अक्सर जब किसी समारोह में
जाना होता है तो वहां पर शान्ति के प्रतीक कबूतरों को उडाया जाता है और कामना की
जाती है कि कबूतरों के उड़ने से शान्ति सम्भव हो पायेगी। बहुत बार मैंने सोचा कि
आखिर क्या वजह है कि इनसान शान्ति के लिए कबूतरों को उडाता है, जबकि वर्तमान वातावरण को निर्मित करने में इनसान
की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अगर कहीं अशान्ति है तो वो इनसान के जहन में है और वह शान्ति की तलाश बाहर करता है. जबकि
बाहरी वातावरण से उसका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है...जहाँ तक मैंने पढ़ा है कि ‘शान्तितुल्यं तपो न अस्ति, न संतोषात परम सुखं’
(शान्ति के बराबर कोई तप नहीं है, और
संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है) इससे यह बात समझ में
आई कि शान्ति सबसे बड़ा तप है और संतोष सबसे बड़ा सुख है. लेकिन किस तरह? यह विचार करना आवशयक है कि शान्ति सबसे बड़ा तप कैसे है? और संतोष सबसे बड़ा सुख कैसे? जहां तक मुझे लगता है शान्ति
और सन्तोष का एक दूसरे के साथ
अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
वास्तविकता में शान्ति
किसे कहते हैं? संतोष
क्या है? यह हम समझ नहीं पाए। मैं हमेशा देखता-सोचता हूँ कि इनसान
अपनी नियति का निर्धारण खुद करता है। वह अपने लिए
रास्ते और मन्जिलें खुद निर्धारित करता है किसी का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध इन चीजों से नहीं होता और उसके हर निर्णय का प्रभाव उसे प्रभावित करता है।
लेकिन व्यक्ति के जीवन का हर पहलु सिर्फ व्यक्ति के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता,
बल्कि उसका प्रभाव दूसरे व्यक्तियों के जीवन पर भी पड़ता है. समाज में रहने वाला व्यक्ति सिर्फ व्यक्ति ही नहीं होता, बल्कि वह समाज की
एक ‘ईकाई’ होता है. उसके प्रत्येक अच्छे और बुरे कर्म का प्रभाव समाज पर पड़ता
है। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने हर निर्णय को सामाजिक परिप्रेक्ष्य को
ध्यान में रखते हुए ले और इससे एक तो उसे लाभ होगा और दूसरे जो निर्णय उसने लिए हैं उनका लाभ किसी दूसरे व्यक्ति
को भी मिलेगा। इस तरह से हम जिम्मेवार नागरिक बनते हुए दूसरों के मनों में शान्ति और
सकून का वातावरण पैदा कर सकते हैं।
हर व्यक्ति का किसी दूसरे
व्यक्ति से किसी न किसी तरह का नाता होता है चाहे वह नाता सकारात्मक हो या
नकारात्मक। दोनों का अपना प्रभाव है जहाँ सकारात्मक प्रभाव हमें किसी के करीब ले
जाता है तो वहीँ नकारात्मक प्रभाव हमें किसी व्यक्ति से दूर करता है। यह प्रभाव सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं होता
बल्कि इसका प्रभाव व्यापक होता है और कई बार तो यह नकारात्मक प्रभाव का इतना प्रभावी होता है कि हम किसी समुदाय और समाज से वास्तविकता को जाने बगैर नफरत करना शुरू
कर देते हैं, और काफी हद तक हम यह देख भी रहें हैं। यहाँ
पर जो झगडे हैं सब हमारी नासमझी के कारण हैं, हमने इनसान
को हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, इसाई और भी न जाने कितनी तरह से, कितने भागों
में बांटा है और इसी बंटबारे के कारण आज धरती पर बसने
वाले प्राणी एक दुसरे से नफरत करते हैं। सामाजिक
स्तर पर भी हम देखें तो हम कई भागों में विभाजित हैं। एक समुदाय का दुसरे समुदाय
से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है तो फिर ऐसे हालात में हम एक दूसरे के खिलाफ नफरत
के बीज बोते हैं और जिस सुन्दर सी धरती पर हम ‘अमन
और चैन’ से रह सकते हैं, वहां पर हम कभी भी अमन और चैन से नहीं रहे, इतिहास इस बात का गवाह है।
आज जब वैश्वीकरण के दौर
