31 जनवरी 2014

आत्महत्या पर आत्मचिन्तन...3

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अक्सर जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे हम कहते हैं कि उसने देह त्याग दी. लेकिन यह सच नहीं है, देह का साथ आत्मा छोड़ देती है और शरीर निर्जीव हो जाता है, उसकी सारी इन्द्रियाँ काम करना बंद कर देती हैं और ऐसी स्थिति में हम उस शरीर को निर्जीव कह देते हैं, जो कि स्वाभाविक भी है. लेकिन किसी भी स्थिति में उसे देह त्याग नहीं कह सकते. गतांक से आगे .....!!! 

देह त्याग का सीधा सा मतलब यह भी है कि हम उसे अपनी इच्छा से त्यागें, उसे अपनी इच्छा से छोड़ें. लेकिन क्या हम उसके बाद की स्थितियों को समझते हैं कि इस देह को छोड़ने के बाद मेरी स्थिति क्या होगी, मुझे कहाँ जाना है, इस शरीर को छोड़ने के बाद मेरी हालत क्या होगी, जिस शरीर को छोड़ा या त्यागा जा रहा है उसमें निहित जीव तत्व का क्या होगा? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो अभी तक हमारे सामने खड़े हैं. हालाँकि हमारे देश और पूरे विश्व में बहुत प्राचीन समय से इन प्रश्नों के उत्तरों की खोज की जाती रही है, लेकिन अभी तक हम किसी एक निष्कर्ष तक नहीं पहुँच पाए हैं और संभवतः किसी एक निष्कर्ष तक पहुंचना मुश्किल भी है. दुनिया के तमाम दार्शनिकों, अध्यात्मिक व्यक्तियों, गुरुओं, पीर-पैगम्बरों के विचारों और अनुभवों पर जब हम गहराई और सापेक्ष दृष्टि से चिन्तन करते हैं तो सबके विचारों का निष्कर्ष यह निकलता है कि जिस जीव की स्वाभाविक मृत्यु होती है, तो वह अपने कर्मों के अनुसार नया जीवन धारण करता है और जो जीव अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है तो वह तब तक कोई नया शरीर धारण नहीं कर सकता जब तक कि उस विशेष शरीर में उसके होने का समय पूरा न हो. अकालमृत्यु की स्थिति में “जीव” या आत्मा शरीर को छोड़ तो देती है, लेकिन वह तब तक भटकती रहती है जब तक कि उसका समय पूरा न हो, उस शरीर का समय पूरा होने के पश्चात वह जीव भी अपने कर्मों के अनुसार किसी नए शरीर में प्रवेश करता है और यह क्रम निरंतर चलता रहता है. 

‘कालमृत्यु’ और ‘अकालमृत्यु’ में भेद है. अगर हम सतही दृष्टिकोण से विचार करते हैं तो सभी प्रकार की मृत्युओं को हम ‘मृत्यु’ कह सकते हैं और कहते भी हैं. अगर हम काल मृत्यु पर ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि काल को पूर्ण किये बिना मृत्यु हो ही नहीं सकती. परन्तु यह बहुत ही सूक्ष्म और अति उच्च दृष्टि की बात है, लेकिन स्थूल दृष्टि से कालमृत्यु और अकालमृत्यु में सर्वत्र भेद स्वीकार किया जाता है. इसके अनेक कारण भी हैं. बौद्ध धर्म ग्रंथों को जब हम देखते हैं तो पाते हैं कि वहां पर मृत्यु के चार कारण स्वीकार किये गए हैं. इनमें पहला कारण है आयुक्षय, दूसरा है कर्मक्षय, तीसरा है आयु और कर्म दोनों का क्षय और चौथा कारण है उपच्छेदक कर्म. इन सब में पहले कारण आयुक्षय पर जब हम विचार करते हैं तो पाते हैं कि जीव की अपने स्तर की दीर्घतम आयु के परिणाम की आयु अतिक्रांत हो चुकी है, और इसी कारण उसकी मृत्यु हुई है. इससे यह बात स्पष्ट होती है कि दीर्घतम आयु ही पूर्ण आयु के रूप में मानी जाती है. परन्तु यदि जनक कर्म से संजात शक्ति के हासवश देहपात होता है तो इसे हम कर्मक्षय के कारण हुई मृत्यु मान सकते हैं. परन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्योचित दीर्घतम आयु और जनक कर्म-संजात शक्ति का परिणाम एक ही होता है. इस कारण ऐसी अवस्था में कहा जाएगा कि एक साथ दोनों कारणों के संयोग से मृत्यु हुई और इसे हम आयु और कर्म दोनों का एक साथ क्षय होना मान सकते हैं और इसी कारण हुई मृत्यु को हम मृत्यु का तीसरा कारण स्वीकार करते हैं. लेकिन कभी-कभी आयु और कर्मशक्ति के रहते  हुए भी विरुद्ध शक्ति के प्रभाव से देहपात होता है तो उसे हम उपच्छेदक कर्म का फल कहते हैं और इसी को साधारणतः ‘अकालमृत्यु’ कहा जाता है. प्राचीन आचार्यों ने इसे अकाल मृत्यु की अपेक्षा ‘उपच्छेदक मृत्यु’ कहा है, और यह जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है और इसे हम जीव के लिए और खासकर मनुष्य के घोर निराशा, अन्धकार और पतन का समय कह सकते हैं. क्योँकि मनुष्य को इस धरती के जितने भी जीव हैं उनमें से सर्वश्रेष्ठ माना गया है.
 
इस विषय में जितना चिन्तन आज तक किया गया है उसका एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि जीव की
लगभग 84 लाख योनियाँ हैं और इन सब में मनुष्य योनि को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता के पीछे कई कारण हैं, एक तो यह पूरे पांच तत्वों के मिश्रण से बना है, दूसरी इसमें चेतना चरम स्तर की है, तीसरा कारण यह भी माना जा सकता है कि इसे ईश्वर प्रदत बुद्धि को अपने तरीके से प्रयोग करने की शक्ति प्राप्त है इसलिए मनुष्य को कर्म योनि भी कहा जाता है, और इस मनुष्य के सर्वश्रेष्ठ होने का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण यह भी हैं कि इस शरीर के माध्यम से वह ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, अपनी चेतना (जिसे हम आत्मा भी कहते हैं) को परमात्मा के साथ साक्षात्कार करके जीवन मरण के चक्कर से मुक्त हो सकता है और यही इस जीवन का ध्येय भी है. यजुर्वेद में मनुष्य जीवन और उसके उद्देश्य की व्याख्या इस प्रकार की गयी है :- “अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता/गोभाजऽइत् किलासाथ यत् सनवथ पुरुषम्. (12/76) अर्थात हे जीव तेरा कल रहे न रहे, ऐसे शरीर में निवास है और तुम्हारा कमल के पत्ते पर पानी की बूंद के समान संसार में निवास है. अतः तू शीघ्र ही परमेश्वर को प्राप्त करके मोक्ष के सुख को प्राप्त हो, और यदि विषय-विकार के विरुद्ध होकर सब कामनाओं का नाश का करने की वृति जीव के मन में आ जाये, तब जीव वेद एवं योगसाधना गृहाश्रम में ही करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करके अमर हो जाता है तथा ब्रह्मानन्द का सुख भोगता है. 

