जीव की यात्रा अनन्त है और जीवन की एक सीमा है . जीव जब किसी शरीर में प्रवेश करता है तो जीव को जीवन मिलता है और जब जीव शरीर में आता है तो स्वाभाविक है उसका जीवन के प्रति मोह बंध जाता है और यह मोह इतना गहरा हो जाता है कि जीव अपनी वास्तविकता को भूल जाता है और फिर इसी भूल के कारण उसे दुखों का सामना करना पड़ता है . संसार में आकर जीव कई तरह के सम्बन्ध स्थापित कर लेता है .लेकिन जो आज उसे अपना लगता है वही कल उसे पराया लगता है . जो आज उसके पास होता है वही कल उसके हाथ से निकल जाता है . कभी किसी चीज की प्राप्ति के लिए इंसान दिन रात मेहनत करता है और अगर उसे मिल जाती है तो वह हर्षित होता है , नहीं मिलती है तो उसे निराशा हाथ लगती है . सफलता - असफलता के दो पैमानों के बीच जीवन का यह क्रम यूँ ही समाप्त हो जाता है लेकिन इंसान अपने वास्तविक सम्बन्ध को कभी नहीं कायम कर पाता और फिर एक अनजाने लोक की तरफ चला जाता है .
जहाँ तक हम सम्बन्ध शब्द को देखते हैं . सम और बंध ... सम का अर्थ है बराबर और बंध का अर्थ है बंधन यानि हमारा सम्बन्ध वहीँ कामयाब होता है जहाँ पर हम बराबर के बंधन में बंधे होते हैं . अगर कोई हमारा सम्मान करता है तो हम उसका अपमान कैसे कर सकते हैं अगर करते हैं तो सम्बन्ध नहीं बना रहता , अगर हम किसी से प्यार करते हैं , किसी की भलाई सोचते हैं तो स्वाभाविक है हम उससे भी वही आशा करते हैं ...अगर नहीं हो पाता है तो सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता बस जीवन का यहीं समाप्त हो जाता है . एक जीव जब धरती पर आता है तो उसे यहाँ कई तरह के सम्बन्ध मिल जाते हैं माँ- बाप , भाई - बहन , आदि आदि . लेकिन आखिर इन संबंधों का भी तो कोई निश्चित मापदंड है और उससे बाहर शायद कुछ भी मान्य नहीं . तो फिर जीवन क्या है ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है और सम्बन्ध क्या इसे जानना आवशयक है .
जीवन जीव की अनंत यात्रा का एक पड़ाव है गीता में श्री कृष्ण जी अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि :....... !
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः
देहधारी जीव का नित्य स्वरूप कहे जाने वाले इस भौतिक शरीर का अंत निश्चित है . शरीर का अंत तो निश्चित है और यह पंचभौतिक शरीर अपने मूल तत्वों से मिल जाता है . इस पूरी कायनात का निर्माण जिन पांच तत्वों से हुआ शरीर की अंतिम परिणति वह ही है लेकिन उस चेतन सत्ता का क्या होगा जो इस शरीर में विद्यमान थी . जब शरीर ही नहीं रहा तो फिर संबंधों का क्या होगा . यह भी हम प्रायः देखते हैं कि संसार में किसी शरीर की यात्रा संपन होने के बाद सम्बन्ध भी समाप्त हो जाते है , और फिर कभी वह सम्बन्ध नहीं रहता . लेकिन फिर भी मानव इन संबंधों में इतना रम जाता है कि वह खुद को वास्तविक सम्बन्ध से हमेशा दूर ही रखता है . बस यहीं से इन्सान भ्रमों को न्योता देता है और फिर कभी जीवन के अंतिम पड़ाव तक इनसे छुटकारा नहीं पा सकता .
अब जब जीवन की गति एक सीमा में बंधी है तो हमें जीव की गति के बारे में सोचना होगा . जीव का मूल क्या है ? जीव कहाँ से आता है ? कहाँ जाता है ? आखिर उसका उद्देश्य क्या है ? यह तमाम प्रश्न हैं जिनका हल आसानी से नहीं मिलता लेकिन इन सब प्रश्नों के प्रति समझ पैदा की जा सकती है . जहाँ तक हमारे धर्म ग्रन्थ और हमारे ऋषि मुनियों का मत है. ...जीव (आत्मा) का मूल इस सृष्टि में रमा परमात्मा है जिसने इसका निर्माण किया है जो इसका पालक है इसका संहारक है और यह सृष्टि इससे पैदा हुई है और इसी में यह विलीन हो जायेगी यह हम सोचते हैं . लेकिन वास्तविकता तो यह है कि यह कायनात इस खुदा में है यह जब चाहे इसका बिस्तार कर सकता है और जब चाहे इसे खुद में समां सकता है तो फिर हमारा वास्तविक सम्बन्ध क्या है और किसके साथ है ?
जब यह पूरी कायनात खुदा की है तो हमारा सम्बन्ध सिर्फ और सिर्फ इस खुदा से है हम आत्मा हैं और यह परमात्मा लेकिन किसी भी सूरत में हमारा बजूद इससे अलग नहीं किसी भी हालत में हम इससे जुदा नहीं . लेकिन फिर भी हमारे मनों से यह बहुत दूर रहता है दिल और दिमाग से बाहर और हम खुद के अस्तित्व को अलग समझ बैठते हैं . पूरे मनोयोग से अगर हम विश्लेषण करें तो हमें अपना बजूद क्या नजर आता है ? अगर हम खुद को आत्मा समझते हैं तो सारे भ्रम मिट जायेंगे फिर ना तो हमारी कोई जाति है ना हमारा कोई धर्म , न हमारा कोई पंथ है न कोई समाज , न कोई देश है न कोई सरहद , ना कोई आमिर है ना कोई गरीब , ना कोई उच्च है ना कोई नीच बस सब कुछ परमात्मा है :-सबै घट राम बोले रामा बोले राम बिना को बोले रे......!
जब यह दृष्टिकोण बन जाएगा तो फिर जीवन को जीने का आनंद ही कुछ और होगा . लेकिन इसके लिए हमें सब संबंधों से बढ़कर ईश्वर के संबंधों के तरजीह देनी होगी . हम संसार में रहें यह अच्छी बात है लेकिन जब संसार हमारे अंदर रहता है तो फिर मुश्किल हो जाती है . हम प्रयास करें हम संसार में रहें और इस खुदा के कुनबे में जीवन रहते हुए शान से जियें और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक नया संभावनाओं भरा खुला आकाश पैदा करें . जहाँ किसी प्रकार का कोई द्वैत ना हो बस एक सकून हो चैन हो , अमन हो , प्यार हो भाईचारा हो , मिलवर्तन हो और हर कोई कहे.........:- मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो ना कोए . जब हमारे जीवन में इस खुदा के सिवा कोई दूसरा है ही नहीं तो फिर यह ही कहना पड़ेगा ना :-
कोई पर्दा नजर नहीं आता .
कोई जलबा नजर नहीं आता
कोई जलबा नजर नहीं आता
सब खुदा नजर आते हैं ......!
जब सब खुदा नजर आयेंगे तो फिर बैर किससे और नफरत किससे कौन पराया और कौन अपना .