मैं जब भी
कहीं दूर पहाड़ की चोटी की तरफ देखता हूँ तो मुझे उसमें कोई बदलाब नजर नहीं आता, और
जब उस पहाड़ की चोटी से दुनिया को देखता हूँ तो बहत कुछ बदला हुआ नजर आता है. ऐसे
में एक ही स्थान के बारे में मेरे दो दृष्टिकोण उभरकर सामने आते हैं. जब मैं अपनी
ही दुनिया में रहकर अपनी दुनिया को पहचानने की कोशिश करता हूँ तो संभवतः बहुत कुछ
ऐसा बदला हुआ नजर नहीं आता जिससे मेरा कोई वास्ता नहीं होता, और अगर कहीं मेरे
वास्ते की चीजों में हल्का सा भी परिवर्तन आये और वह मेरे अनुकूल न हो तो मैं खुद
को बहुत असहज महसूस करता हूँ. अगर वह परिवर्तन मेरे अनुकूल होते हैं तो मेरी ख़ुशी
का कोई ठिकाना नहीं रहता. लेकिन बदलावों का अनुकूल और प्रतिकूल होने से तो कोई
मतलब नहीं वह तो होते ही हैं, उन्हें तो होना ही है, वह हो कर ही रहेंगे, समय के
साथ. वैसे भी जब यह कहा जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है तो वह किसी एक चीज
पर ही लागू नहीं होता, सब चीजों की प्रकृति ही ऐसी है कि उसे बदलना ही है, और
बदलाव की यह प्रक्रिया स्वाभाविक और नैसर्गिक है. इसे हम चाहकर भी नहीं बदल सकते.
बस इस बदलाव के प्रति अपने दृष्टिकोण में एक सहज और सकारात्मक परिवर्तन ला सकते
हैं, लेकिन यह मुमकिन है और नहीं भी??
बदलावों के
प्रति हमारे दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन भी बहुत कुछ हमारे स्वार्थ का हिस्सा होता है और वह भी
काफी हद तक बदलाव लाने की प्रक्रिया हो सकता है. बेशक वह बदलाव हमारे लिए सहज न हो, लेकिन फिर भी बदलाव लाने की वह प्रक्रिया हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है, और जब वह हमें अपने आगोश में ले जाती है तो हम उसके साथ चलना शुरू करते हैं, बेशक हम चलना नहीं चाहते, लेकिन परिस्थिति वश हमें चलना ही होता है और वह हमारी प्रकृति का हिस्सा है. उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं और वही बदलाव की प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ बदलाव कहीं न कहीं पर नयेपन की निशानी भी है, हो सकता है वह नयापन हमारी सोच के अनुकूल न हो, और उसका स्वरूप हमें पसंद भी न हो लेकिन प्राकृतिक रूप से उसे नयापन धारण करना है. इसलिए वह अपनी गति से ही हो रहा है. हम अपने जीवन क्रम से इस बदलाव को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. हम पूरी दुनिया को समझने की कोशिश न करें सिर्फ एक बार अपने भीतर और बाहर जितना झाँक सकते हैं, जितने गहरे में उतरकर देख सकते हैं देखने की कोशिश करें, और शांतचित होकर अपने बदलावों पर ध्यान देने की कोशिश करें तो हमें स्वयं ही पता चल जाएगा कि मुझमें कितने परिवर्तन हुए हैं और उनकी मेरे जीवन में क्या महता है? यहीं से सफ़र शुरू होगा न परिवर्तन होने वाली अवस्था का, और जब हम उस मुकाम पर पहुँच जायेंगे तो बाहरी परिवर्तन तो होंगे ही, लेकिन भीतर से परिवर्तन न होने वाली अवस्था होगी, कहीं कोई दुःख नहीं, कोई ख़ुशी नहीं, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं. लेकिन ऐसा होना तो कल्पना करने जैसा है, संभवतः यह प्रश्न आप मुझसे कर सकते हैं और यह स्वाभाविक भी है.