जीवन, मृत्यु और उसके विभिन्न पक्षों पर अनके प्रकार से विचार किया जा सकता है, हालाँकि इस विषय पर अभी और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन फिर किसी सन्दर्भ में इसकी चर्चा करेंगे. यह विषय अनन्त है और अति गूढ़ और आनंदायक भी, लेकिन हर क्षेत्र की एक सीमा भी होती है, उसकी अनुपालना भी जरुरी है. लेकिन निष्कर्ष के रूप में इतना कहा जा सकता है कि मनुष्य जीवन अति महत्वपूर्ण है, यह कर्म योनि है और इसे हमें यूं ही नहीं गवाना चाहिए. जीवन में कई अवसर आते हैं जब हमें ऐसा महसूस होता है कि अब सब कुछ समाप्त हो गया और इस जीवन को जीना अब बेकार है, लेकिन हम थोड़ा ऊपर उठकर देखें, थोड़ा चिन्तन करके देखें अपने आस-पास नजर दौड़ाकर देखें तो पता चल जाएगा कि जीवन क्या है, मैंने अक्सर शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को समझने की कोशिश करता हूँ, उनको बहुत करीब से देखने की कोशिश करता हूँ तो मुझे यह समझ आता है कि ऐसे व्यक्तियों में किसी एक दिशा में बढ़ने की क्षमता सामान्य व्यक्तियों से अधिक होती है और इनमें जिजीविषा का स्तर भी सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है, जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का किसी भी स्तर पर कोई भी अभाव नहीं होता. तो फिर हम क्योँ नहीं आकलन करते अपना और क्योँ नहीं समझते अपने जीवन की महता. बहुत गहरे में उतर कर देखते हैं तो यह भी पाया जाता है कि आत्महत्या के कारण भी बहुत छोटे और नगण्य होते हैं. कारण कुछ भी हो जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान यह नहीं है, और आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है यह सिर्फ हमारे लिए मनुष्य के पतन का कारण है, हमारी न समझी का प्रतिफल है....!!!

27 जनवरी 2014

आत्महत्या पर आत्मचिन्तन...2

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हालाँकि जहाँ तक आत्मा की बात है उस विषय में हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह ही सम्पूर्ण ब्रह्मंड में फ़ैली चेतना का ही एक रूप है. गतांक से आगे ....!!! 

यह आत्मा इस चेतन सत्ता का ही प्रतिरूप है, दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं कि यह आत्मा इस
पांच तत्व
परमसत्ता का ही एक अंश है और यह विभिन्न योनियों के माध्यम से क्रियाशील है. मनुस्मृति के बाहरवें अध्याय में इस बात को यूं स्पष्ट किया गया है : “आत्मैव देवता: सर्वा: सर्व मात्मन्यवस्थितम्/आत्मा ही जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम्”. (120/12/481) अर्थात समस्त देवता आत्मा में ही हैं, सब कुछ आत्मा में ही स्थित हैं. आत्मा ही शरीरधारी जीवों को कर्मयोग द्वारा उत्पन्न करता है. इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती हैं कि जो कुछ भी क्रियाशील है उसमें आत्मा की सत्ता निश्चित रूप से विद्यमान है, और यही आत्मा “एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभि:/ जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्” (मनुस्मृति :125/12/481) पंचमहाभूतों के रूप में सभी जीवों के शरीरों में रहते हुए जन्म, विकास और क्षरण की क्रियाओं द्वारा संसार को चक्रवत् निरंतर घुमाता रहता है. यहाँ एक बात और भी स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि इस पूरी सृष्टि का निर्माण पांच (आकाश, वायु, जल, पृथ्वी) तत्वों से हुआ है. सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया और इसके विभिन्न रूपों के निर्माण में यह पांच तत्व महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब भी किसी सत्ता का निर्माण होता है तो वह इन तत्वों के द्वारा ही होता है, और जब भी कोई सत्ता रूप बदलती है (जिसे हम मृत्यु कहते है) तो वह भी इन्हीं पांच तत्वों में समा जाती है. हालाँकि इसे हम प्रकृति कहते हैं, लेकिन चेतना के कारण यह प्रकृति भी हमें चेतन प्रतीत होती है. फिर भी इस चेतन सत्ता को हम अन्तर्यामी नहीं कह सकते. बेशक यह परमात्मा का ही अंश है. इस सन्दर्भ में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि “ आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:/आश्चर्यवच्चैनमन्य: शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेड न चैव कश्चित्”. (29/02/78) अर्थात कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, तथा कोई-कोई इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाते. इसलिए यह आत्मा और परमात्मा दोनों कभी-कभी बहुत गूढ़ लगते हैं और कभी-कभी आत्मा को ही परमात्मा मान लिया जाता है. लेकिन दोनों बेशक एक दूसरे के पूरक हैं, फिर भी दोनों की सत्ता अलग है. वेदान्त दर्शन में इसे इस तरह बताया गया है : “शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते”. (1/2/20/42) अर्थात शरीर में रहने वाला जीवात्मा भी अन्तर्यामी नहीं है, लेकिन वह इस परमसत्ता का अंश है, इसलिए वह इस शरीर (इस शरीर से सीधा सा तात्पर्य है : मनुष्य शरीर) में रहते हुए इस सत्ता के गुणों को धारण कर सकता है. 

इससे यह बात सिद्ध होती है कि आत्मा रूपी सत्ता, परमात्मा का अंश होने के कारण उसकी विशेषताओं से पूरी तरह सराबोर रहती है. लेकिन फिर क्योँ किसी के देह त्यागने के बाद उसे मृत कहा जाता है? यह बहुत गम्भीर प्रश्न है. जबकि सभी धर्मग्रन्थ इस बात को स्वीकार करते हैं कि देह की सत्ता नश्वर है, आत्मा की नहीं. ऐसी स्थिति में  जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं, उस पर विचार करना आवश्यक हो जाता है और क्या मृत्यु के बाद फिर जीवन होता है, यह भी गम्भीर विषय है. लेकिन गीता में इस बात का स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि आत्मा सिर्फ शरीर बदलती है : “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्वति नरोऽपराणि/तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही”. (22/02/72) अर्थात जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों तो त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है. नए भौतिक शरीरों के धारण करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा जब किसी शरीर को छोडती है तो उसके बाद उसे फिर एक नया शरीर मिलता है और उस शरीर के मिलने में उसके कर्म की भूमिका बहुत बड़ी होती है. इसलिए हम यह कह सकते हैं कि ‘परलोक’ और ‘पुनर्जन्म’ का माध्यम मृत्यु है. एक लोक के रस से संचित विलक्षण शरीर-इन्द्रिय आदि का त्याग मृत्यु है और अन्य लोक में संचित विलक्षण शरीर-इन्द्रिय आदि का ग्रहण ‘पुनर्जन्म’ है, और यह प्रक्रिया निरंतर जारी है. कठ, मैत्रायणी और कपिष्ठल आदि वेद की शाखाओं में एक सौ एक मृत्युओं का उल्लेख है. इनमें इन्द्रिय, वध, रोग, शोक और काम-क्रोध आदि सौ मृत्युएं हैं. लेकिन मृत्यु के इन सब कारणों से बचा जा सकता है. इसका समाधान चिकित्सा है, परन्तु उच्छेद रूप में एक मृत्यु का कोई समाधान नहीं है, जिसे हम स्वाभाविक मृत्यु या देह त्याग कहते हैं. देह त्याग के अनन्तर लोकान्तर में संचार को ‘गति’ कहते हैं. इस प्रकार आत्मा विभिन्न शरीरों में निरंतर विचरण करती रहती है और उन शरीरों के माध्यम से निरंतर कार्य करती रहती है.

