16 मार्च 2017

रूढ़ियाँ-समाज और युवाओं की जिम्मेवारी...4

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4. धर्म के वास्तविक महत्व को समझने की कोशिश करें: आदमी किसी भी समाज में पैदा हो, लेकिन दो चीजें उसके जन्म के साथ ही उससे जुड़ जाती हैं. एक है “जाति” और दूसरा है “धर्म”. संसार में अधिकतर यह नियम सा ही बन गया है कि जो जिस जाति में पैदा होगा उसी के अनुसार उसका धर्म भी निर्धारित कर दिया जाता है. हालाँकि इसका एक पहलू यह भी है कि जो जिस देश में पैदा होता है, उसके द्वारा उसी देश में प्रचलित धर्म का पालन करना पहली प्राथमिकता होता है. किसी हद तक यह बात सही भी लगती है. क्योँकि हमारी मान्यता ही कुछ ऐसी बन गयी है कि धर्म के पालन के बिना जीवन का कोई मकसद पूरा नहीं हो सकता. इसलिए धर्म को जीवन का आधार सा मान लिया गया है. लेकिन धर्म की अनुपालना के विषय में ज्यादातर अनुभव यही बताते हैं कि इसने किसी एक समाज और धर्म के लोगों को जोड़ने का काम बेशक किया है, लेकिन किसी दूसरे को अपने से अलग मानने का भाव भी अधिकतर धर्म के कारण ही पैदा हुआ है. मेरा धर्म श्रेष्ठ है, और किसी दूसरे का नहीं. इस भाव ने दुनिया में कई बार विकट स्थितियां पैदा की हैं. हमारी किसी दूसरे व्यक्ति से नफरत के कारणों पर विचार करें तो उसमें धर्म और जाति की भूमिका सबसे बड़ी है. हालाँकि देशों की सीमाओं के आधार पर भी व्यक्ति से व्यक्ति का भेद पैदा हुआ है, लेकीन यह भेद उतना खतरनाक नहीं है, जितना कि धर्म और जाति का भेद खतरनाक है. देशों का भेद किसी दूसरे देश के लोगों से हो सकता है. लेकिन जाति और धर्म का भेद किसी एक देश में बसने वाले लोगों में भी द्वंद्व का कारण बन सकता है, और इतिहास गवाह है कि इसी भेद के कारण दुनिया में कई बार विकट स्थितियां पैदा हुई हैं.
हालाँकि देखने में यह आया है कि जाति की सीमा किसी हद तक सीमित है, लेकिन धर्म की सीमा व्यापक है. एक ही समाज-क्षेत्र और देश में कई जातियां हो सकती हैं, लेकिन उसी समाज और क्षेत्र में उन सभी जातियों का एक ही धर्म हो सकता है. इससे यह सिद्ध होता है कि जाति और धर्म का गहरा सम्बन्ध है. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि जाति धर्म की रक्षा करती है तो, धर्म जाति को संरक्षण प्रदान करता है. अगर हम भारत के विषय में ही बात करें तो हम समझ सकते हैं कि यहाँ चार मुख्य धर्म प्रचलन में हैं. हिन्दू, इस्लाम, ईसाई और सिक्ख. लेकिन मुझे लगता है कि सिक्ख धर्म को धर्म कहने के बजाय अध्यात्म के प्रचार की संस्था के दृष्टिकोण से देखना चाहिए. हालाँकि सिक्खों की भी अपनी एक जीवन पद्धति है. लेकिन सामाजिक समरसता के जो तत्व सिक्खों में देखने को मिलते हैं वह बाकी के तीन धर्मों में कम ही देखने को मिलते हैं. फिर भी अगर कोई सिक्ख धर्म मानता है तो वह उसकी अपनी सोच है. मैं धर्म के विषय पर दूसरे तरीके से बात करने की कोशिश कर रहा हूँ.
