11 नवंबर 2016

प्रकृति-मनुष्य और शिक्षा की भाषा...3

गत अंक से आगे.....मनुष्य जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में अपने परिवेश से शब्दों के उच्चारण सीखता है. अधिकतर यह देखा गया है कि बच्चा सबसे पहले ‘माँ’ शब्द का ही उच्चारण करता है. फिर धीरे-धीरे वह अपनी जरुरत और सुविधा के हिसाब से शब्दों को सीखता है और उनका प्रयोग करता है. अगर हम बच्चों के शब्द भण्डार का अध्ययन करें तो हमें यह बात भी मालूम होगी कि बच्चों के पास प्रारम्भिक समय में सिर्फ वही शब्द होते हैं जो उनके भाव को अभिव्यक्त करने में सहायक होते हैं. यह भी एक तथ्य है कि उसके आसपास अन्य व्यक्तियों द्वारा जैसे शब्दों का उच्चारण अधिक होता है, वह भी वैसे ही शब्दों को बोलना शुरू करता है. जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बीतती जाती है, शब्द और शब्दों से सम्बन्धित अर्थ उसे ज्ञात होते जाते हैं. मनुष्य की भाषा सीखने की प्रारम्भिक प्रक्रिया बड़ी रोचक है. प्रारम्भ में जहाँ मनुष्य सिर्फ शब्दों का उच्चारण करता है, वहीं समय के साथ-साथ वह शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को जानते हुए शब्द का प्रयोग करता है. व्यगोत्स्की ने इस तथ्य की और ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि ‘बचपन में सम्प्रेषण और बोधन के विकास के अध्ययन इस निष्कर्ष की और ले जाते हैं कि वास्तविक सम्प्रेष्ण को अर्थ की आवश्यकता होती है, अर्थ अर्थात सामान्यीकरण सम्प्रेषण की वैसी ही अपरिहार्यता है जैसी कि संकेत’. व्यगोत्स्की के इस मत से स्पष्ट होता है कि बच्चे जिस शब्द को सीखते हैं उसमें निहित अर्थ की समझ विकसित होने पर वह उस शब्द के प्रति ज्यादा सजग हो जाते हैं. जैसे-जैसे उन्हें शब्दों के वास्तविक अर्थ का बोध होता है वैसे-वैसे वह शब्दों को ग्रहण करते जाते हैं. इसके साथ ही जिन शब्दों से उन्हें उनके भाव का बोध होता है वह उन शब्दों के प्रयोग के प्रति सहज होते जाते हैं. इस तरह से मनुष्य की भाषा सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है और वह ताउम्र भाषा से जुडा रहता है.
भाषा सीखने और उसके प्रयोग में मनुष्य की सोच बहुत मायने रखती है. यह अध्ययन बड़ा ही रोचक होगा कि एक बच्चा जब किसी शब्द को सीखता है तो वह उस शब्द को सीखते तथा उच्चारित करते वक़्त किस तरह की प्रक्रिया से गुजरता है. हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुएं भी शब्दों के माध्यम से ही हमें परिचित होती हैं. हालाँकि वह वस्तुएं हमें दृष्टव्य होती हैं, लेकिन हम उन वस्तुओं के चित्र को अपने जहन में तब ही महसूस कर पाते हैं जब शब्द के माध्यम से हमें उनका बोध होता है. संभवतः बोली और भाषा के बीच में हम बोध को अगर महत्वपूर्ण पहलू माने तो हमें भाषा और बोली के महत्व को समझने में भी आसानी होगी. बोली हमारे भाव के बहुत करीब होती है, लेकिन भाषा भाव से कहीं दूर. इसलिए कोई भी व्यक्ति जब बोली में अपने भाव को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है तो वह सहजता से हर भाव को अभिव्यक्त करता है. लेकिन भाषा के माध्यम से वह अभिव्यक्ति की उस ऊंचाई कोई नहीं छू पाता.
