19 फ़रवरी 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...2

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गतांक से आगे......!!! सृजन की धारणा, सृजन के मन्तव्य, सृजन की कला और तकनीक आदि में समय-समय पर परिवर्तन होता आया है. सृजन की प्राथमिकताओं के विषय में जब हम पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि सभी विद्वान इस विषय में एकमत नहीं हैं कि आखिर कोई रचनाकार जब सृजन करता है तो उसके पीछे उसका मन्तव्य क्या होता है? हालाँकि यह विषय बहुत समय से बहस का विषय रहा है, शायद तब से जब से मनुष्य ने सृजन के क्षेत्र में कदम रखा है तब से वह इस विषय पर लगातार चिन्तन करता रहा है और आज तक इस विषय पर उसका चिन्तन अनवरत जारी है. प्रारम्भ से मनुष्य सृजन को दैवीय प्रेरणा का कारण मानता रहा है, इसके साथ वह यह भी मानता रहा है कि सृजन के पीछे व्यक्ति की प्रतिभा की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है. लेकिन हम यहाँ इस मत को ऐसे भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि प्रतिभा के साथ अगर प्रेरणा नहीं होगी तो फिर ऐसी प्रतिभा कोई खास रचनात्मक कार्य नहीं कर सकती.

सृजन के लिए प्रतिभा एक आवशयक पहलू हो सकता है, लेकिन प्रेरणा का अपना एक ख़ास महत्व है. इस सन्दर्भ में प्लेटो की मान्यता है कि : “For not by art does the post sign, but by power Divine; had he learned by rules of art, he would have known how to speak not of them only, but of all. And reason is no longer with him; no man while he retains that faculty has the oracular gift of poetry”. (Dialogue of Plato by B. Jowett) प्लेटो की स्पष्ट मान्यता है कि इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं के पीछे दैवी प्रेरणा काम करती है. कवि भी दैवी प्रेरणा के वशीभूत होकर ही काव्य-रचना और कलाकार कला की सृष्टि करता है. उनका विचार है कि कवि के भीतर नयी उद्भावना और भावावेश कला से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा से अभिभूत होता है. उत्कृष्ट काव्य उच्च भावनाओं, उच्च विचारों और ज्ञान का संचार करता है. अतः वह समाज के लिए उपयोगी होता है. इसके विपरीत निम्न कोटि का काव्य अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को नहीं निभाता और समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार को फैलाता है तथा उच्च आदर्शों को क्षीण बनाता है. उनके प्रति अनास्था का भाव जगाता है. अतः ऐसा काव्य समाज के लिए घातक है. वह ज्ञान, धर्म, नीति और ईश्वर-विरोधी होने का भाव जगाता है. इसलिए प्लेटो की स्पष्ट मान्यता है कि श्रेष्ठ काव्य प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि प्रेरणा के बल पर रचा जाता है. इससे यह बात स्पष्ट होती है कि किसी व्यक्ति में बेशक सृजन की प्रतिभा नहीं, लेकिन उसमें किसी विशेष रचनात्मक कार्य के लिए प्रेरणा का संचार किया जाये तो वह उसी प्रेरणा के बल पर बहुत कुछ हासिल कर सकता है. हाँ जन्मजात प्रतिभा में हमेशा मौलिकता की सम्भावना ज्यादा बलबती होती है, इसलिए जिस व्यक्ति में जन्मजात किसी विशेष क्षेत्र में कार्य करने की रूचि होती है तो वह बहुत कुछ ऐसा कर जाता है जिसकी कल्पना दुनिया ने नहीं की होती है. सृजन की प्रेरणा के पीछे मत चाहे जैसे भी हों और जो भी हों, लेकिन हमें सृजन के लिए प्रतिभा और प्रेरणा दोनों के महत्व को स्वीकारना चाहिए.

जहाँ पर साहित्य की बात आती है तो उसके उद्देश्यों और सृजनकर्ता की प्राथमिकताओं पर काफी बहस हुई
है. भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य सृजन की प्राथमिकताओं और उसके प्रयोजन को लेकर बहुत विचार किया है. भारतीय आचार्यों में भरत, भामह, वामन, कुन्तक, रुद्रट, मम्मट आदि आचार्यों  ने इस विषय पर काफी चिन्तन किया है. आचार्य भरत ने नाट्य (काव्य) के प्रयोजन पर विचार करते हुए कहा है कि : “दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्. / विश्रान्ति जननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति.. / धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्. / लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति्”.. (नाट्यशास्त्र) अर्थात दुःख, श्रम, शोक से आर्त तपस्वियों के विश्राम के लिए तथा धर्म, यश, आयु-वृद्धि, हित साधन, बुद्धि-वर्धन और लोकोपदेश के निमित नाट्य की रचना होगी. आचर्य भरत के बाद के आचार्यों के सामने काव्य सृजन के यह प्रयोजन रहे हैं. उन्होंने इन सबमें से अपनी बुद्धि और रूचि के अनुसार कुछ को अपना लिया है और कुछ को छोड़ दिया है. इतना ही नहीं समय और स्थिति के अनुसार उन्हें जो कुछ और सही लगा है उसे जोड़ भी दिया है. इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि काव्य का प्रयोजन समय और स्थिति के अनुसार बदलता रहा है. आचार्य भरत के बाद भामह ने काव्य के प्रयोजन पर इन शब्दों में विचार किया है : “धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च. / करोति कीर्ति प्रीतिं च साधु काव्य निबन्धनम्. (काव्यालंकर) अर्थात काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तथा कलाओं में निपुणता के उपलब्धि के निमित की जाती है. साथ ही वह कीर्ति एवं प्रीति (आनन्द) प्रदान करने वाली होती है. भामह के शब्दों में रचना और रचनाकार के उद्देश्य स्पष्ट नजर आते हैं. रचना का उद्देश्य है पाठक को आनंद की अनुभूति करवाना और रचनाकर का उद्देश्य है रचना प्रक्रिया का आनन्द प्राप्त करते हुए यश की प्राप्ति करना.