इसे ऐसे समझने की कोशिश करते हैं, मैं जब भी पहाड़ की चोटी की तरफ देख रहा हूँ तो अपने घर की एक खिड़की से देख रहा हूँ जो मेरे लिए सहज भी है, सुविधाजनक भी और मुझे पहाड़ से प्रेम है इसलिए मैंने घर बनाते वक़्त खिड़की पहाड़ की दिशा में रखीं. सिर्फ इसलिए कि मैं पहाड़ की चोटी का दर्शन कर सकूँ. मैंने पहाड़ के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए मनचाही व्यवस्था की और उसी से मैं खुश होता गया. लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि बहुत लम्बे अरसे से पहाड़ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वह मुझे बोझिल लगने लगा. हर बार उसमें कोई आंशिक सा बाहरी परिवर्तन होता लेकिन भीतरी रूप से वह पहाड़ कभी बदला ही नहीं और संभवतः मैंने भी यह समझ लिया कि इसमें बदलने की कोई संभावना ही नहीं. लेकिन बहुत प्रयास करके उस पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर जब मैंने अपनी दुनिया को देखने की कोशिश की तो मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया, अब पहाड़ अपना सा लगने लगा और जिस दुनिया में मैं रहता था उसके प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. संभवतः इसके पीछे एक कारण यह भी काम कर रहा होगा कि मैं ऊंचाई से दुनिया को देख रहा हूँ और इसलिए मेरा दृष्टिकोण भी बदल गया है. अब मैं जिस ऊंचाई पर हूँ वहां न कोई अपना है, न कोई पराया, मुझे सब कुछ समान दिखाई दे रहा है और काफी हद तक यह सब मेरे लिए आनंदायक भी है, लेकिन यह बदलाव बाहरी तौर ही है तो मुझे ऐसा लग सकता है कि स्थान के परिवर्तन के कारण यह आया होगा, हां यह एक कारण हो सकता है, लेकिन वास्तविक कारण यह नहीं, वास्तविक कारण तो यह है कि उस पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए मुझे जो श्रम करना पडा जो कुछ झेलना पडा और जो अनुभव मुझे वहां जाकर हुए उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को बदल दिया. इसलिए सब कुछ समान सा लगने लगा और जहाँ तक भी नजर गयी बस एक नया अनुभव हुआ और दृष्टि बदल गयी.
काफी हद तक बदलाव लाने की प्रक्रिया हो सकता है. बेशक वह बदलाव हमारे लिए सहज न हो, लेकिन फिर भी बदलाव लाने की वह प्रक्रिया हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है, और जब वह हमें अपने आगोश में ले जाती है तो हम उसके साथ चलना शुरू करते हैं, बेशक हम चलना नहीं चाहते, लेकिन परिस्थिति वश हमें चलना ही होता है और वह हमारी प्रकृति का हिस्सा है. उसके बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं और वही बदलाव की प्रक्रिया के फलस्वरूप हुआ बदलाव कहीं न कहीं पर नयेपन की निशानी भी है, हो सकता है वह नयापन हमारी सोच के अनुकूल न हो, और उसका स्वरूप हमें पसंद भी न हो लेकिन प्राकृतिक रूप से उसे नयापन धारण करना है. इसलिए वह अपनी गति से ही हो रहा है. हम अपने जीवन क्रम से इस बदलाव को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. हम पूरी दुनिया को समझने की कोशिश न करें सिर्फ एक बार अपने भीतर और बाहर जितना झाँक सकते हैं, जितने गहरे में उतरकर देख सकते हैं देखने की कोशिश करें, और शांतचित होकर अपने बदलावों पर ध्यान देने की कोशिश करें तो हमें स्वयं ही पता चल जाएगा कि मुझमें कितने परिवर्तन हुए हैं और उनकी मेरे जीवन में क्या महता है? यहीं से सफ़र शुरू होगा न परिवर्तन होने वाली अवस्था का, और जब हम उस मुकाम पर पहुँच जायेंगे तो बाहरी परिवर्तन तो होंगे ही, लेकिन भीतर से परिवर्तन न होने वाली अवस्था होगी, कहीं कोई दुःख नहीं, कोई ख़ुशी नहीं, कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं. लेकिन ऐसा होना तो कल्पना करने जैसा है, संभवतः यह प्रश्न आप मुझसे कर सकते हैं और यह स्वाभाविक भी है.
