16 अप्रैल 2012

दीवारें नहीं, पुल चाहिए...2

जैसे ही सरकारें बदलती हैं वैसे ही नीतियाँ भी बदल जाती है, और आज तो स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी है कि देश की राजनीति व्यक्ति केन्द्रित हो गयी है. जो आने वाले समय के लिए यह सबसे अन्धकारमय और खतरनाक पहलू है. गतांक से आगे...!!!! 

 व्यक्ति पर केन्द्रित होती राजनीति और उसके निर्णय को सर्वोपरि मानने जैसी प्रवृतियों ने हमारे सामने बड़ी विकट स्थिति पैदा की है. कुछ सत्ता के अभिलाषी लोग ऐसे लोगों को आश्रय देकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में तो सफल हो रहे हैं लेकिन देश और समाज की दुर्गति हो रही है. लेकिन मेरा यह मानना है कि समाज भी ऐसी स्थितियों के लिए जिम्मेवार है और यह सब हो रहा है हमारी राजनितिक कट्टरता के कारण, (राजनितिक कट्टरता से मेरा अभिप्राय बिना सोचे समझे किसी राजनितिक पार्टी के भक्त हो जाना) और जब ऐसे हालात पैदा होते हैं तो फिर व्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके अधिकार कहाँ हैं? यह सबसे बड़ा प्रश्न है. क्योँकि  उसने खुद को किसी विचारधारा के साथ जोड़ दिया और अब वह हर परिस्थिति में उस विचारधारा का ही होकर रहा गया. ऐसी परिस्थिति में वह नेता लाभ उठा रहे हैं जो सिर्फ और सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए राजनीति में आये हैं. यह तो एक पहलू है. 

अगर व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो स्थिति और भी गंभीर है. राष्ट्रहित और राष्ट्रीय चेतना तो आज मुझे किसी पार्टी में नजर नहीं आती. सब राजनितिक पार्टियों में जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र तो मुख्य रूप से छाये हुए हैं और इन्हीं आधारों पर देश की राजनीति की रूपरेखा तय होती है. मानवीय विकास, राष्ट्रहित, सामाजिक समस्याएं, सांस्कृतिक चेतना आदि किस राजनितिक पार्टी के विचार और घोषणापत्र में हैं यह प्रश्न गहन विश्लेषण की मांग करता है? यह सब बातें इसलिए कहनी पड़ रही हैं, क्योँकि राजनीति प्रत्यक्ष रूप से लोगों पर प्रभाव डालती है और नियम और क़ानून भी इन नेताओं की संसद से हो पास होकर आते हैं. हमारे देश की राजनीति में तो दीवारें ही दीवारें हैं, और इन दीवारों के कारण ही आज हम लुटने के लिए तैयार हैं.

विचार के धरातल पर अगर देखें तो एक गुलदस्ते को अगर एक ही तरह के फूलों से सजाया जाये तो वह
कितना सुंदर प्रतीत होगा? लेकिन एक ऐसा गुलदस्ता है जिसे कई प्रकार के फूलों से सजाया गया है, एक ही प्रकार के फूलों से सजाये गए गुलदस्ते की अपेक्षा मुझे लगता है अनेक प्रकार से सजाये गए फूलों का गुलदस्ता ज्यादा सुंदर प्रतीत होगाऔर उस अलग - अलग फूलों से सजाये गुलदस्ते से हमें एक सीख भी मिलती है, कि किस तरह से अलग-अलग होते हुए भी एक ही स्थान पर कैसे बेहतर तरीके से रहा जा सकता है. यही बात इंसान पर भी लागू होती है. खुदा ने इस धरती को एक गुलदस्ते की तरह बनाया है और इसमें अनेक प्रकार के प्राणी इसकी सुन्दरता को बढाने के लिए ही पैदा किये हैं और उनमें से सर्वश्रेष्ठ इंसान को बनाया है. लेकिन धरती पर जितना आतंक, जितनी अशांति, जितनी अव्यवस्था इंसान ने पैदा की है उतनी किसी और जीव ने नहीं. वह दूसरों को अपने उपभोग का साधन तो बनाता ही है लेकिन इंसान खुद इंसान से इंसानों वाला व्यवहार नहीं करता. वह जाति के नाम पर, भाषा के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर, धर्म आदि ना जाने कितने आधारों पर  बंटा है और ना जाने कितने आधार हैं जिनके आधार पर इंसान बंटता चला जा रहा है और अपने अस्तित्व के लिए स्वयं ही खतरा बनता जा रहा है. नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति इंसान की इन सब भिन्नताओं का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं और आज तक यह प्रयास निरंतर होते आये हैं. मैं जब भी इन सब भिन्नताओं का विश्लेषण करता हूँ तो मुझे आज तक ऐसा कोई आधार नजर नहीं आया जिसके आधार पर इंसान को इंसान से दूर किया जा सके. लेकिन हमारे यहाँ इन आधारों पर जो खाईयां बनी हैं वह उतरोतर और ज्यादा गहरी होती जा रही हैं और अगर यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा आएगा हम स्वयं ही इन खाईयों में अपना अस्तित्व गवां देंगे और तब हमारे पास सोचने का भी वक़्त नहीं होगा.

