13 अप्रैल 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...3

गतांक से आगे......!!! मानव की जिजीविषा और प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की उत्कट इच्छा ने उसे सृजन की तरफ प्रवृत किया, इस सबके लिए उसे जो भी आयाम सहज लगा उसके माध्यम से उसने प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश की और आज तक वह इस दिशा में निरंतर प्रयासरत है. जितना कुछ भी आज तक मनुष्य ने अपनी जिज्ञासा और अनवरत संघर्ष के कारण हासिल किया है, उसका उपयोग उसने मानवता के कल्याण के लिए करने का भी प्रयास किया है. मनुष्य की बहुत सी उपलब्धियां व्यक्तिगत स्तर पर किये गए प्रयासों का परिणाम हैं, लेकिन जब भी उसे लगा कि इन व्यक्तिगत उपलब्धियों के माध्यम से मानवता का भला हो सकता है, तो उसने अपनी उन उपलब्धियों को मानवता के लिए समर्पित करके ख़ुशी की अनुभूति हासिल की है. क्षेत्र चाहे कोई भी हो साहित्य, तकनीक, कला, संगीत, चिकित्सा, योग, तन्त्र-मन्त्र या अध्यात्मिक उपलब्धियां और सिद्धियाँ. सबका प्रयोग उसने मानवता के कल्याण और मानव जीवन को सुखी और सुगम बनाने के लिए किया है.  

ऐसे में यह सहज ही सोचा जा सकता है कि सृजन के मूल में मानवीय हित ज्यादा रहे हैं. जिन्होंने भी सृजन की दुनिया में कदम रखा है, उन्होंने किसी देश विशेष, जाति विशेष या वर्ग विशेष के लिए सृजन नहीं किया है, उन्होंने तो पूरी मानवता की भलाई के लिए अपना ज्ञान और अपने चिन्तन की उपलब्धियों को समर्पित किया है. अगर हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसे भी सृजक हुए हैं जिन्होंने दुनिया के कुछ धूर्त लोगों द्वारा मनुष्य को बाँटने के लिए बनाई गई  विभिन्न तरह की व्यवस्थाओं और रीतियों को मानने से ही इनकार कर दिया है. उनका एक ही मंतव्य है कि सब कुछ इस ईश्वर से पैदा हुआ है, इसलिए व्यावहारिक रूप से हमें किसी भी जीव से किसी भी तरह का भेदभाव करने की कोई आवशयकता नहीं है. लेकिन अगर हम किसी भी जीव से किसी भी स्तर पर भेदभाव करते हैं तो हम मानवता के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं. हमें अपने चिंतन के बल पर वहां से आगे बढ़ने की जरुरत है. अगर हम बिना किसी तर्क के, निराधार किसी भी बात को स्वीकार करते हैं तो निश्चित रूप से हमें यह स्वीकारना होगा कि हम अभी भी रुढियों और भ्रामक परम्पराओं के दायरे से बाहर नहीं आये हैं, और जब तक इस दायरे को नहीं तोड़ा जाता तब तक सच्चे मानवीय धर्म की परिकल्पना हम नहीं कर सकते, और सृजन का जो मूल मकसद है उसे प्राप्त नहीं कर सकते. 

पूरी सृष्टि के मानवीय इतिहास पर जब हम नजर डालते हैं तो यह पाते हैं कि मानवता का आज तक का
ज्यादातर इतिहास आपसी संघर्षों का इतिहास रहा है. एक ऐसा इतिहास जिसमें लूट-खसूट, मार-काट, यातनाएं, गुलामी न जाने ऐसे कई प्रवृतियाँ रही हैं जिन्होंने मानव के जीवन को दूभर बनाया है. दुनिया का इतिहास हमें यह भी बताता है कि  कुछ ताकतवर व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कमजोर वर्ग के लोगों को अपना शिकार बनाते रहे हैं. कभी सामाजिक व्यवस्था के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी कानून के नाम पर. जब भी उन्हें जो अपने हितों के अनुकूल लगा उसका प्रयोग करके उन्होंने समाज के कुछ वर्गों को अपने प्रयोग का साधन बनाया है, और यह स्थिति तब की ही नहीं थी, आज भी हमें यत्र-तत्र-सर्वत्र ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं. आज बेशक हम अपने आप को आधुनिक और उत्तर-आधुनिक दौर के व्यक्ति कह रहे हों, लेकिन आज भी हम वहीँ खड़े हैं जहाँ हम हजारों वर्ष पहले खड़े थे. आज भी समाज के बहुत बड़े तबके को कहाँ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. बिना तर्क और बिना आधार का भेदभाव आज भी कहाँ समाप्त हुआ है? आज भी हमारी नजर में कहाँ व्यक्ति समान धरातल पर खडा है? कहाँ आज मानवीय पहलूओं के आधार पर इन्सान की कदर की जाती है? ऐसे बहुत से पहलू हैं जिन पर आज भी यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि दुनिया में इतना कुछ घटित होने के बाबजूद भी आज मनुष्य का चिंतन कोई खास प्रगति नहीं कर पाया है. 