की बात की जा रही है विश्व को एक गाँव माना जा रहा है, लेकिन यह बात सिर्फ कहने तक ही सीमित है वास्तविकता इससे
कोसों दूर है। आज हर तरफ त्राहि-त्राहि है। जितना हमने
भौतिक और तकनीकी विकास किया है, उसके कारण हमारे पास साधन तो जरुर बढ़ें है, हम भौतिक रूप से सशक्त जरुर हुए हैं। लेकिन मानसिक और आत्मिक रूप से हम
कमजोर हुए हैं। किसी को किसी से कुछ लेना देना नहीं है सब अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहे हैं। आये दिन हम जो कुछ भी देखते हैं क्या किसी गाँव में इस तरह की घटनाएँ
बर्दाश्त की जा सकती हैं? नहीं, गाँव तो वह होता है जहाँ मानवीय संवेदनाएं और
भावनाएं एक दूसरे के साथ जुडी होती हैं और व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ
प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह का सम्बन्ध होता है। लेकिन जो वातावरण आज निर्मित
हुआ है इसके लिए कौन जिम्मेवार है? किसी शेर ने तो नहीं कहा कि तुम बंट जाओ
अलग-अलग जातों, मजहबों, धर्मों, समुदायों और ना जाने कितने रूपों में और फिर करो एक दूसरे का कत्ल और फैला
दो इस सुन्दर सी धरती पर अशान्ति तब मैं तुम्हें कबूतर दूंगा शान्ति का पैगाम देने
के लिए, क्योँकि मैं जंगल का राजा हूँ और इनसान को शान्ति के
लिए यह सहायता मेरी तरफ से हा..हा...हा..! शायद ऐसा नहीं है। आज जिस तरह हम अस्त्र-शस्त्रों
का विकास कर रहे हैं क्या वह शान्ति के सूचक हैं? नहीं! आज किसी देश और वहां के
लोगों की उत्कृष्टता का पैमाना ही बदल गया है। हम अगर किसी देश का मूल्यांकन करते हैं तो सिर्फ भौतिक रूप से, क्या कभी कोई सर्वेक्षण आया कि इस देश के लोगों में इतनी मानवता और प्रेम की भावनाएं हैं, यहाँ पर इतने मानवीय मूल्यों को
तरजीह दी जाती है, और भी कई मानवीय पहलू हैं जिन पर गम्भीरता से विचार किया जा
सकता है और फिर उन्हें अपनाया जा सकता है। लेकिन हम इन सारे प्रयासों से पीछे हटते जा रहे
हैं और वास्तविकता को नजरअंदाज करते हुए आभासी बनते जा रहे हैं और इसी लिए हम शान्ति
की तलाश भी कबूतरों द्वारा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा?
आओ ऐसे वातावरण का
निर्माण करने के लिए प्रत्यनशील हों जहाँ पर हर तरफ सकून और चैन हो, अमन हो, प्यार हो, भाईचारा हो, किसी तरह की कोई दीवार न हो सब एक दूसरे से मिल सकें बिना किसी भेदभाव के, धरती सबकी है यहाँ कोई सीमा न हो सब रह
पायें ख़ुशी से, इस साँसों के सफ़र में साथ-साथ और सिर्फ हाथ से हाथ ही न मिलें बल्कि दिल से दिल भी मिलने चाहिए। तभी तो शान्ति सम्भव हो
पाएगी। फिर तो इस जीवन को जीने का आनन्द ही अलग होगा और जब हम इस संसार से रुखसत
होंगे तो हमें अपने किसी कर्म पर कोई पछतावा नहीं होगा। बस शान्ति के लिए प्रयास करना
है तो अपने मन में उठने वाले हर उस नकारात्मक भाव को समाप्त करना है जो मानवता के
लिए सुखदायी नहीं है। हमें तप और त्याग की भावनाएं दिलों में लिए हुए अपने जीवन
सफ़र को तय करना है। शांति स्वतः ही आएगी उसके लिए किसी आभासी कार्य की जरुरत
नहीं, बल्कि वास्तविक प्रयास की आवशयकता है और फिर यह कायनात, यह खुदा का कुनबा, जो बहुत सुन्दर है इसमें
बसने वाला हर इनसान खुदा का रूप है, इन्हीं भावनाओं को
दिल में बसाये हुए हम इस सृष्टि के कण-कण में खुदा को देख सकेंगे, महसूस कर सकेंगे। अगर शान्त रहेंगे तो...!
मैं तहे दिल से आदरणीय अर्चना चावजी का धन्यवाद करते हुए यह बात आप सबसे साँझा कर रहा हूँ
कि इस पोस्ट की पॉडकास्ट सम्मानीय गिरीश बिल्लोरे जी के ब्लॉग ‘मिसफिट: सीधीबात’ पर और इसी ब्लॉग पर अर्चना चावजी की कर्णप्रिय आवाज
में सुन सकते हैं। आपकी सार्थक प्रतिक्रियाओं का इन्तजार रहेगा। विनीत....केवल
राम।