कितना सुंदर इस धरती का स्वरूप है और कितने तरह से खुदा ने इसे सजाया है. लेकिन हमारी संकीर्णताओं ने इस धरती को जीने लायक नहीं छोड़ा है. आज धरती का जो स्वरूप हमारे सामने है वह बहुत खतरनाक है. आये दिन जैविक हथियारों का परीक्षण किस लिए किया जा रहा है, क्योँ तकनीक का इस्तेमाल खतरनाक हथियारों को बनाने के लिए किया जा रहा है? क्योँ देशों की सरहदों पर निरंतर गोला बारूद इक्कठा किया जा रहा है? सिर्फ मानव को मिटाने के लिए. आज दुनिया बारूद के ढेर पर खड़ी है कोई भी व्यक्ति घर से निकलते ही खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करता. घर से निकलते ही क्या घर में भी वह सुरक्षित महसूस नहीं करता तो ऐसी हालात में हमें क्या करना चाहिए यह बहुत विचारणीय प्रश्न है? और इसका एक ही समाधान है इंसान अपनी वास्तविकता को समझे. जो बिना वास्तविकता की दीवारें हमने खड़ी की हैं उन सब दीवारों को गिराया जाये और उन्मुक्त आकाश में विचरण किया जाए. शरीर के आधार पर तो हमारी कोई सीमा है, यह समझ में आता है. लेकिन हमने खुद को सोच के आधार पर भी सीमित कर दिया है यह बहुत दुखदायी है. समय रहते ही हमें इन सब भिन्नताओं पर गहतना से सोचने की जरुरत है और किसी सार्थक निर्णय पर पहुंच कर उस निर्णय को पूरी शिद्दत से क्रियान्वित करने की आवश्यकता है. हमारे सामने जो मानवीय मूल्य हैं इनके वास्तविक महत्व को पहचान कर सुंदर सा दीवारहीन संसार सजाया जा सकता है.

आज जब दुनिया के हालातों पर गहनता से सोचता हूँ तो ऐसा कोई साधन नजर नहीं आता जिससे यह यकीन किया जा सके कि आने वाले समय में हम एक विश्व कि परिकल्पना को साकार कर सकते हैं. आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में हम यह तो कह देते हैं कि विश्व को एक गांव का रूप दिया जा रहा है और विश्व का प्रत्येक मानव एक दुसरे के करीब आ रहा है. लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है. सूचना और तकनीक के इस दौर में ऐसा तो प्रतीत होता है. लेकिन वास्तविक धरातल पर ऐसा नहीं है. जिस वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की हम बात कर रहे हैं वह मात्र कुछ कम्पनियों द्वारा दिया गया एक शगूफा है और इसका लाभ चंद सत्तासीन और पूंजीवादी लोगों तक ही सीमित है. इसे तरह प्रचारित वैश्वीकरण को मेरी समझ से ब्रिटिश उपनिवेशवादी नीति का बदला हुआ रूप कहना ज्यादा उचित प्रतीत होता है. 

वैश्वीकरण ने जितने बदलाब हमारे समाज और हमारी मानसिकता में लाये हैं उससे बहुत सी दीवारें खड़ी हो गयी हैं, उसने एक भाषा का वर्चस्व कायम करने की कोशिश की है, विज्ञापन के माध्यम से लोगों को गुमराह कर उनके निर्णयों को बार-बार बदलने की कोशिश की है और तो और आज धर्म और अध्यात्म जैसी अलौकिक विद्याएँ भी विज्ञापन से बच नहीं पायी हैं और कुछ लोग योग और ईश्वर कृपा के नाम पर लोगों का सीधे ही शोषण कर रहे हैं. समाज के एक वर्ग से दुसरे वर्ग में भिन्नताएं पैदा कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे ऐसे लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं. दुनिया में दीवारों के नाम पर ऐसा बहुत कुछ है जिसे विश्लेषित करने की महती आवश्यकता है. लेकिन हम हैं की आँखें मूंदें आगे बढ़ रहे हैं और अपनी बढती सुख सुविधाओं को देखकर प्रसन्न हो रहे हैं. लेकिन हमने कभी उस भिखारी के बारे में नहीं सोचा, कभी उस अबला के विषय में नहीं सोचा, कभी उस अनाथ के बारे में नहीं सोच पाए. हम खुद के बारे में सोचते रहे और खुद को भी खुश नहीं कर सके. इस जीवन की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है? दुनिया में हर जगह दीवारें ही दीवारें हैं लेकिन हम उन्हें गिरा देंगे तो समाधान हमें खुद-ब-खुद ही मिल जायेंगे. लेकिन इन को गिराने के लिए हमें अपने से उपर उठने की आवश्यकता है. आपका क्या ख्याल है?

10 टिप्‍पणियां:

  1. हम हैं की आँखें मूंदें आगे बढ़ रहे हैं
    ...ये दुनिया भेद चाल हो गई है हम भी बिना सोचे समझे चल पड़ते है
    पर आज हमे सोचने समझने की ज़रूरत है
    आप से सहमत हूँ अगर हम दिवारो गिरा देंगे तो समाधान हमें खुद -ब -खुद ही मिल जायेंगे ...सुंदर विष्लेषण केवल जी

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  2. बड़ी मेहनत से चिंतन मनन के बाद लिखने बैठते हैं आप.जाहिर है विश्लेषण सटीक होता है.दीवारों को गिरना तो है पर उसे गिराने की नीयत तो हो.
    सार्थक लेखन.

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  3. कितने रंग बिरंगे फूल लगे हैं, उन्हें जोड़ने की आवश्यकता है।

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  4. बहुत सी दीवारें गिरायी हैं हमने लेकिन लगता है अभी भी कैद हैं।:(
    ..सुंदर आलेख।

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  5. विचारणीय आलेख ....आपकी बातों से पूरी सहमती.....

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  6. सार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्‍तुति।

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  7. केवल राम जी आपका भी जबाब नहीं.
    सुन्दर,सार्थक ,विचारणीय प्रस्तुति.

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  8. विविधता के सौन्दर्य और शक्ति दोनों को पहचानना होगा, मतांतर का आदर करना सीखना होगा। कठिन है पर सम्भव तो नहीं।

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  9. केवल इतना ही कहना है कि ...आपसे पूरी सहमती..

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.