30 अगस्त 2011

संसार नहीं होता

51 टिप्‍पणियां:
अब मुझे और प्यार नहीं होता
अब तेरा इन्तजार नहीं होता

तन्हा रहा हूँ बहुत वक़्त मगर
तन्हाई का पल यादगार नहीं होता

जीने मरने की कसमें खाई हमने 
बिछुड़ने के बाद, यार -यार नहीं होता

कभी तन्हाई में हुई जो बातें तुमसे
बातें- बातें हैं , बातों का संसार नहीं होता 


मुहब्बत भावना ही कुछ ऐसी है 
तेजधार तो है , मगर हथियार नहीं होता

केवल  खुदी को मिटा के, पाया है तुझे 
तुम्हारे मिटने से तो, मेरा संसार नहीं होता

23 अगस्त 2011

आजादी से मुक्ति की ओर .. 2 ..

40 टिप्‍पणियां:

गतांक से आगे ..........!
आज भी जब इंसान को इंसान की तरफ तलवार, गोला बारूद , और भी ना जाने क्या -क्या  लिए देखता हूँ तो आँखें चुंधिया जाती हैं . कोई धर्म को लेकर लड़ रहा है तो कोई जाति को लेकर , किसी का राम बड़ा है, तो किसी का अल्लाह , किसी को मस्जिद चाहिए तो, किसी को मंदिर . ना जाने कितनी  बिडम्बनाएँ आज हमारे सामने हैं , और फिर भी हम आजादी की बात करते हैं . हमने कभी "आजादी"  शब्द को विचारा ही नहीं, कि क्या सच में हम आजाद हैं ? अगर थोडा सा भी विचार किया होता तो आज ना तो कश्मीर का मुद्दा होता और ना अयोध्या का . लेकिन हमने क्या किया  , "जीवन क्या जिया बहुत - बहुत ज्यादा लिया , दिया बहुत बहुत कम , मर गया देश , अरे जीवित रह गए तुम"   ( मुक्तिबोध ) . हमारा  जीवित रहना और देश का मरना कहाँ की आजादी है , किस तरह की आजादी है . जबकि इस आजादी को प्राप्त करने के लिए हमारे देश के लाखों वीरों और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी थी . क्या सच में हम उनकी कुर्बानियों की कद्र कर पाए . किसी भी हालत में नहीं , अगर की होती तो आज हमारे सामने यह स्थितियां पैदा नहीं होती .हम आजादी का जश्न मनाते हैं बस एक औपचारिकता को निभाते हैं .

आजादी शब्द पर गहराई से विचार करें तो आजादी का मतलब है "बंधन रहित होना" अब यहाँ बंधन कितनी तरह के हैं . हमें किन बन्धनों से आजाद होने की जरुरत है  . यह विचारना जरुरी है . जब तक हम यह नहीं विचार पाएंगे आजादी के सही मायने नहीं समझ पायेंगे . जब हमारे सामने कोई  बंधन ही नहीं है तो फिर कहाँ की विसंगतियां हैं और कौन सी बिडम्बनाएँ , फिर तो हमारे सामने एक उन्मुक्त आकाश है जहाँ हम विचर सकते हैं अपनी मस्ती में, कर सकते हैं सभी के हितों का ख्याल, लगता है सामने वाला भी अपना ही प्रतिरूप , अगर यह आभास होता है तो फिर तो आजादी है , फिर तो जीवन को नैसर्गिक रूप से जिया जा रहा है , जैसा हमें खुदा ने बख्शा था वैसे ही जीवन हम जी रहे हैं और पूरी कायनात के लिए हम वरदान साबित हो रहे हैं . लेकिन ऐसा दिखता नहीं , बस यही अफ़सोस है और यही दुःख !!

