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26 अप्रैल 2011

क्योँ नहीं पीते हो तुम

भरी महफ़िल में , लोगों ने मुझसे पूछा
क्योँ नहीं पीते हो तुम ???
बिना पीने के भला , कैसे जीते हो तुम !!!
फिर दबी आवाज में ....
क्या तुमने देखा नहीं है मयखाना ???
या तुम नहीं चाहते पीना और पिलाना ?
बिना पीने के किसको क्या आनंद आयेगा !!
वही तो डूबेगा इसमें जो पीना सीख जायेगा ...!

बात उनकी सुनकर , कुछ सोच समझकर
मैंने दिया जबाब
हाथ जोड़ कर कहा ...मेरी बात सुनो जनाब
पीने -पीने में भी हैं  बहुत अंतर
तुम पीते मयखाने में , मैं पीता निरंतर
बोले वो मेरी बात सुनकर
आज फिर तुमने झूठ कह दिया हंसकर

मैंने समझाया उन्हें बड़ी शराफत से
बात तुम सुनना मेरी नजाकत से
वो पीना भी क्या पीना , जो पीने के बाद उतर जाये
पीना तो वह है , जो बिना मयखाने के चढ़ जाए
उन्होंने फिर कहा
मजा आ गया अहा ...!
मैंने फिर उन्हें समझाया
कुछ उनकी समझ में आया


इश्क का जाम पीता हूँ मैं….

उनके ख़्वाबों के नशे में जीता हूँ मैं
मुझे नशा है इतना बेशुमार
नहीं जिसका कोई पारावार
उसकी आँखें हैं मेरी मयखाना.
मुझे बेहोश करता उसका मुस्कुराना
कोयल सा मधुर कंठ , जब उसका गूंजता
मेरा रोम - रोम गाता खिलता
रूप लावण्य की मूर्ति है वो
इसलिए मेरी नशे की पूर्ति है वो ..!
आज अपने कॉलेज के दिनों की डायरी देख रहा था तो यह कविता किसी एक पन्ने पर  मिल गयी सोचा इसे आप सबके साथ साँझा करूँ ......!

20 अप्रैल 2011

वफ़ा नजर आई

वफ़ा नजर आई उनकी वेवफाई मुझे
इश्क की दुनिया में लगी सच्चाई  मुझे

बदलते क्योँ हैं इश्क में इनसान के जज्बात
बात यह अब तक नहीं समझ आई मुझे

जुल्मों सितम तो मैंने किसी पर ढाया नहीं
फिर क्योँ दी उसने तोहफे में तन्हाई मुझे

सपने दिल के टूटे उनकी ही महफ़िल में
दुनिया अपनी ही लगने लगी पराई मुझे

इश्क के मयखाने में मय जब खत्म हो गयी
आंसुओं की ताल में उसने गजलें सुनाई मुझे

14 अप्रैल 2011

कबूतरों को उड़ाने से क्या?

