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04 नवंबर 2015

मनुष्य : मान्यता और मानसिकता

8 टिप्‍पणियां:
‘मनुष्य’ शब्द जब भी जहन में आता है तो मन ‘कल्पना’ में कहीं खो जाता है, और वह कल्पना मनुष्य जाति के इतिहास और वर्तमान का आकलन करते हुए भविष्य की और ले जाती है. हालांकि यह भी सच है कि मनुष्य कभी भी भविष्य के बारे में कुछ भी दृढ रूप से नहीं कह सकता. लेकिन वह इतिहास का आकलन तो कर ही सकता है, वर्तमान को तो विश्लेषित कर ही सकता है और उसी आधार पर भविष्य की रूपरेखा तय कर सकता है. एक और पहलू यहां बहुत महत्वपूर्ण है, वह यह कि मनुष्य अपनी सोच के आधार पर अपनी दुनिया का निर्माण करता है. अब यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस दृष्टि से सोच रहा है. हमें इस पहलू पर भी ध्यान देने की जरुरत है कि मनुष्य की सोच को निर्मित करने में उसके परिवेश की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. अक्सर मनुष्य की सोच और समझ का विकास उसके परिवेश पर निर्भर करता है, और जैसा परिवेश मनुष्य को प्रारम्भिक अवस्था में प्राप्त होता है उसकी सोच और समझ का निर्माण काफी हद तक उसी परिवेश के आधार पर होता है.  क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में रहता है ऐसे में उसकी सोच का दायरा अपने व्यक्तिगत लाभ की अपेक्षा सामाजिक हित में होना जरुरी है. व्यक्तिगत लाभ की सोच चाहे, परिवार के स्तर पर हो, समाज या समुदाय के स्तर पर हो या देश और विश्व के स्तर पर वह काफी हद तक दूसरों के लिए लाभदायक नहीं होती. वह कहीं न कहीं पर व्यक्ति के अपने स्वार्थ से जुड़ी होती है और जहां पर व्यक्तिगत लाभ सर्वोपरि हैं वहां पर हम किसी ‘दूसरे का हित’ कैसे सोच सकते हैं?

किसी ‘दूसरे का हित’ जैसे शब्द हमें प्रेरित करते हैं किसी के लिए भी कार्य करने के लिए, और मनुष्य एक
ऐसा जीव है जो इतना क्षमतावान है कि वह ‘दूसरे’ के हित के लिए कार्य कर सकता है. हम इतिहास उठाकर देखें तो हमें इस पहलू के कई प्रमाण मिल जायेंगे कि इस धरा पर ऐसे भी मनुष्य हुए हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व प्राणी मात्र के हित के लिए अर्पित किया है और मनुष्य ही नहीं प्रकृति के हर पहलू के साथ उन्होंने सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने जीवन को जिया है. मनुष्य जीवन के विषय में किसी ने यह भी खूब कहा है कि “अपने लिए जिया तो क्या जिया, है जिन्दगी का मकसद औरों के काम आना”. इस पंक्ति में तो किसी दूसरे के काम आना ही ‘जिन्दगी का मकसद’ बताया गया है, इसके अलावा जिन्दगी का और क्या मकसद हो सकता है. जिन्दगी के मकसद पर कई लोगों ने अपने तरीके से विचार किया है और जिसको जो श्रेष्ठ लगा उसने उसी अनुरूप कार्य करने का प्रयास किया है. लेकिन भाव वही रहा ‘दूसरों’ के लिए कुछ करने का. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में कौन सी चीज बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है?

