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18 सितंबर 2016

जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं...2

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गत अंक से आगे.... मनुष्य चेतना का प्रतिबिम्ब है और यही इसकी वास्तविक पहचान है. वैसे अगर चेतना के इस दायरे को मनुष्य से बाहर की दुनिया पर भी लागू किया जाए तो किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. जब हम इस बात को स्वीकारते हैं कि इस सृष्टि के कण-कण में इसे रचने वाली चेतना समाई है तो सभी इसी चेतना के  ही प्रतिबिम्ब कहे जाएँ तो ज्यादा बेहतर होगा. लेकिन मनुष्य को इन सबमें श्रेष्ठ माना गया है और किसी हद तक यह बात सही भी है. लेकिन मनुष्य को जिस पहलू के कारण श्रेष्ठ माना गया है उसे भी समझने की जरुरत है. जिन्होंने अपने जीवन का अधिकतर समय इस पहलू को समझने में लगाया और जिनकी कही हुई बात की मान्यता इस दुनिया में है, उन्होंने तो कहा है कि:-
आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुनइनके आधार पर तो इनसान और पशु में कोई भेद नहीं है. धर्म के कारण ही मनुष्य विशेष है और जो धर्म विहीन है वह पशु के समान है. इसी सन्दर्भ को संतों ने और स्पष्ट तरीके से समझते हुए कहा कि:-  
निद्रा, भोजन, भोग, भय, यह पशु पुरुष समान
ज्ञान अधिक इक नरन में, ज्ञान बिना नर पशु जान
इनसान और पशु में अन्तर शारीरिक क्रियाओं के आधार पर नहीं, क्योँकि शारीरिक क्रियाएं मनुष्य और पशु में समान हैं. देखा तो यहाँ तक भी गया है कि पशु इन शारीरिक क्रियाओं का निर्वाह उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त मर्यादा के अनुरुप ही करता है. लेकिन मनुष्य अधिकतर इन मर्यादाओं का उलंघन करता है. उसके लिए जीवन का कोई एक निश्चित पैमाना नहीं है. देश काल और समय के अनुसार मनुष्य के जीवन जीने और समझने का पैमाना बदलता रहता है. जो पहलू किसी एक देश में बुरा माना जाता है वही किसी और देश के लोगों में सम्मान का सूचक हो सकता है. पूरी दुनिया में जीवन को किसी एक पैमाने में नहीं जिया जाता. मनुष्य जीवन में, जीवन जीने के पहलूओं और उससे सम्बन्धित मान्यताओं में इतनी विविधता है कि किसी एक को बेहतर और किसी एक को कमतर करके कभी नहीं आँका जा सकता. इन सबके विषय में विचार करते हुए हम सोच सकते हैं कि क्या मनुष्य जीवन में इतिहास की कोई भूमिका होती है? उसके जीवन में इतिहास जैसा कुछ है? और अगर इतिहास जैसा कुछ है तो उसकी सीमा क्या है ? उसका क्या प्रभाव मनुष्य के जीवन पर पड़ता है और वह किस तरह से मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता है. मनुष्य जीवन में इतिहास से सम्बन्धित ऐसे अनेक पहलू हैं, जो कई बार हमें जीवन के विषय में गंभीरता से सोचने पर विवश करते हैं.
बहुत बार मुझे लगता है कि जीवन में इतिहास जैसा कुछ  नहीं है. हम इतिहास को जिस सन्दर्भ में लेते हैं. कम से कम उस जैसा तो कुछ भी जीवन में कभी घटित ही नहीं होता. इस पहलू को जब बड़ी बारीकी से सोचा तो मैं खुद पर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ. आप भी इसे समझने की चेष्टा करेंगे तो शायद आप भी मेरी तरह विस्मय से भर जायेंगे. इतिहास के सन्दर्भ में हमारी मान्यता है कि जो कुछ घटित हो चुका है, और जिसकी पुनरावृति नहीं हो सकती, वह इतिहास है. जिसे हम तथ्य और तर्क के आधार पर प्रमाणित करते हैं.   हम हमेशा इस बात पर बड़ा गर्व करते हैं कि हमारा इतिहास ऐसा है, हमारा इतिहास वैसा है. लेकिन गहराई से देखें तो हमारा कोई इतिहास भी होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता. क्योँकि जीवन जिस गति से चल रहा है वह तो हमेशा ही वर्तमान है. हम सब मानवीय विकास का हिस्सा है और हमारा जन्म मानवीय लड़ी को आगे ले जाने की एक कड़ी मात्र है. हम बेशक अपने पूर्वजों की लड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन अनुभव और अन्तर्यात्रा में हम अकेले हैं. उनके अनुभव और हमारे अनुभव कभी एक जैसे नहीं होंगे. चाहे सन्दर्भ कोई भी हो. उसमें इतिहास जैसा कुछ भी नहीं होगा. वहां हमेशा ही वर्तमान है और रहेगा.
