17 नवंबर 2016

प्रकृति-मनुष्य और शिक्षा की भाषा...4

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गत अंक से आगे.....आम जनमानस बोली में ही अपने भावों को अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है, उसके जीवन का हर पहलू बोली के माध्यम से बड़ी खूबसूरती के साथ अभिव्यक्त होता है. हम अगर भाषा का गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि भाषा में प्रयुक्त कुछ शब्द भाव सम्प्रेषण में बाधक होते हैं. इसके साथ ही यह भी एक तथ्य है कि संसार की अधिकतर भाषाओं में प्रयोग होने वाले शब्द आसपास की बोलियों से लिए गए होते हैं, लेकिन बोली में अधिकतर शब्द मौलिक और भाव के बिलकुल निकट होते हैं. इसलिए भाषा के बजाय बोली भाव सम्प्रेषण के लिए ज्यादा सहज है, सार्थक है और स्वीकार्य भी. भाषा और बोली के सम्बन्ध में कई आयाम हमारे सामने हैं और दुनिया में जितने भी शोध आज तक हुए हैं वह यह बताते हैं कि मौलिक सृजन की मंजिल हमेशा बोली के रास्ते पर चलकर ही तय होती है. बेशक अन्त में उसे भाषा ही कहा जाता है.
हम यहाँ भाषा और बोली के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार करने के बजाय इस पहलू पर विचार करने की कोशिश करेंगे कि हम किस (भाषा/बोली) माध्यम से बच्चों को शिक्षा देने का प्रयास करें, जिससे कि वह अधिक से अधिक मौलिक सृजन कर सकें. हम अधिकतर यही मानते हैं कि भाषा तो सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम है, लेकिन हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि भाषा मात्र अभिव्यक्ति का ही माध्यम नहीं, वह हमारे सृजन और चिन्तन का भी आधार है. इसलिए हम जिस भाषा या बोली के करीब हैं, वही हमारे चिन्तन और सृजन के आधार को पुष्ट करती है. यह भी एक तथ्य है कि मनुष्य जिस भाषा को अपने बचपन में सीखता है वह उसी भाषा/बोली के माध्यम से ही सोचता है. जब सोच का आधार बचपन में सीखी हुई भाषा है तो स्वाभाविक है कि अभिव्यक्ति और सृजन के लिए भी वह उपयुक्त होगी.  
एक अवोध बालक बोलना अपने परिवेश से सीखता है, लेकिन जब हम उसे शिक्षा से जोड़ने का प्रयास करते हैं तो हम उसे किसी अन्य भाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रयास करते हैं. दुनिया में यह चलन कम है, लेकिन भारत के सन्दर्भ में अगर बात की जाए तो यहाँ अनेक बोलियाँ हैं, फिर क्षेत्रीय भाषाएँ हैं और फिर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय भाषाएं. अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हमारे देश में अंग्रेजी का प्रचलन जोरों पर है. हर किसी माँ-बाप की इच्छा है कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करे, साथ ही उनका यह भी प्रयास है कि वह किसी अच्छे से निजी विद्यालय में पढ़े. जिससे कि उसे एक बेहतर काम मिल सके और उसका जीवनयापन बेहतर तरीके से हो सके.