मनुष्य की सोच और उसके कर्म का आकलन करें तो हमें यह बात समझने में देर नहीं लगेगी कि मनुष्य के जीवन मकसद की पूर्ति में उसकी सोच की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है. मनुष्य जैसे सोचता है वैसे ही अपने लक्ष्य निर्धारित करता है और उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वह वैसे ही प्रयास भी करता है.अब हमें यह देखना है कि मनुष्य के लक्ष्य, सोच, मान्यता और उसकी मानसिकता का क्या प्रभाव उसके जीवन पर पड़ता है. हमें यह बात भली प्रकार से समझ लेनी चाहिए कि मनुष्य की सोच का विकास उसकी मान्यता पर निर्भर करता है और उस मान्यता का क्रियान्वयन उसकी मानसिकता का आधार है. हालांकि यह बात भी सच है कि मान्यता का कोई भौतिक आधार नहीं होता और उसे हम कल्पना भी नहीं कह सकते. वह मनुष्य का एक अहसास है जो हमेशा उसे अपनी और खींचती है. ‘मान्यता’ और ‘मानसिकता’ को परिभाषित करना थोड़ा कठिन है. इन दोनों में एक महीन सा अंतर है, लेकिन जहां मान्यता का प्रभाव समष्टिगत है तो वहीँ पर मानसिकता व्यक्तिनिष्ठ है. इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि जहां मान्यता किसी समुदाय, समाज, जाति और देश का हिस्सा होती है, वहीं मानसिकता काफी हद तक व्यक्तिगत होती है. लेकिन कई बार किसी व्यक्ति की मानसिकता का प्रभाव भी किसी दूसरे व्यक्ति को प्रभावित करता है. इसलिए मानसिकता और मान्यता का एक दूसरे के साथ अन्योयाश्रित सम्बन्ध प्रतीत होता है, और हम मान्यता और मानसिकता को एक दूसरे से अलग नहीं कर पाते. मान्यता का प्रभाव व्यक्ति पर ताउम्र रहता है, लेकिन मानसिकता परिवेश, समय और स्थिति के अनुसार बदलती रहती है. फिर भी यह तो तय है कि ऐसी परिस्थिति में भी मान्यता कहीं न कहीं पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर ही रही होती है. शेष अगले अंक में....!!!                    

26 जून 2014

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

7 टिप्‍पणियां:
जीवन का क्रम है ही कुछ ऐसा कि आपको कहीं भी किसी भी परिस्थिति का सामना कर पड़ सकता है. लेकिन अगर आप अपने दृढ निश्चय के साथ आगे बढ़ रहे हैं तो फिर आपके लिए हर परिस्थिति एक नया जोश, एक नयी ऊर्जा पैदा करती है. हालाँकि जीवन का यह क्रम भी है कि गिरते वही हैं जो चढ़ने की कोशिश करते हैं, और जब आप गिर रहे हों तो जिसने आपको उठाया है वह आपके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. जब आप चढ़ने का प्रयास कर रहे हैं तब भी अगर कोई आपको आपके लक्ष्य तक पहुंचाने का सहभागी बनता है तो वह भी आपके लिए किसी ईश्वर से कम नहीं होता.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और यही इसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. यह अपनी बुद्धि के बल पर पूरी सृष्टि के रहस्यों को समझने की चेष्टा करता है और ऐसा प्रयास उसने आज तक किया भी है. लेकिन समय के साथ-साथ उसकी रुचियाँ और जीवन की प्राथमिकतायें बदलती रही हैं. फिर भी उसके जीवन का आधार नहीं बदला है और न ही वह बदल सकता है. क्योँकि जीवन तो प्रकृति का हिस्सा है और जब तक जीवन है तब तक हमें प्रकृति से जुड़े रहना होगा. हमारे जीवन का निर्माण ही प्रकृति के अनुकूल हुआ है तो फिर हम किस तरह से प्रकृति से अलग रह सकते हैं. लेकिन आज का मनुष्य इस बात को समझने की चेष्टा नहीं कर रहा है. उपभोगतावादी संस्कृति ने उसे बहुत संकुचित बना दिया है. अब वह समाज के लिए नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ अपने लिए कार्य करने में विश्वास करता है. मनुष्य की इस संकुचित सोच ने कई बार इस सृष्टि में भयंकर तहस-नहस मचाई है और अनेक निर्दोष लोगों का ही नहीं बल्कि प्रकृति के अनेक जीवों के जीवन के लिए भी संकट पैदा किया है.

व्यावहारिक स्तर पर हम सोचें तो यह बात हमें समझ आ जाएगी कि जीवन की वास्तविकता क्या है? मैं
इस प्रश्न का उत्तर वर्षों से खोज रहा हूँ और अब तक के अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि जीवन एक क्षण है. हम जीवन को बेशक दिन, सप्ताह, महीने और साल के आधार पर गिनते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि जीवन एक क्षण है. हमारे एक क्षण में लिए गए निर्णय कई बार सिर्फ हमें प्रभावित करते हैं, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि वह निर्णय हम पर प्रभाव कम डालते हैं और किसी दूसरे को अधिक प्रभावित करते हैं. उसके पीछे एक स्पष्ट सिद्धांत है कि व्यक्ति समाज की एक इकाई होता है, और उसका प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध समाज के प्रत्येक प्राणी से होता है. इसी कारण एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने हर निर्णय को सोच समझ कर लेता है. ताकि समाज में उसके किसी निर्णय का कोई विपरीत असर न पड़े. जहाँ तक मुझे लगता है व्यक्ति को इसी तरह का जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि समाज का एक सुन्दर और स्वस्थ रूप सामने आ सके.

हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं कि हम कितने वर्ष जीवन जीते हैं, बल्कि इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम जीवन को किस तरह से जीते हैं. हमारे देश में ही नहीं बल्कि विश्व में अनेक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनकी जीवन यात्रा बहुत थोड़ी सी है लेकिन कर्म इतना ऊँचा कर गए हैं कि कोई सौ वर्षों तक भी जी ले उनके स्तर तक नहीं पहुँच सकता. इसलिए मुझे लगता है जीवन वर्षों से नहीं बल्कि कर्मों से समझा जाता है. एक बात और जिसे में कुछ वर्षों से गहरे से अनुभव करता हूँ कि बुद्धिमता का उम्र से कोई लेना देना नहीं है. हालाँकि हमारे देश में ऐसी परम्परा है कि हमें अपने से बड़ों का आदर सम्मान करना चाहिए, लेकिन इसका कोई ठोस आधार नहीं है कि किस आधार पर करना चाहिए. उम्र के किसी भी पढाव तक जरुरी नहीं है कि व्यक्ति बुद्धिमान हो, बुद्धिमता का गुण किसी बालक में भी हो सकता है और किसी बुजुर्ग में उसी बुद्धिमता का अभाव देखा जा सकता है. शायद बुद्धिमता और श्रेष्ठ कर्म का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता. इसलिए हमें जीवन में बहुत सोच समझ कर कदम उठाने की आवश्यकता होती है. आदर्श जीवन लम्बे समय जीने का मोहताज नहीं होता, वह श्रेष्ठ कर्म का मोहताज होता है. हम जीवन में जितना अपने लिए सोचते और करते हैं उसका एक हिस्सा भी दूसरों के लिए सोचें और करें तो हमारे जीवन और समाज की स्थिति ही बदल जायेगी, और यही मनुष्यता की सबसे बड़ी पहचान है.

जीवन में एक और सिद्धांत बहुत मायने रखता है वह है दूसरों को आगे बढ़ाना. अगर हम दूसरों को आगे बढ़ा रहे होते हैं तो हम खुद भी आगे बढ़ रहे होते हैं. इसके पीछे एक स्पष्ट मान्यता है कि मनुष्य की सामाजिकता और उसकी बुद्धिमता उसे यह सब करने के लिए प्रेरित करती है. जब मनुष्य खुद पीछे रहकर किसी दूसरे को आगे बढ़ाने का कार्य करता है तो वह खुद भी आगे बढ़ रहा होता है. लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य के स्वार्थ का क्या होगा? यह एक यक्ष प्रश्न है. लेकिन उसके लिए कोई प्रश्न नहीं है जिसे यह पता है कि जीवन एक क्षण है, जब हम जीवन की क्षण भंगुरता को समझ जायेंगे तो अपने आप इन भौतिक स्वार्थों से से ऊपर उठ जायेंगे और जीवन के हर पल को किसी दूसरे की भलाई के लिए लगाने का प्रयास करेंगे. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है और आज तक का इतिहास ऐसा ही कहता है. एक मछली कई बार पूरे तालाब को गंदा कर देती है, लेकिन फिर भी हमें व्यक्तिगत स्तर पर एक सुन्दर और स्वस्थ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. हमारा पुरुषार्थ तो यही है कि हम एक बार जो भी निर्णय लें उसे किसी भी परिस्थिति में नहीं बदलें, और जो बार-बार अपने निर्णयों को बदलते हैं उनकी बुद्धिमता पर हमें भी चिन्तन करना चाहिए.  

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपनी असीम लालसाओं के लिए दिन रात प्रयास करता है, लेकिन अंत में उसे क्या हासिल होता है यह सबके सामने है. कल मोनिका शर्मा जी ने अपनी फेसबुक वाल पर एक चिंतन करने योग्य बात लिखी थी “कभी कभी इस विषय में सोचकर डर लगता है कि हमारा कमाया पैसा, धन दौलत, प्रोपर्टीज इस दुनिया से जाते समय भी हम अपने साथ ले जा सकते तो क्या होता ...? जानते समझते हैं कि सब कुछ यहीं छूट जाना है तो ये हाल है ... कमाए गए धन को जन्मजन्मांतर तक साथ रख सकते तो ...? तो शायद इंसानियत कहीं ढूंढें ना मिलतीहमें भी इस प्रश्न पर गहरे से विचार करना चाहिए और जीवन को सकारात्मक दिशा में जीने का स्वस्थ और सुन्दर प्रयास करना चाहिए.