जीवन में सबसे पहले हमें आजाद होने की जरुरत है , अगर यह नहीं हो पाता तो फिर वही बात " भोजन, भोग , निद्रा, भय यह सब पशु पुरख सामान " तो फिर हमारी हालत पशु से अलग नहीं है . अगर हम कहीं अलग हैं तो हमारी समझ के कारण और अगर हममें यह समझ है तो फिर तो हम आजाद हैं . ना हमें कोई हिन्दू नजर आता है , ना कोई मुसलमान , ना कोई सिक्ख  है , ना कोई ईसाई, ना कोई देश है , ना कोई सरहद है , ना कोई दीवार है , ना कोई भ्रम . बस अगर है तो एक ऐसा उदात दृष्टिकोण जहाँ पर सब अपने नजर आते हैं . " एक पिता एक्स के हम बारक " फिर कहाँ भिन्नताएं  हैं  . और यह सच में जीवन में आजादी है , जीवन को जीने का आनंद ही अलग है . थोडा सा समय मनुष्य रूप में  हमें इस धरती पर रहने को मिला है और इस समय का हम पूरा सदुपयोग कर रहे हैं . मतलब हम आजाद है , हर पल , हमारे लिए कोई एक दिन आजादी का नहीं बल्कि हर पल आजादी  है .
अब हमें आजादी  से मुक्ति की और बढ़ना है . हमारे धर्म ग्रंथों में मुक्ति को जीवन का साध्य माना गया है . और ज्ञान को मुक्ति तक पहुँचने का साधन ....ज्ञान को समझ कहा गया है और समझ भीतर की वस्तु  है , ह्रदय का प्रकाश है . हमारे धर्म ग्रंथों में जो जीवन के चार वर्ग ( धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष ) निर्धारित किये गए हैं , उनमें से मोक्ष भी एक है . हमें जीवन रहते  इसे प्राप्त करना हैअब हमें शरीरों से के बंधन से मुक्त होना है . "मानुष जन्म आखिरी पौड़ी , तिलक गया ते बारी गयी" यानि मनुष्य जन्म आखिरी जन्म है, अगर इस जन्म में हम अपनी मुक्ति का मार्ग नहीं खोज पाए तो फिर जीवन व्यर्थ चला गया , फिर हमें चौरासी लाख योनियों के चक्कर में पड़ना पड़ेगा . और फिर वही हालत . हम मोक्ष या मुक्ति के मामले में काल्पनिक बने रहते हैं , कि जीवन के बाद  कहीं मोक्ष है लेकिन वास्तविकता इससे कहीं दूर है . वास्तविकता में मोक्ष या मुक्ति आत्मा से परमात्मा से मिलन है , आत्मा जब परमात्मा से मिल जायेगी तो मुक्ति संभव है . दुसरे शब्दों  में हम इसे बैकुंठ भी कहते हैं , और बैकुंठ का मतलब है जहाँ कोई कुंठा नहीं , जहाँ कोई चिंता नहीं बस आनंद ही आनंद है . और यही आजादी  भी है . काश हम जीवन को नैसर्गिक रूप से जीते , आत्मिक स्तर से सोचते आजादी मनाते , मुक्ति पाते ....और सही मायनों में  इंसान कहलाते ...!!!

16 अगस्त 2011

आजादी से मुक्ति की ओर ..1 ..

59 टिप्‍पणियां:

