23 सितंबर 2016

जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं...3

4 टिप्‍पणियां:
गत अंक से आगे... इस यात्रा का अनुभव अद्भुत है, लेकिन यह महसूस तब होता है जब हम इसे महसूस करना चाहते हैं. अधिकतर तो मनुष्य के साथ यह होता है कि वह जैसे-जैसे जीवन की यात्रा को तय करता है, वैसे-वैसे उसके दिलो-दिमाग पर कई तरह की परतें जमती जाती हैं. उसके मन में कई तरह की दीवारें बन जाती है. वह जाति, मजहब, वर्ण, रंग, रूप, वेश-भूषा, खान-पान, सभ्यता-संस्कृति आदि अनेक आधारों पर खुद को दूसरे मनुष्य से अलग समझता है. जिन आधारों की चर्चा यहाँ की गयी यह आधार ऐसे हैं जो मनुष्य की शारीरिक पहचान से जुड़े हैं. किसी हद तक तो यह सही भी है, इस संसार में जिनती विविधता होगी उतना ही यह संसार बेहतर भी होगा. क्योँकि ऐसी ही विविधता प्रकृति में भी है. मनुष्य भी इसी प्रकृति का अंग है. लेकिन वह कभी खुद को प्रकृति का हिस्सा नहीं मानता. यही बड़ी भूल मनुष्य करता है. जब इनसान खुद को प्रकृति के साथ जोड़कर, इसे अपनी सहचरी मानकर अपना जीवन जीने की कोशिश करेगा तो वह अपने जीवन रहते इस दुनिया की बेहतरी के लिए ही कार्य करेगा. लेकिन मनुष्य ऐसा नहीं कर पाता है. उसे उसके अग्रजों द्वारा कई तरह के बन्धनों में बाँधने का प्रयास किया जाता है, वह भी ‘इतिहास’ का हवाला देकर और साथ ही उसे यह भी समझाया जाता है कि इसके बगैर वह कुछ भी नहीं है.

यही से मनुष्य खुद का इतिहास बनाने की कोशिश करने लगता है. खुद को बेहतर समझने की होड़ यहीं से शुरू होती है. दुनिया में कहीं नाम और यश हो इस तरफ इनसान प्रयास करना शुरू करता है, और यही भाव उसे दूसरे इनसान से नफरत, वैर, विरोध आदि करने के लिए प्रेरित करता है. इतिहास बनाने की दौड़ बेहतर है, यह इनसान के द्वारा किया जाने वाला बेहतर प्रयास है. लेकिन जरा रूककर सोचें तो समझ आता है कि इस इतिहास को बनाने की दौड़ में मनुष्य कई बार इस हद तक गिर जाता है कि वह अपने खून तक के रिश्तों को भी नहीं बख्शता. वह उनका भी क़त्ल करता है. इतिहास की यात्रा, हमारे जीवन की भौतिक यात्रा से जुडी है. फिर भी अगर इनसान दूसरे इनसान की भलाई और आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ बेहतर करने का सपना लेकर आगे बढ़ता है तो यह अच्छा है. लेकिन आज तक का मनुष्य का उपलब्ध इतिहास देखें तो बात आसानी से समझ आती है कि चंद ही मनुष्य इस धरती पर हुए हैं, जिन्होंने सही मायने में इंसानियत के ऊँचे मायने स्थापित करने के लिए अपने जीवन के हर पल को जिया है. लेकिन ऐसे इनसानों के भावों से एक और भी सार निकल कर आता है कि इन्होंने जीवन चाहे जैसा भी जिया हो लेकिन हमेशा इस भाव में रहे कि वह तो निमित मात्र हैं. इससे अनेक लाभ हुए, लेकिन सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इन्होंने बिना किसी इतिहास का हवाला दिए बिना मनुष्य को वर्तमान में जीने के लिए प्रेरित किया. साथ ही यह भी समझाने का प्रयास किया कि मनुष्य वास्तव में इस ब्रह्माण्ड में व्याप्त चेतना का अंश है, और अंततः इनसान को इसी चेतना में समाना है. इस संसार तो चंद दिनों का बसेरा है, हमारी वास्तविक मंजिल तो आत्मा से परमात्मा का मिलन है. संसार में हुए अधिकतर महान व्यक्तियों ने इसी भाव से मनुष्य को समझाने का प्रयास किया है. हमारे पास ऐसे और कई उदाहरण हैं, जिनसे यह साबित हो जाता है कि बेशक भौतिक स्तर हम इतिहास का हिस्सा हैं, लेकिन आत्मिक और वास्तविक स्तर पर हमारी यात्रा अकेली है.