तो यहाँ यह प्रश्न स्वाभविक रूप से पैदा होता है कि अगर आत्मा निरंतर शरीर ही धारण करती रहती है तो
फिर इन शरीरों के बन्धन से कैसे मुक्त हो सकती है, इन शरीरों से स्वतन्त्र होने का कोई उपाय है भी या नहीं? अगर है तो क्या है? और अगर नहीं है तो क्योँ नहीं? क्योँकि जब हम आत्महत्या यह सोच कर कर रहे हैं कि हमें इस शरीर से छुटकारा मिल जाएगा तो फिर हम गलत राह पर हैं, क्योँकि यह बात भी यहाँ पर कई बार कही जाती है कि आत्मा का किसी शरीर में रहना निश्चित है. अगर वह किसी भी तरह से उससे पहले उस शरीर से अलग होती है तो वह भटकती रहती है और फिर उस अवधि के पूर्ण होने के बाद वह अपने कर्मों के अनुसार एक नया शरीर धारण करती है. कठोपनिषद् में इस बात पर यूं प्रकाश डाला गया है “योनिमन्य प्रपद्यन्ते शरीरतवाय देहिन:/ स्थाणुमन्येऽसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्”. (2/2/7) अर्थात अपने ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्वभाव को प्राप्त हो जाते हैं. लेकिन जब तक आत्मा शरीरों के बंधन में है तब तक वह कष्ट भोगती रहती है और वह निरंतर जन्म मरण की प्रक्रिया का हिस्सा बनती रहती है. अगर उसे इस जन्म मरण की प्रक्रिया से छुटकारा पाना है तो उसे निश्चित रूप से अपने निज रूप को जानना होगा, जिस सत्ता से वह अलग हुई है उस सता की जानकारी हासिल करनी होगी और फिर शरीर से मुक्त होने के बाद वह सीधे ही अपने निज रूप में मिल जायेगी और जन्म मरण के चक्कर से रहित हो जायेगी. “इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीररस्य विस्त्रसः/ तत: सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते”. (2/3/4) यदि इस देह में (मनुष्य शरीर) इसके पतन से पूर्व ही (ब्रह्म को) जान सका, तब तो यह बंधन से मुक्त हो जाता है. यदि नहीं जान पाया तो इन जन्म-मरण शील लोकों में वह शरीर भाव प्राप्त होने में विवश हो जाता है और यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. इसकी अभिव्यक्ति कई बार व्यक्तियों ने अपने शब्दों में की है. Walt Whitman ने इस सन्दर्भ में लिखा है: “As to you, life, I reckon you are the leavings of many deaths./ No doubt I have died myself ten thousand times before”. जीवन तुम मेरे अनेक अवसानों के अवशेष हो. इसमें कोई सन्देश नहीं कि मैं इसके पूर्व दस हजार बार मर चुका हूँ. लेकिन इस दस हजार के जन्म और मरण से मुक्ति ब्रह्म को जानने से पायी जा सकती है. 
 
जहाँ तक मृत्यु और देह त्याग का सम्बन्ध है उसके विषय में अनेक मत प्रचलन में है. लेकिन यहाँ यह बात समझ लेनी चाहिए कि मृत्यु और देह त्याग दोनों अलग-अलग है. ‘त्याग’ शब्द हमें इस बात का अहसास करवाता है कि जो कुछ भी हमारे पास है उसे हम छोड़ दें या किसी दूसरे को दे दें. लेकिन शरीर के विषय में हम ऐसा कैसे कर सकते हैं. जिस शरीर के लिए हम इतना कुछ कर रहे हैं उसे हम कैसे त्यागें, यह बड़ा विचारणीय प्रश्न है. अक्सर जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसे हम कहते हैं कि उसने देह त्याग दी. लेकिन यह सच नहीं है, देह का साथ आत्मा छोड़ देती है और शरीर निर्जीव हो जाता है, उसकी सारी इन्द्रियाँ काम करना बंद कर देती हैं और ऐसी स्थिति में हम उस शरीर को निर्जीव कह देते हैं, जो कि स्वाभाविक भी है. लेकिन किसी भी स्थिति में उसे देह त्याग नहीं कह सकते. शेष अगले अंक में ....!!!

23 जनवरी 2014

आत्महत्या पर आत्मचिन्तन...1

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इस धरा पर ही नहीं सम्पूर्ण ब्रहामंड में जो कुछ भी है यह सब मिटने वाला है. जो भी पैदा हुआ है या निर्मित हुआ है उसे एक दिन अपने वास्तविक स्वरूप में आना ही है. जिन तत्वों से उसका निर्माण हुआ है उन तत्वों को एक दिन निश्चित रूप से अपने स्वरूप में लौटना ही है, इसलिए यह कहा जाता है कि ‘जो कुछ दिसे सगल विनासे, ज्यौं बदल की छाहीं’. जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, यह सब कुछ बादलों की छाया के सामान है और इसे एक दिन बदलना ही है, यहाँ हम मिटना नहीं कह सकते, क्योँकि विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि ‘पदार्थ न तो पैदा किया जा सकता है और न ही उसे समाप्त किया जा सकता है’. ऐसे में एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि जिसे हम समाप्त होना कह रहे हैं, क्या वास्तव में ऐसा होता है? लेकिन जब हम बहुत गहराई से विश्लेषण करते हैं तो तब हम पाते हैं कि जिन तत्वों से कोई भी स्वरूप निर्मित हुआ है और जिस तत्व से उस स्वरूप को चेतना मिली है वह दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं, एक जड़ है, एक चेतन, एक दृश्य है, एक अदृश्य, एक का स्वरूप बदलने वाला है, और दूसरा नित्य, एक प्रकृति का अंश है और एक परमात्मा का, एक को हम शरीर कहते हैं और दूसरे को आत्मा, एक की सीमा है और दूसरा असीमित, एक की सता बदलने वाली है और दूसरे की सता नित्य है. इस तरह से इन दोनों को हम जड़ और चेतन कह देते हैं. जहाँ तक प्रकृति का सम्बन्ध है वह भी उसी चेतन सत्ता से निर्मित हुई है, इसलिए उसमें भी कई बार चेतना पैदा करने के प्रयास हुए हैं. हमारे ऋषि मुनियों ने इस विषय पर व्यापक शोध किया है और उनके निष्कर्ष बहुत चौंकाने वाले हैं, हालाँकि आज के दौर में हम उनके निष्कर्षों को तरजीह नहीं देते, लेकिन एक बात तो सत्य है और आज का विज्ञान भी इस बात पर विचार कर रहा है कि ‘अगर पदार्थ में चेनता पैदा कर दी जाये तो मनचाहे परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं’. हमारे शास्त्रों में इस विषय में बहुत गहराई से विवेचन किया गया है और वह विवेचन काफी हद तक प्रमाणिक भी है और वैज्ञानिक भी. पदार्थ और उसकी सता के विषय में बहुत गहराई से विवेचन करने की जरूरत है, लेकिन यहाँ सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जो कुछ भी हमें विभिन्न स्वरूपों में दिखाई दे रहा है वह सब पदार्थ ही है, और उसमें जो चेतना है उसके आदि स्रोत के कारण है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं.  
 
हमारे ऋषि-मुनियों ने, अनुसंधानकर्ताओं ने आत्मा और परमात्मा के विषय में कई तरह से विचार किया है. कहीं पर ज्ञान के माध्यम से, कहीं पर कर्म के माध्यम से और कहीं भक्ति के माध्यम से, योग जैसी विधा भी इसी चिन्तन का हिस्सा है, और फिर इन सब के अनेक आयाम हैं, अनेक विचार हैं और इन सबको क्रियात्मक रूप में लाने के अनेक तरीके भी हैं, लेकिन जहाँ तक निष्कर्षों की बात है तो वह लगभग एक जैसे ही हैं. वह यह कि जो कुछ भी निर्मित हुआ है वह एक दिन अपने वास्तविक स्वरूप में मिलेगा ही, और फिर वहीं से नव निर्माण होगा. भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इस विषय में समझाते हुए कहते हैं कि : देहिनो स्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा/ तथा देहान्तरप्रप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति. (2/13/64) जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में वाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है. लेकिन धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता. यहाँ पर यह बार ध्यान देने योग्य है कि किसी भी जीव की आत्मा जिसे हम चेतना भी कह सकते हैं, जब किसी शरीर को छोडती है तो वह तत्काल ही किसी दूसरे शरीर को धारण करती है, और इसके विषय में यह मत प्रचलित है कि कोई भी आत्मा जब स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होती है तो उस स्थिति में उसके कर्मों के अनुसार उसे नया जीवन मिलता है. 