बाजारवाद के इस दौर में व्यक्ति को एक मशीन की तरह प्रयोग किया जा रहा है, और व्यक्ति की विवशता यह है कि वह न चाहते हुए भी इसके लिए खुद को प्रस्तुत कर रहा है. बाजारवाद व्यक्ति को भविष्य का एक सुनहरा सपना दिखाता है और हर व्यक्ति से यह अपेक्षा करता है कि वह उसके मत से सहमत होते हुए खुद को उसके साथ चलने के लिए सहमत कर ले, अगर कोई सहमत नहीं है तो उसे बाजारवाद विवशता से अपनी और मोड़ने की कोशिश करता है. ऐसे में सबसे पहले जिस पहलू पर वह मार देता है वह है, मनुष्य की भाषा और उसका रहन-सहन. मनुष्य में जब यह परिवर्तन हो जाते हैं तो वह सहज ही बाजारवाद के हाथों की कठपुतली बन जाता है. इसका सबसे बड़ा असर मनुष्य की बोली और स्थानीयता पर होता है. बाजारवाद बोली, स्थानीयता और परम्परा को पिछड़े होने की निशानी मानता है, जब व्यक्ति को यह बोध हो जाता है कि अपनी बोली-स्थानीयता और अपनी परम्पराओं का पालन करना पिछड़े होने की निशानी है तो वह जल्द से जल्द इनका त्याग करने की कोशिश करता है. जैसे ही व्यक्ति इस और आकृष्ट होता है तो वह अपनी बोली-वेशभूषा-रहन सहन आदि का त्याग करते हुए आधुनिक होने का सपना देखता है. लेकिन सच तो यह है कि व्यक्ति की आधुनिकता उसके पहरावे और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने में नहीं है, वह उसके विचारों से झलकनी चाहिए.
आज जहाँ पूरी शिक्षा व्यवस्था बाजारवाद के हाथों संचालित हो रही है तो ऐसे में हम कैसे यह तय करें कि हम अपने बच्चे को किस भाषा माध्यम से शिक्षा दें कि वह एक बेहतर सृजक बन सके, एक अच्छा विचारक बन सके. उसके जहन में मौलिक चिन्तन का बीज बोने के लिए जरुरी है कि उसे हम उस भाषा से जोड़ें जो आगे चलकर उसे अभिव्यक्ति और चिन्तन के बेहतर अवसर उपलब्ध करवा सके. इन सब पहलूओं को जब हम ध्यान में रखते है तो हम पाते हैं कि व्यक्ति जिस परिवेश में अपने जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में रहता है, वह उसी हिसाब से अपनी अभिव्यक्ति के विषय और क्षेत्र को चुनता है. इसलिए जरुरी है कि हम भावी पीढ़ियों को ऐसा वातावरण प्रदान कर सकें जिससे वह अपनी प्राकृतिक क्षमताओं का बेहतर से बेहतर प्रयोग कर सके और इसके लिए जरुरी है अपने आसपास एक सकारात्मक वातावरण तैयार करें. जिससे इस देश में पलने वाला हर एक बच्चा जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो सके. वह देश और दुनिया को कुछ बेहतर देन देते हुए अपने जीवन के सफर को तय कर सके. हम भी यह कोशिश करें कि हम अपने बच्चों को भाषा और बोली के प्रति सजग करते हुए उन्हें अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़ते हुए आगे बढ़ें.

11 नवंबर 2016

प्रकृति-मनुष्य और शिक्षा की भाषा...3

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गत अंक से आगे.....मनुष्य जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में अपने परिवेश से शब्दों के उच्चारण सीखता है. अधिकतर यह देखा गया है कि बच्चा सबसे पहले ‘माँ’ शब्द का ही उच्चारण करता है. फिर धीरे-धीरे वह अपनी जरुरत और सुविधा के हिसाब से शब्दों को सीखता है और उनका प्रयोग करता है. अगर हम बच्चों के शब्द भण्डार का अध्ययन करें तो हमें यह बात भी मालूम होगी कि बच्चों के पास प्रारम्भिक समय में सिर्फ वही शब्द होते हैं जो उनके भाव को अभिव्यक्त करने में सहायक होते हैं. यह भी एक तथ्य है कि उसके आसपास अन्य व्यक्तियों द्वारा जैसे शब्दों का उच्चारण अधिक होता है, वह भी वैसे ही शब्दों को बोलना शुरू करता है. जैसे-जैसे व्यक्ति की उम्र बीतती जाती है, शब्द और शब्दों से सम्बन्धित अर्थ उसे ज्ञात होते जाते हैं. मनुष्य की भाषा सीखने की प्रारम्भिक प्रक्रिया बड़ी रोचक है. प्रारम्भ में जहाँ मनुष्य सिर्फ शब्दों का उच्चारण करता है, वहीं समय के साथ-साथ वह शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को जानते हुए शब्द का प्रयोग करता है. व्यगोत्स्की ने इस तथ्य की और ध्यान दिलाते हुए लिखा है कि ‘बचपन में सम्प्रेषण और बोधन के विकास के अध्ययन इस निष्कर्ष की और ले जाते हैं कि वास्तविक सम्प्रेष्ण को अर्थ की आवश्यकता होती है, अर्थ अर्थात सामान्यीकरण सम्प्रेषण की वैसी ही अपरिहार्यता है जैसी कि संकेत’. व्यगोत्स्की के इस मत से स्पष्ट होता है कि बच्चे जिस शब्द को सीखते हैं उसमें निहित अर्थ की समझ विकसित होने पर वह उस शब्द के प्रति ज्यादा सजग हो जाते हैं. जैसे-जैसे उन्हें शब्दों के वास्तविक अर्थ का बोध होता है वैसे-वैसे वह शब्दों को ग्रहण करते जाते हैं. इसके साथ ही जिन शब्दों से उन्हें उनके भाव का बोध होता है वह उन शब्दों के प्रयोग के प्रति सहज होते जाते हैं. इस तरह से मनुष्य की भाषा सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है और वह ताउम्र भाषा से जुडा रहता है.
भाषा सीखने और उसके प्रयोग में मनुष्य की सोच बहुत मायने रखती है. यह अध्ययन बड़ा ही रोचक होगा कि एक बच्चा जब किसी शब्द को सीखता है तो वह उस शब्द को सीखते तथा उच्चारित करते वक़्त किस तरह की प्रक्रिया से गुजरता है. हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली वस्तुएं भी शब्दों के माध्यम से ही हमें परिचित होती हैं. हालाँकि वह वस्तुएं हमें दृष्टव्य होती हैं, लेकिन हम उन वस्तुओं के चित्र को अपने जहन में तब ही महसूस कर पाते हैं जब शब्द के माध्यम से हमें उनका बोध होता है. संभवतः बोली और भाषा के बीच में हम बोध को अगर महत्वपूर्ण पहलू माने तो हमें भाषा और बोली के महत्व को समझने में भी आसानी होगी. बोली हमारे भाव के बहुत करीब होती है, लेकिन भाषा भाव से कहीं दूर. इसलिए कोई भी व्यक्ति जब बोली में अपने भाव को अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है तो वह सहजता से हर भाव को अभिव्यक्त करता है. लेकिन भाषा के माध्यम से वह अभिव्यक्ति की उस ऊंचाई कोई नहीं छू पाता.
बोली मनुष्य की अभिव्यक्ति का आधार है. दुनिया में हुए अधिकतर शोध इस तथ्य की और संकेत करते हैं कि मनुष्य की सोचने की प्रक्रिया उस भाषा के माध्यम से नियन्त्रित होती हैं जिसे मनुष्य अपने बचपन में सीखता है. इस सन्दर्भ में इतालबी लेखक लुइगी मैंगलो का कथन दृष्टव्य है. वह लिखते हैं कि ‘मानव व्यक्तित्व में दो परतें होती हैं, उपरी वाली परत बाह्य घावों के समान होती है. इतालवी, फ्रेंच और लैटिन शब्द, इसके नीचे वाली परत आंतरिक, ऐसे घावों के समान होती है जो भरने पर अपने निशान छोड़ जाते हैं. यह हैं बोलियों के शब्द. जब हम इन निशानों को छूते हैं तो एक दृश्यमान शृंखलात्मक प्रतिक्रया प्रारम्भ होती है. इसे उन लोगों को समझाना बहुत मुश्किल है जिनकी कोई बोली नहीं होती. यह एक समझे हुए तथ्य का कभी नष्ट न होने वाला केन्द्र है. यह इन्द्रियों के तन्तुओं से जुड़ा होता है. बोली का शब्द हमेशा यथार्थ पर टिका होता है, क्योंकि यह दोनों एक ही होते हैं. इन्हें कारण देने से पहले ही हम पहचान लेते हैं. यह कभी गायब नहीं होते चाहे इन्हें हमें दूसरी भाषा में भी कारण या तर्क क्यों न सिखा दिया जाए. इससे स्पष्ट होता है कि बोली का आधार मानवीय भाव की अभिव्यक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. बोली ताउम्र मनुष्य की अभिव्यक्ति का आधार रहती है, जबकि भाषा के सन्दर्भ में यह तथ्य सटीक नहीं बैठता है. मैंगलो के कथन से एक और बात भी स्पष्ट होती है कि बोली के शब्द और अर्थ यथार्थ के धरातल पर आधारित होते हैं, जबकि भाषा में अधिकतर शब्द हमें अवास्तविक सत्ता का बोध करवाते हैं.