सृजन का मूल उद्देश्य मानव के सकारात्मक पहलूओं को उजागर कर मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है. प्राचीन आचार्य इस बात पर व्यापक ध्यान देते थे. इसकी अभिव्यक्ति हमें संस्कृत वाऽ.मय में देखने को मिलती है. कालान्तर में साहित्य की भाषा में परिवर्तन, मानव मूल्यों में बदलाव, सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन के साथ-साथ सृजन और सृजनकर्ता की प्राथमिकताएं भी बदली हैं, और किसी हद तक यह बदलाव मानव की प्रगति के सूचक हैं. मानव ने जितना भौतिक विकास और अध्यात्मिक चिन्तन किया है उस सबकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से हुई है. साहित्य मानव के चिन्तन और विकास से अछूता नहीं रह सकता. आज तक के साहित्य के इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि ज्यादातर साहित्य में वही अभिव्यक्त हुआ है जिसका सीधा सम्बन्ध मानव की भावनाओं, संवेदनाओं से है. बिना मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति के कोई भी साहित्य श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता. हालाँकि कई बार मनोरंजन परक साहित्य भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उस मनोरंजन में भी मानवीय वृतियों पर कटाक्ष या उनकी प्रशंसा की जाती रही है, और यह सब कुछ साहित्य का अंग रहा है और आने वाले समय में भी यह सब कुछ साहित्य में घटित होता रहेगा. समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि साहित्य या सृजन के केन्द्र में मानवीय पहलू ज्यादा रहे हैं. जिस रचनाकार ने मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपनी रचना का उद्देश्य बनाया है वह रचनाकार कालजयी हो गया है. ऐसे रचनाकारों की कृतियाँ बेशक हजारों वर्ष पहले रची गयी हों लेकिन उनकी महता आज भी वैसी ही है, और आने वाले समय में भी यह मानव का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी. 

सूचना तकनीक के इस दौर में सब कुछ अप्रत्याशित रूप से घटित हो रहा है. आज की दुनिया में जब हम अपने चारों और देखते हैं तो पाते हैं कि सब कुछ परिवर्तित हो गया है, और मानव का जीवन सुखद हो गया है. मानव ने चाँद-तारों तक अपनी पहुँच वर्षों पहले बना ली है, अब वह मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की तलाश में जुटा है. इन सब उपलब्धियों और संघर्ष के लिए मानव बधाई का पात्र है. आज चिन्तन के जितने आयाम व्यक्ति के सामने हैं वह उसकी क्रियाशीलता और उसकी कभी हार न मानने वाली प्रवृति के परिचायक हैं. ऐसा बहुत कुछ मानव ने अपने आदिकाल से आज तक हासिल किया है जिससे उसका जीवन सहज और सुखद हो गया है. साहित्य ही नहीं विज्ञान, कला, तकनीक, संगीत, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियां गर्व करने योग्य हैं. हाँ इस सन्दर्भ में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यह जो कुछ भी मानव ने आज तक किया है उसमें उसकी जिजीविषा, यश और कीर्ति की लालसा ने भी मुख्य भूमिका निभाई है. बहरहाल स्थिति और कारण जो भी हो मनुष्य की उपलब्धियां कभी-कभी सोचने पर मजबूर कर देती हैं. शेष अगले अंकों में.....!!! 