इस अद्भुत यात्रा जे अनुभव को ऐसे भी समझा जा सकता है. जैसे एक माँ का अनुभव अपनी कोख से पैदा किये हुए बच्चे के लिए अलग होगा. लेकिन उसी बच्चे के लिए पिता का अनुभव अलग होगा और इसी अनुभव के आधार पर अगर हम बच्चे का अनुभव माता और पिता के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे तो उसका भी माता और पिता के प्रेम के प्रति अनुभव अलग होगा. एक ही परिवार में एक ही माता-पिता का अपने बच्चों का प्रति तथा उन्हीं बच्चों का अपने माता-पिता के प्रति नजरिया और अनुभव हमेशा जुदा होता है. जबकि वह एक ही परिवेश में रहते हैं, एक ही माता-पिता से उन्होंने जन्म लिया है और अधिकतर एक ही तरह का वातावरण उन्हें मिला है. फिर भी हर किसी की सोच अलग है, चीजों को देखने का नजरिया अलग है. जीवन के छोटे से छोटे पहलू से लेकर बड़े से बड़े पहलू तक किसी का कोई भी भाव और विचार समान नहीं होता. जब मैं दसवीं कक्षा में पढता था तो मुझे एक व्यक्ति ने कहा था कि “केवल तुम्हारे अंगूठे की तरह दुनिया में दूसरा कोई अंगूठा नहीं है”. हालाँकि यह बात मुझे तब किसी और सन्दर्भ में समझ आई, आज इसी बात के मायने मेरे लिए अलग हो गए हैं और हो सकता है जीवन के किसी और पड़ाव पर इस बात के मायने मेरे लिए कुछ अलग हो जाएँ. इस बात को सुनने के बाद तब मुझे जो अनुभव हुआ, जो मैंने समझा, आज सब कुछ वैसा नहीं है और हो सकता है, कल कुछ और हो. इसलिए किसी एक बात के प्रति भी हमारा खुद का नजरिया बदलता रहता है तो फिर जीवन में इतिहास जैसा कहाँ कुछ घटित होता है. हम अपने आस-पास की चीजों को जब बेहतर तरीके से टटोलेंगे तो हमने जो अनुभव वहां से प्राप्त होंगे वह हमारे खुद के करीब जाने का मार्ग प्रशस्त करेंगे.

मनुष्य की यात्रा सांसारिक चकाचौंध में गुम होने की यात्रा नहीं है. जबकि मनुष्य की यात्रा खुद के भीतर झांककर अपने अस्तित्व को पहचानने की यात्रा है. जीवन का सफ़र दो स्तरों पर तय होता है, एक भौतिक स्तर पर और दूसरा आत्मिक स्तर पर. शरीर की यात्रा सीमित और अनिश्चित है. लेकिन इसमें एक पहलू निश्चित है और वह है कि किसी दिन हमें इस शरीर से अलग होना है और आत्मिक स्तर की यात्रा अनंत है, उसके विषय में हम कोई अनुमान नहीं लगा सकते. लेकिन वह हमारे संचित अनुभवों की यात्रा के बजाय हमेशा कुछ नया अनुभव करने की यात्रा है. यह यात्रा जीवन को समझने की यात्रा है. यह यात्रा वर्तमान से इतिहास की और बढ़ने की यात्रा नहीं है, बल्कि वर्तमान से वर्तमान में रहते हुए आगे बढ़ने की यात्रा है. यह यात्रा अनन्त से अनंत में विलीन होने की यात्रा है. जीवन की यात्रा इतिहास की नहीं, बल्कि वर्तमान की यात्रा है, मृत्यु की नहीं, बल्कि अमरत्व की यात्रा है . इस यात्रा में इतिहास जैसा कुछ  नहीं, जो है वह सिर्फ वर्तमान है. 

