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08 जून 2012

दुआ का एक लफ्ज, और वर्षों की इबादत...4

25 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे...!!! मनुष्य जब भौतिक चीजों से उपर उठकर सिर्फ और सिर्फ ईश्वर को पाने के लिए प्रार्थना करता है तो उसकी प्रार्थना उसे आनंद देने वाली होती है, और वास्तविक मायनों में यह ही सच्ची प्रार्थना है. क्योँकि इस प्रार्थना का फल हमेशा उसे आनंद देता है. जिसने इबादत में खुदा को मांग लिया वह धन्य हो गया. क्योँकि सांसारिक चीजों की प्राप्ति थोड़ी देर के लिए आनंददायक हो सकती है और फिर दुसरे ही क्षण हमारे सामने हमारी कोई और इच्छा जाग्रत हो जाती है. ऐसी हालत में हम सदा अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए ही प्रार्थना करते हैं और करते रहेंगे. लेकिन जिसने इबादत में खुदा से खुदा को मांग लिया वह धन्य हो गया. उसे किसी प्रकार का दुःख नहीं, वह हर परिस्थिति में एक जैसे भावों से युक्त है, वह खुद को इस ईश्वर में स्थापित कर लेता है. क्योँकि उसे इस बात का अहसास है कि:- राम नाम निज औषधि, काटे कोटि विकार. / विषम व्याधि ये उबरै, काया कंचन सार. (दादू)

राम नाम रूपी यह औषधि एक निजी औषधि है, और यह करोड़ों विकारों का शमन करने वाली है. जैसे ही
हमारे जीवन में ईश्वर का रंग चढ़ने लगता है तो हमारी विषमता
, असंतुलन कम होने लगता है, समता की अवस्था की और जीवन के भाव अग्रसर होते हैं, ईश्वर और जगत के बीच संतुलन कायम हो जाता है.
जितनी भी विषम परिस्थितियाँ इस जगत में उभरती हैं वह सब चित से हट जाती हैं, और हम इस स्वर्ण देह को देखते हुए इस नश्वर शरीर में ही अनश्वर शरीर को देख पाते हैं. ऐसी स्थिति में जीवन के प्रति मोह भंग तो नहीं होता, लेकिन जीवन की वास्तविकता समझ आती है कि इस नश्वर देह के साथ अनश्वर ईश्वर का गहरा सम्बन्ध है और फिर जीवन का हर क्षण दूसरों की भलाई के लिए, कल्याण के लिए प्रयुक्त होता है, यही से इबादत-दुआ बन जाती है. जब हम आत्मिक और भावनात्मक स्तर पर  बिना किसी लाभ हानि के हमेशा दूसरों का हित सोचते हैं तो हमारे आनंद की सीमा कई गुणा बढ़ जाती है फिर हम संसार की प्रत्येक परिस्थिति में एक जैसे भावों से युक्त रहते हैं और समय आने पर किसी के कल्याण के लिए , दुःख का शमन करने के लिए ईश्वर से दुआ करते हैं :-जीअ की बिरथा होइ सु गुर पहि अरदासि करि./छोड़ सिआणप सगल मनु तनु अरपि धरि”. (आदि ग्रन्थ : 519) 

अर्थात ऐसे गुरसिख की अरदास कभी खाली नहीं जाती जो पूरे समर्पण भाव से गुरु से प्रार्थना करता है, जो अपनी अक्ल और तन-मन को गुरु को समर्पित कर देता है. दुआ की पहुँच बहुत गहरी होती है, अगर सच्चे मन से हम कोई भी भाव इस ईश्वर के सामने रखते हैं तो वह निश्चित रूप से पूर्ण होता है.  इस भाव में किसी देश की, भाषा की, जाति की सीमा आड़े नहीं आती हम किसी के दुःख को देखकर दुआ करते हैं उसे तुरंत सुख महसूस होता है. कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि सामने वाले मनुष्य के लिए प्रार्थना करते ही उसके जीवन कि दशा बदलने लगती है और की बार तो प्रार्थना के बल पर ही आश्चर्यजनक परिणाम भी प्राप्त होते हैं. यह बात ध्यान देने वाली है कि प्रार्थना अंधविश्वास नहीं है, यह एक पक्का विश्वास है और यह विश्वास ईश्वर की पूर्णता और उसके साथ आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लेने के बाद ही प्राप्त होता है. ज्यादातर हमारी दुआ और इबादत अंधविश्वास पर आधारित होती है और ऐसी हालत में सामने वाला हमारा लाभ उठाता है. हमारी मजबूरी का लाभ उठाकर वह अपना स्वार्थ सिद्ध करता है. कई बार तो यह भी देखा जाता है ऐसे स्वार्थी व्यक्ति दुआ के नाम पर व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक शोषण भी करते हैं, यह एक नकारात्मक पहलू हैं. जिससे हमें बचना होगा. हम खुद के लिए जब प्रार्थना करते हैं तो उसमें हमारी इबादत और आस्था बहुत मायने रखती है, लेकिन जब कोई किसी के लिए दुआ करता है तो उसमें हमारा विश्वास काम करता है और यही हमारी इबादत और दुआ का आधार है.