बोली मनुष्य की अभिव्यक्ति का आधार है. दुनिया में हुए अधिकतर शोध इस तथ्य की और संकेत करते हैं कि मनुष्य की सोचने की प्रक्रिया उस भाषा के माध्यम से नियन्त्रित होती हैं जिसे मनुष्य अपने बचपन में सीखता है. इस सन्दर्भ में इतालबी लेखक लुइगी मैंगलो का कथन दृष्टव्य है. वह लिखते हैं कि ‘मानव व्यक्तित्व में दो परतें होती हैं, उपरी वाली परत बाह्य घावों के समान होती है. इतालवी, फ्रेंच और लैटिन शब्द, इसके नीचे वाली परत आंतरिक, ऐसे घावों के समान होती है जो भरने पर अपने निशान छोड़ जाते हैं. यह हैं बोलियों के शब्द. जब हम इन निशानों को छूते हैं तो एक दृश्यमान शृंखलात्मक प्रतिक्रया प्रारम्भ होती है. इसे उन लोगों को समझाना बहुत मुश्किल है जिनकी कोई बोली नहीं होती. यह एक समझे हुए तथ्य का कभी नष्ट न होने वाला केन्द्र है. यह इन्द्रियों के तन्तुओं से जुड़ा होता है. बोली का शब्द हमेशा यथार्थ पर टिका होता है, क्योंकि यह दोनों एक ही होते हैं. इन्हें कारण देने से पहले ही हम पहचान लेते हैं. यह कभी गायब नहीं होते चाहे इन्हें हमें दूसरी भाषा में भी कारण या तर्क क्यों न सिखा दिया जाए. इससे स्पष्ट होता है कि बोली का आधार मानवीय भाव की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. बोली ताउम्र मनुष्य की अभिव्यक्ति का आधार रहती है, जबकि भाषा के सन्दर्भ में यह तथ्य सटीक नहीं बैठता है. मैंगलो के कथन से एक और बात भी स्पष्ट होती है कि बोली के शब्द और अर्थ यथार्थ के धरातल पर आधारित होते हैं, जबकि भाषा में अधिकतर शब्द हमें अवास्तविक सत्ता का बोध करवाते हैं.
भाषा और बोली के सम्बन्धों को समझते हुए हमें एक और बात भी स्पष्ट हुई कि बोली का आधार अनुभव और बोध के वास्तविक धरातल पर अवस्थित है, क्योंकि बोली का सम्बन्ध मनुष्य की सोच और अनुभव से जुडा है. जबकि भाषा को हम सीखते हैं, अगर बहुत देर तक हम किसी भाषा का प्रयोग नहीं करते तो हम उसके शब्द और शब्दों से सम्बन्धित अर्थों को भूलते जाते हैं. इसलिए मनुष्य को बोली प्रकृति प्रदत्त वरदान है, और वही उसकी अभिव्यक्ति का आधार भी है. अब यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि जब बोली मनुष्य के अनुभव और बोध के बिलकुल करीब होती है तो फिर भाषा की क्या आवश्यकता है? यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है. दूसरा यह भी कि जब संसार में मनुष्य को भाव की अभिव्यक्ति के लिए बोली की ही आवश्यकता है तो फिर भाषा को सीखने की क्या जरुरत है? हमें बोली और भाषा के सम्बन्धों पर भी विचार कर लेना चाहिए. सामान्यतः भाषा-विज्ञान और व्याकरण में हमें यह समझाया जाता है कि जिसके माध्यम से साहित्य रचा जाता है उसे हम भाषा कहते हैं. लेकिन जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि साहित्य की जिनती भी विधाएं और प्रकार शिष्ट साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उससे अधिक और विविध प्रकार बोली में भी देखने को मिलते हैं, और वह हजारों वर्षों से अपना अस्तित्व बरकरार रखे हुए हैं. उन्हें सहजने के लिए न तो किसी लेखक की जरुरत है और न ही किसी प्रकार के खास प्रयत्न की. बोली में रचित साहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी अपना अस्तित्व कायम किये हुए है. यह हुआ इस ही कारण है कि बोली में जो कुछ भी रचा गया है वह हमारे भाव और संवेदना के सबसे ज्यादा निकट है. इसलिए लोक में भाषा के बजाय बोली को ज्यादा तरजीह दी जाती है. शेष अगले अंक में...!!

1 टिप्पणी:

जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.