23 जनवरी 2014

आत्महत्या पर आत्मचिन्तन...1

इस धरा पर ही नहीं सम्पूर्ण ब्रहामंड में जो कुछ भी है यह सब मिटने वाला है. जो भी पैदा हुआ है या निर्मित हुआ है उसे एक दिन अपने वास्तविक स्वरूप में आना ही है. जिन तत्वों से उसका निर्माण हुआ है उन तत्वों को एक दिन निश्चित रूप से अपने स्वरूप में लौटना ही है, इसलिए यह कहा जाता है कि ‘जो कुछ दिसे सगल विनासे, ज्यौं बदल की छाहीं’. जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, यह सब कुछ बादलों की छाया के सामान है और इसे एक दिन बदलना ही है, यहाँ हम मिटना नहीं कह सकते, क्योँकि विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि ‘पदार्थ न तो पैदा किया जा सकता है और न ही उसे समाप्त किया जा सकता है’. ऐसे में एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि जिसे हम समाप्त होना कह रहे हैं, क्या वास्तव में ऐसा होता है? लेकिन जब हम बहुत गहराई से विश्लेषण करते हैं तो तब हम पाते हैं कि जिन तत्वों से कोई भी स्वरूप निर्मित हुआ है और जिस तत्व से उस स्वरूप को चेतना मिली है वह दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं, एक जड़ है, एक चेतन, एक दृश्य है, एक अदृश्य, एक का स्वरूप बदलने वाला है, और दूसरा नित्य, एक प्रकृति का अंश है और एक परमात्मा का, एक को हम शरीर कहते हैं और दूसरे को आत्मा, एक की सीमा है और दूसरा असीमित, एक की सता बदलने वाली है और दूसरे की सता नित्य है. इस तरह से इन दोनों को हम जड़ और चेतन कह देते हैं. जहाँ तक प्रकृति का सम्बन्ध है वह भी उसी चेतन सत्ता से निर्मित हुई है, इसलिए उसमें भी कई बार चेतना पैदा करने के प्रयास हुए हैं. हमारे ऋषि मुनियों ने इस विषय पर व्यापक शोध किया है और उनके निष्कर्ष बहुत चौंकाने वाले हैं, हालाँकि आज के दौर में हम उनके निष्कर्षों को तरजीह नहीं देते, लेकिन एक बात तो सत्य है और आज का विज्ञान भी इस बात पर विचार कर रहा है कि ‘अगर पदार्थ में चेनता पैदा कर दी जाये तो मनचाहे परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं’. हमारे शास्त्रों में इस विषय में बहुत गहराई से विवेचन किया गया है और वह विवेचन काफी हद तक प्रमाणिक भी है और वैज्ञानिक भी. पदार्थ और उसकी सता के विषय में बहुत गहराई से विवेचन करने की जरूरत है, लेकिन यहाँ सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि जो कुछ भी हमें विभिन्न स्वरूपों में दिखाई दे रहा है वह सब पदार्थ ही है, और उसमें जो चेतना है उसके आदि स्रोत के कारण है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं.  
 
हमारे ऋषि-मुनियों ने, अनुसंधानकर्ताओं ने आत्मा और परमात्मा के विषय में कई तरह से विचार किया है. कहीं पर ज्ञान के माध्यम से, कहीं पर कर्म के माध्यम से और कहीं भक्ति के माध्यम से, योग जैसी विधा भी इसी चिन्तन का हिस्सा है, और फिर इन सब के अनेक आयाम हैं, अनेक विचार हैं और इन सबको क्रियात्मक रूप में लाने के अनेक तरीके भी हैं, लेकिन जहाँ तक निष्कर्षों की बात है तो वह लगभग एक जैसे ही हैं. वह यह कि जो कुछ भी निर्मित हुआ है वह एक दिन अपने वास्तविक स्वरूप में मिलेगा ही, और फिर वहीं से नव निर्माण होगा. भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इस विषय में समझाते हुए कहते हैं कि : देहिनो स्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा/ तथा देहान्तरप्रप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति. (2/13/64) जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में वाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है. लेकिन धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता. यहाँ पर यह बार ध्यान देने योग्य है कि किसी भी जीव की आत्मा जिसे हम चेतना भी कह सकते हैं, जब किसी शरीर को छोडती है तो वह तत्काल ही किसी दूसरे शरीर को धारण करती है, और इसके विषय में यह मत प्रचलित है कि कोई भी आत्मा जब स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त होती है तो उस स्थिति में उसके कर्मों के अनुसार उसे नया जीवन मिलता है. 