जीवन और मृत्यु शब्दों पर अगर विचार करें तो यह दोनों शब्द संस्कृत भाषा के हैं और दोनों परस्पर
विरोधी भी हैं. एक सुख और सकून का कारण है, तो दूसरा कहीं पर दुःख और बैचेनी का कारण भी है. जीव, ‘प्राणधारणे’-धातु से ‘जीवन’ शब्द और ‘मृड’, प्राणत्याग से ‘मृत्यु’ शब्द की व्युत्पति होती है. प्राणधार शब्द, प्राणत्याग शब्द का बिलकुल विपरीतार्थक है. इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि जब तक प्राण-वायु का संचार ‘नासिका रन्ध्र’ द्वारा शरीर में होता रहता है, तब तक जीवन है और जब प्राण-वायु का संचार ‘नासिका रन्ध्रों’ द्वारा शरीर में नहीं होता है तब ‘मृत्यु’ शब्द का प्रयोग होने लगता है. इस प्रकार ‘प्राण’ शब्द यहाँ पर महत्वपूर्ण हो गया, इसलिए योग में प्राण को साधने की बात भी व्यापक रूप से प्रचलित है, क्योँकि प्राण के आधार पर ही जीवन और मृत्यु का निर्धारण हो गया, जब तक प्राण चल रहा है तो जीवन है और प्राण न चलने की स्थिति में मृत्यु. किसी शरीर द्वारा प्राण वायु के धारण करने पर जीवन की स्थिति है और इसके परित्याग पर जीवन मृत है. प्राण के आधार पर ही शरीर की दो स्थितियों का निर्धारण हुआ है, जिन्हें हमने जीवन और मृत्यु कहा है, जीवन और मृत्यु का सम्बन्ध शरीर की स्थिति की अपेक्षा प्राणों से ज्यादा है, जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक नेत्रों से अंधा, कानों से बहरा, वाणी से गूंगा, अंगों से विकृत जीव को भी जीवित कहा जाता है और जब प्राण वायु का सम्बन्ध शरीर से हट जाता है तो इन्द्रियों से संपृक्त होता हुआ जीव भी मृत कहा जाता है. इसलिए शरीरधारी को हम ‘प्राणी’ भी कहते है, यहाँ यह महत्वपूर्ण हो गया कि शरीर की अवस्था की अपेक्षा प्राण की अवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण है. प्राण जीवन और मृत्यु का आधार है, और इसके आधार पर ही शरीर की स्थिति का निर्धारण होता है, चाहे कोई भी जीव हो. (यहाँ जीव शब्द को व्यापक रूप से लेने की जरुरत है), जब तक वह सांस ले रहा है तब तक वह जीव है, चाहे उसका स्वरूप कैसा भी हो. प्राण की अवस्था को हम किसी एक निश्चित शरीर के लिए निर्धारित नहीं कर सकते, क्योँकि प्राण के आधार पर ही हर किसी भी जीव की जीवन और मृत्यु की स्थिति का निर्धारण होता है. इसलिए प्राण को सबके लिए जरुरी और सबसे उत्तम माना गया है. छान्दोग्योपनिषद में प्राण को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है “ते ह प्राणाः प्रजापतिं  पितरमेत्योचु:, भगवन! को न श्रेष्ठ इति/ तान् होवाच-यस्मिन् व् उत्क्रान्ते शरीरं पापिष्ठतरमिव दृश्येत स वः श्रेष्ठ:”. (5/2/7) अर्थात प्रजापति के पास जाकर समस्त इन्द्रियों सहित प्राणों ने कहा-‘हे भगवन! हम सबमें बड़ा कौन है? प्रजापति ने उन सबको सीधा सा उत्तर दिया कि ‘जिसके निकल जाने पर यह शरीर अत्यंत हेय समझा जाए वही सबसे बड़ा है’. इससे भी यह बात जाहिर होती है कि शरीर में प्राण की अवस्था सबसे उत्तम है, सर्वश्रेष्ठ है और यही जीवन का आधार भी है. 

यहाँ एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि क्या प्राण परित्याग से शरीर की मृत्यु और प्राण के रहते-रहते जीवन, बस इतना सा ही सत्य है तो फिर किसी और मुद्दे पर उलझने की क्या जरुरत है? हमें तो सीधा सा उत्तर मिल गया कि जब तक किसी शरीर में प्राण हैं तो उसे हम जीवन कह दें और जब किसी शरीर से प्राण निकल जाएँ, या कोई शरीर प्राणों का परित्याग कर दे (आत्महत्या के सन्दर्भ में) तो उसे मृत कहा जाए. इस सन्दर्भ में तो जीवन और मृत्यु की व्याख्या बदल सकती है. लेकिन बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती. बेशक प्राण को ही जीवन का आधार माना जाता है, लेकिन उस प्राण के संचरण के लिए भी जो चेतना काम कर रही है, जिसे हम जीव या आत्मा कहते हैं उसकी सत्ता महत्वपूर्ण है. जिस प्रकार शरीर और प्राण, आत्मा और परमात्मा, जीव और जगत, माया और ब्रह्म आदि के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं, उसी प्रकार जीव के देह त्याग और उसके बाद की स्थितियों पर भी अनेक मत और विचार प्रचलन में हैं. लेकिन इस विषय (देह त्याग के बाद आत्मा की स्थिति) का जहाँ तक सम्बन्ध है, उस विषय पर अनुभव और विश्लेषण के आधार पर कुछ नहीं कहा जा सकता. क्योँकि जब भी कोई शरीर को त्याग करता है तो न तो उसका कोई विश्लेषण हमारे पास उपलब्ध है और न ही किसी का ऐसा अनुभव है, जिसे हम उदधृत कर सकें, फिर भी जिज्ञासा वश मैंने वर्षों से इस विषय पर चिन्तन किया है, उस चिन्तन, अनुभव और हमारे ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, दार्शनिकों, सन्तों, महापुरुषों आदि के मतों के आधार पर इस विषय में कुछ बातें आपसे सांझा करने का मन किया तो यह क्रम शुरू कर दिया. हालाँकि जहाँ तक आत्मा की बात है उस विषय में हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह ही सम्पूर्ण ब्रह्मंड में फ़ैली चेतना का ही एक रूप है ......!!!! शेषअगले अंकों में ....!!!