भाषा और बोली के सम्बन्धों को समझते हुए हमें एक और बात भी स्पष्ट हुई कि बोली का आधार अनुभव और बोध के वास्तविक धरातल पर अवस्थित है, क्योंकि बोली का सम्बन्ध मनुष्य की सोच और अनुभव से जुडा है. जबकि भाषा को हम सीखते हैं, अगर बहुत देर तक हम किसी भाषा का प्रयोग नहीं करते तो हम उसके शब्द और शब्दों से सम्बन्धित अर्थों को भूलते जाते हैं. इसलिए मनुष्य को बोली प्रकृति प्रदत्त वरदान है, और वही उसकी अभिव्यक्ति का आधार भी है. अब यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि जब बोली मनुष्य के अनुभव और बोध के बिलकुल करीब होती है तो फिर भाषा की क्या आवश्यकता है? यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है. दूसरा यह भी कि जब संसार में मनुष्य को भाव की अभिव्यक्ति के लिए बोली की ही आवश्यकता है तो फिर भाषा को सीखने की क्या जरुरत है? हमें बोली और भाषा के सम्बन्धों पर भी विचार कर लेना चाहिए. सामान्यतः भाषा-विज्ञान और व्याकरण में हमें यह समझाया जाता है कि जिसके माध्यम से साहित्य रचा जाता है उसे हम भाषा कहते हैं. लेकिन जब हम गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि साहित्य की जिनती भी विधाएं और प्रकार शिष्ट साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उससे अधिक और विविध प्रकार बोली में भी देखने को मिलते हैं, और वह हजारों वर्षों से अपना अस्तित्व बरकरार रखे हुए हैं. उन्हें सहजने के लिए न तो किसी लेखक की जरुरत है और न ही किसी प्रकार के खास प्रयत्न की. बोली में रचित साहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी अपना अस्तित्व कायम किये हुए है. यह हुआ इस ही कारण है कि बोली में जो कुछ भी रचा गया है वह हमारे भाव और संवेदना के सबसे ज्यादा निकट है. इसलिए लोक में भाषा के बजाय बोली को ज्यादा तरजीह दी जाती है. शेष अगले अंक में...!!