पिछले दो दिनों से देख रहा हूँ कि हर तरफ शुभकामनाओं को बांटने का सिलसिला अनवरत रूप से जारी है , और यह होना भी चाहिए . क्योँकि हम सब समाज का हिस्सा हैं और समाज के हर व्यक्ति के हितों की चिंता करना हमारा कर्तव्य है . किसी हद तक जब किसी को शुभकामनायें देते देखता हूँ तो अक्सर उसके चेहरे के भाव जरुर पढता हूँ और पता चल जाता है कि सामने वाला व्यक्ति किस भाव से इस व्यक्ति के सामने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त कर रहा है . खैर यह हर व्यक्ति का अपना व्यक्तिगत मामला हो सकता है और मुझे कोई हक नहीं किसी की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने का और मैं करना भी नहीं चाहता . क्योंकि मेरे लिए स्वतंत्रता का मतलब कुछ अलग है जिसे मैं कुछ इस प्रकार से सोचता हूँ . स्वतंत्रता शब्द को देखें तो यह स्व और तंत्र के मेल से बना है ...स्व का मतलब है निजी या व्यक्तिगत , और तंत्र का मतलब है व्यवस्था, यानि स्वतंत्रता शब्द का  मतलब हुआ अपनी एक व्यवस्था . एक ऐसी व्यवस्था जिसके तहत हम अपना कार्य करते हैं और अगर हमें कुछ सही नहीं लगता तो हम उसे बदल देते है . जिस व्यवस्था में किसी के हित को ठेस पहुँच रही है , कोई असहज महसूस कर रहा है हम उस व्यवस्था में परिवर्तन कर देते हैं  तो काफी हद तक तो स्वतंत्रता भी सही है और यहाँ पर जब शुभकामनाओं दी जा रही है तो उन शुभकामनाओं में "स्वतंत्रता" शब्द का प्रयोग बहुतायत रूप से किया गया है . हर किसी का अपना नजरिया है और हर किसी की अपनी सोच है और यह अच्छी बात भी है होना भी चाहिए यह सब , हम सब को एक सूत्र में बाँधने के लिए यह सब जरुरी भी है .
लेकिन जब गहराई से सोचता हूँ तो पाता हूँ कि  आखिर हम किस स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं ? क्या उस स्वतंत्रता की जिस स्वतंत्रता का सपना रानी लक्ष्मी बाई , तांत्या टोपे , भगत सिंह , राजगुरु , सुखदेव , चंद्रशेखर आजाद , महात्मा गाँधी , सुभाष चन्द्र बोस , सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे ना जाने कितने आजादी के दीवानों ने देखा था . क्या हम उस स्वतंत्रता को मना रहे हैं ? या जो स्वतंत्रता आज हमारे सामने है उसे मना रहे हैं ? यह बहुत विचारणीय बिंदु है . स्वतंत्रता के ६५ वर्षों में हमने क्या उन लक्ष्यों की तरफ कदम बढाया जिन लक्ष्यों के लिए उन वीरों और वीरांगनाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था ? आखिर हमें ऐसी स्वतंत्रता की आवश्यकता क्योँ महसूस हुई थी जिसके लिए हमने अपने प्राणों तक की परवाह नहीं की , इन बातों पर गहनता से विचार करने की आवश्यकता है और फिर विचार के बाद जो निष्कर्ष निकलेगा उस पर त्वरित अमल करने की आवश्यकता है .