16 जनवरी 2014

बदलावों की आहट...3

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गतांक से आगे वह बात तो भविष्य को बदलने की करते हैं, लेकिन उन्हें वर्तमान और इतिहास की कोई ख़ास समझ नहीं होती, बस वह एक राग अलापते हैं और उसी के बल पर अपना प्रभुत्व कायम करने की कोशिश करते हैं. नका सिर्फ एक ही मकसद है ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी आवाज पहुंचाना, ज्यादा से ज्यादा लोगों को प्रभावित करना, उनसे समाज सेवा के नाम पर धन इक्कठा करना, उन्हें मानसिक रूप से ऐसा तैयार करना कि वह अपना सर्वस्व अर्पित करने के लिए तत्पर हो जाएँ. कुछ को तो मैंने बहुत बड़े-बड़े दावे करते हुए सुना है, वह कुछ ऐसी काल्पनिक कहानियाँ लोगों के बीच प्रचारित करते हैं जिनसे इनके सब कुछ होने की ख़बरें चारों और फैलती रहती हैं और आम जनता भ्रमित होती रहती है. आम लोग इसे ही बदलाव का नाम दे रहे हैं. लेकिन बहुत गहरे में उतरकर जब देखा जाता है तो स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं, लोग सिर्फ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए किसी को अपना मार्गदर्शक समझ रहे हैं, कई बार तो मुझे ऐसा लगता है कि लोगों के लिए अब किसी तथाकथित “स्वयम्भू प्रभु” या नेता के पीछे चलना शान की बात हो गया है और लोगों की इसी मानसिकता का लाभ यह तथाकथित समाज सुधारक, अध्यात्म और धर्म, राजनीति आदि के नाम पर सुधार करने वाले लोग उठाते हैं. मैं बहुत बार सोचता हूँ कि अगर कहीं किसी के पीछे चलकर ही बदलाव आता तो आज हर कोई किसी न किसी का अनुसरण कर रहा है तो फिर दुनिया का स्वरूप कुछ और ही होता. क्योँकि जितने भी महान लोग इस धरा पर हुए हैं और ज्यादातर लोग जिनका अनुसरण करते हैं उन्होंने सदैव मानवता का ही पाठ पढ़ाया है और उनके विचारों में तो कोई भी बैर नहीं, कहीं किसी से कोई द्वेष नहीं, उन्होंने तो सम्पूर्ण सृष्टि को खुदा का कुनवा कहा है, फिर यह विरोध और प्रतिरोध कहाँ और कैसा, यह बहुत ही विचारणीय प्रश्न है और हम सबको इस प्रश्न पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है.

अतीत को याद करके हम वर्तमान को नहीं संवार सकते, लेकिन वर्तमान में अतीत को याद करके, उसमें हुई
महत्वपूर्ण घटनाओं का विश्लेषण करके हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. उस सीख को हम अगर वर्तमान में अपना लें और उसी अनुरूप कार्य करें तो निश्चित रूप से भविष्य सुखद हो सकता है, उसी आधार पर हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक रास्ता बना सकते हैं, उनके लिए कोई मानक बना सकते हैं. लेकिन आज ऐसा नहीं है, काम कम किया जाए उसका प्रचार ज्यादा हो, सोचा समझा कम जाए, लेकिन बखान ज्यादा हो, आज ज्यादातर लोगों में प्रसिद्धि की इतनी भूख है कि वह उसे पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं, ऐसी स्थिति में उनका जो मकसद होता है वह तो पूरा हो जाता है. लेकिन जिस मकसद से जनता उनके साथ जुडी होती है उन्हें धोखा ही मिलता है. पूरे परिदृश्य पर अगर हम नजर डालें तो स्थिति समझ आ जायेगी और फिर हम समझ सकते हैं कि हालात किस कदर बदतर हैं. हमें इन हालतों से निबटने के लिए कितने शीघ्र प्रयास करने की जरुरत है. लेकिन अब सिर्फ प्रयास करने से ही नहीं बल्कि कुछ ऐसा ठोस करना होगा जिससे इस परिदृश्य को बदलने की एक मजबूत नींव डाली जा सके. ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि अब कौन ऐसा कुछ नया करेगा, जिससे कि सारा परिदृश्य ही बदल जाएगा. तो इस सवाल का सीधा सा उत्तर है कि यह सब हमें ही करना पडेगा और हम तक हम सब इन अभियानों में सक्रीय रूप से शामिल नहीं होते तब तक चाहे कोई कितने भी बदलावों की बात करे, सतही तौर पर कैसे भी प्रयास करे, सफलता किसी भी स्तर तक नहीं मिल सकती और अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं हमें इस धरा पर मानव की मानवीयता के सिर्फ उदहारण ही सुनने, पढने को मिलेंगे. क्योँकि जैसे–जैसे हम विज्ञान और तकनीक के क्ष्रेत्र में उन्नति करते जा रहे हैं वैसे ही हमरा संपर्क समाज से कटता जा रहा है, हम सामाजिक सोच की अपेक्षा व्यक्तिवादी सोच को अपना रहे हैं, हम सामूहिक हितों की अपेक्षा व्यक्तिगत हितों को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं, अब तो स्थिति ऐसी भी आ गयी है कि हमारे लिए परिवार नाम की संस्था के मायने भी ख़त्म होते जा रहे हैं, अब हम निकृष्ट व्यक्तिवादी हो गए हैं और इसके गंभीर परिणाम हमें भुगतने पड़ रहे हैं, और अगर ऐसा ही होता रहा तो व्यक्ति की हालत क्या हो सकती है, इसके विषय में सिर्फ सोचा जा सकता है. 

आज जैसा माहौल हमारे सामने है उस पर समग्र रूप से विश्लेषण करने की जरुरत है. हर कोई कहता है कि खामियां हैं. किसी को सामाजिक संरचना में खामी नजर आती है, किसी को राजनीति में, कहीं पर धर्म की खामियां गिनाई जा रही हैं तो कोई साहित्य की बात कर रहा है. हर कहीं खामी है और हर खामी को बदलने की बात की जा रही है. इसके लिए बहुत से लोग प्रयास कर रहे हैं, और उनके प्रयास निरंतर जारी हैं. लेकिन जिस बदलाव की बात वह करते हैं वह कहीं नजर नहीं आते, बल्कि स्थिति इसके उलट होती जा रही है. कोई एक सच्चा व्यक्ति विचार पैदा करता है लोग उसका अनुसरण करते हैं और फिर उसके जाने के बाद स्थिति वहीँ की वहीँ रह जाती हैं, और ऐसे में भ्रष्ट बुद्धि लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करते जाते हैं और उनका बोलबाला वैसा ही बना रहता है. हम यह नहीं कह सकते कि आज तक कोई भी व्यक्ति ऐसा पैदा नहीं हुआ जिसने इस सली गडी व्यवस्था को परिवर्तित करने की जी जान से कोशिश न की हो, ऐसे अनेक व्यक्ति हुए हैं. महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु नानक, कबीर, रैदास, मीरा, स्वामी दयानंद, विवेकाननद, महात्मा ज्योतिबा फुले, विद्यासागर, महात्मा गांधी, भगत सिंह ऐसे कई नाम हैं जिन्होंने भ्रष्ट व्यवस्थाओं के खिलाफ आवाज उठाई और उन्हें मिटाने के लिए जी जान से प्रयास किये. आज अफ़सोस इस बात का है कि इनके नामों का प्रयोग करके हर कोई अपनी दुकान तो चमका रहा है, लेकिन इनके विचारों और कार्यों का अनुसरण करने वाला कोई विरला ही नजर आता है. ऐसे में जिसे हम बदलाव का नाम दे रहे हैं उसकी सिर्फ आहट सुनाई दे रही है, वह भी इन नामों के कारण और वास्तविक बदलाब आना अभी बहुत दूर का काँटों का सफ़र है. 

