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13 सितंबर 2015

ज्ञान-विज्ञान और मानवीय संघर्ष...1

6 टिप्‍पणियां:
ज्ञान और विज्ञान जीवन के दो पहलू है. ज्ञान जहाँ हमारी भीतरी समझ को विकसित करता है, वहीं विज्ञान हमारी बाहरी उलझन को सुलझाने की कोशिश करता है. ज्ञान और विज्ञान मिलकर जीवन को जो अर्थ प्रदान करते हैं, वह हम किसी और माध्यम से प्राप्त नहीं कर सकते. जैसे पक्षी को ऊँची उड़ान के लिए दो पंखों के सही सलामत होने की आवश्यकता होती है, उसी तरह एक मनुष्य को बेहतर जीवन जीने के लिए ज्ञान और विज्ञान दोनों की बेहतर समझ की आवश्यकता होती है. सैद्धान्तिक तौर पर देखें को ऐसा आभास होता है कि ज्ञान और विज्ञान एक दूसरे के विरोधी हैं, लेकिन जब हम गहराई से आकलन करते हैं तो पाते हैं कि यह दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक दूसरे के सहायक हैं, पूरक हैं. ठीक उसी तरह जैसे एक सिक्के के दो पहलू अलग-अलग होते हुए भी एक दूसरे से जुदा नहीं होते. ज्ञान और विज्ञान के सन्दर्भ में भी इस बात को इसी तरह समझा जा सकता है.
हम जब मनुष्य के विकास की कहानी को समझने की कोशिश करते हैं तो उसके विषय में विज्ञान के अलग मत हैं, तो ज्ञान उसे अपने तरीके से परिभाषित करने की कोशिश करता है. लेकिन इतना तो तय है कि इस धरा पर जीवन का विकास हुआ है. इस विकास के पीछे की कहानी कुछ भी हो, लेकिन जो कुछ हमें नजर आ रहा है, समझ आ रहा है, उसे कैसे बेहतर रूप दिया जा सकता है यह विचारणीय प्रश्न है. मनुष्य का भौतिक विकास (शारीरिक विकास) प्रकृति पर निर्भर करता है, लेकिन उसका मानसिक विकास उसके परिवेश पर निर्भर करता है. वेदों से लेकर आज तक के उपलब्ध साहित्य का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह बात हमें आसानी से समझ आती है कि हमारे ऋषि-मुनियों, संतों, समाज सुधारकों और वैज्ञानिकों का अधिकतर चिन्तन मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाने के लिए समर्पित रहा है. उन्होंने प्रकृति के रहस्यों को भी इसलिए समझने की कोशिश की कि इन रहस्यों को समझकर जीवन के लिए क्या बेहतर प्राप्त किया जा सकता है. यह स्थिति आज भी हम देख रहे है कि विज्ञान का प्रयास मनुष्य के जीवन को खुशहाल बनाने का है और इसके लिए विज्ञान निरन्तर प्रयासरत है.
ज्ञान जहाँ हमें किसी बात को बिना तर्क के स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है वहीं विज्ञान हमें यह समझाने की कोशिश करता है कि जो कुछ भी घटित होता है उसके पीछे कोई न कोई कारण जरुर होता है. बिना कारण के कार्य हो ही नहीं सकता. हर एक कार्य के पीछे कोई न कोई कारण जरुर होता है, विज्ञान उस कारण को तर्क के आधार पर सिद्ध करने की कोशिश करता है और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास उसका रहता है. लेकिन ऐसी स्थिति में हम ज्ञान के महत्व को नजरअंदाज नहीं कर सकते. विज्ञान के माध्यम से निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए भी हमें ज्ञान की आवश्यकता होती है, इसलिए यह जरुरी है कि हम जीवन के हर पहलू में ज्ञान और विज्ञान दोनों को शामिल करें और एक बेहतर जीवन की कल्पना के साथ आगे बढ़ते हुए मानवीय पहलूओं को उजागर करें.
ज्ञान और विज्ञान ने मनुष्य को आज तक जो कुछ भी दिया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगर इन दोनों के आधार पर जीवन जिया जाता तो दुनिया का स्वरूप ही कुछ और होता. लेकिन ऐसा नहीं हो सका और जैसा वातावरण आज निर्मित किया जा रहा है उसके आधार पर तो हम यही कह सकते हैं कि भविष्य में भी ऎसी कोई सम्भावना हमें नजर आती हुई नहीं दिखाई दे रही है, जिस आधार पर हम आश्वस्त हो सकें कि इतने समय बाद मनुष्य की सोच इतनी विकसित हो जाएगी कि वह किसी का कोई अहित करने की क्षमता नहीं रखेगा. वह सबसे प्रेम करेगा और अपने हित के बजाय किसी दूसरे के हित को तरजीह देगा. बल्कि जो वातावरण बन रहा है वह तो यह बता रहा है कि स्थितियां इसके उलट होने वाली हैं, और आने वाले भविष्य में मनुष्य को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे.  
ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि आखिर मनुष्य का संघर्ष किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए है, वह जो कुछ कर रहा है, उसको करने के बाद उसे क्या हासिल होने वाला है. इतिहास के अनेक प्रसिद्ध और पराक्रमी व्यक्तियों की कहानियां हमारे सामने हैं. एक तरफ रावण, दुर्योधन, सिकन्दर, हिटलर जैसे व्यक्ति हैं तो दूसरी तरफ राम, कृष्ण, बुद्ध और गाँधी जैसे विराट व्यक्तित्व के मालिक हैं. बड़ी सूक्षमता से अगर हम इन सबके चरित्रों का विश्लेषण करें तो एक बात साफ़ नजर आती है, वह यह कि इन सबमें अपने उद्देश्य के प्रति सर्वस्व को न्योछावर करने का भाव है. हाँ यह बात अलग है कि रावण जैसे चरित्रों का उद्देश्य कुछ और है और राम जैसे आदर्शों का लक्ष्य कुछ और है, लेकिन जहाँ तक समर्पण का प्रश्न है वह इन सब में एक जैसा दिखाई देता हैं. लक्ष्य के प्रति समर्पित होने से पहले हमें लक्ष्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है. जरुरी नहीं है कि हम किसी महान उद्देश्य के लिए ही संघर्ष करेंगे तो तभी हमारी महता सिद्ध होगी. जबकि होगा तो यह ही कि हम छोटे-छोटे मानवीय संघर्ष करते हुए अपने जीवन को महान बना सकते हैं. जितने भी हमारे सामने विराट व्यक्तित्व के चरित्र हैं उनके जीवन और कर्म का सूक्ष्मता से जब हम निरीक्षण करेंगे तो हम एकदम समझ जायेंगे. शेष अगले अंक में.