06 नवंबर 2016

प्रकृति-मनुष्य और शिक्षा की भाषा...2

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गत अंक से आगे...भावों की अभिव्यक्ति के लिए मनुष्य ही नहीं, बल्कि जीव जन्तु भी कुछ ध्वनि संकेतों का प्रयोग करते हैं. हालाँकि हम उनके ध्वनि संकेतों को समझ नहीं पाते, लेकिन सामान्य व्यवहार में देखा गया है कि वह ऐसा करते हैं. जीवन की हर स्थिति में वह भी अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं. जो पशु-पक्षी-जन्तु मनुष्य के साथ-साथ जीवन जीते हैं, उनके हाव-भाव से तो यही प्रतीत होता है कि वह भी भावों की अभिव्यक्ति के लिए कुछ ध्वनि संकेतों का सहारा लेते हैं. जैसे कभी आप प्रयोग करके देखें कि गाय ने जब किसी बच्चे को जन्म दिया हो, उसके बच्चे को जब कोई हानि पहुंचाने की कोशिश करता है या जब कोई उसे उससे दूर करने की कोशिश करता है तो वह इस तरह का व्यवहार करती है कि हमें उसकी सम्वेदना और बच्चे के प्रति उसका प्यार समझ आता है. कई बार हम जंगलों में भी देखते हैं कि अगर किसी जन्तु को कोई तकलीफ होती है तो उस क्षेत्र में रहने वाले सभी जीव-जन्तु वहां इकठ्ठा हो जाते हैं, कई बार तो दृश्य इतना सुखद और सम्वेदनात्मक होता है कि जो जीव किसी दूसरे के आहार का आधार है, उसे तकलीफ की स्थिति में वह भी हानि नहीं पहुंचाते. ऐसे दृश्य देखने के बाद कई बार मनुष्य के व्यवहार के विषय में सोचना पड़ जाता है कि किसी विकट स्थिति में कई बार मनुष्य दूसरे मनुष्य का गलत फायदा उठाने की कोशिश करता है. लेकिन ऐसी स्थिति में पशु ऐसा कम ही करते देखे गए हैं. कुल मिलाकर यही समझने का प्रयास में कर रहा हूँ कि प्रकृति में विचरण करने वाले अधिकतर चेतन जीव अपना भावों को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ ध्वनि संकेतों का सहारा लेते हैं, मनुष्य भी उनमें से एक है.
मनुष्य के व्यवहार और भाव अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में अगर हम भाषा का अध्ययन करने का प्रयास करते हैं तो एक रोचक सा संसार हमारे सामने उपस्थित हो जाता है. मनुष्य की भाषा और अभिव्यक्ति का प्रभाव उसके पूरे जीवन पर देखा जा सकता है. मैं कई बार सोचता हूँ कि मनुष्य के पास अगर भाषा नहीं होती तो मनुष्य की स्थिति क्या होती? भाषा विहीन मनुष्य क्या वह सब कुछ हासिल कर लेता, जो वह आज तक करता आया है या जो वह आज कर रहा है. संभवतः वह ऐसा नहीं कर पाता. क्योँकि मनुष्य ने किसी भी क्षेत्र में जो कुछ हासिल किया है उसका आधार भाषा रही है. भाषा के बिना मनुष्य की प्रगति सम्भव नहीं होती. इसलिए भाषा मात्र भावों की अभिव्यक्ति के लिए ही जरुरी नहीं है, भाषा का उद्देश्य व्यापक है. इस संसार में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. मनुष्य के महान अविष्कारों में भाषा का आविष्कार एक महान आविष्कार कहा जाना चाहिए और भाषा को सदा-सदा के लिए सुरक्षित और जन-मन तक पहुंचाने के लिए किया गया लिपि का आविष्कार भी कोई महत्वपूर्ण नहीं है. समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि भाषा और लिपि का आविष्कार इस संसार में अब तक हुए अविष्कारों में सबसे महत्वपूर्ण हैं, अगर यह आविष्कार नहीं होते तो शायद जितने भी आविष्कार आज तक हमें किये हैं, उनका कोई भी बजूद नहीं होता.
भाषा और लिपि का आविष्कार मनुष्य की चिरंतन सोच का नतीजा है. लेकिन हम यह भी देखते हैं कि इस संसार में भाषाएँ अधिक हैं और लिपियाँ कम. यह एक अलग बहस का बिन्दु हो सकता है. लेकिन हम यहाँ इस तथ्य को भी नजर अंदाज नहीं कर सकते कि लिपि के आविष्कार से पहले मनुष्य ने भाषा का आविष्कार किया है. आज भी हम दुनिया में यह देख सकते हैं कि कई भाषाएँ ऐसी हैं जो हजारों वर्षों से अस्तित्व में हैं, लेकिन उस भाषा में लिखित कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. जो ध्वनि संकेत पीढ़ी दर पीढ़ी किसी समुदाय, जाति और क्षेत्र में रहने वाले लोगों के बीच में प्रचलित रहे हैं, वह उनकी भावाभिव्यक्ति का आधार हैं. सामान्य स्थिति में हम उसे बोली कहते हैं.