18 सितंबर 2016

जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं...2

4 टिप्‍पणियां:
गत अंक से आगे.... मनुष्य चेतना का प्रतिबिम्ब है और यही इसकी वास्तविक पहचान है. वैसे अगर चेतना के इस दायरे को मनुष्य से बाहर की दुनिया पर भी लागू किया जाए तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. जब हम इस बात को स्वीकारते हैं कि इस सृष्टि के कण-कण में इसे रचने वाली चेतना समाई है तो सभी इसी चेतना के  ही प्रतिबिम्ब कहे जाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा. लेकिन मनुष्य को इन सबमें श्रेष्ठ माना गया है और किसी हद तक यह बात सही भी है. लेकिन मनुष्य को जिस पहलू के कारण श्रेष्ठ माना गया है उसे भी समझने की जरुरत है. जिन्होंने अपने जीवन का अधिकतर समय इस पहलू को समझने में लगाया और जिनकी कही हुई बात की मान्यता इस दुनिया में है, उन्होंने तो कहा है कि:-
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुनइनके आधार पर तो इनसान और पशु में कोई भेद नहीं है. धर्म के कारण ही मनुष्य विशेष है और जो धर्म विहीन है वह पशु के समान है. इसी सन्दर्भ को संतों ने और स्पष्ट तरीके से समझते हुए कहा कि:-  
निद्रा, भोजन, भोग, भय, यह पशु पुरुष समान
ज्ञान अधिक इक नरन में, ज्ञान बिना नर पशु जान
इनसान और पशु में अन्तर शारीरिक क्रियाओं के आधार पर नहीं, क्योँकि शारीरिक क्रियाएं मनुष्य और पशु में समान हैं. देखा तो यहाँ तक भी गया है कि पशु इन शारीरिक क्रियाओं का निर्वाह उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त मर्यादा के अनुरुप ही करता है. लेकिन मनुष्य अधिकतर इन मर्यादाओं का उलंघन करता है. उसके लिए जीवन का कोई एक निश्चित पैमाना नहीं है. देश काल और समय के अनुसार मनुष्य के जीवन जीने और समझने का पैमाना बदलता रहता है. जो पहलू किसी एक देश में बुरा माना जाता है वही किसी और देश के लोगों में सम्मान का सूचक हो सकता है. पूरी दुनिया में जीवन को किसी एक पैमाने में नहीं जिया जाता. मनुष्य जीवन में, जीवन जीने के पहलूओं और उससे सम्बन्धित मान्यताओं में इतनी विविधता है कि किसी एक को बेहतर और किसी एक को कमतर करके कभी नहीं आँका जा सकता. इन सबके विषय में विचार करते हुए हम सोच सकते हैं कि क्या मनुष्य जीवन में इतिहास की कोई भूमिका होती है? उसके जीवन में इतिहास जैसा कुछ है? और अगर इतिहास जैसा कुछ है तो उसकी सीमा क्या है ? उसका क्या प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता है और वह किस तरह से मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता है. मनुष्य जीवन में इतिहास से सम्बन्धित ऐसे अनेक पहलू हैं, जो कई बार हमें जीवन के विषय में गंभीरता से सोचने पर विवश करते हैं.
बहुत बार मुझे लगता है कि जीवन में इतिहास जैसा कुछ  नहीं है. हम इतिहास को जिस सन्दर्भ में लेते हैं. कम से कम उस जैसा तो कुछ भी जीवन में कभी घटित ही नहीं होता. इस पहलू को जब बड़ी बारीकी से सोचा तो मैं खुद पर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ. आप भी इसे समझने की चेष्टा करेंगे तो शायद आप भी मेरी तरह विस्मय से भर जायेंगे. इतिहास के सन्दर्भ में हमारी मान्यता है कि जो कुछ घटित हो चुका है, और जिसकी पुनरावृति नहीं हो सकती, वह इतिहास है. जिसे हम तथ्य और तर्क के आधार पर प्रमाणित करते हैं.   हम हमेशा इस बात पर बड़ा गर्व करते हैं कि हमारा इतिहास ऐसा है, हमारा इतिहास वैसा है. लेकिन गहराई से देखें तो हमारा कोई इतिहास भी होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. क्योँकि जीवन जिस गति से चल रहा है वह तो हमेशा ही वर्तमान है. हम सब मानवीय विकास का हिस्सा है और हमारा जन्म मानवीय लड़ी को आगे ले जाने की एक कड़ी मात्र है. हम बेशक अपने पूर्वजों की लड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन अनुभव और अन्तर्यात्रा में हम अकेले हैं. उनके अनुभव और हमारे अनुभव कभी एक जैसे नहीं होंगे. चाहे सन्दर्भ कोई भी हो. उसमें इतिहास जैसा कुछ भी नहीं होगा. वहां हमेशा ही वर्तमान है और रहेगा.