आज जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, जैसा वातावरण हमारे सामने है उससे तो लगता है कि दुनिया में कहीं
कोई समस्या नहीं है. सूचना-तकनीक के साधनों से हमारा सीधा संपर्क है. हम उनका बखूबी इस्तेमाल भी कर रहे हैं, आज के विज्ञान ने जितना कुछ हमें दिया है वह हमारे लिए लाभकारी है. दुनिया के सारे देश एक दूसरे के संपर्क में हैं, कुछ ऐसी वैश्विक संस्थाएं गठित की गयी गयी हैं जिनके नियम और कायदे पूरी दुनिया पर लागू होते हैं और इन संस्थाओं के निर्णयों का प्रभाव पूरी दुनिया पर पढता है. इसे हम वैश्वीकरण का नाम दे रहे हैं. दुनिया पूरी एक  गाँव बन गयी है, अब कोई समस्या नहीं, पूरी दुनिया के लोग एक हो गए हैं, ऐसा प्रचार वैश्वीकरण के समर्थक करते हैं और इस माध्यम से एक आस जगाते हैं कि अब तो दुनिया का स्वरूप बदल कर ही रहेगा. क्योँकि अब कोका कोला पूरी दुनिया में बिकता है, जहाँ पानी पीने को नहीं मिलता वहां कोक की बोतलें मिल जाती हैं, चाइनीस फ़ूड अब गली मोहल्लों, सड़कों में खाने को मिल जाता है, आधुनिकता के नाम पर बदन दिखाने की कोशिश की जा रही हैं, लोगों ने लिव इन रिलेशनशिप को तरजीह देना शुरू किया है, समलैंगिक सम्बन्ध जरुरी हो गए हैं, ऐसे सम्बन्धों की मान्यता के लिए आन्दोलन चलाये जा रहे हैं, बहुत बड़े-बड़े स्टार फिल्मों के माध्यम से कामुक अदाओं का बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, साहित्य ज्यादातर कामुक चरित्रों से भर गया है, बहुत बड़े शक्तिशाली बम बन गए हैं जो एक मिनट में पूरी दुनिया को समाप्त कर सकते हैं, मिसाइलों का निर्माण जोरों से किया जा रहा है, विकास के नाम पर प्रकृति का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है, चिकित्सा के नाम पर व्यक्ति के शरीर को प्रयोगशाला समझ लिया गया है, और ऐसे में कुछ लोग ताली पीट रहे हैं, उनके चेहरे पर बहुत खुशी है. क्योँकि उन्हें लग रहा है कि सच में बदलाव आ गया है. व्यक्ति आधुनिक हो गया है. आधुनिकता और उतर-आधुनिकता का विमर्श जोरों पर है, बस ऐसा लगा रहा है कि सब कुछ बदल गया है, अब कोई समस्या नहीं, वह बहुत प्रचार कर रहे हैं और ऐसा कह रहे हैं कि उन्होंने जीवन और जगत दोनों को बदल कर रख दिया है. पर स्थितियां बहुत विपरीत नजर आती हैं और हम सब उनसे रोज ही जूझते हैं, ऐसे में हम सब यह महसूस कर सकते हैं कि कितना बदलाव आया है और कैसे बदलाव की आवश्यकता हमें है. 

आज बेशक भौतिक रूप से हमने बहुत उन्नति कर ली है और इसके लिए मानव बधाई का पात्र है. लेकिन इसके साथ एक और पहलू भी जुडा है वह यह कि आज जितना भी भौतिक विकास मानव ने किया है वह उसे और ज्यादा स्वार्थी बना रहा है, इसलिए मनुष्य के पास सब कुछ होते हुए भी वह दूसरों का शोषण करने की फिराक में रहता है, वह अपने स्वार्थ के कारण ही प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रहा है, और उसे विकास का नाम देकर प्रचारित कर रहा है. ऐसे कई पहलू हैं जो आज व्यक्ति के स्वार्थ का परिचय देते हैं, लेकिन दुसरे शब्दों में हम उसे ही बदलाव का नाम देते हैं. लेकिन हमें इस बात को बहुत गहरे से समझना होगा कि जरुरी नहीं ऊँचे महलों में रहने वालों का चरित्र और कर्म भी उंचा ही हो, जिन्होंने वास्तविक बदलाव के साथ जीवन को जिया है, वह सड़कों पर रहे हैं, गुफाओं से संचालन किया है अपने मंतव्यों को पूरा करने के अभियाओं का, उनके पास बस एक ही शक्ति थी जिसके बल पर उन्होंने पूरी दुनिया को जीता है वह शक्ति थी संकल्प की शक्ति. आओ हम सब मिलकर ऐसा संकल्प ले कि इस दुनिया का स्वरूप बदल जाए और इसके लिए मानव की सोच को बदलना बहुत जरुरी है, मानव की सोच बदल गयी, कर्म बदल जाएगा और जब कर्म बदल जाएगा तो वास्तविक बदलाव अपने आप ही आयेगा, और जब तक ऐसा नहीं हो पाता तब तक बदलाव की सिर्फ आहट ही सुनाई देगी, वह सकारात्मक दिशा में आएगा इस पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह अभी तक बरकरार है .

14 जनवरी 2014

बदलावों की आहट...2

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वैसे तो परम्पराओं के प्रति आकृष्ट होना कोई बुरी बात नहीं है, वह हमारे जीवन और आधार का हिस्सा हैं, हमें उनका निर्वाह करना चाहिए, लेकिन वक़्त और हालात को देखते हुए, उनकी प्रासंगिकता और व्यावहारिकता को देखते हुए. वर्ना हममें इतना भी साहस होना चाहिए कि हम उन पुरानी, अव्यवहारिक  और जर्जर परम्पराओं को उखाड़ फेंकने की हिम्मत भी कर सकें. गतांक से आगे..

जब तक हम समाज से कटी हुई और अव्यावहारिक परम्पराओं का पालन करते रहेंगे तब तक किसी बदलाव की आशा करना बेमानी है. हम अपने चारों और नजर दौड़ा कर देखें तो हम सहज में ही समझ जायेंगे कि हम कितनी व्यवहारिक चीजों का अनुसरण कर रहे हैं और कितनी ऐसी चीजें हैं जिनके विषय में न जानते हुए भी हम उनके प्रति आकृष्ट हैं. हमारे समाज में ऐसी बहुत सी जर्जर और अव्यावहारिक मान्यताएं हैं जो हमें प्रगति के पथ पर आगे नहीं बढ़ने देती और कुछ तो ऐसी हैं जिनसे व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान रहता है. लेकिन व्यवस्था ही कुछ ऐसी हैं कि हमें उनका पालन करना पढता है, और कहीं पर हमें उसका पालन करने के लिए मजबूर भी कर दिया जाता है. हम एक विस्तृत और बहुविध देश के वासी हैं. यहाँ हर चार कदम पर नयी बोली, नया पहरावा, अलग सा खान-पान, जुदा सा रहन-सहन देखने को मिल जाता है और यही इस देश कि विशिष्टता भी है. विविधता में एकता इस देश की एक अन्यतम विशेषता है. वहीं दूसरी और इस देश में ऐसा भी है कि किसी व्यक्ति को उंचा माना जाता है, किसी को नीचा, किसी को मंदिर के आधार पर बाँट दिया तो किसी को मस्जिद के  आधार पर, कोई हिन्दू हो गया, तो कोई मुसलमान, यह क्रम बहुत बड़ा है, इसमें विविधता भी है. लेकिन किसी भी स्तर पर कोई एकता नहीं. सब जगह बंटवारा है, नफरत है, वैर है, द्वेष है और यह आज की बात नहीं यह हजारों वर्षों से यूं ही चला आ रहा है और आगे भी चलता रहेगा जब तक कि इस घृणित मानसिकता को मजबूती देने वाले लोग इस धरती पर मौजूद रहेंगे. 