जीवन और मृत्यु शब्दों पर अगर विचार करें तो यह दोनों शब्द संस्कृत भाषा के हैं और दोनों परस्पर
विरोधी भी हैं. एक सुख और सकून का कारण है, तो दूसरा कहीं पर दुःख और बैचेनी का कारण भी है. जीव, ‘प्राणधारणे’-धातु से ‘जीवन’ शब्द और ‘मृड’, प्राणत्याग से ‘मृत्यु’ शब्द की व्युत्पति होती है. प्राणधार शब्द, प्राणत्याग शब्द का बिलकुल विपरीतार्थक है. इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि जब तक प्राण-वायु का संचार ‘नासिका रन्ध्र’ द्वारा शरीर में होता रहता है, तब तक जीवन है और जब प्राण-वायु का संचार ‘नासिका रन्ध्रों’ द्वारा शरीर में नहीं होता है तब ‘मृत्यु’ शब्द का प्रयोग होने लगता है. इस प्रकार ‘प्राण’ शब्द यहाँ पर महत्वपूर्ण हो गया, इसलिए योग में प्राण को साधने की बात भी व्यापक रूप से प्रचलित है, क्योँकि प्राण के आधार पर ही जीवन और मृत्यु का निर्धारण हो गया, जब तक प्राण चल रहा है तो जीवन है और प्राण न चलने की स्थिति में मृत्यु. किसी शरीर द्वारा प्राण वायु के धारण करने पर जीवन की स्थिति है और इसके परित्याग पर जीवन मृत है. प्राण के आधार पर ही शरीर की दो स्थितियों का निर्धारण हुआ है, जिन्हें हमने जीवन और मृत्यु कहा है, जीवन और मृत्यु का सम्बन्ध शरीर की स्थिति की अपेक्षा प्राणों से ज्यादा है, जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक नेत्रों से अंधा, कानों से बहरा, वाणी से गूंगा, अंगों से विकृत जीव को भी जीवित कहा जाता है और जब प्राण वायु का सम्बन्ध शरीर से हट जाता है तो इन्द्रियों से संपृक्त होता हुआ जीव भी मृत कहा जाता है. इसलिए शरीरधारी को हम ‘प्राणी’ भी कहते है, यहाँ यह महत्वपूर्ण हो गया कि शरीर की अवस्था की अपेक्षा प्राण की अवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण है. प्राण जीवन और मृत्यु का आधार है, और इसके आधार पर ही शरीर की स्थिति का निर्धारण होता है, चाहे कोई भी जीव हो. (यहाँ जीव शब्द को व्यापक रूप से लेने की जरुरत है), जब तक वह सांस ले रहा है तब तक वह जीव है, चाहे उसका स्वरूप कैसा भी हो. प्राण की अवस्था को हम किसी एक निश्चित शरीर के लिए निर्धारित नहीं कर सकते, क्योँकि प्राण के आधार पर ही हर किसी भी जीव की जीवन और मृत्यु की स्थिति का निर्धारण होता है. इसलिए प्राण को सबके लिए जरुरी और सबसे उत्तम माना गया है. छान्दोग्योपनिषद में प्राण को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है “ते ह प्राणाः प्रजापतिं  पितरमेत्योचु:, भगवन! को न श्रेष्ठ इति/ तान् होवाच-यस्मिन् व् उत्क्रान्ते शरीरं पापिष्ठतरमिव दृश्येत स वः श्रेष्ठ:”. (5/2/7) अर्थात प्रजापति के पास जाकर समस्त इन्द्रियों सहित प्राणों ने कहा-‘हे भगवन! हम सबमें बड़ा कौन है? प्रजापति ने उन सबको सीधा सा उत्तर दिया कि ‘जिसके निकल जाने पर यह शरीर अत्यंत हेय समझा जाए वही सबसे बड़ा है’. इससे भी यह बात जाहिर होती है कि शरीर में प्राण की अवस्था सबसे उत्तम है, सर्वश्रेष्ठ है और यही जीवन का आधार भी है. 