इसे ऐसे समझने की कोशिश करते हैं, मैं जब भी पहाड़ की चोटी की तरफ देख रहा हूँ तो अपने घर की एक खिड़की से देख रहा हूँ जो मेरे लिए सहज भी है, सुविधाजनक भी और मुझे पहाड़ से प्रेम है इसलिए मैंने घर बनाते वक़्त खिड़की पहाड़ की दिशा में रखीं. सिर्फ इसलिए कि मैं पहाड़ की चोटी का दर्शन कर सकूँ. मैंने पहाड़ के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए मनचाही व्यवस्था की और उसी से मैं खुश होता गया. लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि बहुत लम्बे अरसे से पहाड़ में कोई परिवर्तन नहीं हुआ और वह मुझे बोझिल लगने लगा. हर बार उसमें कोई आंशिक सा बाहरी परिवर्तन होता लेकिन भीतरी रूप से वह पहाड़ कभी बदला ही नहीं और संभवतः मैंने भी यह समझ लिया कि इसमें बदलने की कोई संभावना ही नहीं. लेकिन बहुत प्रयास करके उस पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर जब मैंने अपनी दुनिया को देखने की कोशिश की तो मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया, अब पहाड़ अपना सा लगने लगा और जिस दुनिया में मैं रहता था उसके प्रति मेरा दृष्टिकोण ही बदल गया. संभवतः इसके पीछे एक कारण यह भी काम कर रहा होगा कि मैं ऊंचाई से दुनिया को देख रहा हूँ और इसलिए मेरा दृष्टिकोण भी बदल गया है. अब मैं जिस ऊंचाई पर हूँ वहां न कोई अपना है, न कोई पराया, मुझे सब कुछ समान दिखाई दे रहा है और काफी हद तक यह सब मेरे लिए आनंदायक भी है, लेकिन यह बदलाव बाहरी तौर ही है तो मुझे ऐसा लग सकता है कि स्थान के परिवर्तन के कारण यह आया होगा, हां यह एक कारण हो सकता है, लेकिन वास्तविक कारण यह नहीं, वास्तविक कारण तो यह है कि उस पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए मुझे जो श्रम करना पडा जो कुछ झेलना पडा और जो अनुभव मुझे वहां जाकर हुए उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को बदल दिया. इसलिए सब कुछ समान सा लगने लगा और जहाँ तक भी नजर गयी बस एक नया अनुभव हुआ और दृष्टि बदल गयी.
इससे एक
बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जब हम अपनी बनाई हुई सोच और नजर से दुनिया को देखने
समझने की
कोशिश करते हैं तो हम भ्रम में पड जाते हैं और यह स्वाभाविक भी है. क्योँकि जब भी कोई इस धरा पर जन्म लेता है तो उसे उसी समय से बन्धनों में जकड़ने प्रक्रिया शुरू की जाती है. एक नवजात के जन्म लेते ही वह हिन्दू, मुस्लमान, सिक्ख, इसाई हो जाता है. वह किसी जाति का, वर्ण का, किसी धर्म का, आमिर-गरीब तबके आदि का बना दिया जाता है, और वहीँ पर उसकी स्वतन्त्र सत्ता छिन जाती है और उसे दुनिया में जीवन रहते तक बाहरी आडम्बरों के पालन के लिए ना चाहते हुए भी मजबूर किया जाता है. हर कोई उस पर अपना हक जताता है और अपनी सोच से उसे चलाने की कोशिश करता है. एक स्वतन्त्र पैडा हुआ मनुष्य बन्धनों में जकड दिया जाता है और वह अपने जीवन रहते हुए कभी भी उन बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता. इसमें एक और दृष्टिकोण भी काम करता है जो कहीं किसी की मानसिक गुलामी से आगे निकल जाते हैं, वह अपनी सोच और शोहरत के आधार पर दूसरों की सोच को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. यहाँ भी एक आम इंसान का दृष्टिकोण कोई मायने नहीं रखता, वह परिवर्तन की आस में उस तरफ कदम बढाता है, लेकिन अफ़सोस कि वह वहां पर भी सिर्फ और सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही बनकर रह जाता है. ऐसी स्थिति में न तो परिवर्तन होता है और न ही मनुष्य बदलता है.
कोशिश करते हैं तो हम भ्रम में पड जाते हैं और यह स्वाभाविक भी है. क्योँकि जब भी कोई इस धरा पर जन्म लेता है तो उसे उसी समय से बन्धनों में जकड़ने प्रक्रिया शुरू की जाती है. एक नवजात के जन्म लेते ही वह हिन्दू, मुस्लमान, सिक्ख, इसाई हो जाता है. वह किसी जाति का, वर्ण का, किसी धर्म का, आमिर-गरीब तबके आदि का बना दिया जाता है, और वहीँ पर उसकी स्वतन्त्र सत्ता छिन जाती है और उसे दुनिया में जीवन रहते तक बाहरी आडम्बरों के पालन के लिए ना चाहते हुए भी मजबूर किया जाता है. हर कोई उस पर अपना हक जताता है और अपनी सोच से उसे चलाने की कोशिश करता है. एक स्वतन्त्र पैडा हुआ मनुष्य बन्धनों में जकड दिया जाता है और वह अपने जीवन रहते हुए कभी भी उन बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता. इसमें एक और दृष्टिकोण भी काम करता है जो कहीं किसी की मानसिक गुलामी से आगे निकल जाते हैं, वह अपनी सोच और शोहरत के आधार पर दूसरों की सोच को प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. यहाँ भी एक आम इंसान का दृष्टिकोण कोई मायने नहीं रखता, वह परिवर्तन की आस में उस तरफ कदम बढाता है, लेकिन अफ़सोस कि वह वहां पर भी सिर्फ और सिर्फ भीड़ का हिस्सा ही बनकर रह जाता है. ऐसी स्थिति में न तो परिवर्तन होता है और न ही मनुष्य बदलता है.