समय और स्थिति के अनुसार हर किसी का निष्कर्ष अलग हो सकता है लेकिन जो मूल बात होगी वह यही कि जिस स्वतंत्रता के तहत हम अपना जीवन जी रहे हैं क्या वास्तविकता में यह सही है . जब कोई व्यक्तिगत रूप से सोचेगा तो हो सकता है कि यह उसे सही भी लगे या ना भी लगे लेकिन जब हम सामूहिक परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो पायेंगे कि काफी हद तक उन लक्ष्यों की तरफ नहीं बढ़ पाए जिन लक्ष्यों को हमने स्वतंत्रता की जंग के वक़्त अपने सामने रखा था ? लेकिन इसके लिए कौन जिम्मेवार है , हम ,समाज ,सरकार, या फिर हमारा प्रशासन . सबकी अपनी अपनी भूमिका है ,सबके अपने अपने कर्तव्य हैं .
हमने अंग्रेजों से लड़ कर राजनीतिक स्वतंत्रता तो प्राप्त कर ली लेकिन आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता का जिम्मा हमारे हाथ में था ? स्वतंत्रता के दिन से लेकर आज तक हम राजनीति में ही पड़े रहे और सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के बारे में हमने सोचा ही नहीं , आज हमारे देश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति क्या है यह आप भली प्रकार जानते हैं . आर्थिक रूप से अगर आज भी हम देखें तो हम तब तक खुद को आर्थिक रूप से संपन्न नहीं कह सकते जब तक हमारे देश में एक गरीब व्यक्ति दो वक़्त की रोटी के लिए किसी के सामने हाथ फैला रहा है , एक मजदूर को उसकी मेहनत के बदले मजदूरी कम दी जा रही है , एक अबोध बालक का अपहरण हो रहा है , और भी ना जाने कितनी समस्याएं हैं जो आये दिन हम जिनसे रूबरू होते हैं . अगर सामाजिक स्थिति की बात की जाये तो आज भी हमारे देश में जाति - पाति के नाम पर , वर्ग के नाम पर , ऊँच - नीच के नाम पर , भाषा के नाम पर ,धर्मों के नाम पर लोग एक दुसरे का विरोध करते हैं , और फिर भी हम खुद को स्वतन्त्र कहते हैं .जहाँ तक सिर्फ अपने नियमों के दृष्टिकोण से देखें तो वहां तक "स्वतंत्रता" सही लग रही है . क्योँकि हमारा अपना नियम है , हम अपने नियम को मनवाने के लिए किसी का भी कतल कर सकते हैंहम किसी को भी लूट सकते हैं और भी ऐसा बहुत कुछ कर सकते हैं जिससे हमारे व्यक्तिगत हितों कि पूर्ति हो और काफी हद तक हर स्तर पर यह हो भी रहा है , और ना जाने कब तक होता रहेगा .
होना तो हमें "आजाद" था ..लड़ी तो हमने आजादी की लड़ाई थी . लेकिन आज तक हम आजादी की तरफ कदम नहीं बढ़ा पाए , हम सोच ही नहीं पाए कि हमें उन्मुक्त जीवन जीना है  जिस "वसुधैव कुटुम्बकम" की बात यहाँ की जाती थी उसे साकार करना है . लेकिन अफ़सोस होता है मुझे, हम आज तक उस दिशा में बढ़ ही नहीं पाए हमने कभी प्रयास ही नहीं किया . बस एक राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गयी , हम  संतुष्ट हो गए और उस राजनीतिक स्वतंत्रता का लाभ आखिर किसे मिला यह आज हमारे सामने है . आजादी तो दूर रह गयी हमसे उसकी तरफ हमने  सोचा ही नहीं . अगर आज हम आजाद होते तो सामने वाले व्यक्ति का चेहरा हमें विद्रूप नहीं लगता , हम अपने घरों के सामने इतनी बड़ी दीवारें खड़ी नहीं करते , सरहदों  पर यह खून खराबा नहीं होता ........!
शेष अगले अंक में ......!