यहाँ मैं जीवन में इतिहास जैसा कुछ  नहीं है. इस पहलू पर सिर्फ मनुष्य की अन्तर्यात्रा और उसके अनुभव के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ.  यहाँ मैं राजनीति, सभ्यता, संस्कृति, शिल्प आदि के इतिहास पर बात करने के बजाय मनुष्य की अन्तर्यात्रा और इतिहास के सन्दर्भ में हमारी सोच के विषय में बात करने का प्रयास कर रहा हूँ. जिसे हम इतिहास कह रहे हैं, वह वास्तव में इतिहास जैसा लगता है. लेकिन वह भी एक समय वर्तमान का हिस्सा रहा है, जो हमारे पूर्वजों के समय उनका वर्तमान था, आज वही हमारे लिए इतिहास है. इतिहास की कहानी सिर्फ इतनी सी है. किसी समय किसी का वर्तमान आगे आने वाली पीढ़ियों का इतिहास है. हम इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि हमारा वर्तमान किसी दिन हमारा इतिहास होते हुए आने वाली पीढ़ियों का भी इतिहास होगा, और उनका वर्तमान उनकी आने वाली पीढ़ियों का इतिहास होगा. यह क्रम तो चलता ही रहेगा और चल भी रहा है. इतिहास हमेशा भूत का विषय है और वह सिर्फ घटना है, जो घटित हो चुकी है, और उस घटना के घटित होने में उस समय के मनुष्य का कोई ज्यादा योगदान नहीं. हाँ यह जरुर है कि सामूहिक रूप से वह घटना उसे दौर के हर मनुष्य से जुडी हो सकती है. हम उस घटना को सुनकर थोडा सा अनुमान उस समय की परिस्थिति के विषय में लगा सकते हैं, लेकिन जिसने उस घटना को झेला है उसका अनुभव अलग होगा, जिसने उस घटना को देखा होगा उसका अनुभव अलग होगा, जिसने उस समय में उस घटना के विषय में सुना होगा उसका अनुभव अलग होगा और जो उस घटना के लिए जिम्मेवार होगा उसका अनुभव अलग होगा.
अब देखें कि एक ही घटना के विषय में जितने लोग उतना अनुभव, फिर इतिहास कैसे हो गया? इतिहास हो गया तो एक सा होना चाहिए, तर्क और तथ्य पर खरा उतरने वाला. लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं है. फिर जीवन में इतिहास जैसा कुछ कहाँ और कैसे होता है. वास्तव में हमारी यात्रा अकेले मंजिल पर पहुँचने की यात्रा है, यह जितने भी संगी-साथी है, यह शरीर के साथ तक के साथी हैं. भीतर से हम अद्वितीय हैं, अकेले हैं और सिर्फ वर्तमान हैं. हमारी यात्रा इतिहास की नहीं है, बल्कि वर्तमान की यात्रा है, एक नैसर्गिक यात्रा है. यहाँ किसी घटना का अनुभव जरुर है, लेकिन प्रमाण नहीं, इसलिए जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं. सबका अपना-अपना बजूद है और सब अपने अनुभव और दृष्टिकोण से अपने जीवन की यात्रा को तय करते हैं. मनुष्य का हर अनुभव उसे एक नई सीख देता है और समझने वाला मनुष्य हमेशा उस अनुभव के आधार पर खुद को परिष्कृत करता हैं. हम दूसरों के अनुभवों से सीखते जरुर हैं, लेकिन जीवन बेहतर तब होता है जब हम स्वयं उस अनुभव से गुजरते हैं. लेकिन यहाँ यह भी समझना जरुरी है कि किसी एक घटना के विषय में एक ही समय में अलग-अलग व्यक्ति के अलग-अलग अनुभव होते हैं. जीवन की यात्रा इतिहास से जुडी यात्रा सिर्फ भौतिक स्तर पर है और वह भी अपनी समझ की सुविधा के लिए, जीवन की वास्तविक यात्रा तो नैसर्गिक है, अनिश्चित है, बिना इतिहास की है. शेष अगले अंक में...!! 