यहाँ मैं जीवन में इतिहास जैसा कुछ  नहीं है. इस पहलू पर सिर्फ मनुष्य की अन्तर्यात्रा और उसके अनुभव के आधार पर अपनी बात को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ.  यहाँ मैं राजनीति, सभ्यता, संस्कृति, शिल्प आदि के इतिहास पर बात करने के बजाय मनुष्य की अन्तर्यात्रा और इतिहास के सन्दर्भ में हमारी सोच के विषय में बात करने का प्रयास कर रहा हूँ. जिसे हम इतिहास कह रहे हैं, वह वास्तव में इतिहास जैसा लगता है. लेकिन वह भी एक समय वर्तमान का हिस्सा रहा है, जो हमारे पूर्वजों के समय उनका वर्तमान था, आज वही हमारे लिए इतिहास है. इतिहास की कहानी सिर्फ इतनी सी है. किसी समय किसी का वर्तमान आगे आने वाली पीढ़ियों का इतिहास है. हम इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि हमारा वर्तमान किसी दिन हमारा इतिहास होते हुए आने वाली पीढ़ियों का भी इतिहास होगा, और उनका वर्तमान उनकी आने वाली पीढ़ियों का इतिहास होगा. यह क्रम तो चलता ही रहेगा और चल भी रहा है. इतिहास हमेशा भूत का विषय है और वह सिर्फ घटना है, जो घटित हो चुकी है, और उस घटना के घटित होने में उस समय के मनुष्य का कोई ज्यादा योगदान नहीं. हाँ यह जरुर है कि सामूहिक रूप से वह घटना उसे दौर के हर मनुष्य से जुडी हो सकती है. हम उस घटना को सुनकर थोडा सा अनुमान उस समय की परिस्थिति के विषय में लगा सकते हैं, लेकिन जिसने उस घटना को झेला है उसका अनुभव अलग होगा, जिसने उस घटना को देखा होगा उसका अनुभव अलग होगा, जिसने उस समय में उस घटना के विषय में सुना होगा उसका अनुभव अलग होगा और जो उस घटना के लिए जिम्मेवार होगा उसका अनुभव अलग होगा.
अब देखें कि एक ही घटना के विषय में जितने लोग उतना अनुभव, फिर इतिहास कैसे हो गया? इतिहास हो गया तो एक सा होना चाहिए, तर्क और तथ्य पर खरा उतरने वाला. लेकिन यहाँ तो ऐसा कुछ भी नहीं है. फिर जीवन में इतिहास जैसा कुछ कहाँ और कैसे होता है. वास्तव में हमारी यात्रा अकेले मंजिल पर पहुँचने की यात्रा है, यह जितने भी संगी-साथी है, यह शरीर के साथ तक के साथी हैं. भीतर से हम अद्वितीय हैं, अकेले हैं और सिर्फ वर्तमान हैं. हमारी यात्रा इतिहास की नहीं है, बल्कि वर्तमान की यात्रा है, एक नैसर्गिक यात्रा है. यहाँ किसी घटना का अनुभव जरुर है, लेकिन प्रमाण नहीं, इसलिए जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं. सबका अपना-अपना बजूद है और सब अपने अनुभव और दृष्टिकोण से अपने जीवन की यात्रा को तय करते हैं. मनुष्य का हर अनुभव उसे एक नई सीख देता है और समझने वाला मनुष्य हमेशा उस अनुभव के आधार पर खुद को परिष्कृत करता हैं. हम दूसरों के अनुभवों से सीखते जरुर हैं, लेकिन जीवन बेहतर तब होता है जब हम स्वयं उस अनुभव से गुजरते हैं. लेकिन यहाँ यह भी समझना जरुरी है कि किसी एक घटना के विषय में एक ही समय में अलग-अलग व्यक्ति के अलग-अलग अनुभव होते हैं. जीवन की यात्रा इतिहास से जुडी यात्रा सिर्फ भौतिक स्तर पर है और वह भी अपनी समझ की सुविधा के लिए, जीवन की वास्तविक यात्रा तो नैसर्गिक है, अनिश्चित है, बिना इतिहास की है. शेष अगले अंक में...!! 