बोली के विषय में व्याकरण और भाषा विज्ञान में कुछ परिभाषाएं पढने को मिल जाती हैं. लेकिन इन परिभाषाओं का उपयोग हम भाषा शिक्षण और भाषा प्रयोग में करते हैं. भाषा वैज्ञानिकों और वैयाकरणों ने भाषा और बोली के अन्तर पर विचार करने की कोशिश की है. लेकिन यहाँ हम यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि मनुष्य अपनी भावाभिव्यक्ति और संवाद के लिए जिन ध्वनि संकेतों का प्रयोग करता है वह उसके लिए कितना महत्वपूर्ण हैं. हम देखते हैं कि मनुष्य जन्म लेने के साथ ही जिन ध्वनि संकेतों के माध्यम से अपने भावों को दूसरों तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं, उसे हम मातृभाषा कहते हैं. दुनिया के तमाम मनुष्य सबसे पहले माँ से सीखी हुई या ग्रहण की हुई भाषा में ही अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं. इससे के बात और भी समझ आती है कि मनुष्य जन्म से भाषा विहीन होता है, लेकिन धरती पर जन्म लेने के बाद वह जिस परिवेश में पलता है वह वहां की भाषा सीख करके उसके माध्यम से अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है. इसलिए दुनिया भर में किये गए शोध से यह बात भी सामने आई है कि मनुष्य जिस भाषा को अपनी माँ से सीखता है वह ताउम्र उसी भाषा में सोचता है, बेशक वह भाव को किसी और भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त करता है, लेकिन सोच के स्तर पर वह उसी भाषा या बोली में सोचता है जो उसने अपनी माँ से सीखी हो, जिस हम मातृभाषा की संज्ञा से अभिहित करते हैं. 
मातृभाषा को सामान्य शब्दों में माँ से सीखी हुई भाषा के सन्दर्भ में परिभाषित किया जा सकता है. ऐसे ध्वनि संकेत जिन्हें हम माँ से सीखते हैं, उन्हें मातृभाषा की संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है. एक नवजात अपने घर-परिवार से ही भाषा की प्रथम शिक्षा पाता है. लेकिन भाषा शिक्षण और भाषा प्रयोग के प्रारम्भिक बिन्दु क्या हैं? यह जानना बड़ा रोचक है. दुनिया के तमाम देशों के मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति भाषा या बोली के माध्यम से करते हैं. जहाँ तक बोली का विषय है उसे हम मातृभाषा भी कह सकते हैं. मातृभाषा को हमें माँ से सीखी हुई भाषा के सन्दर्भ में प्रयोग करना चाहिए, कुछ लोग मातृभाषा शब्द को किसी देश विशेष की भाषा के सन्दर्भ में भी प्रयोग करते हैं. लेकिन मैं जहाँ तक समझता हूँ कि इस शब्द का बेहतर प्रयोग माँ से सीखी हुई भाषा के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए, जिस सामान्य तौर पर हम बोली कहते हैं. बोली और भाषा में बुनियादी तो नहीं लेकिन व्यवहारिक अन्तर जरुर हैं. उनके विषय में किसी और रूप में भी चर्चा की जा सकती है. लेकिन यहाँ सरसरी और कुछ हद तक व्यवहारिक समझ के लिए हमें यह समझना जरुरी है कि भाषा शिक्षण ज्यादा जरुरी है या भाषा प्रयोग. लेकिन जहाँ तक अनुभव रहा है मनुष्य जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में बोली को सीखता है. शेष बिन्दु अगले अंक में...!!