14 सितंबर 2016

जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं...1

3 टिप्‍पणियां:
इतिहास शब्द जहन में आते ही हम अतीत के विषय में सोचना शुरू करते हैं. संभवतः हम अतीत के विषय में जानने और समझने के लिए कल्पना का सहारा कम ही लेते हैं. कल्पना की ऊँची उड़ान तो भविष्य के लिए है. अतीत के लिए तो सोच है, समझ है, तर्क है और अंततः अतीत तथ्य पर आकर रुकता है और वहीँ रूढ़ हो जाता है. अतीत को समझने के लिए तथ्य के मायने बहुत है, लेकिन भविष्य के लिए तथ्य कहीं भी मायने नहीं रखता. लेकिन जीवन का जहाँ तक प्रश्न है, यह न तो तथ्य है और न ही तर्क, यह न तो इतिहास है और न ही भविष्य. जीवन तो बस जीवन है. एक अद्भुत और नैसर्गिक प्रक्रिया.

जीवन को समझने के लिए आज तक अनेक प्रयास हुए हैं. हर प्रयास का कुछ न कुछ निष्कर्ष हमारे सामने है. हमारी कोशिश जीवन में यही रहती है कि हम अपने अग्रजों की बनी बनाई परिपाटी पर चलते हुए जीवन की गति को दिशा दें, और अधिकतर ऐसा ही होता रहा है. लेकिन दुनिया में एक तरफ अग्रजों की परिपाटी पर चलने वाले लोग रहे हैं तो वहीँ दूसरी और कुछ ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने अपने रास्ते की तलाश खुद की है और मंजिल को हासिल किया है.  यह दौर भी दुनिया में बराबर चलता रहा है कि एक तरफ परम्परा को मानने वाले रहे हैं तो वहीँ दूसरी और उस परम्परा का खण्डन करने वाले भी पैदा हुए हैं. लेकिन जिन लोगों ने किसी परम्परा का खण्डन किया है वह दुनिया को कोई न कोई नयी परम्परा देकर ही गए हैं. लेकिन आने वाले समय में वह परम्परा जो एक समय नयी थी वह भी पुरानी हो गयी, वह भी जड़ लगने लगी और फिर किसी ने उसे भी तोड़ने का प्रयास किया और उसके स्थान पर नयी परम्परा स्थापित कर दी. इतिहास के कालचक्र में यह दौर मनुष्य के अस्तित्व से लेकर आज तक निरन्तर चला आ रहा है और चलता रहेगा मनुष्य के अन्तिम अवशेष तक.  

लेकिन मैं जिस प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाह रहा हूँ वह मेरे अनुभव को लेकर है. मेरे ही क्योँ? वह आपके अनुभव को लेकर भी है. मनुष्य जीवन हमें बेशक शरीर की यात्रा लगता है. लेकिन अब यह महसूस होने लगा है कि मनुष्य की यात्रा शरीर की कम ‘मन’ की ज्यादा है. शरीर तो सिर्फ एक माध्यम मात्र है. शरीर कई मायनों में जड़ जैसा है, अगर इसमें भाव, विचार, सम्वेदना आदि न हो. तभी तो कबीर ने इसे प्रेम के बिना लोहार के द्वारा प्रयोग की जाने वाली खाल के समान कहा है. प्रेम ही क्योँ जीवन तो हजारों भावों, विचारों और सम्वेदनाओं का प्रतिबिम्ब है. हमारी यात्रा हांड-मास के स्थूल ढांचे की नहीं, बल्कि हमारी यात्रा सूक्ष्म की यात्रा है. यह जड़ की नहीं, बल्कि चेतना की यात्रा है. इसी चेतन तत्व पर आज तक अनेक तरह से विचार किया गया है और इसे समझने के प्रयास निरन्तर जारी हैं. शेष अगले अंक में....!!