके परिवेश की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. अक्सर
मनुष्य की सोच और समझ का विकास उसके परिवेश पर निर्भर करता है, और जैसा परिवेश
मनुष्य को प्रारम्भिक अवस्था में प्राप्त होता है उसकी सोच और समझ का निर्माण काफी
हद तक उसी परिवेश के आधार पर होता है. क्योंकि
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहता है ऐसे में उसकी सोच का दायरा अपने
व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा सामाजिक हित में होना जरुरी है. व्यक्तिगत लाभ की सोच
चाहे, परिवार के स्तर पर हो, समाज या समुदाय के स्तर पर हो या देश और विश्व के
स्तर पर वह काफी हद तक दूसरों के लिए लाभदायक नहीं होती. वह कहीं न कहीं पर
व्यक्ति के अपने स्वार्थ से जुड़ी होती है और जहां पर व्यक्तिगत लाभ सर्वोपरि हैं वहां
पर हम किसी ‘दूसरे का हित’ कैसे सोच सकते हैं?
किसी ‘दूसरे का हित’ जैसे शब्द हमें प्रेरित
करते हैं किसी के लिए भी कार्य करने के लिए, और मनुष्य एक
ऐसा जीव है जो इतना क्षमतावान है कि वह ‘दूसरे’ के हित के लिए कार्य कर सकता है. हम इतिहास उठाकर देखें तो हमें इस पहलू के कई प्रमाण मिल जायेंगे कि इस धरा पर ऐसे भी मनुष्य हुए हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व प्राणी मात्र के हित के लिए अर्पित किया है और मनुष्य ही नहीं प्रकृति के हर पहलू के साथ उन्होंने सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने जीवन को जिया है. मनुष्य जीवन के विषय में किसी ने यह भी खूब कहा है कि “अपने लिए जिया तो क्या जिया, है जिन्दगी का मकसद औरों के काम आना”. इस पंक्ति में तो किसी दूसरे के काम आना ही ‘जिन्दगी का मकसद’ बताया गया है, इसके अलावा जिन्दगी का और क्या मकसद हो सकता है. जिन्दगी के मकसद पर कई लोगों ने अपने तरीके से विचार किया है और जिसको जो श्रेष्ठ लगा उसने उसी अनुरूप कार्य करने का प्रयास किया है. लेकिन भाव वही रहा ‘दूसरों’ के लिए कुछ करने का. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में कौन सी चीज बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है?
ऐसा जीव है जो इतना क्षमतावान है कि वह ‘दूसरे’ के हित के लिए कार्य कर सकता है. हम इतिहास उठाकर देखें तो हमें इस पहलू के कई प्रमाण मिल जायेंगे कि इस धरा पर ऐसे भी मनुष्य हुए हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व प्राणी मात्र के हित के लिए अर्पित किया है और मनुष्य ही नहीं प्रकृति के हर पहलू के साथ उन्होंने सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने जीवन को जिया है. मनुष्य जीवन के विषय में किसी ने यह भी खूब कहा है कि “अपने लिए जिया तो क्या जिया, है जिन्दगी का मकसद औरों के काम आना”. इस पंक्ति में तो किसी दूसरे के काम आना ही ‘जिन्दगी का मकसद’ बताया गया है, इसके अलावा जिन्दगी का और क्या मकसद हो सकता है. जिन्दगी के मकसद पर कई लोगों ने अपने तरीके से विचार किया है और जिसको जो श्रेष्ठ लगा उसने उसी अनुरूप कार्य करने का प्रयास किया है. लेकिन भाव वही रहा ‘दूसरों’ के लिए कुछ करने का. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में कौन सी चीज बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है?
मनुष्य की सोच और उसके कर्म का आकलन करें तो
हमें यह बात समझने में देर नहीं लगेगी कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में उसकी
सोच की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. मनुष्य जैसे सोचता है वैसे ही अपने लक्ष्य
निर्धारित करता है और उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह वैसे ही प्रयास भी करता है.अब
हमें यह देखना है कि मनुष्य के लक्ष्य, सोच, मान्यता और उसकी मानसिकता का क्या प्रभाव
उसके जीवन पर पड़ता है. हमें यह बात भली प्रकार से समझ लेनी चाहिए कि मनुष्य की सोच
का विकास उसकी मान्यता पर निर्भर करता है और उस मान्यता का क्रियान्वयन उसकी
मानसिकता का आधार है. हालांकि यह बात भी सच है कि मान्यता का कोई भौतिक आधार नहीं
होता और उसे हम कल्पना भी नहीं कह सकते. वह मनुष्य का एक अहसास है जो हमेशा उसे अपनी
और खींचती है. ‘मान्यता’ और ‘मानसिकता’ को परिभाषित करना थोड़ा कठिन है. इन दोनों
में एक महीन सा अंतर है, लेकिन जहां मान्यता का प्रभाव समष्टिगत है तो वहीँ पर मानसिकता
व्यक्तिनिष्ठ है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जहां मान्यता किसी समुदाय, समाज, जाति
और देश का हिस्सा होती है, वहीं मानसिकता काफी हद तक व्यक्तिगत होती है. लेकिन कई
बार किसी व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव भी किसी दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता
है. इसलिए मानसिकता और मान्यता का एक दूसरे के साथ अन्योयाश्रित सम्बन्ध प्रतीत
होता है, और हम मान्यता और मानसिकता को एक दूसरे से अलग नहीं कर पाते. मान्यता का
प्रभाव व्यक्ति पर ताउम्र रहता है, लेकिन मानसिकता परिवेश, समय और स्थिति के
अनुसार बदलती रहती है. फिर भी यह तो तय है कि ऐसी परिस्थिति में भी मान्यता कहीं न
कहीं पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर ही रही होती है. शेष अगले अंक में....!!!