09 अगस्त 2011

चिंतन : मौलिकता , सार्थकता

62 टिप्‍पणियां:

जीवन और साहित्य एक दूसरे  के पर्याय हैं . जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है जिसे साहित्य में स्थान नहीं दिया गया हो , दूसरे  शब्दों में यह भी  ही कह सकते हैं कि जीवन ही साहित्य है और साहित्य ही जीवन . यहाँ "साहित्य" शब्द को व्यापक अर्थों में ग्रहण करने की जरूरत है , साहित्य मतलब ...सभी का हित , जब हम सभी के हित को सामने रखकर किसी लक्ष्य की तरह बढ़ते  हैं तो उन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हमारे पास एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस होती है . जितना -जितना हमारा दृष्टिकोण व्यापक होगा उतनी हमारी  सफलता सुनिश्चित हो जाती है . इस व्यापक दृष्टिकोण  को बनाये रखने के लिए हमें सतत चिंतन की महती आवश्यकता होती है . चिंतन से हमारा अभिप्राय किसी लक्ष्य के उस पक्ष से है  जहाँ हम अपने मंतव्य को हासिल करने के लिए उस विचार के हर पक्ष पर गहराई से चिंतन  करते हैं जिससे  हमारा  लक्ष्य सिद्ध होता है .
लेकिन जहाँ तक चिंतन की बात है वह एक व्यापक परिभाषा की अपेक्षा रखता है और उसमें समाहित होने वाली चीजें जीवन का सार हैं . हम यह भी कह सकते हैं कि जड़ और चेतन , आत्मा और परमात्मा , सीमित और असीमित , राग और वैराग , संभोग और समाधि, क्रिया और प्रतिक्रिया सब चिंतन का हिस्सा हैं और यह जिस भी रूप में आज हमारे सामने हैं सब चिंतन  का परिणाम हैं . वेदों से लेकर आज तक चिंतन के कई आयाम हमारे सामने उपस्थित हुए हैं . सब में जीवन को विशद रूप से अभिव्यंजित करने का प्रयास किया गया . लेकिन जीवन और सृष्टि  आज भी हमारे सामने एक रहस्य बने हुए हैं . आत्मा - परमात्मा पर तो बहुत गहराई  से विचार किया गया , लेकिन आज भी किसी एक निष्कर्ष पर पहुचना संभव नहीं हुआ है . हम तथ्यात्मक रूप  से अब भी कुछ नहीं कह सकते लेकिन विचार और चिंतन जरुर कर सकते हैं और उसी कड़ी को आज भी कई चिंतन शील व्यक्ति आगे बढ़ा रहे हैं और किसी हद तक यह सही भी लगता है . जब हजारों लाखों की भीड़ उनके सामने नजर आती है और उनके कहे वचनों पर झूमती है और झुमने के बाद उस आनन्द को अपने साथ ले जाने की अपेक्षा वहीँ  पर छोड़ देती है और फिर उस वातावरण से बाहर  निकलने के बाद इस मायावी संसार में रम जाती है और फिर हालात आज हमारे सामने हैं जिन्हें अभिव्यक्त करने की जरुरत नहीं .
चिंतन के भी कई आयाम हैं , स्वर्ग से  नरक तक , धर्म  से  आध्यात्म तक , जन्म से  मृत्यु तक , राम से  रावण तक , कृष्ण से कंस तक , राजा से रंक तक , ज्ञानी से अज्ञानी तक ना जाने कितने , लेकिन सभी का मंतव्य किसी निष्कर्ष तक पहुंचना है और यह सिद्ध करना है कि आखिर वास्तविकता क्या है लेकिन वास्तविकता तक पहुंचना इतना आसान भी नहीं और इतना कठिन भी नहीं . बस जरुरत है अपने मंतव्य को सामने रखकर उस पर चिंतन करने की. जब हम खुद के अस्तित्व को तलाशते हैं तो हमें क्या नजर आता है , बस वहीँ से चिंतन शुरू हो जाता और एक तलाश भी और एक दृढ कदम अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ने का . जीवन हो या सृष्टि सभी का मूल , सभी