31 जुलाई 2015

वैज्ञानिक उन्नति और मानवीय पहलू...2

3 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे उपरी तौर पर देखा जाए तो पूरे विश्व में मानवीय पहलुओं की दुहाई देने वालों की कमी नहीं है. लेकिन यथार्थ में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसका चेहरा बड़ा विद्रूप है. कई बार तो ऐसा लगता है कि मनुष्य जो कुछ कह रहा है या जो कुछ उसके द्वारा किया जा रहा है वह एक झूठ का पुलिन्दा होने के सिवा कुछ भी नहीं, आज के हालातों पर गौर करें तो स्थिति एकदम स्पष्ट हो जाती है और वह बहुत ही भयावह नजर आती है. एक तरफ तो वैज्ञानिक उन्नति हो रही है और दूसरी तरफ मानव उतना ही पूर्वाग्रहों में फंसता नजर आ रहा है. होना तो यह चाहिए थी कि वैज्ञानिक उन्नति के साथ-साथ मनुष्य भी तार्किक सोच रखता, और उन सब भ्रमों और भ्रांतियों से मुक्त होता, जो उसके लिए दुःख का कारण हैं. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है. जो कुछ भी हो रहा है, वह सब कुछ वैज्ञानिक उन्नति के विपरीत है. आज भी मनुष्य जाति, धर्म, भाषा, रंग आदि के आधार पर लड़ाई-झगडे कर रहा है और दिनों-दिन यह सब कुछ बढ़ रहा है. फिर कैसी वैज्ञानिक उन्नति और कैसे मानवीय पहलू. गम्भीरता से सोचने की जरुरत है. एक बात बड़ी विचित्र है, जितना-जितना मनुष्य का वैज्ञानिक (भौतिक) विकास होता जा रहा है, उतनी-उतनी मानवीय पहलुओं में कमी होती जा रही है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं, जब मनुष्य ही मनुष्य के खून का प्यासा बनकर, अपने बजूद को मिटा देगा. लेकिन यह सब कुछ किसी विशेष उद्देश्य के कारण नहीं होगा, बल्कि कूछ लोग अपने अहम् की तुष्टि के लिए यह सब कुछ करेंगे, रहेंगे तो वह भी नहीं, लेकिन कुछ बेहतर इनसान भी इनकी नासमझियों के शिकार होंगे और मानवता चीत्कार कर अपने अस्तित्व की भीख मांगने पर मजबूर होगी.                     
अगर हम मनुष्य के प्रारम्भिक जीवन को देखें तो हमें मालूम होता है कि प्रारम्भ से उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को बनाये रखने का रहा है. इसे यूं भी कह सकते हैं कि, अपने अहम् की तुष्टि का रहा है. क्योँकि मनुष्य अपनी चेतना के कारण खुद को सबसे विशिष्ट मानता रहा है. किसी हद तक यह बात सही है. लेकिन जब यह चेतना विध्वंस का रूप धारण कर लेती है तो फिर उसके परिणाम बहुत दुखदाई होते हैं. हालाँकि मनुष्य को इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि वह इस प्रकृति का अभिन्न अंग है. जिस तरह से वह आज प्रकृति का दोहन कर रहा है, उसके साथ खिलवाड़ कर रहा है उससे तो यही लगता है कि आने वाला समय मनुष्य के लिए बहुत दर्दनाक होगा. एक कटु सत्य यह भी है कि मनुष्य विकास के नाम पर जो कुछ कर रहा है उसके परिणाम बहुत ही वीभत्स होंगे और मनुष्य की चेतना तब जागेगी जब सब कुछ उसके पास से लुट चूका होगा.