16 फ़रवरी 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...1

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चिन्तन मनुष्य की सहज प्रवृति है. यह गुण उसे प्रकृति द्वारा प्रदत्त है. चिन्तन के इसी गुण के बल पर उसने प्रकृति के रहस्यों को समझने की भरपूर कोशिश की है, और आज तक वह इस दिशा में अनवरत क्रियाशील है. उसके चिन्तन के अनेक आयाम हैं और हर एक आयाम का अपना एक महत्व है. दुनिया के इतिहास पर हम नजर डालते हैं तो हम यह सहज रूप से ही समझ जाते हैं कि मनुष्य ने आज तक जो भी चिन्तन किया है उसके केंद्र में वह स्वयं ही रहा है. अपने चिन्तन के केंद्र में खुद को रखने से उसने यह महसूस किया कि वह भी प्रकृति का ही एक अभिन्न अंग है. जिन तत्वों से प्रकृति का निर्माण हुआ है उन्हीं तत्वों से उसका भी निर्माण हुआ है. इसलिए प्रारम्भ में उसके चिन्तन का केन्द्र प्रकृति और इसके रहस्य रहे हैं. चिन्तन का जहाँ से प्रारम्भ हुआ है या जो दस्तावेज आज हमें उपलब्ध हैं या जिन विषयों के विषय में आज हमें जानकारी उपलब्ध है वह हमें स्पष्ट रूप से इंगित करते हैं कि प्रारम्भ में मनुष्य ने अपनी चेतना को समझने के प्रयास किये हैं. उसने यह भी समझने की चेष्टा की है कि आखिर इस सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ? इस धरा पर ही नहीं बल्कि इस ब्रहमांड में जो कुछ भी है, उसका निर्माण कैसे हुआ? इस सबके पीछे किसका हाथ है? यह जो कुछ भी निर्मित हुआ है, इसका उद्देश्य क्या है? इस ब्रहमांड को सुनियोजित तरीके से चलाने में किसकी भूमिका है और क्योँ? ऐसे अनेक सवाल हैं जो सृष्टि के प्रारम्भ से मनुष्य के चिन्तन का हिस्सा रहे हैं और समय-समय पर मनुष्य ने उसके विषय में अपने निष्कर्षों से आने वाली पीढ़ियों को अवगत करवाने के लिए अनेक माध्यमों का भी विकास किया है.
मनुष्य ने आज तक जितना भी चिन्तन किया है और जहाँ भी किया है, जिस भी भाषा और जिस भी पद्धति के माध्यम से किया है उन सबके निष्कर्ष में उसने एक बात तो स्वीकार की है कि इस सृष्टि का सृजन कर्ता परमात्मा है, और इसे वह कई नामों से अभिहित करता है. इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उसके जहन में यह प्रश्न पैदा होने शुरू हुए कि आखिर यह ब्रह्म क्या है? इस दुनिया की विभिन्न सत्ताओं में उसकी भूमिका क्या है? श्वेताश्वतरोपनिषद् के प्रथम अध्याय में इस प्रश्न पर कुछ इस तरह से चिन्तन किया गया है किं कारणं ब्रह्म कुत: स्म जाता, जीवाम केन क्व च सम्प्रतिष्ठा:। अधिष्ठिता: केन सूखेतरेषु, वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्”।। (1/1/1133) अर्थात जगत का कारणभूत ब्रह्म कैसा है? हम किससे उत्पन्न हुए हैं? किसके द्वारा जीवित रहते हैं? कहाँ स्थित हैं? और हे ब्रह्मविद्गण! हम किसके द्वारा सुख-दुःख में प्रेरित होकर व्यवस्था (संसार यात्रा) का अनुवर्तन करते हैं. यक़ीनन यह सबसे गम्भीर प्रश्न है. क्योँकि जिस सृष्टि में हम रहते हैं और जिस तरह से यह क्रियान्वित होती है, उससे तो यह बात स्पष्ट रूप से समझ आती है कि इस सृष्टि की रचना के पीछे कोई न कोई उद्देश्य तो जरुर होगा.
इन सब बातों पर विस्तार से चिन्तन करने की जरुरत है, और सबसे बड़ी महता इस बात की है कि हम दुनिया भर में उपलब्ध आज तक के चिन्तन और अनुभव के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालें. क्योँकि आज तक इन विषयों पर जितना भी चिन्तन किया गया है वह एक सत्ता को तो मानता है लेकिन उसकी उत्पति, क्रिया और कारणों पर अलग-अलग राय रखता है. इसलिए जब वह चिन्तन व्यवहार के धरातल पर उतरता है तो हमें लगता है कि जो बात कोई दूसरे विचार को मानने वाला कह रहा है, मेरी बात उससे कहीं श्रेष्ठ है, मेरा मत किसी और निष्कर्ष का समर्थन करता है, इसलिए आज हम देखते हैं कि पूर्ववर्ती काल में सृष्टि के रहस्यों और दुनिया को सुन्दर स्वरूप प्रदान करने के लिए जो मार्ग खोजे गए, कालान्तर में उन मार्गों पर कुछ तथाकथित लोगों का अधिकार हो गया. उन्होंने अपने स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए कई तरह के भ्रम और भ्रांतियां पैदा की और आज जितने भी पहलू इन विषयों पर उपलब्ध हैं, वह सुलझने की बजाय उलझते हुए ज्यादा नजर आ रहे हैं और यह सब कुछ मनुष्य जाति के लिए और उसके चिन्तन के लिए सही नहीं है.
प्रारम्भ में मनुष्य ने जब सृजन की दुनिया में कदम रखा तो उसके उद्देश्य बहुत बृहत् थे, वह सम्पूर्ण कायनात को अपने चिन्तन का हिस्सा बनाना चाहता था और इसी कोशिश में उसने वनस्पति, जल, वायु, सूर्य, चन्द्र, तारे, नक्षत्र आदि के साथ-साथ इन सबको क्रिया रूप प्रदान करने वाली शक्ति को समझने की कोशिश भी की. अपनी शक्ति और साधना के बल पर उसने जो कुछ भी पाया उसके आधार पर उसने इन रहस्यों के निष्कर्षों को क्रियान्वित करने की कोशिश की, और जो कुछ उसे हासिल नहीं हुआ या जो कुछ उसे समझ नहीं आया उसके प्रति उसने सकारात्मक भाव रखा और उसे भी अपने जीवन का आधार मानते हुए उसके प्रति आस्था और सम्मान का भाव रखते हुए उस रहस्य को समझने की कोशसिह की. वैदिक साहित्य में हमें इस बात के पुष्ट प्रमाण मिलते हैं, और जो कुछ भी उसने उस प्रकृति के माध्यम से सीखने की कोशिश की या उसने जो अपने भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश की उसे उसने दैवीय प्रेरणा कहा. हमारे देश भारत में तो कोई भी प्राचीन ग्रन्थ ऐसा नहीं मिलता जिसमें इस बात को पुष्ट न किया गया हो कि सृजन का विषय चाहे जो भी रहा हो, लेकिन उसमें मानवीय पहलूओं को प्रमुखता से उजागर किया गया है और इस धारणा को भी पुष्ट किया गया है कि जो भी सृजन हुआ है वह सब दैवीय प्रेरणा का परिणाम है.
कालान्तर में बेशक सृजन की यह धारणा बदली हो और यह किसी हद तक स्वाभाविक भी है. क्योँकि सृजन समाज का हिस्सा होता है, जिस तरह के परिवर्तन समाज में आते हैं वह सब कुछ सृजन के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं. तभी तो कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है. कभी साहित्य समाज को प्रभावित करता है तो कभी समाज साहित्य को प्रभावित करता है. लेकिन साहित्य के सृजन की प्राथमिकता तो मनुष्य है और वह आज तक इस दिशा में अग्रसर रहा है. लेकिन बदलते दौर में दुःख इस बात है कि सृजन की प्राथमिकताएं भी बदली और आज हम ऐसे बिन्दु पर खड़े है जहाँ से हम अतीत को देखकर समझकर गौरवान्वित होते हैं, लेकिन भविष्य पर गहरे प्रश्न चिन्ह खड़े हैं. विषय चाहे कोई भी हो, दिशा चाहे कोई भी हो अब वह गंभीरता कहाँ रही और वह ललक कहाँ. हालाँकि हम ऐसा नहीं कह सकते कि अब सृजन नहीं हो रहा है, हो रहा है, पूर्ववर्ती काल से कहीं ज्यादा हो रहा है. लेकिन कहीं कोई गंभीरता नहीं, कहीं कोई मौलिकता नहीं, बस एक सरपट दौड़ है दूसरे से आगे निकलने की, सब कुछ कम संघर्ष में हासिल करने की और उसके लिए हम किसी मानक को मानने के लिए तैयार नहीं. बस हम दौड़ना चाहते हैं, भले ही उसकी सार्थकता हो या नहीं, उसके परिणाम क्या होंगे, इस बात की कोई चिंता नहीं. बस एक ही चिंता है किस तरह से किसी से आगे निकला जाए, कैसे किसी को नीचा दिखाया जाये. यह एक ऐसा उपक्रम है जिसमें आज हमारे समय के बहुत से तथाकाथित सृजनकर्मी प्रवृत हैं. हम इस बात पर कोई ध्यान नहीं दे पा रहे हैं कि हमारे सामने चिन्तन और सृजन के जो मानक हैं, क्या हम उन मानकों पर कितना खरे उतर पाए हैं, और हम उससे आगे बढ़ने के लिए और क्या कर सकते हैं? हमारे चिन्तन का हिस्सा क्या होना चाहिए? किस दिशा में हमें और काम करने की जरुरत है?  यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर आज हमें बहुत गंभीरता से विचार करने की जरुरत है और आज जो माध्यम हमारे सामने हैं उन माध्यमों का लाभ उठाते हुए हम इस दुनिया के स्वरूप को सुन्दर बनाने में कितना सहयोग कर पाते हैं, इस बात पर सोचने की आवश्यता है.  शेष अगले अंकों में.....!!!