01 नवंबर 2016

प्रकृति-मनुष्य और शिक्षा की भाषा...1

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इस ब्रह्माण्ड को जब हम समझने का प्रयास करते हैं तो हम यह पाते हैं कि इसकी गति निश्चित है. जितनी भी जड़ और चेतन प्रकृति है वह अपनी समय और सीमा के अनुसार कार्य कर रही है. विज्ञान ने अब तक जितना भी इस ब्रह्माण्ड के विषय में जाना है उससे तो यही सिद्ध होता है कि इस ब्रह्माण्ड का आधार विज्ञान है. जिनती भी जड़ और चेतन सत्ता है वह सब नियम से बंधी हुई है, और उसी नियम के अनुरूप वह कार्य कर रही है. अगर कहीं पर थोड़ी सी भी असंतुलन की स्थिति पैदा होती है तो प्रकृति उसे संतुलित करने का प्रयास करती है, और कई बार प्रकृति का यह प्रयास किसी के लिए नुकसानजनक होता है तो कई बार यह किसी के लिए लाभदायक हो जाता है. लेकिन बहुत गहराई में जाकर देखते हैं तो इस प्रकृति की उत्पति से लेकर आज तक यह नियमों में बंधी हुई प्रतीत होती है, वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने जो मत और निष्कर्ष हमारे सामने रखे हैं उससे भी यही प्रतीत होता है कि यह सृष्टि एक ख़ास नियम के तहत निर्मित हुई है और समय के साथ-साथ इसमें बदलाव हुए हैं और यह बदलाव निरन्तर जारी हैं. लेकिन एक दिन ऐसा भी आएगा कि इस सृष्टि का अस्तित्व भी समाप्त हो सकता है. लेकिन कब? इसके विषय में कोई अनुमान नहीं लगा सकता.
इस पूरी जड़ और चेतन सत्ता के बीच में अनेक जीव-जन्तु हैं, वनस्पतियां हैं. लेकिन मनुष्य का जहाँ तक प्रश्न है वह भी इसी प्रकृति का एक हिस्सा है. इस धरा पर रहने वाले अधिकतर जीव सुख और दुःख की अभिव्यक्ति लगभग एक से तरीके से करते हैं. हमारे देश में तो यह भी मान्यता रही है कि निद्रा-भोजन-भोग और भय की अभिव्यक्ति पशु और पुरुष में समान रूप से होती है. जीव-जन्तुओं के रहन-सहन और व्यवहार से कई बार यह प्रतीत होता है कि वह भी एक ख़ास मकसद से क्रिया-प्रतिक्रया करते हैं. इसलिए जितना भी उपलब्ध ज्ञान मनुष्य के पास है वह उस आधार पर इस तथ्य को उद्घाटित करने का प्रयास करता है कि मनुष्य के आसपास रहने वाले जीव-जन्तु और वनस्पति भी अपने भावों की अभिव्यक्ति करते हैं, और वह भी अपने सुख-दुःख, हर्ष-शोक को उसी तरह अभिव्यक्ति करते हैं जैसे कि मनुष्य करता है. वह भी साथ रहना पसंद करते है, उन्हें भी अपने को नुकसान पहुँचाने वाले से डर लगता है, वह भी उससे बचने का प्रयास करते हैं. उनके लिए भी जीवन का मोल है. ऐसे बहुत से तत्व और पहलू हैं जो इस धरा के प्राणियों में समान रूप से पाए जाते हैं, फिर भी मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो इन सबसे श्रेष्ठ है. लेकिन इतना तो मनुष्य को भी नहीं भूलना चाहिए कि वह भी इस प्रकृति का हिस्सा है, वह भी इस प्रक्रति की ही उपज है और उस पर भी प्रकृति के सभी नियम समान रूप से लागू होते हैं और उन नियमों का पालन करना मनुष्य का कर्तव्य है, वर्ना प्रकृति उसे कई बार अवहेलना का दंड दे देती है और यह कई बार हुआ भी है.