एक तरफ घृणित मानसिकता को मजबूती देने वाले लोग और दूसरी तरफ समभाव की दृष्टि अपनाने वाले लोग, एक तरफ मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने वाले लोग, और दूसरी तरफ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए आम लोगों को भड़काने वाले लोग, दोनों इस समाज का हिस्सा हैं और दोनों एक ही समाज में रहते हैं. लेकिन एक समाज में नफरत फैलाने के लिए प्रयासरत हैं तो, दूसरे उसे मिटाने के लिए, लेकिन बहुत गहरे में उतरकर देखते हैं तो समझ आता है कि बदलाव को पसंद करने वाले लोग बहुत कम हैं, और इससे भी बड़ी बात यह है कि वास्तविक बदलाव के लिए प्रयास करने वाले व्यक्ति तो न के बराबर हैं. हम इतिहास में देखते हैं कि कलिंग के यूद्ध के बाद अशोक की जीवन दृष्टि बदल गयी और वह बुद्ध का अनुयायी बनकर बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा प्रचारक सिद्ध हुआ, यह बदलाव को अपनाने और उसके लिए प्रयत्न करने के कारण ही संभव हुआ. बदलाव की सिर्फ एक आहट हुई और उस आहट को सुनकर एक सम्राट का हृदय परिवर्तित हो गया और वह चल पडा उस राह पर जिस राह पर चलकर मानव-मानव का हितैषी बन जाता है, मानव-मानव के करीब आ जाता है. इतिहास में ऐसे कई उदहारण हैं जब अव्यावहारिक परम्पराओं को उखाड़ फैंकने के लिए प्रयास हुए, लेकिन सफलता का प्रतिशत कितना है यह हम सबके सामने है. 

हमें यह आशा तो नहीं करनी चाहिए कि सारे संसार में रहने वाले व्यक्ति समदृष्टि को अपनाकर, मानवीय
भावनाओं को अपने जीवन का हिस्सा बनाकर चलेंगे. ऐसा तो संभव नहीं और खासकर आज की तारीख में तो और भी नहीं, लेकिन प्रयास तो किया जा सकता है और हम सब उस प्रयास के भागीदार तो बन ही सकते हैं. वैसे उपरी तौर पर देखें तो ऐसा लगता है कि दुनिया एक द्रुत गति के बदलाव से गुजर रही है, और सबसे ज्यादा यह शिक्षा दी जा रही है कि मनुर्भवः (मनुष्य बन जाओ), आये दिन हर जगह ऐसा देखने को मिल जाता है कि जब कोई लाखों की भीड़ के सामने इस सन्देश को प्रचारित कर रहा हो और वह भीड़ इस सन्देश को सुनकर झूम रही हो. आज इस दुनिया में बदलाव लाने वाले एक-दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में हैं और आये दिन गाजर-मूली की तरह पैदा भी हो रहे हैं. कोई धर्म की शिक्षा दे रहा है, कोई अध्यात्म की बात कर रहा है, कोई भ्रष्टाचार को मिटाने की तरकीबें बता रहा है, किसी के सिर पर राष्ट्रवाद का भूत सवार है तो कोई कह रहा है कि अमुक विचारधारा और वर्ग के लोगों को अगर मिटा दिया जाए तो सब समास्याओं का समाधान हो सकता है, कोई यह भी कह रहा है कि यह जो कुछ भी दिखाई दे रहा है सब माया है, तुम क्या लाये थे, क्या ले जाओगे पर गहन मंथन कर रहा है, और कोई राम-कृष्ण की कथा के माध्यम से प्रेरणा दे रहा है, कोई जीने के गुर सिखा रहा है ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’. कोई मंदिर जा रहा है, कोई मस्जिद और कोई चर्च में, कोई अखंड पाठ कर रहा है तो कोई निरंतर जाप. सतही तौर पर ऐसा दृश्य हमारे सामने तैयार है कि अब मुझे ऐसा सोचने का मन करता है कि इस दुनिया से बेहतर कुछ भी नहीं. सब एक दम बदल रहा है और हजारों लोगों की दिन रात की मेहनत का परिणाम निश्चित रूप से एक सुन्दर से संसार का निर्माण करेगा. 

लेकिन बहुत गहरे में उतरकर देखते हैं तो यह सब एक मंच पर अभिनय के सिवा कुछ भी नहीं है. जिस तरह से रंगमंच में एक कलाकार मुखौटा पहनकर अपने अभिनय के माध्यम से सबका ध्यान अपनी और आकर्षित करता है और बहुत प्रेरक सन्देश के माध्यम से बहुत बड़ी-बड़ी बातें करता है, वैसा ही बहुत कुछ यहाँ भी अभिनीत किया जा रहा है. सब तो नहीं, लेकिन ज्यादातर बदलाव की बात करने वाले लोग सिर्फ अभिनय कर रहे हैं और अपना स्वार्थ सिद्ध करने की फ़िराक में हैं. जिसका स्वार्थ जिस माध्यम से आसानी से सिद्ध हो सकता है, वह उस तरकीब को अपनाने की कोशिश कर रहा है. ज्यादातर का बदलाव से कोई लेना देना नहीं उनका एक ही मकसद है अपने स्वार्थों की पूर्ति करना और इसके लिए वह भीड़ का सहारा लेते हैं, खुद मुखौटा पहनते हैं और उस मुखौटे के आकर्षण से सबको आकर्षित करते हुए अपना रुतवा कायम करते हुए अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं. लेकिन जैसे ही इनका मुखौटा उतरता है इनकी वास्तविकता समझ आ जाती है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, ऐसी स्थिति में आम व्यक्ति एक बार फिर ठगा जाता है और फिर वह इसी प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है. हर बार वह स्वतन्त्र होने की सोचता है, अपने जीवन को सही ढंग से जीने का प्रयास करता है, और जहाँ से भी उसे अपने लिए सही और सुरक्षित किनारा मिलता है वह उस और पूरी तन्मयता से बढ़ता है,लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि हर बार, वह हर स्तर पर ठगा जाता है. ऐसे में न तो कोई बदलाव की आशा कर सकता है और न ही वास्तविक रूप से कोई बदलाव लाया जा सकता है. 

यह प्रश्न भी विचारणीय है कि हम किस तरह का बदलाव चाहते हैं. कुछ क्रांतिकारी विचारों के स्वयंभू समाज सुधारक यह भी कहते हुए सुने जाते हैं कि आज से पहले जो भी व्यवस्थाएं समाज में चली आ रही हैं उन सबको बदलने की जरुरत है, वह सब कुछ का ठिकरा किसी एक के सर पर फोड़ने का पूरा प्रयास करते हैं और खुद को उन सबसे श्रेष्ठ स्थापित करने की कोशिश करते हैं. लेकिन कैसे इन व्यवस्थाओं को बदला जा सकता है, किस कमी को शीघ्र ठीक करने की जरुरत है और उसका क्या लाभ समाज को हो सकता है, इसके विषय में वह स्पष्ट नहीं होते. वह बात तो भविष्य को बदलने की करते हैं लेकिन उन्हें वर्तमान और इतिहास की कोई ख़ास समझ नहीं होती, बस वह एक राग अलापते हैं और उसी के बल पर अपना प्रभुत्व कायम करने की कोशिश करते हैं .....!!!! शेष अगले अंक में....! 

10 जनवरी 2014

बदलावों की आहट...1

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मैं जब भी कहीं दूर पहाड़ की चोटी की तरफ देखता हूँ तो मुझे उसमें कोई बदलाब नजर नहीं आता, और जब उस पहाड़ की चोटी से दुनिया को देखता हूँ तो बहत कुछ बदला हुआ नजर आता है. ऐसे में एक ही स्थान के बारे में मेरे दो दृष्टिकोण उभरकर सामने आते हैं. जब मैं अपनी ही दुनिया में रहकर अपनी दुनिया को पहचानने की कोशिश करता हूँ तो संभवतः बहुत कुछ ऐसा बदला हुआ नजर नहीं आता जिससे मेरा कोई वास्ता नहीं होता, और अगर कहीं मेरे वास्ते की चीजों में हल्का सा भी परिवर्तन आये और वह मेरे अनुकूल न हो तो मैं खुद को बहुत असहज महसूस करता हूँ. अगर वह परिवर्तन मेरे अनुकूल होते हैं तो मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता. लेकिन बदलावों का अनुकूल और प्रतिकूल होने से तो कोई मतलब नहीं वह तो होते ही हैं, उन्हें तो होना ही है, वह हो कर ही रहेंगे, समय के साथ. वैसे भी जब यह कहा जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो वह किसी एक चीज पर ही लागू नहीं होता, सब चीजों की प्रकृति ही ऐसी है कि उसे बदलना ही है, और बदलाव की यह प्रक्रिया स्वाभाविक और नैसर्गिक है. इसे हम चाहकर भी नहीं बदल सकते. बस इस बदलाव के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक सहज और सकारात्मक परिवर्तन ला सकते हैं, लेकिन यह मुमकिन है और नहीं भी?? 