13 फ़रवरी 2014

प्रेम का बाजार भाव...2

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जहाँ हम अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित करके प्रेम करने की कोशिश करते हैं वहां हम सामने वाले को तो धोखा दे सकते हैं, लेकिन प्रेम का जो वास्तविक आनंद है उसे प्राप्त नहीं कर सकते. ऐसी स्थिति में हमें अपने मन को एक बार नहीं हजार बार टटोलने की आवश्यकता होती है. लेकिन जो सच्चे अर्थों में प्रेम करते हैं वह विरले ही होते हैं. गतांक से आगे

यहाँ प्रेम के सन्दर्भ में हमें एक बात सहजता से स्वीकारनी होगी कि वास्तविक प्रेम-प्रेम जैसा कुछ करने से नहीं होता, वह अपने आप हो जाता है. व्यक्ति चाह कर भी अपने भावों को किसी एक दिशा में बढ़ने से नहीं रोक पाता. प्रेम का भाव अक्सर होने का भाव है, करने का नहीं. जहाँ प्रेम हो गया-बस हो गया. यहाँ व्यक्ति का कोई वश नहीं. यहाँ अनुरक्ति का भाव पैदा हो गया किसी अनजाने के प्रति, किसी अजनबी के प्रति, कोई दूर रहकर भी पास होने लगा, कोई ऐसा जिसके बिना जीवन लगता ही कुछ नहीं. ऐसी अवस्था में फिर सोच लिया उसकी हर खूबी को और एक समय ऐसा आया जब उसके बिना जीवन नीरस और बेकार लगने लगा. चाहे लौकिक प्रेम हो या अलौकिक दोनों में एक स्तर पर स्थिति एक सी हो जाती है. इन दोनों दिशाओं में चलते हुए अगर कोई प्रेम होने की स्थिति में आगे बढ़ रहा है तो फिर उसे कोई परवाह नहीं. जिससे उसने प्रेम किया है वह चाहे जैसा भी हो, जो भी हो, दुनिया की नजर उसे चाहे किसी भी निगाह से देखती हो लेकिन जिसे प्रेम हो गया है उसे हो गया है. उसे कोई परवाह नहीं दुनिया की, बस उसे एक ही परवाह है अपने भावों को और चरम सीमा तक ले जाने की. ऐसी अवस्था में प्रेम परमात्मा हो जाता है और परमात्मा प्रेम हो जाता है. प्रेम और प्रेमी दोनों एक हो जाते हैं, दोनों में कोई भेद नहीं रहता. दो जान एक दिल बस सब कुछ समा जाता है, पूरी कायनात प्रेममय लगती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति को लगता है कि प्रेम ही जीवन है और जीवन ही प्रेम, प्रेम के बिना जीवन कुछ लगता ही नहीं. 

प्रेम के अनेक आयाम है और इसकी अनेक दिशाएँ भी हैं. जरुरी नहीं हमें प्रेम सिर्फ किसी खुबसूरत चेहरे से ही हो, हमें प्रेम प्रकृति से हो सकता है, देश से हो सकता है, किसी ऐसी कला से हो सकता है जिसके बिना हम अधूरे से लगते हैं. दुनिया में जितनी भी दृश्य और अदृश्य चीजें हैं हमें किसी से भी प्रेम हो सकता है. लेकिन ज्यादातर प्रेम दृश्य चीजों से ही होता है. क्योँकि प्रेम की प्रारंभिक अवस्था स्थूल से ही प्रारंभ होती है. जैसे वह ग़ज़ल है न “जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था, लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है”. स्थूल से प्रारंभ हुआ यह सफ़र धीरे-धीरे व्यक्ति के मानसपटल में उतरता जाता है और एक अवस्था ऐसी आती है जब वह खुद की अपेक्षा प्रेम को ही तरजीह देता है और फिर उसे लगता है कि एक उम्र कम है मोहब्बत के लिए. हमारे सामने लौकिक और अलौकिक प्रेम के अनेक उदाहरण हैं. हर व्यक्तित्व में एक अद्भुत आकर्षण है, हालाँकि हम उनके बाह्य व्यक्तित्व को ही जानते हैं, लेकिन प्रेम के वशीभूत होकर उन्होंने जो कुछ भी अभिव्यक्त किया उसे समझने की जरुरत है. एक तरफ कबीर, नानक, मीरा जैसे व्यक्तित्व है तो दूसरी तरफ लैला-मजनूं, हीर-रांझा जैसे व्यक्तित्व भी हैं. इसके साथ-साथ देश और राष्ट्र से प्रेम करने वालों की भी एक लम्बी सूची है. हम कैसे भूल सकते हैं भगत सिंह, चन्द्र शेखर और सुभाष चन्द्र बोस जैसे राष्ट्र प्रेमियों को. जिन्होंने मातृ भूमि से प्रेम किया और अपने प्राणों का उत्सर्ग तक कर दिया इसकी आन-वान और शान के लिए. यक़ीनन जब वह फांसी के फंदे पर हँसते-हँसते झूलने जाते हैं तो फिर खुद को धन्य महसूस करते हैं. अपनी दीवानगी पर कुर्बान होना उन्हें सौभाग्य लगता है और सही मायने में यही प्रेम की चरम सीमा है. इन सब जनुनियों को देखने की निगाह दुनिया चाहे कुछ भी हो लेकिन प्रेम इनमें भरपूर था अपने देश के मिटटी के लिए. हम जिस भी दिशा के प्रेम करने वालों के जीवन को कर्म पर निगाह डालें हमें अद्भुत अनुभव होंगे, बेशर्त हैं हम उन्हें पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर न देखें. 

लेकिन बदलते दौर में सब कुछ बदल रहा है. अब किसी भी दिशा में ऐसे दीवाने नहीं दिखाई देते जो अपने
प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए तैयार रहते हों, हालाँकि यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि रोज ही कोई न कोई नयी खबर आती रहती हैं कि प्रेम के लिए किसी ने फंदा लगा लिया और किसी ने जहर खा लिया, या ऐसा भी सुनने में आता है कि दो प्रेमियों ने ही अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर दी तो इसे क्या कहेंगे? यहाँ एक बात यह समझनी होगी कि प्रेम किसी भी स्थिति में ऐसा करने की अनुमति नहीं देता, वह तो आपको सकारात्मक दिशा की तरफ ले जाता है, वह आपको जीवन जीने के मायने सिखाता है. प्रेम किसी भी स्थिति में व्यक्ति को जीवन से विमुख होने के लिए प्रेरित नहीं करता. यह जो सब कुछ हो रहा है सिर्फ स्वार्थवश हो रहा है. हाँ कोई विरला ऐसा मिल सकता है, जिसने लाख कोशिश की हो अपने प्रेम को पाने की, वह हार गया हो और उस हार से वह जीवन से विमुख हो गया, उसने जीवन को समाप्त करने की ही सोची. ऐसे विषय अपवाद स्वरूप ही हो सकते हैं. लेकिन आज प्रेम एक फैशन बन चुका है और फैशन कभी भी स्थाई नहीं होता. 