अक्सर जब किसी समारोह में जाना होता है तो वहां पर शान्ति के प्रतीक कबूतरों को उडाया जाता है और कामना की जाती है कि कबूतरों के उड़ने से शान्ति सम्भव हो पायेगी। बहुत बार मैंने सोचा कि आखिर क्या वजह है कि इनसान शान्ति के लिए कबूतरों को उडाता हैजबकि वर्तमान वातावरण को निर्मित करने में इनसान की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अगर कहीं अशान्ति है तो वो इनसान के जहन में है  और वह शान्ति की  तलाश बाहर करता है. जबकि बाहरी वातावरण से उसका  कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध  नहीं है...जहाँ तक मैंने पढ़ा है कि ‘शान्तितुल्यं तपो न अस्ति, न संतोषात परम सुखं’ (शान्ति के बराबर कोई तप नहीं हैऔर संतोष से बढ़कर कोई सुख नहीं हैइससे यह बात समझ में आई कि शान्ति सबसे बड़ा तप है और संतोष सबसे बड़ा सुख है. लेकिन किस तरहयह विचार करना आवशयक है कि शान्ति सबसे बड़ा तप कैसे है?  और संतोष सबसे बड़ा सुख कैसे? जहां तक मुझे लगता है शान्ति और  सन्तोष का एक दूसरे के साथ अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
वास्तविकता में शान्ति किसे कहते हैं?  संतोष क्या है? यह हम समझ नहीं पाए। मैं हमेशा देखता-सोचता हूँ कि इनसान अपनी नियति का निर्धारण खुद करता है। वह अपने लिए रास्ते और मन्जिलें खुद निर्धारित करता है किसी का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध इन चीजों से नहीं होता और उसके हर निर्णय का प्रभाव उसे प्रभावित करता है। लेकिन व्यक्ति के जीवन का हर पहलु सिर्फ व्यक्ति के जीवन को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि उसका प्रभाव दूसरे व्यक्तियों के जीवन पर भी पड़ता हैसमाज में रहने वाला व्यक्ति सिर्फ व्यक्ति ही नहीं होता, बल्कि वह समाज की एक ‘ईकाई’ होता है. उसके प्रत्येक अच्छे और बुरे कर्म का प्रभाव समाज पर पड़ता है। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने हर निर्णय को सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए ले और इससे एक तो उसे लाभ होगा और दूसरे जो निर्णय उसने लिए हैं उनका लाभ किसी दूसरे व्यक्ति को भी मिलेगा। इस तरह से हम जिम्मेवार नागरिक बनते हुए दूसरों के मनों में शान्ति और सकून का वातावरण पैदा कर सकते हैं।
हर व्यक्ति का किसी दूसरे व्यक्ति से किसी न किसी तरह का नाता होता है चाहे वह नाता सकारात्मक हो या नकारात्मक। दोनों का अपना प्रभाव है जहाँ सकारात्मक प्रभाव हमें किसी के करीब ले जाता है तो वहीँ नकारात्मक प्रभाव हमें किसी व्यक्ति से दूर करता है। यह प्रभाव  सिर्फ व्यक्ति तक ही सीमित नहीं होता बल्कि इसका प्रभाव व्यापक होता है और कई बार तो यह  नकारात्मक प्रभाव का इतना प्रभावी होता है कि हम किसी समुदाय और समाज से वास्तविकता को जाने बगैर  नफरत करना शुरू कर देते हैंऔर काफी हद तक हम यह देख भी रहें हैं। यहाँ पर जो झगडे हैं सब हमारी नासमझी के कारण हैंहमने इनसान को  हिन्दू, मुसलमान, सिक्खइसाई और भी न जाने कितनी तरह सेकितने भागों में बांटा है और इसी बंटबारे के कारण आज धरती पर बसने वाले  प्राणी एक दुसरे से नफरत करते हैं। सामाजिक स्तर पर भी हम देखें तो हम कई भागों में विभाजित हैं। एक समुदाय का दुसरे समुदाय से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है तो फिर ऐसे हालात में हम एक दूसरे के खिलाफ नफरत के बीज बोते हैं  और जिस सुन्दर सी धरती पर हम ‘अमन और चैन’ से रह सकते हैं, वहां पर हम कभी भी अमन और चैन से नहीं रहेइतिहास इस बात का गवाह है।
आज जब वैश्वीकरण के दौर की बात की जा रही है विश्व को एक गाँव  माना जा रहा है, लेकिन यह बात सिर्फ कहने तक ही सीमित है वास्तविकता इससे कोसों दूर है। आज हर तरफ त्राहि-त्राहि है। जितना हमने भौतिक और तकनीकी विकास किया है, उसके कारण हमारे पास साधन तो जरुर बढ़ें हैहम भौतिक रूप से सशक्त जरुर हुए हैं। लेकिन मानसिक और आत्मिक रूप से हम कमजोर हुए हैं।  किसी को किसी से कुछ  लेना देना नहीं है सब अपने स्वार्थ के पीछे भाग रहे हैं।  आये दिन हम जो कुछ भी देखते हैं क्या किसी गाँव में इस तरह की घटनाएँ बर्दाश्त की जा सकती हैं? नहीं, गाँव तो वह होता है जहाँ मानवीय संवेदनाएं और भावनाएं एक दूसरे के साथ जुडी होती हैं और व्यक्तियों का एक दूसरे के साथ प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह का सम्बन्ध होता है। लेकिन जो वातावरण आज निर्मित हुआ है इसके लिए कौन  जिम्मेवार हैकिसी शेर ने  तो नहीं कहा कि तुम बंट जाओ अलग-अलग जातोंमजहबोंधर्मोंसमुदायों और ना जाने कितने रूपों में और फिर करो एक दूसरे का कत्ल और फैला दो इस सुन्दर सी धरती पर अशान्ति तब मैं तुम्हें कबूतर दूंगा शान्ति का पैगाम देने के लिए, क्योँकि मैं जंगल का राजा हूँ और इनसान को शान्ति के लिए यह सहायता मेरी तरफ से हा..हा...हा..! शायद ऐसा नहीं है। आज जिस तरह हम अस्त्र-शस्त्रों का विकास कर रहे हैं क्या वह शान्ति के सूचक हैं? नहीं! आज किसी देश और वहां के लोगों की उत्कृष्टता का पैमाना ही बदल गया है। हम अगर किसी देश का मूल्यांकन  करते हैं तो सिर्फ भौतिक रूप सेक्या  कभी कोई सर्वेक्षण आया कि इस देश के लोगों में इतनी मानवता और प्रेम की  भावनाएं हैंयहाँ पर इतने मानवीय मूल्यों को तरजीह दी जाती है, और भी कई मानवीय पहलू हैं जिन पर गम्भीरता से विचार किया जा सकता है और फिर उन्हें अपनाया जा सकता है।  लेकिन हम इन सारे प्रयासों से पीछे हटते जा रहे हैं और वास्तविकता को नजरअंदाज करते हुए आभासी बनते जा रहे हैं और इसी लिए हम शान्ति की तलाश भी कबूतरों द्वारा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा?
आओ ऐसे वातावरण का निर्माण करने के लिए प्रत्यनशील हों जहाँ पर  हर तरफ सकून और चैन होअमन हो, प्यार होभाईचारा होकिसी तरह की कोई दीवार न हो सब एक दूसरे से मिल सकें बिना किसी भेदभाव केधरती सबकी है यहाँ कोई  सीमा न हो सब रह पायें ख़ुशी  से,  इस साँसों के सफ़र में साथ-साथ और सिर्फ हाथ से  हाथ ही न मिलें बल्कि दिल से दिल भी मिलने चाहिए। तभी तो शान्ति सम्भव हो पाएगी। फिर तो इस जीवन को जीने का आनन्द ही अलग होगा और जब हम इस संसार से रुखसत होंगे तो हमें अपने किसी कर्म पर कोई पछतावा नहीं होगा। बस शान्ति के लिए प्रयास करना है तो अपने मन में उठने वाले हर उस नकारात्मक भाव को समाप्त करना है जो मानवता के लिए सुखदायी नहीं है। हमें तप और त्याग की भावनाएं दिलों में लिए हुए अपने जीवन सफ़र को तय करना है। शांति स्वतः ही आएगी उसके लिए किसी आभासी कार्य की जरुरत नहीं, बल्कि वास्तविक प्रयास की आवशयकता है और फिर यह कायनातयह खुदा का कुनबाजो बहुत सुन्दर है इसमें बसने वाला हर इनसान खुदा का रूप हैइन्हीं भावनाओं को दिल में बसाये हुए हम इस सृष्टि के कण-कण में खुदा को देख सकेंगे,  महसूस कर सकेंगे। अगर शान्त रहेंगे तो...!
मैं तहे दिल से आदरणीय अर्चना चावजी  का धन्यवाद करते हुए यह बात आप सबसे साँझा कर रहा हूँ कि इस पोस्ट की पॉडकास्ट सम्मानीय गिरीश बिल्लोरे जी के ब्लॉग ‘मिसफिट: सीधीबात पर और इसी ब्लॉग पर अर्चना चावजी की कर्णप्रिय आवाज में सुन सकते हैंआपकी सार्थक प्रतिक्रियाओं का इन्तजार रहेगाविनीत....केवल राम