हमारे देश में वैसे तो बौद्ध और जैन विचारधाराओं को भी धर्म की श्रेणी में रखा जाता है. लेकिन इनमें धर्म के तत्व मौजूद होते हुए भी इन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता. फिर भी बात जो भी हो इन्हें विचारधारा कह लीजिये यह धर्म, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. हमें समझना यह है कि एक ही धर्म को मामने वाले अगर समान हैं तो फिर जाति का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए था, लेकिन यहाँ होता यह है कि एक ही धर्म को मानने वाले लोगों में भी कई जातियां विद्यमान रहती है. इससे यह जाहिर होता है कि इनसान किसी एक स्तर पर बंटा हुआ नहीं है, बल्कि कुछ धर्मभीरु लोगों ने उसे अनेक स्तरों पर बांटने की कोशिश की है. इसलिए हम किसी भी धर्म को मानें, पहले तो हमें उसकी खूबियों और खामियों के विषय में अवगत होना चाहिए और दूसरी बात यह है कि हम धर्म और जाति के आधार पर इनसान को न बाँटें तो बेहतर होगा. किसी की आस्था, मान्यता से हम असहमत हो सकते हैं, लेकिन उससे नफरत का अधिकार हमें किसी भी स्थिति में प्राप्त नहीं है. बदलते दौर में युवाओं की यह जिम्मेवारी है कि वह धर्म और जाति के बन्धन से ऊपर उठकर इनसान को इनसान के नजरिये से देखने का प्रयास करे, ऐसा करने से उन्हें खुद भी एक बेहतर जीवन जीने का मौका मिलेगा और वह दूसरों के लिए भी एक बेहतर मिसाल के रूप में दुनिया के सामने होंगे. उन्हें धर्मों के इस अस्तित्व को सकारात्मक रूप में लेने की आवश्यकता है.
5. परम्पराओं और संस्कृति के महत्व और प्रासंगिकता को समझें: परम्पराएँ और संस्कृति किसी भी देश-समाज और व्यक्ति की पहचान है. परम्पराएँ और संस्कृति मनुष्य को मनुष्य से जोड़ने का काम करती हैं. हम देखते हैं कि हमारे समाज में अनेक परम्पराएं मौजूद हैं, जो समाज के स्वरुप को निर्धारित करने में अपनी भूमिका बखूबी निभाती हैं. एक तरह से अनेक परम्पराएं मिलकर के संस्कृति का निर्माण करती हैं. संस्कृति किसी भी देश की पहचान को निर्धारित करती है, इसलिए अक्सर यह कहा जाता है कि इस देश की संस्कृति ऐसी है, उस देश की संस्कृति ऐसी है. संस्कृति के आधार पर ही हम किसी देश के जन-जीवन और मानवीय मूल्यों के विषय में जानकारी आसानी से हासिल कर सकते हैं. इसलिए हमारे लिए यह जरुरी है कि हम अपने देश और समाज की परम्पराओं और संस्कृति के विषय में अधिक से अधिक जानकारी हासिल करें. परम्पराओं के पीछे जो मान्यताएं प्रचलन में हैं उन मान्यताओं को समझने की कोशिश करें. इससे एक तो हमारी जानकारी बढ़ेगी और दूसरी तरफ हमें जो सही लगेगा हम उसे बड़े उत्साह से अपनाएंगे और जो कुछ सही नहीं है उसमें सुधार करने का प्रयास करेंगे.
यह सब युवाओं पर निर्भर करता है कि वह अपने देश की संस्कृति और परम्पराओं को किस तरह से समझते हैं और किस तरह से उन्हें अपने जीवन में अपनाते हैं. आजकल जो दौर चल रहा है इसमें परम्पराओं और संस्कृति की बात करना बेमानी सा हो गया है, लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि इसका खामियाजा हमें भुगतना भी पड़ रहा है. जो परम्पराएं और संस्कृति एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से जोड़कर रखती थी, उनके न मानने से समाज में कई तरह की विसंगतियां पैदा हुई हैं, मनुष्य-मनुष्य का वैरी हो गया है, समाज में व्यक्ति केन्द्रित जीवन को तरजीह दी जाने लगी है. जिससे हम एकाकी जीवन की और बढ़ रहे हैं. एकाकी जीवन में अवसाद और घुटन के कारण आत्महत्या और किसी की जान लेने की प्रवृतियां बढ़ रही हैं. इससे हर जगह भय का माहौल बना हुआ है. युवाओं के लिए यह जरुरी है कि वह अपने आसपास के समाज में सक्रिय रूप से भागीदार बने. लोगों के दुःख-दर्द में काम आने का साधन बने, एक सहयोग और प्रेम वाली संस्कृति को जन्म देने की कोशिश करें. इसे एक परम्परा के रूप में ही विकसित करें, ताकि समाज एक सुंदर रूप ले सके और सभी का जीवन खुशहाली से बीत सके. शेष अगले अंक में...!!!