बदलते दौर में मानव मूल्य बदल रहे हैं. सबको अपनी-अपनी पडी है. आज अगर कहीं कोई प्रेम कर भी रहा है तो उसमें कहीं न कहीं उसका स्वार्थ छिपा हुआ है. आज अगर कोई किसी से सम्बन्ध भी स्थापित कर भी रहा है तो उसमें भी स्वार्थ की बू आने लगी हैं. सब सामाजिक हैसियत और अपना लाभ देखकर ही किसी से प्रेम करने का नाटक करते हैं और यह तो आपको पता ही है कि नाटक का कोई भी पात्र वास्तविक नहीं होता. हालाँकि यह सब कुछ किसी बड़े पैमाने पर भले ही न हो रहा हो लेकिन तस्वीर बदल रही है, व्यक्ति का नैतिक स्तर गिर रहा है और आये दिन मानव पाशविकता के उदाहरण पेश कर ही रहा है. जहाँ जिसको जो अवसर मिल रहा है वह व्यक्ति का शोषण कर ही रहा है. लेकिन जरुरी नहीं कि जो शोषण कर रहा है वह ही इसके लिए जिम्मेवार हो, प्रारंभिक अवस्था में शोषण करवाने वाला भी जिम्मेवार है, लेकिन जब उसकी कोई इच्छा पूरी नहीं होती तो वह दूसरे पर आरोप थोप देता है. आये दिन हमें प्रेम के ऐसे किस्से और कहानियाँ हमने सुनने को मिलती रहती हैं. ऐसी स्थिति में प्रेम-प्रेम नहीं लगता बस स्वार्थ सिद्धि का एक जरिया लगता है. इसलिए तो हमने अब प्रेम के लिए दिन, महीने और सप्ताह निश्चित कर लिए. जहाँ प्रेम करने के बाद जीवन एक उत्सव बन जाता है, वहीँ हमने इसके विपरीत प्रेम को ही उत्सव (आज के अश्लीलता के सन्दर्भ में) बना लिया. अब हम प्रेम के नाम पर चोकलेट डे, प्रोमिस डे, और किस डे आदि मनाने लगे. अब प्रेम बाजार पर निर्भर हो गया. ऐसे प्रायोजित प्रेम पर आलेख लिखे जाने लगे. इसके पुरातात्विक महत्व (हम तो तेरे आशिक है सदियों पुराने) पर चर्चाएँ की जाने लगी हैं. बाजार सज रहे हैं और लोग प्रेम के नाम पर बिक रहे हैं. प्रेम-प्रेम नहीं हो गया बाजार हो गया, इसलिए उसमें संसेक्स की तरह उतर चढ़ाव लगातार जारी हैं.

10 फ़रवरी 2014

प्रेम का बाजार भाव...1

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प्रेम एक ऐसा शब्द जो हमारे जीवन का अहम् हिस्सा है, एक ऐसा भाव जिसके बिना हम जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते, और एक ऐसा जूनून जो हमें जीवन के मायने सिखाता है. प्रेम मनुष्य ही नहीं बल्कि हर प्राणी के जीवन का आधार है. दुनिया में जो कुछ भी हमारी समझ में आज तक आया है, वहां प्रेम की अभिव्यक्ति अवश्य होती है. मनुष्य ही नहीं बल्कि जितने भी जीव हैं वह प्रेम की अभिव्यक्ति करते हैं, और उसके माध्यम से वह अपने जीवन को दिशा देते हैं. इसलिए इस धरा पर समाज और व्यक्ति को जोड़ने की जो कड़ी है वह प्रेम ही है. प्रेम व्यक्ति को सामाजिक बनाता है, दूसरों के हितों के प्रति सोचने के लिए प्रेरित करता है और जहाँ पर हम प्रेम के वशीभूत होकर कोई कार्य करते हैं तो वहां हम दुनिया से अलग हो जाते हैं, हमारा नजरिया बदल जाता है. प्रेम की शक्ति अद्भुत है और इसी कारण इसका वर्णन कई तरह से किया गया है और इसकी महता भी कई तरह से बताई गयी है. हर व्यक्ति के लिए प्रेम के मायने अलग हैं, लेकिन वास्तविक प्रेम तो वही है जहाँ हम अपने आप को मिटाकर सिर्फ और सिर्फ दूसरों के हित का चिन्तन करते हैं और बदले में किसी प्रकार की कोई आशा नहीं करते हैं. इसे सच्चे प्रेम की निशानी तो नहीं बल्कि प्रेम की चरम सीमा कह सकते हैं, प्रेम का शुद्धतम और उच्च स्वरूप कह सकते हैं. क्योँकि जहाँ प्रेम है वहां सच और झूठ जैसे शब्द नहीं होते. जिसने प्रेम किया बस किया, वहां सच-झूठ का कोई प्रश्न नहीं. प्रेम है तो बस प्रेम और नहीं है तो सिर्फ औपचारिक्ताएं.

एक दृष्टि से अगर देखा जाए तो इस दुनिया में प्रेम के बिना कुछ भी नहीं है. सब कुछ होते हुए भी अगर प्रेम रूपी भाव जीवन में नहीं है तो वहां जीवन का आनंद नहीं है, भौतिक सुख सुविधाएं हमारे जीवन संघर्ष को कम अवश्य कर सकती हैं, लेकिन वह हमें प्रेम जैसा भाव नहीं दे सकती. हम जितनी भी भौतिक उन्नति कर लें और बेशक हम अपनी उन उपलब्धियों पर गर्वित हों, लेकिन जीवन की उन सफलताओं में भी प्रेम की महता बहुत महत्वपूर्ण है. उसके बिना जीवन का हर पक्ष अधूरा है, और जिस व्यक्ति के जीवन में प्रेम नहीं है, जो निकृष्ट है वह किसी भी स्थिति में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है. क्योँकि उसमें जीवन का वह आधार भाव ही नहीं है जो उसे पूरी सृष्टि के प्राणियों के प्रति संवेदनशील बनाता है, और जिस व्यक्ति में संवेदनशीलता नहीं वह जी कर भी क्या करेगा? जीवन के अगर वास्तविक मायने हैं तो वह प्रेम के कारण ही हैं, संवेदनशीलता के कारण ही हैं. क्योँकि संवेदनशीलता जब तक व्यक्ति के जहाँ में तब तक वह दूसरों के हित को सर्वोपरि रखते हुए अपने जीवन की दिशा का निर्धारण करता है और अंततः अपने जीवन के साथ-साथ दूसरे प्राणियों को जीवन जीने में सहायता करता है.

