भारतीय संस्कृति में
"बाबा" शब्द एक अहम् स्थान रखता है. बाबा शब्द फ़ारसी भाषा का शब्द है और
इस शब्द को साधू संतों के लिए आदरसूचक शब्द के रूप में प्रयोग किया जाता है. बाबा
शब्द जहन में आते ही एक ऐसे व्यक्ति का चित्र मानस पटल पर उभरता है जो तप और त्याग
की मूर्ति हो, साधना, अराधना और तपस्या के बल पर हासिल अध्यात्मिक शक्ति को जो जन कल्याण के लिए
प्रयोग करता हो. उसके जीवन का प्रत्येक पल दीन और दुखियों की सेवा के लिए समर्पित
हो, जिसका जीवन स्वयं में आदर्श हो उसके पास बैठने
मात्र से ही सकून और शांति का अनुभव हो, ऐसी बहुत सी
बातें हैं जो "बाबा" शब्द के साथ जुडी हुई हैं और जब जिज्ञासु संसार की
तपती हवाओं को सहन नहीं कर पाता है तो वह किसी ऐसे संत/ गुरु / बाबा की तलाश में होता है जो उसे सकून प्रदान
करते हुए, जीवन में मार्गदर्शन देते हुए उसके जीवन को
आगे बढ़ने की प्रेरणा दे. संसार
में कर्म करते हुए किस तरह से निर्लिप्त भाव को अपनाया जा सकता है इसकी महता से
उसे वाकिफ करवाए, और ऐसे बाबा/संत या गुरु को पाकर जीव
धन्य हो जाता है उसका जीवन लोगों के लिए अनुकरणीय होता जाता है. वह जीव भी स्वयं
जीवन में सुख और ख़ुशी का अनुभव करते हुए अपने जीवन की यात्रा को तय करता है.
एक भक्त की पुकार है ‘बाबा’ मुझे ‘निर्मल’ कर दो’ लेकिन
बाबा खुद ही मल (स्थूल) और मैल (स्थूल और सूक्ष्म) से मुक्त नहीं तो वह दूसरों को
कैसे इससे मुक्ति दिलाएगा, "मल" से मुक्ति कोई
आसान नहीं, और निर्मल होना तो और भी कठिन है, कठिन ही नहीं असंभव भी
है. जब तक जीवन है व्यक्ति स्थूल
और सूक्षम रूप से मल से
जुड़ा है निर्मल होने
का सवाल ही पैदा नहीं होता. हाँ हमारे यहाँ चिंतन के स्तर पर निर्मल होने की भाव
सदा रहा है और निश्चित रूप से यह होता भी रहा है. चिंतन के स्तर पर व्यक्ति निर्मल
हो सकता है और हमारे अध्यात्म में इसे सदा महता दी जाती रही है. आज हम जिस ऊंचाई पर खुद को महसूस करते हैं उसमें हमारे चिंतन का बहुत बड़ा
हाथ है. क्योँकि व्यक्ति संसार में रहता है और संसार में रहते हुए उसे कई प्रकार
की स्थितियों से जूझना पड़ता है और अगर व्यक्ति मानसिक रूप से उन स्थितियों का
गुलाम बन जाता है तो फिर जीवन की नैसर्गिकता से वह पीछे हट जाता है और जीवन के
वास्तविक अनुभवों को अनुभूत नहीं कर पाता. निश्चित रूप से भावनात्मक रूप से निर्मल
होना ऐसी स्थिति में उसके लिए कारगर होता है जो उसे नवजीवन प्रदान करता है. हमारे
जीवन दर्शन में इस भाव को बनाये रखने के लिए गुरु को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है
और उसे ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश की
संज्ञा से नवाजा गया है. गुरु जो शिष्य को अंधकार से प्रकाश की और ले जाए, उसके अज्ञान को मिटाकर उसे ज्ञान प्रदान करे और उसे जीवन में कर्म की महता
समझाते हुए कर्म करने की प्रेरणा दे. गुरु के विषय में ऐसा बहुत कुछ कहा जा सकता
है और अगर ऐसा गुरु हमें जीवन में मिल जाता है तो निश्चित रूप से जीवन धन्य हो
जाता है.
आजकल निर्मल बाबा प्रकरण हर जगह छाया है, प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या साइबर
मीडिया सभी जगह निर्मल बाबा की निर्मलता को बखूबी अभिव्यक्त किया जा रहा है और यह
सब यहाँ पर होता रहा है. हमारा जीवन दर्शन आज बहुत सतही बन चुका है, जीवन के प्रति भौतिकवादी नज़रिये ने हमारे पास से हमारा वह सब कुछ छीन
लिया है जिसकी भरपाई अब शायद ही हो सके और ऐसे हालात में हम कुछ स्वार्थपरक लोगों
के चक्कर में पड़कर अपने जीवन के महत्वपूर्ण पलों को ही नहीं बल्कि पूरे जीवन को
ही बर्बाद कर रहे हैं. कई बार यह प्रश्न मुझे बहुत पीड़ा देता है कि भारत जैसे देश
में यह सब कुछ हो रहा है, और यहाँ का आम जनमानस इन सब
कुरीतियों का शिकार होता जा रहा है. हमारी संस्कृति और सभ्यता दिन प्रतिदिन अपनी
महता खोती जा रही है और उसके लिए कोई और जिम्मेवार नहीं बल्कि हम ही जिम्मेवार है.
लेकिन व्यक्ति का क्या है अपना दोष दूसरों पर मढ़ कर अपना पल्लू साफ़ करना उसकी
फितरत में है. कुछ लोग यहाँ समाज सेवक होने के नाम पर लोगों को लूट रहे हैं तो कुछ
कृपा के नाम पर, कुछ योग और आयुर्वेद के नाम पर तो कुछ
किसी विशेष जाति, धर्म, विचारधारा
और भाषा के हिमायती बनकर. लेकिन सबका लक्ष्य है आम व्यक्ति को लूटना उसे अपने पथ
से भ्रमित करना और इसमें दोष किसका है ??? यह
एक बड़ा यक्ष प्रश्न है ?? आज एक निर्मल बाबा के
लिए सभी विरोध प्रकट कर रहे हैं, यह होना भी चाहिए
लेकिन मुझे तो कदम - कदम पर ऐसे बाबा नजर आते हैं जो हमारे देश के लोगों को दोनों
हाथों से लूट रहे हैं....! शेष अगले अंकों में.....!