01 जून 2012

दुआ का एक लफ्ज, और वर्षों की इबादत...3

म तो मायावी संसार को देखकर इसमें इतने रम जाते हैं कि अपनी वास्तविक स्थिति को ही भूल जाते हैं, और अगर ऐसा नहीं होता तो आज संसार के यह हालात नहीं होते. गतांक से आगे...! जीव जैसे ही इस दृश्यमान जगत में विचरता है तो यह दृश्यमान जगत उसे अपनी और आकर्षित करता है, क्योँकि सृष्टा ने इसे बनाया ही आकर्षक है, और इस दृश्यमान जगत की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक और नैसर्गिक प्रक्रिया का हिस्सा है. लाख कोशिश करने के बाद भी जीव का कोई वश नहीं चलता कि वह इस जगत से मुंह मोड़ ले, वह चाह कर भी इस मायावी जगत से अपना नाता नहीं तोड़ सकता. इस दृश्यमान जगत की प्रत्येक वस्तु (जड़-चेतन) उसे बेहद आकृष्ट करती है. इसीलिए वह इस मायावी संसार रमना चाहता है, सब कुछ भूलकर. वह इस भौतिक जगत का आनंद लेना चाहता है. तभी तो इरविन एडमिन ने लिखा है "जब तक मनुष्य साँस लेता रहेगा और उसकी आँखों में देखने की शक्ति रहेगी, तब तक जीवन के ऐसे अंतिम प्रतिमानों की खोज होती रहेगी और जिनको हृदय और मस्तिष्क दोनों की स्वीकृति प्राप्त होती रहेगी ". निश्चित रूप से मनुष्य की जिजीविषा और जिज्ञासा उसे हमेशा प्रयत्नशील बनाये रखते हैं और जब तक उसका मन और मस्तिष्क किसी अंतिम निर्णय को स्वीकार नहीं करता तब तक मनुष्य प्रयास करता रहता है. इस दृश्यमान जगत की उत्पति से लेकर निर्वाण तक का विचार मनुष्य ने किया है. जब हम गहराई से विचार करते हैं तो इस सृष्टि की तीन स्थितियों से अवगत होते हैं 1. सृष्टि की उत्पति 2. स्थिति 3. और प्रलय. हमारे धर्म ग्रंथों में इन सब स्थितियों के विषय में बहुत कुछ जानने को मिलता है और यह स्वीकार किया जाता है कि इस सृष्टि की उत्पति से लेकर विनाश तक के क्रम को ईश्वर द्वारा नियोजित किया जाता है, और यह बात सर्वमान्य है. यह भी माना जाता है कि इस सृष्टि की उत्पति ईश्वर ने की है, इसके पालन का आधार भी ईश्वर ही है और अंततः यह सृष्टि इस ईश्वर में ही समा जाएगी. गीता में भगवान् श्रीकृष्ण जी अर्जुन को इस विषय में समझाते हुए कहते हैं कि:- अहं सर्वस्य प्रभवो मतः सर्वं प्रवर्तते/ इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसविन्ताः (10 /08 /338.) "अर्थात मैं सब आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझसे ही उद्भूत है. जो बुद्धिमान यह भली भांति जानते हैं, वह मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में अपना सर्वस्व अर्पित करते हैंअब जब यह निष्कर्ष मनुष्य के सामने आता है तो वह किसी हद तक इसे स्वीकार करने से कतराता है. लेकिन जैसे ही उसकी बुद्धि और शक्ति उसे जबाब दे जाती है तो वह इस अदृश्य सत्ता के प्रति स्वतः ही नतमस्तक होता है", और फिर क्रम शुरू होता है इबादत का.
 
नुष्य अक्सर जब जिन्दगी की जंग हारने के कगार पर होता है तो वह दुआ और इबादत का सहारा लेता है.
हालाँकि हम दुआ और इबादत में अंतर करने में सक्षम नहीं होते, लेकिन इन दोनों शब्दों पर गहराई से विचार करते हैं तो दोनों शब्दों में स्वाभाविक अंतर जाना पड़ता है. "कहीं पर दुआ का एक लफ्ज भी असर कर जाता है, तो कहीं पर वर्षों की इबादत हार जाती है". निश्चित रूप से ऐसा होता भी है. मनुष्य पहले व्यक्तिगत स्तर पर इबादत करता है. जिसमें उसका अपना कोई न कोई मंतव्य छुपा होता है. लेकिन दुआ वह है जिसे किसी दुसरे के लिए कोई और करे, और इबादत वह है जिसे व्यक्ति खुद के लिए करे. इसलिए दुआ का एक लफ्ज असर कर जाता है और उस असर के पीछे दुआ करने वाले की भावना बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. हमारे यहाँ तो यह बातें प्रचलन में है ही कि "दुआ भी तक़दीर बदल सकती है " या फिर "जो काम दुआ कर सकती है, वह दवा नहीं" इसलिए दुआ की महता है. दुआ में भाव आ गया किसी की भलाई का, किसी की ख़ुशी का, किसी के सपने साकार करने का अब जब दुआ की जा रही है तो दुआ करने वाले ने खुद को मिटा दिया, वह खुद से उपर उठ गया, उसने अपने स्वार्थ को त्याग दिया, उसके लिए परिचित-अपरिचित, अपना-पराया, उंचा-नीचा कुछ भी मायने नहीं रखता उसके लिए तो मानवीय भाव बहुत महत्वपूर्ण है. सामने वाले की ख़ुशी महत्वपूर्ण है. लेकिन इसके साथ ही एक और बात भी महत्वपूर्ण है, क्या सच में जिसके लिए दुआ की जा रही है और जिस आवश्यकता के लिए की जा रही है उसमें उसका और मानवता का कितना भला होता है, यह बात महत्वपूर्ण है. क्योँकि ईश्वर से तो कुछ भी छुपा नहीं है, वह दुआ को तभी कबूल करेगा जब सामने वाले के हृदय में मानवीय हित का भाव प्रबल हो, और ऐसे भाव को लेकर की गयी दुआ का एक लफ्ज भी असर कर जाता है.

हालाँकि यह बात भी सही है कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की गयी दुआ भी असरकारक नहीं होती, कोई विशेष ही इस दिशा में महारत रखता है. इसलिए तो हम बड़ों का आशीर्वाद लेते हैं, उनके सामने अपने मन के भाव रखते हैं और मनोकामना करते हैं कि उनका कहा हुआ वचन सच निकले, इसी क्रम में गुरुओं-पीरों-पैगम्बरों आदि की महता बहुत बढ़ जाती है, हमारा विश्वास जितना दृढ होगा उतना ही हमें किसी की दुआ का लाभ मिलेगा. लेकिन इसका लाभ तभी लिया जा सकता है जब हम मानव और सृष्टि के अस्तित्व को समझते हैं और फिर इस बात को भली भांति समझते हैं कि इन सबमें ईश्वर या अदृश्य सत्ता की भूमिका क्या है? हम यह तो स्वीकार करते हैं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की व्यापकता में परमात्मा की बहुत बड़ी भूमिका है, यह इसका ही प्रतिबिम्ब है और इस व्यापकता को अनेक प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है. 
जिस प्रकार ईश्वर के अस्तित्व को समझने के लिए हमें मशक्कत करनी पड़ती है उसी प्रकार मानव के अस्तित्व को भी समझा जाना चाहिए. जिस तरह सृष्टि के तीन रूप हैं उसी प्रकार मानव अस्तित्व को भी तीन रूपों में समझा जा सकता है. 1. आधि भौतिक  2. आधि दैविक  3. आध्यात्मिक. इसे यूं भी समझा जा सकता है. रक्त, मांस, मज्जा से बना यह शरीर मनुष्य का अधिभौतिक रूप है, जिसे हम दुसरे शब्दों में स्थूल काया भी कहते हैं. यह स्थूल काया अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों का माध्यम है. आम व्यक्ति इसे ही सब कुछ समझ लेता है और जितने भी भ्रम आज हमारे सामने हैं वह इस आधिभौतिक रूप से जुड़े हैं. इसी के कारण एक से पंचभौतिक तत्वों से बना शरीर हिन्दू हो गया, मुसलमान हो गया, सिक्ख हो गया, ईसाई हो गया. आधार तो समझ का था लेकिन सब कुछ बदल गया, कहीं पर जाति हावी हो गयी, तो कहीं पर भाषा, कहीं पर धर्म तो कहीं पर क्षेत्र हावी हो गया. यह सब भिन्नताएं इस आधिभौतिक शरीर को सब कुछ मान लेने के कारण हैं. मनुष्य के आधिदैविक स्वरूप पर अगर विचार करें तो यह जीवात्मा की सत्ता से सम्बंधित है, और यह जीवात्मा भौतिक चेतना की नियामक और संचालक है. मनुष्य के इसी आधिदैविक रूप के कारण ही उसे सुख-दुःख, शुभ-अशुभ, बुरा-भला आदि कर्मों की प्रतीति होती है. भोग और अनुभूति से सम्बंधित जितने भी अनुभव हैं वह मनुष्य को उसके आधिदैविक रूप के कारण अनुभूत होते हैं. मानव जीवन की चरम उपलब्धि अगर ईश्वर से साक्षात्कार है तो इस शरीर में समाहित आत्मा की चरम परिणति परमात्मा में स्थापित हो जाने में है. आध्यात्मिक बोध का अनुभव आत्मा की व्यापकता में है और यह व्यापकता तब बढती है जब मनुष्य खुद को अपने पहले दो रूपों से उपर उठा कर आत्मिक स्वरूप में स्थापित करता है. अब इस स्तर पर कोई भेद नहीं, कोई भ्रम नहीं, कोई बंधन नहीं अगर कुछ है तो वह है सिर्फ और सिर्फ ईश्वर का बोध और आत्मिक स्तर का जीवन. हालाँकि इस स्तर को हासिल करना कठिन लगता है लेकिन यह नामुमकिन नहीं...जिन ढूंढा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ जिसने पा लिया उसने समझ लिया, जान लिया, अपना लिया. उसका प्रत्येक कर्म दुआ बन गया, इबादत हो गया...! कुछ बिन्दु अगले अंक में....!

21 टिप्‍पणियां:

  1. भोग और अनुभूति से सम्बंधित जितने भी अनुभव हैं वह मनुष्य को उसके आधिदैविक रूप के कारण अनुभूत होते हैं .

    बहुत बढ़िया प्रस्तुति,सुंदर रचना,,,,,

    RECENT POST ,,,, काव्यान्जलि ,,,, अकेलापन ,,,,

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  2. आध्यात्मिक बोध का अनुभव आत्मा की व्यापकता में है और यह व्यापकता तब बढती है जब मनुष्य खुद को अपने पहले दो रूपों से उपर उठा कर आत्मिक स्वरूप में स्थापित करता है .

    sakaratmak soch deta ..aadhyatm ke kareeb le jata sundar aalekh ...!!

    shubhkaamnayen .

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  3. waise to mai in sab ke bare me nahi janati par apki post se acchi jankari mili...
    :-)

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  4. बड़ा ही तार्किक व ज्ञानपरक आलेख..

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  5. कितनी अच्छी अच्छी बातें वो भी लॉजिक के साथ. काश कि समझ पाते हम तो ये दुनिया कितनी अच्छी होती.

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  6. सटीक तर्क लिए अर्थपूर्ण विवेचन .....

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  7. जिसने जान लिया उसका प्रत्येक कर्म दुआ बन गया और इन दुआओं में असर होना ही है !

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  8. बहुत अच्छा , काश इस सत्य की परछाई तक भी मनुष्य पहुँच सके ,

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  9. देखो जरा, दुआ की तो रुकी हुई किरपा भी आनी शुरु हो गयी। :)

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  10. दुआ ही इबादत हैं ..पूजा हैं ...इसी आस्था पर सारा संसार टिका हैं .....

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  11. बहुत बढ़िया आध्यात्मिक ज्ञानपरक आलेख..
    सुंदर प्रस्तुति..

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  12. बहुत अच्छा आलेख......
    धैर्य से पढ़ा जाने वाला........

    आभार.
    अनु

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  13. आशीर्वाद पाने वाला बलिष्ठ होता है तो जाहिर है आशिर्वाद देने वाले की ताकत कम होती है। वह अपना तेज दे रहा होता है। वह अपना तप दे रहा होता है। इसीलिए आशीर्वाद देने वाले को चाहिए कि वह पात्र का हमेशा ध्यान रखे। कुपात्र के लिए दुआ नहीं करनी चाहिेए।

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  14. @ कुपात्र के लिए दुआ नहीं करनी चाहिेए।
    कुपात्र को उसके जीवन संवारने के लिए दुआ की जा सकती है कि ईश्वर इसे सन्मति दे ....और जहाँ तक अध्यात्म की बात है वहां तो अध्यात्मिक व्यक्ति स्वयं इसे अनुभूत कर लेता है ....और फिर कोई निर्णय लेता है ....! कि क्या करना है ....!

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  15. bahut hi vicharniya aur gyanparakh post... sunder prastuti.

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  16. गहरे और कोमल एहसास के साथ सुन्दर प्रस्तुति.....

    एक शहीद का ख़त

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  17. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति । केवल राम जी बहुत दिन हो गए । आप मरे पोस्ट पर आए नही ।

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.