प्रेम के अनेक पक्ष हैं, एक बालक जब धरा पर जन्म लेता है तो उसके जीवन की शुरुआत प्रेम से ही होती है.
सबसे पहले उसे उसके माता-पिता का प्रेम मिलता है और वहीँ से उसके जीवन का सफ़र शुरू होता है. जीवन की जितनी भी स्थितियां और पड़ाव आते हैं वहां उसे प्रेम की आवशयकता पड़ती रहती है. कहीं पर भाई-बहनों का प्यार, कहीं दोस्तों का प्यार, कहीं समाज के लोगों का प्यार उसे जीवन के हर मोड़ पर प्रेरित करता है और एक व्यक्ति जीवन सफ़र को तय करते हुए आगे बढ़ता जाता है, उपलब्धियां अर्जित करता जाता है और अंततः उसे यह आभास होता है कि प्रेम ही सब कुछ है और प्रेम के बिना जीवन के कोई मायने नहीं. क्योँकि समाज में ऐसी भी स्थिति देखी गयी है कि व्यक्ति के पास भौतिक सुख सुविधायें होते हुए भी प्रेम के आभाव में उसे जीवन की सार्थकता कहीं नजर नहीं आती, इसलिए कई बार व्यक्ति अवसाद ग्रस्त हो जाता है और आत्महत्या जैसे कदम उठाने से भी नहीं हिचकता. ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि प्रेम जीवन का आधार है उसके बिना जीवन की कल्पना करना बेमानी सा लगता है. जितनी भी संस्कृतियों ने आज तक जन्म लिया है उनके मूल में भी प्रेम की भावना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिन्हें हम दुनिया की उच्च संस्कृतियाँ कहते हैं उन्होंने भी मनुष्यता के प्रति प्रेम के बीज बोने का काम किया है, इसलिए उनकी महता भी किसी से कम नहीं है. मनुष्य किसी भी समाज का हिस्सा हो लेकिन प्रेम की आवश्यकता उसे हर मोड़ पर पड़ती है. इसलिए प्रेम को जीवन का अभिन्न हिस्सा माना गया है.

प्रेम के विषय में जितना भी वर्णन किया जाय कम है, क्योँकि यह अनुभूति का विषय है. हम इसे किसी भी तर्क से सिद्ध करने की कोशिश भी करें तो इसकी थाह लेना आसान नहीं. हम ऐसा कभी भी सिद्ध नहीं कर सकते कि कोई किसी से कितना प्रेम करता है, करता भी है या नहीं. अगर वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो प्रेम में करने जैसा कुछ भी नहीं है, यहाँ सब कुछ होने जैसा है, व्यक्ति के वश में कुछ नहीं है. सब कुछ अपने आप होने वाला है, बस व्यक्ति को खुद को समर्पित रखना होता है और अपने भावों को सही दिशा देने का प्रयास करना होता है. अगर व्यक्ति ऐसा करने में सक्षम हो जाता है तो उसे इस तरफ जोर लगाने की आवश्यकता ही महसूस नहीं होती. प्रेम में तो सब कुछ सहज में घटित होता है. क्योँकि यह विशुद्ध रूप से अनुभूति का विषय है. हर किसी व्यक्ति के जीवन में प्रेम का अपना अनुभव होता है और उसकी अपनी प्राथमिकताएं होती हैं. लेकिन जो प्राथमिकताओं से ऊपर उठकर प्रेम करते हैं, प्रेम का वास्तविक आनंद तो वही ले पाते हैं. क्योँकि जहाँ हम अपनी प्राथमिकताओं को निर्धारित करके प्रेम करने की कोशिश करते हैं वहां हम सामने वाले को तो धोखा दे सकते हैं, लेकिन प्रेम का जो वास्तविक आनंद है उसे प्राप्त नहीं कर सकते. ऐसी स्थिति में हमें अपने मन को एक बार नहीं हजार बार टटोलने की आवश्यकता होती है. लेकिन जो सच्चे अर्थों में प्रेम करते हैं वह विरले ही होते हैं.   शेष अले अंक में......!!!               

07 फ़रवरी 2014

भाषा और व्यक्तित्व...2

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यह भी एक सच है कि व्यक्ति जीवन में चाहे जितनी भाषाओँ की जानकारी हासिल कर ले, उन्हें सीख ले, लेकिन जो सोचने और समझने की प्रक्रिया है वह तो उसकी मातृ भाषा के माध्यम से ही संपन्न होती है. इतना ही नहीं मातृ भाषा का प्रभाव उसके जीवन और उसके व्यक्तित्व पर हमेशा झलकता रहता है, चाहे वह किसी भी भाषा का प्रयोग करे. गतांक से आगे....!!!!  

भाषा सीखना और उसे प्रयोग करना यह दोनों अलग-अलग बातें हैं. जरुरी नहीं कि हम कोई भाषा सीखें और उसका प्रयोग करें, क्योँकि संवाद का सीधा सा नियम है कि जब हम किसी से किसी भी भाषा में बात करें तो सामने वाले को भी वह भाव समझ आना चाहिए, भाव को समझने के लिए भाषा की जानकारी जरुरी है, और भाषा की जानकारी के लिए शब्दों की समझ होनी जरुरी है, शब्द को समझने के लिए उसके अर्थ के विषय में जानकरी होनी चाहिए. यह नियम वाचक और श्रोता दोनों के लिए लागू होता है. तब कहीं हम कह सकते हैं कि एक सार्थक संवाद हुआ, वर्ना अगर हम समझ में न आने वाली भाषा में अपनी भावनाओं और विचारों की अभिव्यक्त करते रहें तो वैसी भाषा की कोई सार्थकता नहीं है. भाषा तो वही सार्थक है जो आम जन की समझ में आ जाये और इसके साथ-साथ विचार भी वही सार्थक है जो अपने हितों से ऊपर उठकर अभिव्यक्त किया गया हो, या ऐसा भी कह सकते हैं जिसमें व्यष्टि की अपेक्षा समष्टि का भाव निहीत हो. वर्ना भाषा का एक पक्ष ऐसा भी हो सकता है कि हम आम जन की समझ में आने वाली भाषा में बहुत निकृष्ट और दोयम दर्जे के विचार अभिव्यक्त करें तो भी भाषा की कोई सार्थकता नहीं होगी. 