की गति अपने लक्ष्य की तरफ है यह बात अलग है कि किसी के सामने वह लक्ष्य रहता  है और किसी के सामने नहीं, लेकिन वह घटित जरुर होता है उसे घटित होने से कोई नहीं रोक सकता, वह होकर रहेगा यह अकाट्य सच्चाई है . जिसने उसे नजर अंदाज कर दिया वह भटक गया और जिसने उसे महसूस कर लिया वह संवर गया . उसने जीवन का लाभ ले लिया वह अपने जीवन को सफल कर गया  उसने बैकुंठ को पा लिया , परमधाम को पा लिया वह कालातीत को गया , लेकिन जिसने उस लक्ष्य को भुला दिया वह रहा ही नहीं जीवन में भटकता रहा और जीवन के बाद भी .
चिन्तनशील हमेशा कोशिश करता है सभी का हित साधने की उसका लक्ष्य बड़ा है अपने जीवन और सुख सुविधाओं से बड़ा , वह अपने चिंतन को सिद्ध करने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिए तैयार है बस यही अहसास उसे होना चाहिए कि उसके  प्राणोत्सर्ग  से उसका लक्ष्य सिद्ध हो रहा है तो उसे कोई कठनाई नहीं यह चिंतन की पराकाष्ठा कही जानी चाहिए और ऐसा चिन्तक विरला ही होता है . जिस समाज और देश में ऐसे चिन्तक हैं वहां किसी चीज की कोई कमी नहीं . जीवन से जुडी जितनी भी चीजें सब उनके पास उपलब्ध हैं और वह भौतिक रूप बेशक संपन्न नहीं हैं लेकिन आत्मसंतुष्टि का भाव उनमें  किसी भौतिक रूप से संपन्न व्यक्ति से कहीं जयादा है , यह चिंतन का प्रतिफल कि हर परिस्थिति में जीवन को जीवन बनाये रखना और खुद को इंसान .
लेकिन आज जब नजर दौड़ाकर देखता हूँ तो हर तरफ अँधेरा ही नजर आता है , हालाँकि भौतिक चकाचौंध के साधनों का विस्तार निरंतर हो रहा है और इंसान का जीवन काफी हद तक  सुगम बन गया है उसने जितने साधनों का विकास किया है उससे उसके जीवन में एक क्रांति आ गयी है , लेकिन अफ़सोस ......इंसान इतना संकीर्ण हो गया है कि उसके दिल में किसी के लिए जगह नहीं , किसी के लिए प्यार नहीं , किसी के लिए सम्मान नहीं उसके सामने हैं तो बस अपनी भौतिक उन्नति अपनी सुख सुविधा के साधनों का एकत्रण और वह भी बिना किसी लक्ष्य के . वह दौड़ रहा है एक अनिश्चित लक्ष्य की तरफ और इस दौड़ में उसे सार्थक - निरर्थक  जो कुछ भी मिल रहा है उसे अपना रहा है और यह भूल गया है कि उसकी इच्छाओं कि दौड़ अनंत  हो सकती है लेकिन जीवन की एक सीमा है " तृष्णा न जीर्ण : , वयमेव जीर्ण : " लेकिन यहाँ ख्याल कहाँ उसके सामने तो कुछ और ही है . बस यहीं पर आकर लगता है कि हमारा चिंतन किसी काम का नहीं . हम आगे ही नही बढ़  पाए बल्कि पीछे हट रहे हैं , जो मानवीय मूल्य हमारे सामने थे वह आज कहाँ गए . जो चिंतन हमारे सामने था वह कहाँ  गया . आज जब कोई खुद को बड़ा चिन्तक साबित करना चाहता है तो वह पुरातन धर्म ग्रंथों या साहित्य की व्याख्या कर देता है और जरुरी नहीं  उसकी वह व्याख्या देश काल और परिस्थिति के अनुसार सही हो . लेकिन फिर भी हम ध्यान नहीं देते . हाँ यह बात जरुर हो सकती है कि हम कुछ अच्छी चीजें वहां से सीख सकते हैं , अनुकरण कर सकते हैं  अन्धानुकरण नहीं . लेकिन हमारा  अपना तो कोई दृष्टिकोण नहीं होता इसलिए अनुकरण करने की बजाय अन्धानुकरण कर बैठते हैं , और जब ऐसा करते हैं तो फिर कहाँ हमारा चिंतन , कहाँ हमारा दृष्टिकोण . सब शून्य हो जाता है .