14 सितंबर 2016

जीवन में इतिहास जैसा कुछ नहीं...1

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इतिहास शब्द जहन में आते ही हम अतीत के विषय में सोचना शुरू करते हैं. संभवतः हम अतीत के विषय में जानने और समझने के लिए कल्पना का सहारा कम ही लेते हैं. कल्पना की ऊँची उड़ान तो भविष्य के लिए है. अतीत के लिए तो सोच है, समझ है, तर्क है और अंततः अतीत तथ्य पर आकर रुकता है और वहीँ रूढ़ हो जाता है. अतीत को समझने के लिए तथ्य के मायने बहुत है, लेकिन भविष्य के लिए तथ्य कहीं भी मायने नहीं रखता. लेकिन जीवन का जहाँ तक प्रश्न है, यह न तो तथ्य है और न ही तर्क, यह न तो इतिहास है और न ही भविष्य. जीवन तो बस जीवन है. एक अद्भुत और नैसर्गिक प्रक्रिया.

जीवन को समझने के लिए आज तक अनेक प्रयास हुए हैं. हर प्रयास का कुछ न कुछ निष्कर्ष हमारे सामने है. हमारी कोशिश जीवन में यही रहती है कि हम अपने अग्रजों की बनी बनाई परिपाटी पर चलते हुए जीवन की गति को दिशा दें, और अधिकतर ऐसा ही होता रहा है. लेकिन दुनिया में एक तरफ अग्रजों की परिपाटी पर चलने वाले लोग रहे हैं तो वहीँ दूसरी और कुछ ऐसे भी रहे हैं जिन्होंने अपने रास्ते की तलाश खुद की है और मंजिल को हासिल किया है.  यह दौर भी दुनिया में बराबर चलता रहा है कि एक तरफ परम्परा को मानने वाले रहे हैं तो वहीँ दूसरी और उस परम्परा का खण्डन करने वाले भी पैदा हुए हैं. लेकिन जिन लोगों ने किसी परम्परा का खण्डन किया है वह दुनिया को कोई न कोई नयी परम्परा देकर ही गए हैं. लेकिन आने वाले समय में वह परम्परा जो एक समय नयी थी वह भी पुरानी हो गयी, वह भी जड़ लगने लगी और फिर किसी ने उसे भी तोड़ने का प्रयास किया और उसके स्थान पर नयी परम्परा स्थापित कर दी. इतिहास के कालचक्र में यह दौर मनुष्य के अस्तित्व से लेकर आज तक निरन्तर चला आ रहा है और चलता रहेगा मनुष्य के अन्तिम अवशेष तक.  

लेकिन मैं जिस प्रश्न पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाह रहा हूँ वह मेरे अनुभव को लेकर है. मेरे ही क्योँ? वह आपके अनुभव को लेकर भी है. मनुष्य जीवन हमें बेशक शरीर की यात्रा लगता है. लेकिन अब यह महसूस होने लगा है कि मनुष्य की यात्रा शरीर की कम ‘मन’ की ज्यादा है. शरीर तो सिर्फ एक माध्यम मात्र है. शरीर कई मायनों में जड़ जैसा है, अगर इसमें भाव, विचार, सम्वेदना आदि न हो. तभी तो कबीर ने इसे प्रेम के बिना लोहार के द्वारा प्रयोग की जाने वाली खाल के समान कहा है. प्रेम ही क्योँ जीवन तो हजारों भावों, विचारों और सम्वेदनाओं का प्रतिबिम्ब है. हमारी यात्रा हांड-मास के स्थूल ढांचे की नहीं, बल्कि हमारी यात्रा सूक्ष्म की यात्रा है. यह जड़ की नहीं, बल्कि चेतना की यात्रा है. इसी चेतन तत्व पर आज तक अनेक तरह से विचार किया गया है और इसे समझने के प्रयास निरन्तर जारी हैं. शेष अगले अंक में....!! 