एक दृष्टि से अगर हम देखें तो ऐसा भी कह सकते हैं कि व्यक्ति का व्यवहार भाषा का आधार है, और इसी बात का
दूसरा पक्ष ऐसा भी हो सकता है कि भाषा व्यक्ति के व्यवहार की परिचायक है. मैं दूसरे पक्ष से ज्यादा इतेफाक रखता हूँ. क्योँकि भाषा पर व्यक्ति के व्यवहार का किसी हद तक कोई फर्क नहीं पड़ता, हां एक स्थिति में व्यक्ति का व्यवहार भाषा को प्रभावित कर सकता है, जहाँ पर सामूहिक रूप से शब्दों का प्रयोग उनके वास्तविक सन्दर्भों की अपेक्षा किन्हीं अन्य सन्दर्भों के लिए किया जाय. लेकिन यह प्रक्रिया वर्षों में घटित होती है और निश्चित रूप से इसका प्रभाव भाषा पर पड़ता है. एक दूसरी स्थिति यह भी हो सकती है कि जब कोई सामाजिक रूप से प्रसिद्ध व्यक्ति किसी विशेष ‘शब्द’ का प्रयोग उसके विशेष अर्थ के सन्दर्भ में न करके किसी और सन्दर्भ में करता है तो भी व्यक्ति का उस शब्द के प्रति किये गए व्यव्हार का प्रभाव भाषा पर पड़ता है. लेकिन यह सब कुछ छुट-पुट रूप से घटित होता है, और ऐसी स्थिति भी वर्षों में एक-आध बार आती है और किसी विशेष शब्द आदि के लिए. वर्ना भाषा के विषय में तो कहा जाता है कि यह बहता नीर है इसलिए इसे हम किसी ख़ास सांचे में बाँध कर नहीं रख सकते, और यह भाषा के विकास की दृष्टि से संभव भी नहीं है. जो भाषा जितनी समृद्ध होती है उसमें अनेक भाषाओँ के शब्दों को समेटने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है. इसी तरह जो व्यक्ति भाषा के व्यवहार के प्रति सजग होता है वह भी अपने प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा के लिए उतना ही लचीला रवैया अपनाता है और भाषा को अपने व्यवहार और व्यक्तित्व का अंग मानते हुए उसके विकास में सहायक बनता है.  

अगर हम यह मानकर चलते हैं कि किसी भाषा के प्रयोग करने वालों के कारण उस भाषा का स्वरूप निर्धारित होता है तो हमें इस बात की भी समझ होनी चाहिए कि उन्हीं प्रयोग करने वालों पर ही भाषा का सारा कार्य-व्यापार निर्भर करता है.  ऐसी स्थिति में हम यह भी कह सकते हैं भाषा ही व्यक्तित्व है और व्यक्तित्व ही भाषा. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि भाषा और लिपि कोई एक हो सकती है, लेकिन जब हम उसके प्रयोक्ता पर ध्यान देते हैं तो हमें भाषा के अलग–अलग रुप नजर आते हैं. जब हम किसी अध्यात्मिक व्यक्ति से मिलते हैं और उससे संवाद करते हैं तो हमारे शब्द अलग होते हैं, किसी राजनितिक व्यक्ति से मुलाकात में हमारी शब्द और हाव-भाव अलग होते हैं. किसी सामाजिक समारोह में जब हम मिलते हैं तो हमारे शब्द अलग होते हैं, इसी तरह से हम किसी अपराधी के लिए अलग शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, संत के अलग, साहित्य से जुड़े व्यक्ति के लिए, समाज सेवक के लिए अलग. इस तरह से जितने प्रकार के व्यक्तित्व हमारे सामने से गुजरते हैं उनके लिए हम वैसे ही शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि भाषा का व्यक्तित्व से गहरा सम्बन्ध है. जब हम व्यक्तित्व के अनुकूल शब्दों का प्रयोग करते हैं तो भाषा की खूबसूरती और भी बढ़ जाती हैं, शब्द भाषा को एक नया आयाम देते हैं और जो व्यक्ति-व्यक्तित्व के अनुकूल भाषा का प्रयोग करने में सक्षम होता है, वह सबसे ज्यादा प्रिय भी होता है और दूसरी तरफ अपने व्यक्तित्व के अनुसार शब्दों का प्रयोग जो भी व्यक्ति करता है वह उसके व्यक्तित्व को और अधिक प्रिय बनाता है. शब्दों के प्रयोग के प्रति अगर हम सजग हैं तो हमारे सामाजिक सम्बन्ध कभी भी नहीं बिगड़ सकते, सामाजिक ही नहीं किसी भी प्रकार के सम्बन्धों को बनाये रखने का मुख्य आधार शब्द ही हैं. हमारा व्यक्तित्व, हमरा व्यवहार सब कुछ शब्दों के माध्यम से निर्धारित होता है और यह जीवन की एक महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि आधारभूत कड़ी है. 

आज की परिस्थितियों पर अगर हम दृष्टिपात करते हैं तो यह बात हम समझ सकते हैं कि आज शब्दों के प्रति हम लापरवाह हो गए हैं. हालाँकि सूचना तकनीक के आने से व्यक्ति के संवाद की संभावनाओं में अकल्पनीय उन्नति हुई है. लेकिन जितनी यह उन्नति हुई है उतना ही हमारा शब्दों के प्रति नजरिया बदला है. आज का दौर सोशल नेटवर्किंग का दौर है. ऐसी स्थिति में हमें अपनी भाषा और शब्दों के प्रति सजगता को अपनाने की ज्यादा आवश्यकता है. लेकिन कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि उन्हें कोई जानता नहीं, पहचानता नहीं इसलिए वह किसी भी प्रकार के शब्दों का इस्तेमाल अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए करते हैं, लेकिन अगर वह दूसरे दृष्टिकोण से देखते तो यह भी सोच सकते थे कि इन शब्दों के माध्यम से ही उनके व्यक्तित्व का परिक्षण होगा तो निश्चित रूप से वह कभी भी ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते, कम से कम गाली जैसे शब्दों का तो नहीं. किसी भी विषय के लिए हमें अपने विरोध और असहमति को प्रकट करने का अधिकार है, लेकिन उस असहमति को हम अगर भद्दे शब्दों के माध्यम से जताएंगे तो संभवतः कोई लाभ होने वाला नहीं है और दूसरी तरफ हमारा व्यक्तित्व भी धूमिल हो रहा है. यह वही शब्द हैं जिनके माध्यम से हम प्रभावशाली और प्रभावहीन दोनों बन सकते हैं.    