आज जो वैज्ञानिक विकास हो रहा है वह किसी हद तक मनुष्य के लिए सुखदायी है. इस वैज्ञानिक विकास को हम मनुष्य का भौतिक विकास होना भी कह सकते हैं. विज्ञान जिस अवधारणा पर काम करता है अगर हम उसे अपने  जीवन में भी लागू करें तो जीवन की स्थिति और भी सुखद तथा प्रासंगिक हो सकती है. विज्ञान की कार्य अवधारणा ज्ञात से अज्ञात की और बढ़ने की है, तर्क से तथ्य को जानने की है, अव्यवस्थित को व्यवस्थित करने की है, संहार के बजाय नव निर्माण की है, परम्परा पर चलने के बजाय नवीन प्रयोग की है. विज्ञान जिन आयामों को लेकर काम करता है उसका एक ही मकसद है ‘सही तथा सटीक’ जानकारी. जिस विषय में जो बिलकुल सार्थक है उसे जानने की कोशिश विज्ञान की है, और विज्ञान अगर ऐसा नहीं कर पाता तो वह कभी आगे नहीं बढ़ पायेगा. विज्ञान नवीनता का परिचायक है. इसके माध्यम से हम अपने आसपास के रहस्यों को समझने की कोशिश कर रहे हैं और जो कुछ हमारे लाभ के अनुकूल है उसे नया रूप देकर अपने जीवन का हिस्सा बना रहे हैं. मनुष्य को एक बार कभी नहीं भूलनी चाहिए कि जो कुछ उसने वैज्ञानिक विकास किया है उसके लिए सब कुछ उसने प्रकृति से अर्जित किया है. काफी हद तक विचार और तकनीक भी. उसी विचार और तकनीक के आधार पर वह निरन्तर आगे बढ़ रहा है और अपने जीवन में कुछ परिवर्तन कर पा रहा है. इन परिवर्तनों की फेरहिस्त बहुत लम्बी है. शुरू से लेकर आज तक जो कुछ भी उसने अर्जित किया है, उसमें प्रकृति की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन दुःख इस बात का है कि मनुष्य इतना सब कुछ होने के बाबजूद भी वास्तविक स्थिति को नहीं समझ पा रहा है. मानवीय पहलुओं के कुछ बिन्दु ऐसे हैं, जो वैज्ञानिक उन्नति के बाबजूद भी नहीं बदले हैं, जबकि यथार्थ के धरातल पर उनका कोई ख़ास बजूद नहीं है. 

दुनिया के आज तक के उपलब्ध इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य के अस्तित्व में आने के साथ ही उसके संघर्षों का दौर भी शुरू हो गया. लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोगों की तादाद बढती गयी, विश्व की कई सभ्यताओं ने जन्म लिया और अपने चरम को हासिल किया. लेकिन आज उन महान सभ्यताओं के कहीं कोई ख़ास चिन्ह हमें देखने को नहीं मिलते. सभ्यताएं बनी और फिर चरम पर पहुँचने के बाद अपने अस्तित्व को खो बैठी. आखिर ऐसा क्योँ हुआ? अगर हम इस प्रश्न पर विचार करें तो हमें बात समझ में आती है कि यह सब कुछ मनुष्य की भूलों के कारण हुआ. प्रकृति का आज तक जितना नुक्सान मनुष्य ने किया है, उससे कहीं अधिक नुक्सान मनुष्य ने मनुष्य का किया है. किसी भी सभ्यता के पनपने के साथ ही संघर्ष भी साथ ही शुरू हुए हैं और जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ता जा रहा है उसके संघर्षों का दौर और ज्यादा विकराल रूप धारण करता जा रहा है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन संघर्षों में मनुष्य ने कुछ ख़ास हासिल नहीं किया, बल्कि सब कुछ खोया ही है. दुनिया में जितने भी युद्ध हुए हैं उनके कारणों को और परिणामों को जब हम देखते हैं तो बात एकदम स्पष्ट हो जाती है.