21 फ़रवरी 2016

प्रेम का गणित 1+1=1...2

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गत अंक से आगे एक नयी दुनिया नहीं, बल्कि एक बनी-बनाई दुनिया में नए ढंग से जीना है. प्रेम का यह अर्थ उसके लिए एक ऐसे लक्ष्य को प्राप्त करने जैसा था, जैसे इसे पाकर वह पूरी दुनिया के लिए प्रेम की एक अद्भुत मिसाल कायम करेगा. प्रेम और प्रेम के बाद की जिन्दगी के विषय में उसकी अपनी कल्पनाएँ थी. वह हमेशा मुझे यही कहता कि आज मेरी जिन्दगी प्रेम की जिन्दगी है, तो मैं उससे सीधा सवाल करता कि क्या कल आपकी जिन्दगी प्रेम वाली नहीं होगी? तो वह कहता कि तब यह सब कुछ नहीं हो पायेगा न, जो आज कर रहा हूँ? इस सब-कुछ में उसकी कई बातों होती, कई तर्क होते, लेकिन कहीं पर प्रेम का जो अहसास था वह धूमिल सा था. कहाँ तो प्रेम प्रकाश के समान चमकना चाहिए, लकिन यहाँ प्रेम के आलावा सब चीजों की चमक थी, लेकिन यह सब चीजें प्रेम रूपी आवरण के पीछे छुपी हुई थी. फिर भी प्रेम का आवरण धुंधला था.
मैं कभी किसी के मनोभावों को लेकर कभी कोई अनुमान नहीं लगाता. किसी के दिल में क्या छुपा है उसे समझने की कोशिश तब तक नहीं करता, जब तक उसका मुझसे कोई बास्ता न हो. इसलिए मेरे मित्र के जहन में जो भाव चल रहे थे, उनका मुझसे कोई सीधा सरोकार नहीं था. लेकिन उसे मेरी बातों को समझने में काफी जिज्ञासा होती तो हम कई बार किन्हीं ख़ास मुद्दों पर बात कर लेते. प्रेम उनमें से ही एक खास मुद्दा था. प्रेम के विषय में उसे मेरी धारणाएं थोड़ी हटकर लगती और वह खुद को उन्हीं के अनुरूप बनाने की कोशिश भी करता. लेकिन जब उसे कहीं असफलता मिलती या फिर कुछ उसके भावों के अनुरूप नहीं होता तो वह थोडा असहज होता और फिर उसी सन्दर्भ में बात करने या स्पष्टीकरण के लिए मेरे पास आ जाता. यूं ही कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. प्रेम के कई पक्षों के विषय में मैंने उसे समझाने का प्रयास किया. लेकिन उसे अपनी धुन में रहना ही पसंद था.
खैर एक दिन मैंने उसे कहा कि आज आपको प्रेम के गणित को समझाता हूँ, वह मुस्कराया और मेरे साथ चल दिया. हम चलते-चलते पहाड़ियों के बीच एक सुन्दर से स्थान पर पहुँच गए, पास में नदी वह रही थी, पक्षी रात्री विश्राम के लिए वापिस आ रहे थे, दिन ढल रहा था, गडरिया अपनी भेड़-बकरियों को अपने ठिकाने की तरफ बुला रहा था, सब अपने-अपने रोजमर्रा के कामों को करके अपने परिवार से मिलने घर वापिस आ रहे थे. मौसम बड़ा सुहावना था. हम दोनों ऐसे मौसम का आनन्द लेते हुए कुछ बातों में व्यस्त थे. धीरे-धीरे सूरज की लामिमा पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए अँधेरे के होने का संकेत दे रही थी. मैं काफी रोमांचित था और मेरा मित्र उस वातावरण में अपनी प्रेमिका की याद में मग्न था. मैंने उससे कोई प्रश्न नहीं किया, वह प्रकृति में इतना राम गया कि उसे यह भी ख्याल नहीं रहा कि हम यहाँ आये किस मकसद से थे. धीरे-धीरे रात का सन्नाटा बढ़ रहा था, और वह कुछ ख्यालों में खोया हुआ अपने आप से बुदबुदा रहा था, वह मुझे बात करने के बजाय प्रकृति में रमने में खुश हो रहा था. उसे आनन्द की अनुभूति हो रही थी, वह खामोश होने के बजाय नाचने पर मजबूर हो रहा था, उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था और मैं शान्त भाव से उसकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया पर नजर बनाये हुए था.