हम थोड़ी सी कल्पना इस सृष्टि के प्रारम्भ के विषय में करें, जब यह संसार उत्पन्न हुआ होगा! कैसी अवस्था रही होगी उस समय की? यह जानना बड़ा रोचक है. लेकिन बहुत सी जानकारियां होने के बाबजूद भी कोई अन्तिम प्रमाण और तथ्य हम प्रस्तुत नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी कुछ सिद्धान्तों और स्थापनाओं को समझते हुए सृष्टि की उत्पत्ति और उसकी गति के विषय में जाना जा सकता है और ऐसा प्रयास चिरकाल से होता भी रहा है. आज भी प्रकृति के रहस्यों को जानने के प्रयास निरन्तर जारी है. इन सब प्रयासों के विषय में हमें जिस माध्यम से जानकारी मिलती है उसे हम ‘साहित्य’ कहते हैं. साहित्य जिस माध्यम से हमारे पास उपलब्ध होता है उसे हम ‘भाषा’ कहते हैं, और भाषा का पठन-पाठन जिस माध्यम से किया जाता है उसे ‘लिपि’ कहा जाता है. लेकिन ऐसा भी हम देखते हैं कि मनुष्य जब पैदा होता है तो वह अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा का सहारा लेता है.
किसी नवजात को जब हम देखते हैं तो वह भी अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देता है, वह सबसे पहले रोता है जब उसके पास शब्द नहीं होते, धीरे-धीरे वह शब्दों के माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्त करता है. मनुष्य की भाषा और उसके सीखने की प्रक्रिया पर भी बहुत अनुसंधान हुए हैं, और इस दिशा में निरन्तर प्रयास जारी हैं कि आखिर एक बच्चा भाषा को किस तरह से सीखता है और उसके सीखने की प्रक्रिया क्या है? मैं यहाँ उन सिद्धान्तों की चर्चा करने के बजाय कुछ मौलिक और अनुभवजन्य बातों को आपसे साझा करने का प्रयास करूँगा. वैसे यह भी कितना रोचक विषय है कि एक बच्चा जिस परिवेश में पलता है वह उसी तरह की भाषा बोलता है. भाषा-विज्ञान और व्याकरण की दृष्टि में भाषा की कुछ परिभाषाएं तय की गयी है, उसके अनुसार एक बच्चा अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए जिस भाषा को अपनी माँ से सीखता है उसे ‘बोली’ कहा जाता है. पूरे संसार में यह बात देखने को मिलती है कि जो व्यक्ति जिस परिवेश में पैदा होता है वह उसी परिवेश की ‘बोली’ को अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग करता है. यहाँ यह जानना भी बड़ा दिलचस्प होगा कि भाषा-भाव-सम्वेदना और विचार का एक दूसरे के साथ क्या सम्बन्ध है और यह किस तरह से अभिव्यक्त होते हैं.
शब्द और भाव की स्थिति क्या है? मनुष्य किस तरह से इनका प्रयोग करता है? भाषा किस तरह से मनुष्य और मनुष्य के व्यक्तित्व को प्रभावित करती है? मनुष्य की सोच और भाषा का क्या सम्बन्ध है? क्या मनुष्य जो सोचता है, वही अभिव्यक्त करता है? मानवीय व्यवहार के ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिन पर भाषा के दृष्टिकोण से विचार किया जा सकता है. हमें इस पहलू पर भी विचार करना होगा कि अगर मनुष्य भाषा-विहीन होता तो वह क्या करता? या ऐसे भी सोचा जा सकता है कि भाषा-विहीन मनुष्य का व्यवहार कैसा होगा. भाषा और मनुष्य के व्यवहार के अध्ययन का पहलू बड़ा रोचक है. लेकिन यह सैद्धांतिक विमर्श की मांग करता है. मैं यहाँ सिर्फ दो-तीन बिन्दुओं पर विचार के अभिव्यक्त करने की कोशिश करूँगा, और उसमें मुख्य बिन्दु यही है कि अभिव्यक्ति किस भाषा में बेहतर हो सकती है. सीखी हुई भाषा में या जिसे हमें सहज में सीखा है. बाकी बिन्दु अगले अंक में...!!!