आज दुनिया
का जितना भी स्वरूप हमारे सामने खडा है उसमें सिर्फ एक ही चीज काम कर रही है वह है
व्यक्ति का परम्पराओं के प्रति आकृष्ट होना. वैसे तो परम्पराओं के प्रति आकृष्ट
होना कोई बुरी बात नहीं है, वह हमारे जीवन और आधार का हिस्सा हैं, हमें उनका
निर्वाह करना चाहिए, लेकिन वक़्त और हालात को देखते हुए, उनकी प्रासंगिकता और
व्यावहारिकता को देखते हुए. वर्ना हममें इतना भी साहस होना चाहिए कि हम उन पुरानी,
अव्यवहारिक और जर्जर परम्पराओं को उखाड़
फेंकने की हिम्मत भी कर सकें .....!!! शेष अगले अंकों में.
परम्पराओं को समझकर परखकर परिस्थितियों और समयानुसार बदलने की आवश्यकता हो तो बदलने का साहस करना ही चाहिये.
जवाब देंहटाएंगंभीर चिंतन के लए आभार केवल भाई.
सुन्दर प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
समय के अंतराल में परम्पराएं बदलती भी रही हैं.
जवाब देंहटाएंसारगर्भित रचना...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !!
अर्थपूर्ण चिंतन ...कभी ठहर कर हम सब विचार तो करें...
जवाब देंहटाएंसटीक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबदलावों के प्रति हमारे दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन भी बहुत कुछ हमारे स्वार्थ का हिस्सा होता है और वह भी
जवाब देंहटाएंकाफी हद तक बदलाव लाने की प्रक्रिया हो सकता है. बेशक वह बदलाव हमारे लिए सहज न हो, लेकिन फिर भी बदलाव लाने की वह प्रक्रिया हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है.......................................................................
केवल मैं तुम्हारी बात से पूर्णता सहमत हूँ....पर ये बदलाव की स्थिति खुद पर लागू ना सिर्फ दूसरों पर ही क्यों लागू होती है |जब भी कोई बदलाव आता है वो अपने भीतर से क्यों नहीं आता |हर स्थिति अपनी मनचाही हो और ये जरूरी भी तो नहीं है |खिड़की से देखने में बदलाव पहाड़ की चोटी में नहीं आया ...ये भी सही है की बदलाव हमे अपनी नज़र और सोच में ही लगा पड़ा
पढ़ने सोचने और चिंतन योग्य लेख ...बहुत खूब
बढ़िया आलेख
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन प्रकृति का नियम है ... लाख विरोधों के बावजूद समाज में परिवर्तन लाने के लिए विचारक , बुद्धिजीवी जन्म ले ही लेते हैं .. जो समाज में प्रचलित कचरे को हटाकर साफ सफाई का काम करते हैं ....
जवाब देंहटाएंपुरानी, अव्यवहारिक और जर्जर परम्पराओं को उखाड़ फेंकने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है, वैसे भी परिवर्तन प्रकृति का नियम है, तो क्यों इन्हे ढोया जाये... सार्थक चिंतन..
जवाब देंहटाएंआकर्षक लेख.... आपकी इस लाइन ने मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया "वास्तविक कारण तो यह है कि उस पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए मुझे जो श्रम करना पडा जो कुछ झेलना पडा और जो अनुभव मुझे वहां जाकर हुए उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को बदल दिया."
जवाब देंहटाएंआकर्षक लेख.... आपकी इस लाइन ने मुझे कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया "वास्तविक कारण तो यह है कि उस पहाड़ की चोटी तक पहुँचते हुए मुझे जो श्रम करना पडा जो कुछ झेलना पडा और जो अनुभव मुझे वहां जाकर हुए उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को बदल दिया."
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन निरन्तरता बनाने में सहायक होते हैं।
जवाब देंहटाएंआजकल परिवर्तन तो होता है पर मनुष्य नहीं बदलता है.
जवाब देंहटाएं