उसे ऐसी अवस्था में देखकर मुझे अपने बीते हुए लम्हों की याद आ रही थी, जीवन का हर वह अहसास जीवन्त रूप ले रहा था. दृश्य आँखों के सामने घूम रहे थे, सब कुछ पास महसूस हो रहा था. था तो मैं अपने दोस्त के साथ, लेकिन तनहा था, मेरा मित्र प्रकृति में अपनी प्रेयसी को खोजकर उससे इकमिक हो चुका था, ठीक वैसे ही जैसे पन्त अपनी प्रेयसी को प्रकृति में पाते हैं. यहाँ प्रकृति का मानवीकरण हो रहा था और मानव प्रकृति में समा रहा था. प्रेम की यह निश्छल और अविरल धारा दोनों और से एक सी बह रही थी और अन्तहीन सफ़र तक साथ होने का अहसास करवा रही थी. मेरा मित्र जाने कब इस अहसास में खो गया. सब कुछ भूल कर वह सिर्फ प्रकृति में खोना चाहता था और संभवतः प्रकृति उसमें. यहाँ प्रेम इस रूप में वह रहा था कि दोनों एक-दूसरे के लिए सहज समर्पित हो गए. कोई बनावटीपन नहीं, एक सहज समर्पण, एक सहज आकर्षण. सिर्फ और सिर्फ प्रेम, प्रेम के सिवा कुछ भी नहीं. 1+1=1 होने की प्रक्रिया की शुरुआत और अंत कहीं नहीं. बस एक और एक हो गए.
मैं अपने मित्र की सुध-बुध खोने की इस स्थिति को देखकर अचम्भित था, प्रेम को संभवतः उसने पहली बार अनुभव किया था. उसके हावभाव बदल गए थे, वह प्रेम में बनाबटीपन के बजाय नैसर्गिकता का पक्षधर होता जा रहा था. रात के इस गहरे सन्नाटे में वह प्रेम में समन्दर में और गहरे अन्तस् तक उतरने की कोशिश में था. उसे प्रेम लौकिक से अलौकिक की यात्रा महसूस हो रही थी, जड़ से चेतन का सफ़र, माया से ब्रह्म की यात्रा. उसे अपने शरीर का भान नहीं रह रहा था, बस वह चेतना में अवस्थित हो रहा था, एक से एक होने की प्रक्रिया में एक के बचने की सम्भावना बलबती होती जा रही थी. उसके चेहरे पर एक अलौकिक प्रकाश छा रहा था, आनन्द के सागर में लगाये गोते उसके जीवन को परिवर्तित कर रहे थे, उसके जीवन के कई मुखौटे अब उतर चुके थे, मन का अहम् कब्र में चला गया था, पूरी कायनात से प्रेम करने का मन कर रहा था. जीवन बदल रहा था, अहम् और अस्तित्व से शुरू हुई यात्रा, समर्पण और शून्य में प्रवेश कर गयी थी और इतने में सुबह के सूरज की लालिमा दूर पहाड़ की चोटी पर हमें दिखाई दी, भोर हो चुकी थी, सब अपने-अपने घरौंदों से निकल रहे थे, और ऐसे में मेरे मित्र ने जीवन का एक सच अनुभूत कर लिया था. अब वह निकल पड़ा था प्रेम की एक रौशनी लेकर दुनिया को प्रेम की सीख देने के लिए, क्योँकि  उसने महसूस किया कि अन्ततः संसार में जो सबसे बेहतर है, वह है “प्रेम”....लेकिन सिर्फ और सिर्फ “नैसर्गिक प्रेम”.
एक दृश्य और एक सपना, अंततः साकार हो रहा था.