02 अगस्त 2011

सृजन और समाज

48 टिप्‍पणियां:
मानव अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए चिरकाल से नए-नए माध्यमों को अपनाता रहा है. सृष्टि के प्रारम्भिक दिनों में ही उसे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ साधनों की तलाश करनी पड़ी होगी. जिनमें से भाषा का विकास और उसे भावनाओं से जोड़ने का उसका प्रयत्न पहला कार्य रहा होगा. भाषा को स्थायी  रूप देने के लिए उसे लिपि की आवश्यकता महसूस हुई और लिपि को सुरक्षित रखने और उसके प्रचार के लिए उसे साहित्य की आवश्यकता महसूस हुई होगी. यह क्रम रहा होगा इनसान की भाषा, लिपि और साहित्य के विकास का. लेकिन समय सदा एक सा नहीं रहता उसमें परिवर्तन आने लाजमी हैं और यह प्रकृति का नियम भी है. जब तक कुछ परिवर्तित नहीं होता तब तक कुछ नया भी नहीं आता, और जब कुछ नया आता  है तो उससे मानव के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है. चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, लेकिन प्रभाव का पड़ना लाजमी है. हालाँकि हमारा भाषा विज्ञान और व्याकरण इस विषय में तथ्यपरक जानकारी उपलब्ध करवाते हैं, लेकिन किसी एक मत तक वह भी नहीं पहुँच पाते और जहाँ तक मुझे लगता है किसी एक मत तक पहुंचना सम्भव भी नहीं है. लेकिन सृजन का यह क्रम अनवरत रूप से जारी है, यह संतोष की बात है. आज भी हम सृजन के नए-नए  आयामों को सामने लाते हैं, और उन्हें समाज के लिए उपयोगी बनाने का प्रयत्न करते हैं. सृजन के मूल में मानवीय पहलु अधिक रहा है. तभी तो सृजन के मायने बहुत अधिक हैं और सर्जक के भी. अगर सृजन नहीं होगा तो सर्जक कैसा और सर्जक नहीं होगा तो सृजन कैसा? दोनों का एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं. इसलिए जब कोई व्यक्ति सृजन करता है तो वह मात्र अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त ही नहीं करता, बल्कि उसके सृजन के दायरे में सम्पूर्ण मानव होता है. क्योँकि सर्जक भी उस समाज का अंग होता है जिस समाज के लिए वह साहित्य रच रहा है, किसी नयी वस्तु का अविष्कार  कर रहा है.
सृजन का एक पहलू यह भी है कि हम कितने उदात भावों  को लेकर सृजन कर्म में रत हैं. भावों की उदातता रचनाकार के संवेदना पक्ष से सम्बन्धित है. जिस रचनाकार की संवेदना जितनी गहरी होगी उसका रचनाकर्म उतना ही मार्मिक और समाजोपयोगी होगा. सृष्टि के प्रारम्भ से ही मानव अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के माध्यमों की तलाश करता रहा है, और इस दिशा में उसने काफी प्रगति भी की है. चाहे कला हो या साहित्य इन दोनों माध्यमों से उसने अपनी संवेदनाओं को समाज की संवेदनाओं के साथ जोड़ने की भरपूर कोशिश की है. और काफी हद तक उसे सफलता प्राप्त भी हुई है. मानव विकास के चरम सोपान तक बेशक पहुच गया है, लेकिन जहाँ तक सृजन की बात है उसे इस दिशा में अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है. आज भी मानव मन की कई ऐसी भावनाएं हैं जिन्हें शब्द नहीं दिए जा सके हैं, कुछ ऐसे अनुभव हैं जिन्हें शब्दबद्ध नहीं किया जा सका है, और उन्हें हम सिर्फ संकेत मात्र से किसी व्यक्ति या समाज तक पहुँचाने का कार्य करते हैं. हमारे अंतर्मन में चलने वाली हलचल और उससे होने वाले अनुभव कहाँ पूरी तरह से अभिव्यक्त हो पाते हैं. लेकिन फिर भी जो कुछ भी आज सृजन के रूप में हमारे सामने हैं वह काफी हद तक संतोषजनक हैं और हम अपनी अभिव्यक्ति की क्षमता को बढ़ाने का निरन्तर प्रयास कर भी रहे हैं.
सृजन मानव जीवन का महत्वपूर्ण कर्म है. हालाँकि हमारे धर्म ग्रन्थ यह मानते हैं कि इस सृष्टि का सृजन परमात्मा ने किया है. यह बात तो सही है और उसने सृजन के इतने आयाम हमारे सामने रखें हैं कि हम उसकी सृजन शक्ति और कला की विविधता को देखकर दांतों तले अंगुली दबाने  को मजबूर हो जाते हैं, और काफी हद तक हमने सृजन को इस प्रकृति से ही सीखा है. दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि सृजन की मूल प्रेरणा प्रकृति है और हम उसका अनुकरण करते हैं. पाश्चात्य विचारक प्लूटो ने सृजन पर विचार करते हुए लिखा है कि "सृजन प्रकृति का हुबहू अनुकरण है". लेकिन उनकी इस बात को उनके शिष्य अरस्तु नकार देते हैं वह कहते हैं कि हम सृजन करते वक़्त किसी चीज का हुबहू अनुकरण नहीं कर सकते, बस उसकी अनुकृति बनाने का प्रयास करते हैं . यहाँ पर अगर हम देखें तो प्लूटो और अरस्तु के शब्द बेशक अलग-अलग हों, लेकिन अनुकरण शब्द यह प्रमाणित करता है कि हम सृजन के लिए प्रकृति का अनुकरण करते हैं. लेकिन किसी भी परिस्थिति में हुबहू अनुकरण नहीं कर सकते. अगर हम प्रकृति का हुबहू अनुकरण नहीं कर सकते तो फिर हम कहाँ अपनी भावनाओं को जैसे हमने महसूस की हैं वैसे ही अभिव्यक्त भी कर सकते हैं. तभी तो वेद भी ईश्वर को "नेति-नेति" कहता है.
हालाँकि सृजन के मूल में व्यक्ति की  भावनाएं हैं, लेकिन जब तक भावनाएं व्यक्ति सापेक्ष और समाज निरपेक्ष बनी रहती हैं तो सृजन का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता. सृजन का उद्देश्य है समाज को दिशा देना, समाज के लिए वह करना जिससे व्यक्ति की सोच और समझ का स्तर बढ़ पाए और वह मानवीय जीवन मूल्यों को पहचान कर अपने हित का कार्य कर सके. सृजन और समाज का गहरा नाता है. सृजनकर्ता समाज का जिम्मेवार व्यक्ति है उसके जीवन दर्शन और कर्म का प्रभाव व्यक्ति के जीवन को गहरे तक प्रभावित करता है. इसलिए सर्जक को बहुत सम्भल कर कार्य करना होता है, उसे एक-एक शब्द गहरे से सोच समझ कर कहना होता है और उसका कहा हुआ शब्द अगर उसके कर्म में उतरा है तो निश्चित रूप से वह कालजयी है वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा है, और ऐसी स्थिति में सर्जक समाज के लिए पथप्रदर्शक बन जाता है.