05 अप्रैल 2011

कविता का दर्द


कागज की धरा पर
कवि की कलम से अवतरित
चार छ : शब्दों की वह पंक्ति
जब मेरे सामने , प्रस्तुत हुई
सहसा ....!
विषय तथा भाव पर मेरी नजर टिक गयी
विषय को समझने की कोशिश में
मेरी सोच की सारी सीमाएं टूट गयी 
जाने कवि ने उस कविता को
कितनी समस्याओं से सजा रखा था....!

इतने उलझे प्रश्न ???
इतनी उलझी समस्याएँ
आज के चमक के इस बाज़ार से
उस कविता में समाई थी
मैं थोड़ी देर.... उस कविता को निहारता रहा
बड़ी मुश्किल से
परिचय मैंने उस कविता का जाना ....!
बस उसी क्षण
उसने रुन्धते स्वर में
क .....ह ....ना ...शुरू किया

कवि था कभी
समाज का दर्पण
थी कविता समाज की पूंजी
वही कवि आज पुरस्कार की होड़ में
छदम नेता की चाटुकारिता में
मुझे माध्यम बनाकर
क्षतिग्रस्त कर रहा है , मेरी अस्मिता को

मुझे कर रहा है , शर्मिंदा ...
आज समाज की समस्या को , दुःख को
कवि कर रहा है नजर अंदाज
आज समाज  में
भ्रष्टाचार , बलात्कार , स्वार्थ
क्षेत्रवाद , जातिवाद , भाई भतीजावाद
साथ में घोर अपराध
कौन करेगा सतर्क , इस  समाज को
जहां ...!
नंगे बदन की नुमाइश लगी है
स्वर्ग की परियों के तन पर
कपडा सिकुड़ता जा रहा है
अंधी श्रद्धा के नाद पर
भक्त झूमता जा रहा है

भूल गयी वो राम की मर्यादा
कहाँ गया वो संतों का जीवन सादा
रह गयी मात्र शब्दों की पंक्ति
गांधी की 'सत्य और आहिंसा

अब थोथा लगने लगा है
"सत्यमेव जयते " 
टूट गए हैं ईमान
बहुत नीचे गिर चुका है इन्सान ..!
कर ली है उसने बहुत भौतिक तरक्की
लेकिन फिर भी नहीं है आत्मिक शांति
बहुत वीभत्स हो गया है संसार
क्या कहूँ ...?
यहाँ है सब ओर हाहाकार ...


फिर कविता ने मुझसे कहा
तुम मत करना कभी
जीवन की वास्तविकताओं से समझौता
बस खुद को बनाये रखना इंसान
तभी तुम बचा पाओगे मेरा ओर मेरे समाज का ईमान
बस इतना कह कर कविता मौन है ....!