11 फ़रवरी 2016

प्रेम का गणित 1+1=1...1

6 टिप्‍पणियां:
एक दिन मैं अपने मित्र से बात कर रहा था. बातों-बातों में बात प्रेम के विषय तक आ पहुंची. बात-बात में मैंने महसूस किया कि वह अपने प्रेम को लेकर संशय की स्थिति में है. वह अपने प्रेम के अनुभवों और भविष्य की स्थितियों को लेकर बहुत असमंजस में था. उसे लग रहा था कि कहीं वह उसे खो न देजिसे उसने बड़ी शिद्दत से पाया है. उसके मन में कई तरह के प्रश्न थे. मैंने उसे सलाह दी कि प्रेम के गणित में 1 और 1 का जबाब 1 ही होता है. मेरी बात सुनकर वह हंसा और मेरा मजाक बनाते हुए वहां से चल दिया. उसे लगा शायद मैं उसकी इस हरकत पर बुरा मान जाऊंगा या फिर अपनी बात को सही साबित करने की कोशिश करूँगा. उसके हाव-भाव से यह भी लग रहा था कि मैं किसी दिन अपने इस तर्क से पीछे हट जाऊंगा और उसे यह कह दूंगा कि मैं तो मजाक कर रहा था.
गणित के नियम के अनुसार जब हम 1+1 करते हैं तो स्वाभाविक सी बात है कि उसका उत्तर 2 होता है. यह बात तो एक सामान्य सी बुद्धि का व्यक्ति भी समझ सकता है. लेकिन जब भी वह मुझसे प्रेम के विषय में पूछता तो मैं अन्त में उसे यह जरुर कहता कि जीवन में स्थिति चाहे जैसी भी होलोग चाहे जैसे भी होंवह कुछ भी कर लेंलेकिन उन्हें प्रेम की कमी महसूस होती ही है. जीवन में प्रेम का कोई विकल्प नहीं है. ‘प्रेम’ जीवन का वह अहसास है जिसका होना ही जीवन के मायने बदल देता है. मेरी इस बात पर उसकी प्रतिक्रिया उसके मन की स्थिति  के हिसाब से होतीजब वह खुश होता तो वह वाह-वाह करतालेकिन अगर थोड़ी सी भी कहीं कोई किन्तु-परन्तु हो तो वह सिरे से नकार देता कि जीवन में प्यार-व्यार कुछ नहीं होता. सब अपने मतलब से किसी से जुड़ते हैंउनका अपना कोई ख़ास मकसद होता है. जब उनका मकसद पूरा हो जाता है तो वह किसी को किनारे करके किसी और मंजिल का रुख कर लेते हैंऐसे में एक संवेदनशील व्यक्ति अपने जीवन और मौत के बीच जूझता रहता है. ऐसी कई बातें थी जो वह मुझसे किया करता था. लेकिन उसे ख़ास दिलचस्पी इसी बात को समझने में थी कि 1+1=1 कैसे हो सकता है.
मैं उसे कई दिन टालता रहालेकिन उसे यही समझना था कि प्रेम का गणित कैसेसामान्य गणित से अलग हो सकता है. जहाँ प्रेम है वहां गणित का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है. वहां तो भाव हैंअनुभूति हैचाहत हैएक दूसरे के लिए मर मिटने के अरमान हैं. ऐसी कई बातें हैं जिन्हें हम सिर्फ महसूस कर सकते हैंउन्हें कहना मुश्किल लगता है. उसकी बातों और व्यवहार का यह अन्तर उसके प्रेम पर और भी सन्देह पैदा करता था. प्रेम में आदर्श स्थिति किसी हद तक सही हो सकती हैकल्पना की ऊँची उड़ान भी वहां हैसाथ जीने और साथ चलने के वादे भी हैंलेकिन यह प्रेम के प्रारम्भिक चिन्ह हैंयह प्रेम के अंकुरण के संकेत हैं. बीज के