19 सितंबर 2010

आओ पृथ्वी को बचायें ..!


हम अपने चारों तरफ के वातावरण पर अगर नजर दौडाएं तो आज हमें आभास होता है कि हम बहुत प्रगति कर रहे हैं। हमारी पहुँच ब्रह्मंड के प्रत्येक ग्रह तक है । इन सारी बातों को सोचकर इंसान के जहन में गौरव का भाव आनायास ही उत्पन्न हो जाता। उसे लगता है कि उसने अपने बलबूते पर काफी अप्रत्याशित उपलब्धियां हासिल की हैं । एक दृष्टिकोण से तो इंसान का यह सोचना सही और सार्थक प्रतीत होता है । इसलिए इंसान कुछ नया करने की चाह से निरंतर क्रियाशील रहता है । उसकी क्रियाशीलता उसे उसके कर्म का परिणाम भी देती है । इंसान के हाथ में तो कर्म है, इसलिए उसे अपने कर्म का निर्वाह करते रहना भी चाहिए ।
आज जो कुछ भी हम धरती की हालत देख रहे है, क्या वह इंसानों के कर्म का परिणाम नहीं है ? क्या इंसान धरती पर बने इस माहौल के लिए जिम्मेवार नहीं है ? अगर है तो किस हद तक .........? इस माहौल को बनाने मैं उसकी भूमिका किस तरह की है ? अगर वह सार्थक कदम उठाये को कहाँ तक सफल हो सकता है ? यह सोच के विषय नहीं बल्कि इन विषयों पर निरंतर कर्म करने की आवश्यकता है । और जल्दी कोई सार्थक कदम न उठाये गए तो इस खुबसूरत धरती की क्या तस्वीर आने वाले समय में हमारे सामने होगी, इसके विषय में अनुमान लगाना हमारे लिए कठिन है । धरती पर बने इस माहौल से निपटना ही इंसान के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती है । और इसके समाधान के सिवाय इसके पास कोई चारा नहीं।
आज चारों तरफ ग्लोबल वार्मिंग की बात हो रही है । कई तरह के प्रयास भी इस समस्या से निपटने के लिए किये जा रहे है । सभी देशों का ध्यान इस तरफ है जरुर ,पर कदम कोई नहीं बढ़ाना चाहता । अगर कदम बढाने की बात होती तो पिछले वर्ष कोपेनहेगन में हुए सम्मलेन में हम किसी एक निर्णय पर पहुँच कर सार्थक कदम उठाते। उस सम्मलेन में हमारी पर्यावरण के प्रति जो चिंता थी उसका सही स्वरुप सबके सामने आ गया । फिर भी हम अपने आपको पर्यावरण का सबसे बड़ा चिन्तक मानते हैं । आखिर चिन्तक मानने से समस्या का समाधान तो नहीं होगा । समाधान के लिए जरुरी है समस्या की दिशा में कदम बढ़ाना , और वर्तमान हालातों के लिए जरुरी है सार्थक निर्णय लेकर उस पर अमल करना । ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसान की भौतिक इच्छाएं भी काफी हद तक जिम्मेवार हैं । विकास की अंधाधुन्ध दौड़ उसे एक दिन ले डूबेगी और तब इंसान के पास पश्चाताप के सिवा कुछ भी नहीं बचेगा । विकास करना कोई बुरी बात नहीं है । पर विकास के लिए अपने अस्तित्व को दाव पर लगाना भी तो समझदारी नहीं है। हम विकास करें पर अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए न कि अपने अस्तित्व को मिटाने के लिए ।

विकास की जिस दौड़ में इन्सान शामिल है उसका कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है । अगर होता तो आज हमारे सामने इतनी विकट स्थितियां न पैदा होती । आज इंसान- इंसान के खून का प्यासा बना फिरता है। दुनिया का कोई भी देश ऐसा नहीं होगा जिसे अपने उपर खतरा महसूस नहीं होता होगा । आतंकवाद का घिनोना चेहरा हमरे सामने है । यह भी काफी हद तक इसी विकास का परिणाम है , कि इन्सान के विनाश के लिए हमने परमाणु बम तक विकसित कर लिए और दुनिया आज बारूद के ढेर पर खड़ी दिखाई देती है । अगर यही हालत रहे तो किसी दिन जरुर उस बारूद की चूलें हिल जाएँगी और दुनिया तहस- नहस होकर अपना अस्तित्व मिटा देगी । फिर इस अंधे विकास का क्या लाभ मिलेगा और किस तरह मिलेगा ? यह प्रश्न विचारणीय है ।

आज हम तकनीकी रूप से जितने दक्ष होते जा रहे हैं उतनी ही हमारे पास समस्याएँ भी पैदा हो गयी हैं । मोबाइल फोन ,इन्टरनेट ,ने हमारी जिन्दगी में काफी हस्तक्षेप किया है काफी हद तक हमारी जिन्दगी को सुबिधाजनक बनाया है । पर जब हम इन चीजों का इस्तेमाल गलत तरीके से करते है तो यह हमारे लिए दुःख का कारण भी हैं। इसलिए हमें अपने प्रत्येक कदम को सोच समझ कर बढ़ाना होगा । सबसे पहले कोई ख्याल हमारे मन में पैदा होता है। फिर विचार और सोच का हिस्सा बनकर कर्म रूप में अभिव्यक्त होता है ।

आज विश्व में जितनी समस्याएँ हैं उनका हल तभी निकल सकता है जब प्रत्येक इंसान अपनी सोच और संवेदना को मानवता पर केन्द्रित कर किसी एक देश और जाति, धर्म के बारे न सोचकर सम्पूर्ण मानवता और मानवीय गुणों के बारे सोचे । फिर हमें किसी तरह के निर्णय लेने की समझ भी प्राप्त होगी ,और जब उदात भाव को सामने रखकर कोई कदम उठाया जायेगा तो वह सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी होगा .और इस तरह हम धरती को बचने में भी समर्थ हो जायेंगे ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. ग्लोबल वार्मिक के लिए दोषी मनुष्य को इसका प्रायश्चित स्वयं की बलि देकर ही करना पड़ेगा। प्रकृति स्वयं सबक सिखाएगी।

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.