बदलावों के प्रति हमारे दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन भी बहुत कुछ हमारे स्वार्थ का हिस्सा होता है और वह भी
काफी हद तक बदलाव लाने की प्रक्रिया हो सकता है. बेशक वह बदलाव हमारे लिए सहज न हो, लेकिन फिर भी बदलाव लाने की वह प्रक्रिया हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है, और जब वह हमें अपने आगोश में ले जाती है तो हम उसके साथ चलना शुरू करते हैं, बेशक हम चलना नहीं चाहते, लेकिन परिस्थिति वश हमें चलना ही होता है और वह हमारी प्रकृति का हिस्सा है. उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं और वही बदलाव की प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ बदलाव कहीं न कहीं पर नयेपन की निशानी भी है, हो सकता है वह नयापन हमारी सोच के अनुकूल न हो, और उसका स्वरूप हमें पसंद भी न हो लेकिन प्राकृतिक रूप से उसे नयापन धारण करना है. इसलिए वह अपनी गति से ही हो रहा है. हम अपने जीवन क्रम से इस बदलाव को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. हम पूरी दुनिया को समझने की कोशिश न करें सिर्फ एक बार अपने भीतर और बाहर जितना झाँक सकते हैं, जितने गहरे में उतरकर देख सकते हैं देखने की कोशिश करें, और शांतचित होकर अपने बदलावों पर ध्यान देने की कोशिश करें तो हमें स्वयं ही पता चल जाएगा कि मुझमें कितने परिवर्तन हुए हैं और उनकी मेरे जीवन में क्या महता है? यहीं से सफ़र शुरू होगा न परिवर्तन होने वाली अवस्था का, और जब हम उस मुकाम पर पहुँच जायेंगे तो बाहरी परिवर्तन तो होंगे ही, लेकिन भीतर से परिवर्तन न होने वाली अवस्था होगी, कहीं कोई दुःख नहीं, कोई ख़ुशी नहीं, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं. लेकिन ऐसा होना तो कल्पना करने जैसा है, संभवतः यह प्रश्न आप मुझसे कर सकते हैं और यह स्वाभाविक भी है. 

इसे ऐसे समझने की कोशिश करते हैं, मैं जब भी पहाड़ की चोटी की तरफ देख रहा हूँ तो अपने घर की एक खिड़की से देख रहा हूँ जो मेरे लिए सहज भी है, सुविधाजनक भी और मुझे पहाड़ से प्रेम है इसलिए मैंने घर बनाते वक़्त खिड़की पहाड़ की दिशा में रखीं. सिर्फ इसलिए कि मैं पहाड़ की चोटी का दर्शन कर सकूँ. मैंने पहाड़ के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए मनचाही व्यवस्था की और उसी से मैं खुश होता गया. लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि बहुत लम्बे अरसे से पहाड़ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वह मुझे बोझिल लगने लगा. हर बार उसमें कोई आंशिक सा बाहरी परिवर्तन होता लेकिन भीतरी रूप से वह पहाड़ कभी बदला ही नहीं और संभवतः मैंने भी यह समझ लिया कि इसमें बदलने की कोई संभावना ही नहीं. लेकिन बहुत प्रयास करके उस पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर जब मैंने अपनी दुनिया को देखने की कोशिश की तो मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया, अब पहाड़ अपना सा लगने लगा और जिस दुनिया में मैं रहता था उसके प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. संभवतः इसके पीछे एक कारण यह भी काम कर रहा होगा कि मैं ऊंचाई से दुनिया को देख रहा हूँ और इसलिए मेरा दृष्टिकोण भी बदल गया है. अब मैं जिस ऊंचाई पर हूँ वहां न कोई अपना है, न कोई पराया, मुझे सब कुछ समान दिखाई दे रहा है और काफी हद तक यह सब मेरे लिए आनंदायक भी है, लेकिन यह बदलाव बाहरी तौर ही है तो मुझे ऐसा लग सकता है कि स्थान के परिवर्तन के कारण यह आया होगा, हां यह एक कारण हो सकता है, लेकिन वास्तविक कारण यह नहीं, वास्तविक कारण तो यह है कि उस पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए मुझे जो श्रम करना पडा जो कुछ झेलना पडा और जो अनुभव मुझे वहां जाकर हुए उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को बदल दिया. इसलिए सब कुछ समान सा लगने लगा और जहाँ तक भी नजर गयी बस एक नया अनुभव हुआ और दृष्टि बदल गयी. 

इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जब हम अपनी बनाई हुई सोच और नजर से दुनिया को देखने समझने की
कोशिश करते हैं तो हम भ्रम में पड जाते हैं और यह स्वाभाविक भी है. क्योँकि जब भी कोई इस धरा पर जन्म लेता है तो उसे उसी समय से बन्धनों में जकड़ने प्रक्रिया शुरू की जाती है. एक नवजात के जन्म लेते ही वह हिन्दू, मुस्लमान, सिक्ख, इसाई हो जाता है. वह किसी जाति का, वर्ण का, किसी धर्म का, आमिर-गरीब तबके आदि का बना दिया जाता है, और वहीँ पर उसकी स्वतन्त्र सत्ता छिन जाती है और उसे दुनिया में जीवन रहते तक बाहरी आडम्बरों के पालन के लिए ना चाहते हुए भी मजबूर किया जाता है. हर कोई उस पर अपना हक जताता है और अपनी सोच से उसे चलाने की कोशिश करता है. एक स्वतन्त्र पैडा हुआ मनुष्य बन्धनों में जकड दिया जाता है और वह अपने जीवन रहते हुए कभी भी उन बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता. इसमें एक और दृष्टिकोण भी काम करता है जो कहीं किसी की मानसिक गुलामी से आगे निकल जाते हैं, वह अपनी सोच और शोहरत के आधार पर दूसरों की सोच को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. यहाँ भी एक आम इंसान का दृष्टिकोण कोई मायने नहीं रखता, वह परिवर्तन की आस में उस तरफ कदम बढाता है, लेकिन अफ़सोस कि वह वहां पर भी सिर्फ और सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही बनकर रह जाता है. ऐसी स्थिति में न तो परिवर्तन होता है और न ही मनुष्य बदलता है. 

आज दुनिया का जितना भी स्वरूप हमारे सामने खडा है उसमें सिर्फ एक ही चीज काम कर रही है वह है व्यक्ति का परम्पराओं के प्रति आकृष्ट होना. वैसे तो परम्पराओं के प्रति आकृष्ट होना कोई बुरी बात नहीं है, वह हमारे जीवन और आधार का हिस्सा हैं, हमें उनका निर्वाह करना चाहिए, लेकिन वक़्त और हालात को देखते हुए, उनकी प्रासंगिकता और व्यावहारिकता को देखते हुए. वर्ना हममें इतना भी साहस होना चाहिए कि हम उन पुरानी, अव्यवहारिक  और जर्जर परम्पराओं को उखाड़ फेंकने की हिम्मत भी कर सकें .....!!!  शेष अगले अंकों में.