प्रस्फुटित होने की निशानियाँ हैं. हो सकता है कि आगे चलकर यह अंकुर फल तक पहुंचे ही नतो ऐसी स्थिति में क्या होगामैं जब भी उससे यह प्रश्न करता तो उसके लिए प्रेम किसी अबूझ पहेलो जैसा हो जाता. इस बात पर तो उसे और भी चिढ़ आतीजब मैं यह कहता कि प्रेम करने का नाम नहींप्रेम होने का नाम है. प्रेम में संसार (जाति-धर्म-वर्ण-आश्रम-अमीरी-गरीबी-रंग-रूप आदि) कहीं नहीं हैप्रेम में सिर्फ प्रेम ही है, ‘सिर्फ और सिर्फ प्रेम’. प्रेम जीवन में एक क्रान्ति हैजो होती तो कहीं भीतर घटित हैलेकिन उसका प्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन में देखा जा सकता है. प्रेम रूपी क्रान्ति सभी सीमाओं को तोड़ने की क्षमता रखती है. प्रेम को परिभाषित करना और उसे शब्दों में बांधना बहुत कठिन है.
प्रेम के विषय में यह सब बातें सुनकर वह अपने को टटोलने की कोशिश करता कि क्या सच में प्रेम एक ‘क्रान्ति’ का नाम हैजो ‘भीतर’ ही ‘भीतर’ घटित होती है. जो आखों से उतर कर रूह के धरातल पर अवस्थित होती है. जो जिस्म के बन्धन की अपेक्षा हृदय के स्तर पर बंधी होती है. जो तर्क की अपेक्षा सहजता को स्वीकार करती है. वह मेरी बातों में उलझता जा रहा था. पहले प्रेम का गणित और अब प्रेम एक ‘क्रान्ति’, आँखें और रूहआखिर यह माजरा क्या हैवह तो अभी तक यही सोच रहा था कि प्रेम की यात्रा तो आखों से होते हुए शरीर के एक ख़ास हिस्से पर पहुँच कर ख़त्म हो जाती है और उसके बाद प्रेम ठहर जाता है. वह एक सामान्य जीवन की और अग्रसर होता हैवह सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेवारियों को निभाता हैऔर फिर एक सीमा पर आकर प्रेम रूपी यह अहसास समाप्त भी हो जाता है. प्रेम का मतलब उसके लिए सिर्फ इतना ही है कि किसी ख़ास इनसान को अपने करीब लाओउसे अपना बनाओ और फिर उसके साथ जीवन गुजारने के बारे में सोचो. घर-गृहस्थी बसाओ और मौज उड़ाओइससे ज्यादा और क्या चाहिए होता है जिन्दगी में. लेकिन मेरी बातें सुनकर वह परेशान हो जाता. उसे अपनी योजनायें बेकार लगने लगतीजो कुछ उसने अभी तक सोचा हैमेरे सामने वह सब निरर्थक हो जाता. बचता तो सिर्फ एक आधा-अधूरा शब्द ‘प्रेम’ जिसका वह मतलब भी सही तरीके से नहीं समझ पाया थाऔर उसने कभी उसे समझने की कोशिश ही नहीं की. उसके लिए प्रेम सिर्फ दो लोगों का मिलन हैबस इसके सिवा और कुछ नहीं.
लेकिन दो से एक होने के मायने और एक और एक होने के मायने बहुत अलग हैं. मैं उसे यही बात समझाने की कोशिश करतालेकिन उसे लगता कि प्रेम में सिद्धान्त का क्या कामवहां तो मौज मस्ती हैघूमना फिरना हैगप्पें मारना हैमिलना जुलना है और फिर एक उम्र के बाद शादी के बन्धन में बंधकर आगे का नीरस जीवन जीना है. जहाँ खुद को जिम्मेवारियों के हवाले करना है और परिवार और समाज को संभालना है. ....शेष अगले अंक में..!!