पिछले अंक से आगे दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी
नहीं हुआ जब नारी और पुरुष को सामान समझा गया हो और यही बड़ी भूल है दुःख तो तब
होता है जब घर में जन्म देने वाले माँ-बाप ही लड़की के साथ भेद भाव करते हैं.
हालांकि आज के दौर में आप ऐसा कह सकते हैं कि स्थिति बदल गयी है तो ऐसा बहुत
मुश्किल से कहा जा सकता है और ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है. अगर जन्म देने
वाले ही लड़की को सिर्फ देह के आधार पर भेद कर रहे हैं तो फिर समानता का तो प्रश्न
ही पैदा नहीं होता और जब दो असमान चीजें साथ चल रहीं हों तो उनके एक होने का कोई
सवाल पैदा नहीं होता और फिर तो यही होगा जो हो रहा है और यह तो स्थिति फिर भी
नियंत्रण में है वर्ना जो ढांचा और व्यवस्था हमारे सामने हैं उसके परिणाम तो और भी
भयंकर होने कि संभावना है. अगर हम वक़्त रहते नहीं संभले तो, लेकिन
अभी तक सँभालने कि तरफ हमारे प्रेस बहुत कम हैं. क्योँकि जिस तरीके से भ्रूण
हत्याएं, बलात्कार, दहेज़ के उत्पीडन
आदि हो रहा है वह चिंताजनक ही नहीं बल्कि बहुत अफसोसजनक भी है.
आज की जिस व्यवस्था में हम जीवन यापन कर रहे हैं उसे अगर अंग्रेजियत की व्यवस्था कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हो सकता है आप असहमत हों लेकिन मेरे विश्लेषण का तो यही निष्कर्ष निकलता है और मैं अपने निष्कर्ष पर कायम भी हूँ. भारतीय जीवन पद्धति में नारी को हमेशा ही उंचा स्थान दिया गया है और संभवतः आज भी उसकी पूरी सम्भावना है अगर हम अंग्रेजियत वाली इस गुलाम मानसिकता से ऊपर उठ जाएँ तो हम समझ सकते हैं कि नारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अभिन्न अंग रही है, जबकि हम पश्चिम के दर्शन का विश्लेषण करते हैं तो वहां पर नारी को भोग कि वस्तु माना जाता रहा है और आज भी कमोबेश यही स्थिति है. यह बात आपको अचरज करने वाली काग सकती है लेकिन अठारवीं शताब्दी तक तो पश्चिम वाले स्त्री में आत्मा ही नहीं मानते थे, वह मात्र उनके लिए एक वस्तु थी जिसका वह उपभोग करते थे और आज भी किसी स्तर पर वह नारी के लिए सम्मान का रुख अख्तियार नहीं कर पाए हैं. ऐसी कई बातें है जिनका जिक्र किया जा सकता है और अन्धानुकरण करने वालों पर हंसा जा सकता है. आर्यवर्त की को संस्कृति रही है वह जीवन से लेकर मृत्यु तक, जड़ से लेकर चेतन तक बहुत वैज्ञानिक और सहज रही है इस बात में कोई दो राय नहीं. लेकिन हम हैं कि उस संस्कृति को समझने का ही प्रयास ही नहीं करते और आये दिन अन्धानुकरण की राह पर चलकर अपना और आने वाली पीढ़ियों का नुक्सान करते जा रहे हैं और दुहाई दे रहे हैं खुद के शालीन और चरित्रवान होने की तो यह समझ लीजिये कि आपके पास भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं.