04 फ़रवरी 2014

भाषा और व्यक्तित्व...1

5 टिप्‍पणियां:
अपने आस-पास ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में नजर दौड़ाकर देखता हूँ तो सम्पूर्ण क्रियाएं मुझे शब्दों की ही अभिव्यक्ति लगती हैं. लेकिन इससे और आगे बढ़ते हुए देखता हूँ तो सब कुछ मुझे ‘शब्द’ ही नजर आता है. कहीं गहरे में उतरकर देखता हूँ तो मुझे वह अवधारणा साकार होती हुई नजर आती है कि ‘शब्द ही ब्रह्म है’. जिस तरह से ब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि में समाया हुआ है और वह प्रकृति के विभिन्न रूपों के माध्यम से अपने बजूद का अहसास करवाता है, उसी प्रकार शब्द भी सम्पूर्ण सृष्टि में समाया हुआ है और वह भी विभिन्न क्रियाओं के घटित होने पर अपने बजूद का अहसास करवाता है. इससे यह बात जाहिर होती है कि ब्रह्म की अभिव्यक्ति भी शब्द के माध्यम से होती है. शब्द बेशक अक्षरों से बने होते हैं, अक्षर के मूल में ध्वनि निहीत रहती है. किसी हद तक भाषा, ध्वनि, अक्षर और उसके स्वरूप के विषय में विचार करना व्याकरणिक और भाषा वैज्ञानिक चिन्तन का हिस्सा है. लेकिन यह पक्ष किसी हद तक भाषा के बाह्य स्वरूप से सम्बन्ध रखते हैं. भाषा का मुख्य कार्य तो भावनाओं की अभिव्यक्ति करना है, विचारों को किसी दूसरे तक संप्रेषित करना है और यह भाषा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है. इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि भाषा का जन्म ही इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है. जहाँ तक व्याकरण और भाषा विज्ञान का सम्बन्ध है, यह भाषा को व्यवस्थित करने और उसके प्रयोग के कुछ नियमों का पालन करना हमें सिखाते हैं, और जहाँ तक साहित्य का सम्बन्ध है, यह भाषा को स्थाई और मानक रूप देने के साथ-साथ भाषा की समृद्धि, उसके शब्द-भण्डार में वृद्धि के साथ-साथ आम जन में उसके प्रयोग के लिए सहायक होता है. साहित्य भाषा के विकास के विभिन्न पड़ावों की जानकारी के साथ-साथ किसी विशेष काल में चिन्तन और मनन के विषयों की जानकारी आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखने में भी सहायक है. 

भाषा का प्रमुख उद्देश्य सिर्फ साहित्य की रचना में ही योगदान देना नहीं है, या साहित्य का मुख्य उद्देश्य भी भाषा को सुरक्षित करना नहीं है. साहित्य और भाषा का सम्बन्ध व्यक्ति के जीवन के साथ-साथ समाज और संस्कृति से भी गहरे से जुडा हुआ है. हालाँकि जब हम भाषा और साहित्य के सम्बन्धों पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि इन दोनों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. लेकिन किसी और दृष्टि से विचार करें तो ऐसा लगता है कि यह दोनों अपना अलग-अलग मकसद और अलग बजूद भी रखते हैं और इन दोनों की पूर्ति अनेक माध्यमों से होती भी रहती है. जहाँ तक भाषा का सम्बन्ध है, वह सब चीजों का मूल आधार है. भाषा के बिना हम किसी भी चीज की कल्पना नहीं कर सकते. मनुष्य के आज तक के सब प्रकार के विकास में भाषा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान है, और मनुष्य के आज तक के अविष्कारों में भाषा सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार है. अगर भाषा नहीं होती तो दुनिया का स्वरूप कैसा होता? मनुष्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण जगत का स्वरूप और हाल कैसा होता? यह सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. हमारे लिए भाषा कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा हम कभी नहीं लगा सकते. लेकिन जब हम कहीं किसी विकट स्थिति का सामना करते हैं और वहां पर हम सब कुछ होते हुए भी भाषा हीन हो जाते हैं तो तब हमें पता चलता है कि जीवन में भाषा के मायने क्या हैं? भाषा हमारे जीवन के विकास और उसके विभिन्न आयामों का एक अभिन्न हिस्सा है. इसलिए हम कभी भी भाषा की अनदेखी नहीं कर सकते, और हम हमेशा उसे अपनाए हुए अपने विकास क्रम को आगे ले जाने का प्रयास करते हैं. 

मानव सदियों से अपने भावों, विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का सहारा लेता आया है और आज तक वह उसी डगर पर चलते हुए अपने जीवन को चला रहा है. भाषा की महता सम्पूर्ण जगत के लिए आज से पहले, आज और आज के बाद भी बनी रहेगी. इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि जब तक इस जगत में जीव के जीवन और क्रिया के चिन्ह रहेंगे तब तक वह अपने आप को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करने की कोशिश करता रहेगा और यह उसके लिए जरुरी भी है. क्योँकि अभिव्यक्ति के बिना उसकी कोई क्रिया संपन्न नहीं होती, और बिना क्रिया के उसका जीवन नहीं चलता. उसके जीवन को चलाने में जितनी महता क्रिया की है उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण भाषा है. आज जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं यह हमारे विकास के विभिन्न पडावों से अर्जित अनुभव और उपलब्धियों की व्यवस्था है. निश्चित रूप से इसमें भाषा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. भाषा के बिना हम अंदाजा ही नहीं लगा सकते कि आज इस धरा पर मनुष्य के अनुभव कैसे रहे हैं और उन अनुभवों का क्या कुछ अभी तक निष्कर्ष निकल पाया है. मनुष्य और भाषा के सन्दर्भ में अगर विचार करें तो हम पाते हैं कि बिना भाषा के मनुष्य की कोई महता नहीं और उसके बजूद का कोई अता-पता नहीं. इसलिए जब भी हम इतिहास को देखने, समझने की कोशिश करते हैं तो यह सब क्रियाएं सिर्फ भाषा के माध्यम से ही संपन्न होती हैं. 

भाषा के अध्ययन और उसकी उपयोगिता के अनेक पक्ष हो सकते हैं. लेकिन भाषा का मुख्य कार्य व्यापार विचारों और भावनाओं का सम्प्रेष्ण है. इसका सीधा सा सम्बन्ध व्यक्ति के व्यवहार से है. व्यक्ति अपने आप अभिव्यक्त नहीं होता, बल्कि वह शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है. उसकी भावनाएं, उसके विचार, उसकी सोच सब कुछ इन शब्दों के माध्यम से अभियक्ति पाता है. इसलिए कोई नवजात जब इस धरा पर जन्म लेता है तो सबसे पहले वह अभिव्यक्ति करना ही सीखता है. अपने भावों और अपनी जरूरतों को वह भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है. यह भी कितना अद्भुत है कि जिस माहौल और जिस भाषा के लोगों के बीच कोई नवजात जन्म लेता है तो वह वही भाषा बोलता है, और उसी के अनुरूप अपनी अभिव्यक्ति करता है. उस भाषा को हम उसकी मातृ भाषा कहते हैं और यह भी एक सच है कि व्यक्ति जीवन में चाहे जितनी भाषाओँ की जानकारी हासिल कर ले, उन्हें सीख ले, लेकिन जो सोचने और समझने की प्रक्रिया है तो उसकी मातृ भाषा के माध्यम से ही संपन्न होती है. इतना ही नहीं मातृ भाषा का प्रभाव उसके जीवन और उसके व्यक्तित्व पर हमेशा झलकता रहता है चाहे वह किसी भी भाषा का प्रयोग करे. शेष अगले अंकों में ....!!!!