यहाँ एक प्रश्न यह भी पैदा होता है कि क्या प्राण परित्याग से शरीर की मृत्यु और प्राण के रहते-रहते जीवन, बस इतना सा ही सत्य है तो फिर किसी और मुद्दे पर उलझने की क्या जरुरत है? हमें तो सीधा सा उत्तर मिल गया कि जब तक किसी शरीर में प्राण हैं तो उसे हम जीवन कह दें और जब किसी शरीर से प्राण निकल जाएँ, या कोई शरीर प्राणों का परित्याग कर दे (आत्महत्या के सन्दर्भ में) तो उसे मृत कहा जाए. इस सन्दर्भ में तो जीवन और मृत्यु की व्याख्या बदल सकती है. लेकिन बात यहीं पर समाप्त नहीं हो जाती. बेशक प्राण को ही जीवन का आधार माना जाता है, लेकिन उस प्राण के संचरण के लिए भी जो चेतना काम कर रही है, जिसे हम जीव या आत्मा कहते हैं उसकी सत्ता महत्वपूर्ण है. जिस प्रकार शरीर और प्राण, आत्मा और परमात्मा, जीव और जगत, माया और ब्रह्म आदि के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं, उसी प्रकार जीव के देह त्याग और उसके बाद की स्थितियों पर भी अनेक मत और विचार प्रचलन में हैं. लेकिन इस विषय (देह त्याग के बाद आत्मा की स्थिति) का जहाँ तक सम्बन्ध है, उस विषय पर अनुभव और विश्लेषण के आधार पर कुछ नहीं कहा जा सकता. क्योँकि जब भी कोई शरीर को त्याग करता है तो न तो उसका कोई विश्लेषण हमारे पास उपलब्ध है और न ही किसी का ऐसा अनुभव है, जिसे हम उदधृत कर सकें, फिर भी जिज्ञासा वश मैंने वर्षों से इस विषय पर चिन्तन किया है, उस चिन्तन, अनुभव और हमारे ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, दार्शनिकों, सन्तों, महापुरुषों आदि के मतों के आधार पर इस विषय में कुछ बातें आपसे सांझा करने का मन किया तो यह क्रम शुरू कर दिया. हालाँकि जहाँ तक आत्मा की बात है उस विषय में हमें स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह ही सम्पूर्ण ब्रह्मंड में फ़ैली चेतना का ही एक रूप है ......!!!! शेषअगले अंकों में ....!!!

9 टिप्‍पणियां:

  1. आत्मा का सिद्धान्त समझते ही न जीवन से ऊब होती है और न ही अत्यधिक प्रेम।

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  2. अतिसुन्दर शब्दों में पिरोया गया लेख ,बधाई आपको ,यजुर्वेद में जैसे कहा ही गया है " यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे " का सम्पूर्ण अर्थ समझाता लेख ,शुक्रिया ,

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  3. वाह बहुत सुंदर लेख ... शरीर की अवस्था की अपेक्षा प्राण की अवस्था ज्यादा महत्वपूर्ण है. प्राण जीवन और मृत्यु का आधार है, और इसके आधार पर ही शरीर की स्थिति का निर्धारण होता है, चाहे कोई भी जीव हो.

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  4. पूरा भूलभुलैया है यह विषय।

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  5. आत्महत्या एक ऐसा जटिल प्रश्न जिसका उत्तर आज तक कोई नहीं जान सका है ....एक क्षण का आवेग और मृत्यु को गले लगा लेना

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  6. काफी ज्ञानपरक लेख है। आभार जी

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  7. आत्मा, मृत्यु और देह त्याग के बाद आत्मा की स्थिति कुछ ऐसे विषय हैं, जो आज भी रहस्य ही बने हुए हैं. जिज्ञासा बढती जा रही है, अग्रिम पोस्ट के प्रति .... गम्भीर चंतन

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  8. आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है.जितना वक्त इस पृथ्वी पर बिताती है सब उसी का खेल है.बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.