नारी की वर्तमान स्थिति के लिए
अगर यह बात भी कही जाये कि आज जो दृष्टिकोण और सोच उसके प्रति
बनी है तो उसके लिए वह भी जिम्मेवार है. हम पुरुष को ही दोषी कहें तो ऐसा किसी हद तक हो सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है. आज के दौर में जो बलात्कार और अत्याचार हो रहे हैं उसमें नारी कि भूमिका कम नहीं है. लेकिन जब बहस की बात आती है तो हम वास्तविक पहलूओं को नजर अंदाज कर देते हैं और सिर्फ सतही स्तर पर बात करते हैं. अभी पिछले वर्ष दामिनी बलात्कार कांड के बाद पूरे देश में एक बहस सी छिड़ गयी थी, संसद में इस बात पर चर्चा भी हुई और एक कठोर कानून बनाके की बात भी सामने आयी, अपराधियों को मृत्यु दंड देने की बात भी कही गयी. यह बात ठीक है कि जिसने अपराध किया है उसे सजा तो मिलनी चाहिए, लेकिन क्या कानून ही सबकी रक्षा कर पायेगा. हमारे देश में बहुत हो हल्ला हुआ लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार नहीं हुए, या नहीं हो रहे हैं, स्थिति तो अब भी जस की तस है. हम सब भीड़ का हिस्सा बनाना पसंद करते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से काम करने में कोई यकीन नहीं करते. आप संगीत सुनते हैं शांति के लिए, सकून के लिए, ऊर्जा के लिए, प्रेरणा के लिए लेकिन जब आप यह सुन रहे हों कि चिपकाले फेविकोल से, फिर चोली के पीछे क्या है, तेरा जिस्म ओढ़ लूं आदि-आदि तो फिर क्या होगा ऐसा संगीत सुन कर. संभवतः आप जिस मंतव्य के लिए सुन रहे हों उसकी जगह आप कुछ और ही सुन लें. संगीत के साथ-साथ कमोबेश साहित्य की भी ऐसी स्थिति है. स्त्री विमर्श के नाम पर लिखा गया ज्यादातर साहित्य मात्र काम वासना ही बढाता है और कुछ नहीं. लेकिन ऐसे लोगों को हम बहुत महान कहते हैं और उनके सामने नतमस्तक होते हैं. साहित्य और संगीत जिनकी तरफ व्यक्ति सबसे पहले आकृष्ट होता है वहां तो अश्लीलता के सिवा कुछ नहीं और इसके लिए क्या नारी जिम्मेवार नहीं ???
बनी है तो उसके लिए वह भी जिम्मेवार है. हम पुरुष को ही दोषी कहें तो ऐसा किसी हद तक हो सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है. आज के दौर में जो बलात्कार और अत्याचार हो रहे हैं उसमें नारी कि भूमिका कम नहीं है. लेकिन जब बहस की बात आती है तो हम वास्तविक पहलूओं को नजर अंदाज कर देते हैं और सिर्फ सतही स्तर पर बात करते हैं. अभी पिछले वर्ष दामिनी बलात्कार कांड के बाद पूरे देश में एक बहस सी छिड़ गयी थी, संसद में इस बात पर चर्चा भी हुई और एक कठोर कानून बनाके की बात भी सामने आयी, अपराधियों को मृत्यु दंड देने की बात भी कही गयी. यह बात ठीक है कि जिसने अपराध किया है उसे सजा तो मिलनी चाहिए, लेकिन क्या कानून ही सबकी रक्षा कर पायेगा. हमारे देश में बहुत हो हल्ला हुआ लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार नहीं हुए, या नहीं हो रहे हैं, स्थिति तो अब भी जस की तस है. हम सब भीड़ का हिस्सा बनाना पसंद करते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से काम करने में कोई यकीन नहीं करते. आप संगीत सुनते हैं शांति के लिए, सकून के लिए, ऊर्जा के लिए, प्रेरणा के लिए लेकिन जब आप यह सुन रहे हों कि चिपकाले फेविकोल से, फिर चोली के पीछे क्या है, तेरा जिस्म ओढ़ लूं आदि-आदि तो फिर क्या होगा ऐसा संगीत सुन कर. संभवतः आप जिस मंतव्य के लिए सुन रहे हों उसकी जगह आप कुछ और ही सुन लें. संगीत के साथ-साथ कमोबेश साहित्य की भी ऐसी स्थिति है. स्त्री विमर्श के नाम पर लिखा गया ज्यादातर साहित्य मात्र काम वासना ही बढाता है और कुछ नहीं. लेकिन ऐसे लोगों को हम बहुत महान कहते हैं और उनके सामने नतमस्तक होते हैं. साहित्य और संगीत जिनकी तरफ व्यक्ति सबसे पहले आकृष्ट होता है वहां तो अश्लीलता के सिवा कुछ नहीं और इसके लिए क्या नारी जिम्मेवार नहीं ???