जिन व्यक्तियों ने दुनिया में अपने सृजन के दम पर मानवीय पहलूओं को उजागर कर उन्हें स्थापित करने के लिए भरसक प्रयास किया है, उनके प्रयासों को दुनिया ने हमेशा नजरअंदाज किया है. लेकिन जहाँ भी अपने स्वार्थों की पूर्ति होती हुई उन्हें नजर आई वहां उन्होंने उनका समर्थन भी किया है. इसलिए सृजन का सन्दर्भ भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलूओं से भरा रहा है. लेकिन फिर भी हमें सकारात्मक दृष्टि अपनाते हुए आगे बढ़ने के जरुरत है. अगर हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो एक निश्चित सीमा तक हम कुछ नकारात्मक प्रवृति के लोगों को रोकने में सक्षम हो सकते हैं. लेकन यह तभी हो पायेगा जब हम पूरे परिदृश्य का आकलन करते हुए, भविष्य की सोच रखते हुए मानवता के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग करने का साहस रखते हों, और संभवतः यही सृजन की सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता होगी. लेकिन इस बात का भी अहसास है कि ऐसा सृजक हजारों लाखों में एक होता है, इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अँधेरा चाहे जितना भी गहरा और पुराना क्योँ न हो, अनवरत जलने वाला एक छोटा सा दीया भी अपने प्रकाश से उसे समाप्त करने की क्षमता रखता है. इसलिए सृजन के क्षेत्र में जिन्होंने भी विरोधों का सामना किया उन्होंने अपने मनोबल को कभी कम नहीं होने दिया, वह बढ़ते रहे और कुछ सकारात्मक प्रवृति के लोग उनसे जुड़ते रहे और मानव के जीवन को सुगम बनाने के लिए जितना प्रयास कर सकते थे, वह सब कुछ करते रहे.

सृजन और चिंतन के साथ-साथ मानव की अभिव्यक्ति के साधन भी बदलते रहे हैं. विचार और चिंतन पर परिवेश का भी प्रभाव रहा है. ऐसा भी हमें देखने को मिलता है कि कभी चिंतन ने परिवेश को प्रभावित किया है तो कभी परिवेश ने चिंतन की दिशा को बदला है. इसलिए तो यह कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है. लेकिन कभी-कभी समाज भी साहित्य के लिए रोचक और प्रेरक स्थितियां पैदा करता है. दोनों एक दूसरे से गहरा सम्बन्ध रखते हैं. समाज के विकास के साथ-साथ साहित्य की संवेदना का भी विकास होता है. साहित्य के सृजन के लिए बहुत कुछ समाज भी जिम्मेवार होता है. साहित्य में अभिव्यक्त होने वाले ज्यादातर पहलू समाज से ही लिए गए होते हैं. वर्तमान दौर सूचना तकनीक का दौर है. समाज बदल रहा है, मानवीय मूल्य परिवर्तित हो रहे हैं और ऐसे में सूचना-तकनीक का दखल मानव जीवन को बहुत व्यापक स्तर पर बदल रहा है. जहाँ सब कुछ बदल रहा है वहां अभिव्यक्ति के साधन भी बदले हैं और अभिव्यक्ति के तरीके भी. निश्चित रूप से अगर बदलाब आया है तो फिर मानवीय संवेदनाएं भी बदली हैं और उन्हें आज एक सशक्त माध्यम से अभिव्यक्त किया जा रहा है. जिसे हम ब्लॉग के नाम से अभिहित कर रहे हैं.....!!! शेष अगले अंक में.....!!!! 

5 टिप्‍पणियां:

  1. चिंतन पर मनन न हो तो समाज के नैतिक विकास में बाधा स्वाभाविक है। का व्यापक नजरिया!

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  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ९५ वीं बरसी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  3. चिंतन मनन के पश्चात मंथन द्वारा ही नवनीत प्राप्त होता है, निष्कर्श रुपी नवनीत ही समाज को दिशा देता है।

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  4. सचमुच सूचना-तकनीक के दखल ने अभिव्यक्ति के साधन के रूप में हमें ब्लॉग जैसा सशक्त और सरल माध्यम प्रदान किया है...

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.