हम अगर किसी चीज का विरोध करना
चाहें तो जरुरी नहीं कि हम सड़कों पर उतरें जैसा कि अक्सर होता है और अब तो लोग सड़कों
पर उतरना अपनी शान समझते हैं. लेकिन सड़कों पर उतरने से कुछ नहीं होने वाला यह बात
आप मेरी मान लीजिये और अगर आप कुछ कर सकते हैं तो अपने घर में बैठकर ही. मेरा अपना
अनुभव है वह यह कि पिछले दस वर्षों से जबसे मैंने टी वी देखना बंद किया है तब से
मैं सकून के साथ जी रहा हूँ, अगर कुछ देखने
लायक हो तो तब कोई प्रतिबन्ध नहीं लेकिन संभवतः उसे में ना देखने वाली स्थिति ही
कहता हूँ, पिछले 3-4 वर्षों से मैं सुबह अख़बार नहीं
पढता, क्योँकि उम्र के जिस दौर से मैं गुजर रहा हूँ उसमें
सुबह अख़बार पढ़ना मेरे लिए खतरनाक है. कहीं कंडोम के विज्ञापन, हर रात सुहागरात वाले दावे, लॉन्ग ड्राइव जैसी बातें,
सुन्दरता के नाम पर बिलकुल न्यूड तस्वीरें और फिर मेरा चरित्रवान
बने रहना कहाँ किस दुनिया की बातें हैं. एक तरफ तो यह वहीँ दूसरी तरफ अश्लील
साहित्य की दुकाने, मैंने अपने शहर के मैंगजीन विक्रेता से कई बार पूछा है कि यह ‘मनोहर
कहानियां, मनोरंजक कहानियां, जीजा साली
के किस्से, जैसी मैगजीन कौन पढता है तो उसका उत्तर
आश्चर्यचकित चकित करने वाला था. उसने कहा लड़के-लड़कियों का ध्यान इस तरफ हो यह बात
तो समझ में आती है, लेकिन इन मैगजीनों को तो 50-60 साल तक के
स्त्री-पुरुष भी पढ़ते हैं. फिर हम कहते हैं कि हम सभ्य है, सुसंस्कृत
हैं, हम ऐसी चीजों का विरोध करते हैं और सख्त से सख्त क़ानून की मांग करते हैं. क़ानून के बजाय अगर हम आत्मानुशासन की तरफ कदम बढ़ाएं तो ज्यादा
बेहतर होगा.....!!! शेष अगले अंक में...!!!
सार्थक और सटीक लेख | अगली कड़ी का इंतज़ार | आभार
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
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बहुत अच्छा,श्रमिक दिवस की शुभ कामनाएं ,हाथी के खाने के दन्त और होते है वैसे ही समाज के
जवाब देंहटाएंडैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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आजकल यही हाल है, नेट पर तो अश्लील कहानियां और फ़िल्में एक साधारण सी बात है, सरकार को इसे प्रबंधितित करना ही चाहिये.
जवाब देंहटाएंरामराम.
नारी के प्रति विचार केवल एक पीढ़ी में ही न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं..स्पष्ट दिखते हैं।
जवाब देंहटाएंयह दौर परिवर्तन का है या विनाश का समझ में नहीं आता.
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
सकारात्मक दिशा में सोचना आवश्यक है ...... सार्थक सोच लिए पोस्ट
जवाब देंहटाएंकेवल ...आपकी इस पोस्ट में ये सच्चाई तो बहुत दमदार है कि आज के समाज और युवा को भटकाने में बहुत बड़ा हाथ मीडिया,हमारी हिंदी गानों का और आज कल की पत्रिकाओं का योगदान बहुत अधिक है|
जवाब देंहटाएंहर ओर अश्लीनता का ही राज दिखता है |
क़ानून के बजाय अगर हम आत्मानुशासन की तरफ कदम बढ़ाएं तो ज्यादा बेहतर होगा .....!!!
जवाब देंहटाएंबड़ी तेज़ी से विघटन हो रहा है समाज का ....कुछ तो सहेजना ही होगा ...!!
मुझे आप को सुचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि
जवाब देंहटाएंआप की ये रचना 03-05-2013 यानी आने वाले शुकरवार की नई पुरानी हलचल
पर लिंक की जा रही है। सूचनार्थ।
आप भी इस हलचल में शामिल होकर इस की शोभा बढ़ाना।
मिलते हैं फिर शुकरवार को आप की इस रचना के साथ।
हर जगह विकृतियाँ -समाज,साहित्य,मनोरंजन,आचार-विचार, भूषा,भाषा. और सबसे बढ़ कर मानव मन का प्रदूषण.क्या बच्चे,क्या बूढ़े पुरुष-स्त्री.स्वस्थ जीवन पद्धति के बिना छुटकारा नहीं !
जवाब देंहटाएंजीवन मूल्यों का निर्धारण .
जवाब देंहटाएंsarthak,saphal,preranadayk,lekh ke
lie aapko kotishah namn.
dhanyvaad.
नारी की वर्तमान स्थिति के लिए नारी और पुरुष दोनों ही ज़िम्मेदार है. सही कहा आपने. जब तक हम सभी अपनी सोच को नही बदलेंगे तब तक सब ऐसे ही च्लता रहेगा. सार्थक प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएं