30 अक्तूबर 2016

कभी न बुझने वाला दीप जलाना

7 टिप्‍पणियां:
दीप
खुद को जलाता
किसी दूसरे को प्रकाश से
सरावोर करने के लिए
रिश्ता दीप का उससे कोई नहीं
न ही कोई चाह है उससे
न कोई बदले का भाव
फिर भी
दीप
उसे प्रकाश दे रहा है
सिर्फ अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए.

दीप
शिक्षा है संसार के लिए
जो खुद को जलाकर
मार्ग बना रहा है दूसरों के लिए
अँधेरा चाहे कितना भी घना हो
दीप की एक लौ काफी है
हजारों वर्ष का अँधेरा मिटाने के लिए
दीप
अर्थ कई हैं इसके, कई हैं मायने   
जिन्दगी जियें हम दीप की भान्ति
समग्र संसार के लिए.

दीप
साथी है जीवन का
हर कर्म इसके बिना है अधूरा
दीप का होना है जीवन का होना
इसके बिना सब और है अँधेरा
दीप
भेद है जड़ और चेतना का
दीप प्रतीक है करुणा और संवेदना का  
दीप बिना है जीवन सूना  
और मृत्यु भी अधूरी
दीप के बिना.

दीप
प्रतीक अंतर्मन के प्रकाश का
सोये हुए जग के उजास का
भटके हुए राही की
मंजिल का यह आधार
दीप से ही मंजिल पाता
यह संसार
दीप
न बुझने वाला अंतर्मन में जलाना
दीप की इस रौशनी में
प्रेम के बीज बोना
करुणा की फुहार से उसे सींचना
इस संसार में चंद दिनों का सफर
दीप की भान्ति तय करते जाना
दिवाली की इस शुभ बेला पर
कभी न बुझने वाला दीप जलाना. 

28 अक्तूबर 2016

पहाड़ पर कविता

10 टिप्‍पणियां:
वर्षों पहले पहाड़
दुर्गम था,
दूर होना कोई प्रश्न नहीं था?
था तो पहाड़ का दुर्गम होना.
सोचता था.....
कभी पहाड़ की चोटी तक पहुंचा तो
छू लूँगा आसमान
हालाँकि यह भी भान था कि
पहाड़ होता है वीरान.
फिर भी पहाड़ मुझे
खींचता था अपनी ओर
या कभी ऐसा भी हुआ
मैं खुद ही खिंच गया
पहाड़ की और.......
मेरे और पहाड़ के बीच का फासला
सिर्फ भौतिक ही नहीं था
कई बजहें थी उस फासले की
फिर भी..!!
मैं पहाड़ की चोटी तक पहुंचना चाहता था
आसमान छूना चाहता था
चाँद-तारों का संग पाना चाहता था.
मैं प्राणी तो धरती का हूँ
लेकिन मेरे लक्ष्य में हमेशा
यात्रा आसमान की रही है
धरती की भीड़ से कहीं दूर
एक तलाश कहीं वीरान की रही है
मेरे सामने पहाड़ था
मैंने उसका चुनाव किया
लेकिन पहाड़ की चोटी तक पहुंचना
बहुत दुर्गम था
मैं पहाड़ को देखता 
तो सकूं महसूस करता
धरती की बंदिशें और दीवारें
मेरी राह में रोड़ा थी
बाहर जितनी दीवारें थीं
उससे कहीं अधिक
मनुष्य मन में लिए फिरता
वह हर पल एक नयी दीवार
अपनी हिफाजत के लिए
 करता है तैयार
सोचता था, पहाड़ पर नहीं होगी कोई दीवार
वहां से करूँगा मैं इस धरा का दीदार
लेकिन...पहाड़ पर पहुंचना मुश्किल था
एक दिन मैं बढ़ चला अपनी मंजिल की तरफ
सोच लिया मैंने
क्या है पहाड़ के उस तरफ?
जो मुझे खींच रहा है
अपने विचारों, प्रेरणाओं से सींच रहा है
मैं देख रहा था धरती के हालात
यहाँ सभ्य कहलाने वाला ही कर रहा था
सबसे ज्यादा खुरापात
उसके मंसूबे हैं बड़े डरावने
वह मिटा देना चाहता है
अस्तित्व ही धरा के मनुष्य का
सिर्फ अपने अहम् की तुष्टि के लिए
मेरे कदम अब रुके नहीं रुक रहे थे
मैं पहाड़ की ऊंचाई को छूना चाहता था
पहुँच गया मैं
एक दिन पहाड़ की ऊंचाई पर
देख ली मैंने दुनिया
जैसी मैं देखना चाहता था
दुनिया वही थी, लोग वही थे
लेकिन मेरी नजर बदल गयी
मैं दुनिया को पहाड़ से देख रहा था अब
कभी में दुनिया से पहाड़ देखा करता था
लेकिन दुनिया अब भी मुझे वैसी ही लग रही थी
बहुत गहरे में जाकर सोचा
दुनिया बदल सकती है
लेकिन उसके लिए स्थान बदलने से जरुरी है
खुद के विचार को बदलना
खुद को खुदगर्जियों से दूर रखना
पहाड़ पर पहुँच कर
मैंने कविता की भाषा में
खुद से संवाद किया
वीराने में भी व्यक्ति अशांत हो सकता है
और भीड़ में भी ‘शान्ति’ से रहा जा सकता है
पूरी दुनिया विचार से चलती है
और विचार भीतर की उपज है
पहाड़ की चोटी पर जाकर देखा
आसमान है ही नहीं
मैंने खुद को समझाया
जीवन यथार्थ है,
विचार को बदलोगे तो
दुनिया में श्रेष्ठ बन जाओगे
सब देखेंगे तुम्हारी तरफ
देखते हैं जैसे
अँधेरे में जलते दीये की तरफ.

25 अक्तूबर 2016

गाँव नहीं रहा अब गाँव जैसा...3

2 टिप्‍पणियां:
गत अंक से आगे... मन वचन और कर्म के पहलुओं को समझाने की कोशिश कई तरीकों से की जाती. गाँव के बुजुर्ग गाँव के हर बच्चे के साथ अपने बच्चे जैसा व्यवहार करते, इसलिए बच्चों के पास कोई अवकाश नहीं होता था कि वह किसी के साथ उदंडता से पेश आये. अगर कभी ऐसी भूल हो भी जाती थी तो वहीं बच्चे को उसकी भूल का अहसास करवा दिया जाता. अगर कहीं बात गलती से घर तक पहुँच जाती थी तो और भी डांट पड़ती. इसलिए गाँव में बुजुर्गों के प्रति सबके मन में सम्मान का भाव बना रहता और बुजुर्ग भी सबको हमेशा मिलजुल कर रहने की प्रेरणा देते, सबका सम्मान और सहयोग करने की तरफ प्रेरित करते. हर घर में ऐसा माहौल होता कि वहां किसी भी तरह का कोई अनुशासन भंग नहीं होता. घर के सञ्चालन का मुख्य जिम्मा स्त्रियों के हाथ होता, उसमें सबसे बड़ी भूमिका घर में सबसे वरिष्ठ स्त्री की होती, कोई भी निर्णय मिल बैठकर सबकी सहमति से लिया जाता. उसके पीछे एक और भी कारण था कि गाँव में सभी लोग एक दूसरे के सम्मान के साथ-साथ अपने घर का सम्मान भी बनाये रखना बखूबी जानते थे. घर में कोई आपसी मन मुटाव हो तो उसे घर पर ही सुलझाने की कोशिश की जाती, अगर फिर भी कोई मामला नहीं सुलझता है तो गाँव के किसी वरिष्ठ और सम्मानीय व्यक्ति को बुलाकर सुलझाने की कोशिश की जाती और अधिकतर मामले वही शांत हो जाते. मन मुटाव वहीं समाप्त हो जाते और सभी एक ही छत के नीचे प्रेम और सहयोग से रहने की कोशिश करते. गाँव का माहौल मुझे इसलिए भी अच्छा लगता क्योंकि वहां व्यक्ति किसी के प्रति मन में इर्ष्या, द्वेष का भाव नहीं रखता, घर-परिवार से लेकर समाज तक सब एक दूसरे की इज्जत करते और सहयोग करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते.
कुल मिलाकर गाँव में जो वातावरण आज से 10-15 साल पहले तक था वह ऐसा ही था और इससे पहले और भी बेहतर, जैसा कि मुझे मेरे दादा जी बताया करते थे. वह अपने जीवन काल में भी गाँव के बदलते माहौल के लिए चिन्तित दिखाई देते थे. उनकी मृत्यु आज से 10 साल पहले हुई, उनके जाने के बाद मेरे जीवन में न भरा जाने वाला खालीपन आ गया. मेरे सबसे अच्छे दोस्त की तरह थे वह. मेरे जीवन को संवारने में उनकी भूमिका सबसे ज्यादा है. फिर धीरे-धीरे गाँव बदलने लगा. गाँव क्या बदला लोग बदलना शुरू हुए. हालाँकि इस बदलाव के बीज एकदम नहीं उगे थे, यह धीरे-धीरे हो रहा था. जैसे-जैसे भौतिक संसाधन लोगों के पास आना शुरू हुए, लोगों का एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव जाता रहा. पहले जहाँ सिर्फ जमीन-जायदाद और घर आदि को लेकर भाइयों में कहा सुनी होती थी अब उसके बीच में पैसा भी आ गया. लेकिन पुश्तैनी जायदाद के लिए पहले से नियम बना था तो वह ज्यादा परेशानी का कारण नहीं था किसी के लिए. जब भी किसी को अपने परिवार से अलग होना हो तो वह उन नियमों का पालन करते हुए अपनी नयी दुनिया बसा सकता था, लेकिन वहां पर गाँव की जो समीति होती, जिसे हम ‘प्रजा’ कहते हैं. उसमें वह घर के बड़े सदस्य या पिता की सहमति के बाद ही शामिल हो पाता. क्योंकि बहुत से ऐसे अधिकार जो व्यक्ति के लिए गाँव में जीवनयापन करने के लिए जरुरी होते हैं, वह प्रजा के पास सुरक्षित रहते. इसलिए परिवार से अलग होने का साहस वही करता, जिसे अपने परिवार से कोई ज्यादा परेशानी हो, वर्ना संयुक्त परिवार में आनन्द लेते हुए ही जीवन कट जाता. लेकिन आज गाँव में संयुक्त परिवार इक्का-दुक्का ही देखने को मिलते हैं. वर्ना माहौल ऐसा होता कि बच्चों को परदादा तक के दर्शन अपने जीवन काल में हो जाते, लेकिन आज बदलते दौर में परदादा के तो कहाँ माता-पिता के पास भी बच्चों के लिए समय नहीं है.
आज गाँव में बदलाब की बयार हर स्तर पर देखी जा रही है. उपरी स्तर पर देखने से लगता है कि गाँव की हालत सुधर रही है, विकास हो रहा है. हर गाँव तक सड़क पहुँच गयी है, आने जाने के साधन हैं. लोगों के घरों के बाहर गाड़ियां देखने को मिल जाती हैं. हर घर के हर कमरे में टीवी लगा हुआ है. 15 से ऊपर के हर व्यक्ति के पास मोबाइल फ़ोन हैं. इन्टरनेट की सुविधा भी धीरे-धीरे बेहतर होती जा रही है. लोग टीवी बहसों के आधार पर देश की दशा और दिशा पर चर्चा करने लगे हैं. राजनितिक पार्टी के समर्थन और विरोध के आधार पर दोस्त और दुश्मन बन रहे हैं, रिश्तों में बनावटीपन आता जा रहा है. महिलाओं का परिधान बदल गया है. पुरुष भी भौतिक चकाचौंध से दूर नहीं हैं, उन्होंने भी खुद को बदलते परिवेश के अनुरूप खुद को ढाल लिया है. गाँव में विद्यालय जरुर खुल गए हैं, लेकिन शिक्षा के नाम पर वहां लीपापोती के अलावा कुछ नहीं होता. गाँव का बचपन भी अब अठखेलियाँ नहीं करता, वह किसी बुजुर्ग का सम्मान नहीं करता. वह अब किसी के सामने श्रद्धा से नहीं झुकता. अब गाँव का बच्चा भी अपने पराये का भेद करने लगा है. गाँव का व्यक्ति अब टोली बनाकर घर से बार नहीं निकलता. वह पैसे के दम पर सब कुछ हासिल करने की कोशिश करता है. उसे भी लग रहा है कि भौतिक उन्नति ही जीवन का मूल लक्ष्य है और इसके लिए वह अपने सम्बन्धों को भी दरकिनार कर रहा है. अब उसके पास पडोसी से बात करने का समय नहीं वह अपनी ही धुन पर अपनी डपली बजा रहा है, चाहे किसी कोई परेशानी ही क्यों न हो.
आज गाँव और शहर में कोई अन्तर नहीं रहा गया है, बस एक ही अन्तर है भौगोलिक. इसी आधार पर अब गाँव और शहर में अन्तर किया जाता है. बाकी सब चीजें और व्यक्ति की फितरत वही है जो आज का इनसान कर रहा है और ऐसी फितरतों के आधार पर वह खुद को शिक्षित और बुद्धिमानी साबित करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन भीतर से देखें तो आज का इनसान बाहर से चमकीला जरुर है, लेकिन भीतर से वह खोखला है. गाँव का परिवेश भी इससे अछूता नहीं रहा. अब मेरा गाँव गाँव नहीं रहा, मिटटी वही है, लेकिन उस मिटटी से बने लोग बदल गए हैं और बदलने का यह क्रम हमें संवेदना विहीन कर रहा है. विकास का खोखला नारा हमें अपने बजूद से दूर कर रहा है. मनुष्य तू समझ क्योँ नहीं रहा है. अपने बजूद को बचाए रखने के लिए हमें मानवीय भावों को अपनाना होगा, वर्ना हमारे पास भौतिक साधन तो जरुर होंगे, लेकिन एक अदद इनसान की कमी जीवन में खलती रहेगी. हम गाँव को जरुर बदलें जो हमारे लिए सुविधाजनक हो, सुखद हो, लेकिन मानवीय भावों और संवेदनाओं को हमें जिन्दा रखना होगा, प्रेम और सहयोग को बढ़ाना होगा, सचमुच का इनसान बनना होगा. 

22 अक्तूबर 2016

गाँव नहीं रहा अब गाँव जैसा...2

5 टिप्‍पणियां:
गत अंक से आगे.... गाँव में जीवन का क्रम जन्म से लेकर मृत्यु तक एक दूसरे के सहज सहयोग पर आधारित होता. लेकिन फिर भी कहीं पर मानवीय स्वभाव और स्वार्थ जरुर सामने आता, और यह जीवन की वास्तविकता भी है. फिर भी गाँव में जीवन सदा ही सुखद और सहज महसूस होता. कहीं कोई भागदौड नहीं, कोई लालसा नहीं, सब कुछ सहज और शान्ति से घटित होता. मैंने अपने जीवन काल में ही मनुष्य के स्वाभाव में बहुत परिवर्तन होते देखे हैं तो मैं कैसे सोच लूं कि गाँव के मनुष्य का स्वभाव नहीं बदलेगा. आज हम जिस भौतिक उन्नति को मानवीय विकास का आधार मान रहे हैं उसका प्रभाव गाँव पर भी पड़ा है और वहां भी उन सब चीजों पर प्रभाव देखने को मिलता है जो हमें शहरों में देखने को मिलता है.
मैं एक बार फिर अपने अतीत में झांककर देखने को कोशिश करते हुए गाँव के जीवन को याद कर रहा हूँ. मैं जिस क्षेत्र में पैदा हुआ हूँ, वहां पर अक्तूबर से मार्च-अप्रैल तक बर्फ पड़ने के कारण पूरी घाटी का सम्पर्क शेष विश्व से कट जाता. हालाँकि गर्मी के मौसम में भी घाटी से बाहर जाने के लिए दुर्गम रास्तों का सफर तय करना पड़ता, और यही वह मौसम होता जब घाटी के लोग अपने आवश्यक सामान आदि इकठ्ठा करना शुरू कर देते. पशुओं के लिए घास आदि इकठ्ठा करके रखा जाता. मेरे गाँव की दुनिया एक अलग ही दुनिया है. एक अलग तरह का अहसास मुझे अब भी उस दौर में ले जाता है तो मैं रोमांचित हुए बिना नहीं रह सकता. हालाँकि यहाँ के जीवन की अपनी परेशानियां और संघर्ष हैं. लेकिन यहाँ लोगों के एक दूसरे के प्रति अथाह प्रेम, सहयोग और विश्वास किसी भी प्रकार के कठिन समय को काट देते. लोगों का एक दूसरे से मिलजुल कर रहना एक अलग ही अहसास देता. पूरा गाँव एक दूसरे के सुख-दुःख का बराबर सांझीदार होता. ख़ुशी में सब खुश होते, और गम में सब दुखी. ऐसे ही कटता गाँव के जीवन का सफर.
गर्मियों के मौसम में लोग जहाँ मिलजुल कर कृषि सम्बन्धी कार्य करते. इस दौरान प्रकृति जिस रूप में अपने प्राकृतिक सौन्दर्य से सबके मन को मोह लेती वह एक अलग ही आकर्षण होता. लेकिन सर्दी का मौसम भी कम रोमांचक नहीं होता. गर्मी के मौसम में जहाँ प्रकृति अपने सौन्दर्य से सबको अपनी और आकर्षित करती, वहीँ सर्दियों के मौसम में यहाँ के स्थानीय त्यौहार एक खुशनुमा माहौल बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते. कुल मिलाकर घाटी में पूरे वर्ष कुछ न कुछ सांस्कृतिक गतिविधियाँ होती रहती, जो लोगों को एक दूसरे से जोड़े रखती. एक तरफ जहाँ गर्मी के मौसम में प्रकृति के रंगों के साथ-साथ त्यौहार आयोजित किये जाते तो सर्दी के मौसम में भी वही क्रम चलता रहता. इन सब कार्यक्रमों में लोगों का उत्साह, सहयोग और प्रेम देखते ही बनता था.
गाँव के लोग जहाँ गर्मी के दौरान अपना अधिक समय जंगलों और खेतों में व्यतीत करते. वहीँ सर्दी के मौसम में गाँव में ही पूरा समय व्यतीत होता. इस दौरान गाँव के लोग घर के अन्दर रहकर ही अपने कार्यों को निपटाते. कुल मिलकर व्यवस्था ऐसी होती कि सर्दियों में अलग काम किये जाते और गर्मियों में अलग काम. गर्मियों के मौसम में कृषि से सम्बन्धित कार्य अधिक किये जाते और सर्दियों के मौसम में घर के अन्दर रहकर किये जाने वाले कार्य किये जाते. जैसे ऊन कातने से लेकर हथकरघे पर कपड़ा बनाना. इस कार्य को स्त्री को पुरुष दोनों मिलकर करते. महिलायें भी ऐसे कामों में दक्ष होती. वह अधिकतर गेहूं की पुआल से कई तरह की चीजें बनाती, जैसे पाँव में डालने के लिए जूता (जिसे स्थानीय बोली में ‘पूले’ कहा जाता). उसमें भी ऐसे डिजाईन बनाये जाते कि उन्हें देखकर ही मन इस कला पर मुग्ध हो जाता. गेहूं के पुआल से ही चटाई आदि भी बनाई जाती. ऐसे अनेक काम होते जिन्हें लोग अकसर सर्दियों के मौसम में ही करते. सबसे बड़ी बात यह कि यह सब काम समूह में मिलकर सहयोग से किये जाते.
गाँव में वैसे तो हर वक़्त कुछ न कुछ चला रहता. सर्दियों के शुरू होते ही लोग अखरोट की गिरी निकालने का काम करते. हमारे क्षेत्र में अखरोट बहुत मात्रा में पैदा होता है. इसलिए उसकी गिरी से लेकर तेल निकालने तक का कार्य घर में ही किया जाता. बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक इस काम में काफी सहयोग और रोमांच से भाग लेते. इसके अलावा और भी छोटे-छोटे और रोचक काम गाँव का हर व्यक्ति अपने हिसाब से करता रहता. कोई जुराब बना रहा है तो कोई स्वेटर बुन रहा है. कोई ऊन कात रहा है तो कोई कपड़ा बन रहा है. कुल मिलाकर गाँव के लोग कभी भी बेकार बैठकर अपना समय कभी भी बर्बाद नहीं करते. बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक हर कोई अपने-अपने हिसाब से व्यस्त रहने की कोशिश करता.
मेरे गाँव में एक और विशेष बात होती, वह यह कि वहां एक बड़े बुद्धिजीवी व्यक्ति थे और लोग सर्दियों में उन्हें अपने घर कथा कहने के लिए बुलाते, इस कथा को बड़े ध्यान से सुना जाता. बच्चे जवान बुजुर्ग सब शामिल होते. कई बार तो ऐसा माहौल बनता कि पूरा गाँव ही किसी एक के घर में इकठ्ठा हो जाता और बड़ी तन्मयता से उन कहानियों को सुनता. उन कहानियों को सुनने और सुनाने की एक विशेष व्यवस्था होती, सबसे बड़ी बात तो यह होती कि बच्चे इन सब गतिविधियों में बड़े उत्साह से भाग लेते और कई बार उनके मासूम सवाल लोगों को अचरज में डाल देते. इन कहानियों में साहस, प्रेम, दया, करुणा और बलिदान के अनेक किस्से होते जो सबके मन पर प्रभाव डालते, और जीवन में वैसा कुछ करने के लिए प्रेरित करते. कई बार कुछ कहानियाँ कई दिनों तक चलती दो या तीन दिन तक लेकिन लोग नए अंक को सुनने के लिए बड़ी तन्मयता से पहुँच जाते. एक अलग सा ही अहसास होता है अब मुझे उस दौर के बारे में सोचकर. इन कहानियों में जीवन का हर पहलू बड़ी बारीकी से अभिव्यक्त किया जाता. कहानी सुनाने वाले के साथ एक और व्यक्ति रोचकता बनाये रखने के लिए उससे बीच-बीच में “जी भाई जी” जैसे शब्द कहते हुए कहानी को आगे बढाने में सहायक होता.
गाँव का जीवन कई मायनों में बड़ा परम्परा से बंधा हुआ माना जाता है, मैंने अपने गाँव में परम्पराएँ तो देखी, लेकिन परम्पराओं को निभाने के प्रति कोई कट्टरपन कभी नहीं देखा. अनुशासन की जहाँ तक बात है तो वह हमारे व्यक्तिगत जीवन में भी बहुत मायने रखता है और गाँव के लोग इस विषय में काफी ध्यान देते. इस अनुशासन का पालन व्यक्तिगत जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक किया जाता. दैनिक गतिविधियों में भी अनुशासन का कड़ाई से पालन करने की बात की जाती, सुबह जागने से लेकर रात्रि सोने तक. खान-पान से लेकर आचार व्यवहार तक. शेष अगले अंक में...!!!

18 अक्तूबर 2016

गाँव नहीं रहा अब गाँव जैसा...1

6 टिप्‍पणियां:
गाँव से बाहर रहते हुए मुझे लगभग 16 वर्ष हुए हैं. 2000 से 2005 के बीच के समय में साल में लगभग दो से तीन महीने गाँव में गुजरते थे. लेकिन 2005 के बाद यह सिलसिला महीने भर का हो गया और अब पिछले तीन-चार सालों से कुछ ऐसा सबब बना है कि साल दो साल में 10-15 दिनों के लिए ही गाँव जाना होता है. ऐसा नहीं है कि मुझे गाँव की याद नहीं आती. शुरू में जब गाँव से बाहर कॉलेज में अध्ययन करने आये थे तो 10-15 दिन की छुट्टी में भी गाँव जाने का मन होता. लेकिन गाँव जाना दुष्कर था. फिर भी जब परीक्षाएं समाप्त होती तो उसी दिन ही गाँव की तरफ चल पड़ते. कॉलेज में पढने वाले सभी साथी उन्हीं दिनों ही टोली में अपने-अपने गाँव की तरफ लौटते, रास्ते में एक दो जगह रात गुजारनी पड़ती, सब साथ ही रहते. लड़के-लडकियां सब साथ चलते किसी को किसी तरह का भय नहीं, जान-पहचान हो न हो, लेकिन रास्ते में सब एक दूसरे के चहेते हो जाते. कहीं पैदल भी चलना पड़ता तो सब एक दूसरे का सहयोग करते. कठिन और दुर्गम रास्तों में सबका सफर हंसी-ख़ुशी से कटता और घाटी में पहुँचने के बाद सब अपने-अपने घरों में पहुँच कर ख़ुशी से सरावोर हो जाते. फिर जब साथियों से मुलाक़ात होती तो उस सफर पर ही अधिकतर चर्चा होती और फिर अगले सफर में साथ चलने की तारीख निश्चित की जाती. ऐसा रोमांचक दौर था हमारे कॉलेज के दिनों का.
जब मैं कॉलेज में पढ़ने के लिए घर से निकला तो एक भरे पूरे परिवार की यादें भी मेरे साथ ही रही. गाँव में जो प्यार मुझे सबसे मिलता, मुझे उसकी कमी अब भी महसूस होती है. घर में दादा-दादी से लेकर भाई-बहन सब थे. इसलिए मेरे पास यादों का पिटारा ज्यादा बड़ा था. मेरे बचपन के दोस्त और गाँव के बुजुर्ग सबकी याद मेरे जहन में थी. कुछ महीने तो ऐसे गुजरे कि जैसे मुझे अस्तित्वहीन कर दिया गया हो. मेरे लिए कॉलेज में पढ़ना तो सजा के समान हो गया. मैं अकेले में कई बार गाँव में गुजरी हर रात को याद करता तो आँखों में आंसू आ जाते, दिल वापस गाँव लौट जाने को कहता. मेरा बचपन मेरे ननिहाल में बीता था तो वह एक अलग ही अहसास था मेरे लिए. मुझे ननिहाल के हर व्यक्ति से प्रेम मिला था, इसलिए वहां की यादें मेरे लिए और भी भावुक करने वाली होती. कुल मिलाकर मैं जब गाँव से बाहर शहर की तरफ आया तो बहुत कुछ ऐसा था जिसे मैंने उसी दिन खो दिया था. इसी बीच कुछ महीनों में नानी जी का देहांत हो गया और मैं उनके अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सका, जो मेरे लिए दुखद था.
खैर धीरे-धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा और मैं खुद को गाँव से बाहर की दुनिया से जोड़ने की कोशिश करता रहा. अब कॉलेज में दोस्त भी बन गए और कुछ स्थानीय लोगों से अच्छे सम्बन्ध भी बन गए तो सुख-दुःख उन्हीं के साथ कटने लगा और मैं खुद को अध्ययन के लिए तैयार करने लगा. क्योंकि जिस मकसद से गाँव से इतने दूर आये थे उस पर ध्यान केन्द्रित करना जरुरी था और अब मन उसी  में रम जाना चाहता था. मैं कोशिश करता रहा और धीरे-धीरे मन गाँव से हटकर अब किताबों की दुनिया में खोने लगा. जैसे ही किताबों से मेरा प्रेम बंधा तो फिर अधिकतर समय या तो पुस्तकालय में बीतता या फिर पुस्तकों को खोजने के लिए पुस्तकों की दुकानों पर. अपने कॉलेज के दिनों में मैंने पाठ्यक्रम की पुस्तकें कम ही पढ़ी, लेकिन पाठ्यक्रम से बाहर जो भी बेहतर पुस्तक मिलती उसे पढ़ने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देता. उसका लाभ यह हुआ कि मैं कभी पुस्तकों और अध्ययन के प्रति उदासीन नहीं हुआ और मैं जितना पढ़ता जाता, उतना मुझे खुद की कमी का अहसास होता. फिर मेरा मन और भी मेहनत करने को करता, धीरे-धीरे ऐसी स्थिति आने लगी कि मैं गाँव की यादें भूल सी गया और पुस्तकों की दुनिया मेरे लिए सब कुछ हो गयी. जीवन भी क्या खेल खेलता है, मैं सोचकर ही असमंजस में पड़ जाता हूँ.
कॉलेज के सफर के तीन साल काफी कुछ अनुभव दे गए. अब मुझे कुछ समझ आने लगी थी. मैं अब कुछ चीजों के बारे में सोचने लगा था. मैं चाहे जो कुछ भी करने की सोचूं, गाँव हमेशा मेरी सोच के केन्द्र में रहता, हालाँकि वह आज भी है. फिर भी उस समय हर निर्णय गाँव को ध्यान में रखकर ही लिया जाता. मुझे शहर के जीवन में कोई ख़ास रोमांच नजर नहीं आया, सब औपचरिकता और बनावटीपन सा लगता. किसी के पास किसी के लिए समय नहीं. किसी भी घर में दो-चार से ज्यादा सदस्य नहीं, और उन सदस्यों में भी दो पति-पत्नी और दो बच्चे. लेकिन किसी के पास किसी के लिए वक़्त नहीं. कोई किसी की खबर नहीं रखता, किसी को किसी की ख़ुशी और गम से कोई लेना देना नहीं. कुल मिलाकर शहर के विषय में बहुत कुछ मुझे ऐसा लगा जो अमानवीय जैसा है, फिर भी लोग शहर को क्यों पसंद करते हैं? यह प्रश्न मेरे जहन में बार-बार उठता. इधर मैं गाँव के विषय में सोचता तो मुझे बड़ा आनन्द आता. वहां लोगों के पास एक दूसरे के लिए समय ही समय है. गाँव में जहाँ 15-20 सदस्यों का संयुक्त परिवार हो तो वह लोग बहुत भले और सम्मानीय माने जाते, उनका अपना ही रुतवा होता. इसके साथ ही सबके घर एक ही समूह में होते. सुबह-शाम बच्चे किसी के भी घर के अन्दर या बाहर हल्ला मचा सकते हैं, खेल सकते हैं, नाच-गा सकते हैं. बच्चों के लिए तो ऐसा माहौल होता कि पूरा गाँव ही उनका है. वह किसी के भी घर में जाएँ उन्हें वहां वह सब कुछ मिल जाएगा जिसकी जरुरत उन्हें अपने माता-पिता से होती. सब एक साथ रहते, खेलते-कूदते, लड़ते-झगड़ते और अपने बचपन को सहेजते.
इसी तरह गाँव में बुजुर्गों की भी अपनी ही दुनिया होती, वह बचपन और बुढ़ापे का आनन्द साथ-साथ ले रहे होते. क्योंकि घर के काम-काजी महिला-पुरुष अपने बच्चों को इन्हीं बुजुर्गों के हवाले रखते. एक ही घर में बच्चों के लिए बुजुर्गों के साथ अलग-अलग रिश्ते होते. वह किसी के दादा-दादी लगते तो किसी के नाना-नानी, बच्चे भी अपने बालपन में भूल से जाते कभी दादा-दादी को नाना-नानी कह देते तो, कभी कुछ जो उन्होंने किसी बड़े से सुन लिया उसका ही सम्बोधन वह घर के किसी भी सदस्य के लिए करते. बच्चों के साथ रहते हुए बुजुर्गों को अपना जीवन एकाकी नहीं लगता. वह हमेशा प्रसन्न रहते. सुबह और शाम का खाना सब मिलकर खाते और रात के खाने के बाद सभी मिलकर एक दूसरे से बातचीत भी कर लेते और अगले दिन की योजना बनाकर सभी आराम करते....शेषअगले अंकों में.

12 अक्तूबर 2016

जीवन सफर का एक पड़ाव और समय की सीमा

11 टिप्‍पणियां:
जीवन एक सफर है और शरीर इस सफर का एक पड़ाव. भारतीय दर्शन में निहित तत्व हमें इस पहलू की जानकारी बखूबी देता है. जीव और शरीर दोनों को अलग करके देखें तो भारतीय दर्शन की पक्की मान्यता है कि शरीर की यात्रा सीमित है और जीव की यात्रा अनन्त है. जीव शरीरों में रहते हुए, शरीरों से कुछ समय के लिए बंधा हुआ प्रतीत जरुर होता है, लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है. जीव सूक्ष्म है और शरीर सथूल, जीव चेतन है और शरीर जड़शरीर नाशवान हैउसकी यात्रा सीमित हैउसे एक दिन मिटना ही है. लेकिन जीव के विषय में यह मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा अनन्त से उद्भूत और अनन्त में विलीन होने की यात्रा है. इस ब्रह्माण्ड में जितने भी प्राणी हैंसबके शरीर की एक सीमा हैलेकिन इन शरीरों में विचरण करने वाले जीव के विषय में मत प्रचलित है कि इसकी यात्रा इन शरीरों से होते हुए मनुष्य जन्म तक की यात्रा है. मनुष्य जीवन को इस यात्रा का आखिरी पड़ाव भी माना गया है (मानुष जन्म आखरी पौड़ी, तिलक गया ते बारी गयी). इसलिए मनुष्य जीवन को इस पूरी कायनात में श्रेष्ठ माना गया हैऔर इसे बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया है.
मनुष्य जीवन को इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न होने वाले जीवों में श्रेष्ठ क्यों माना गया हैइस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है. हालाँकि हमारे धर्म-ग्रन्थसाधू-सन्तपीर-पैगम्बरऋषि-मुनि आदि इस विषय में हमें स्पष्ट रूप से बताते हैं कि मनुष्य जीवन को श्रेष्ठ क्यों माना गया हैउनकी मान्यता है कि मनुष्य जन्म में जीव (आत्मा) इतना चेतन होता है कि वह अपने निज स्वरुप परम पिता परमात्मा को जानकार उसमें विलीन हो सकता है. जैसे ही कोई जीव ईश्वर का बोध हासिल करता है तो वह आवागमन के चक्कर से रहित हो जाता है और उसे जिस मकसद के लिए यह शरीर मिला था वह मकसद पूरा हो जाता है. अब यहाँ एक सवाल और भी उठता है कि मनुष्य ईश्वर की जानकारी कैसे हासिल कर सकता हैईश्वर को प्राप्त करने का माध्यम क्या हैउसे कब पाया जा सकता हैईश्वर वास्तव में है क्याऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन पर वर्षों से विचार किया जाता रहा है. लेकिन इस धरती पर बसने वाले मनुष्यों में से अधिकतर आज तक ईश्वर के प्रति आस्थ्वान रहे हैंऔर अनेक ऐसे हैं जिन्होंने ईश्वर के बोध को हासिल करने के विषय में अपना मत दिया है. उसी आधार पर दुनिया भर में यह मान्यता प्रचलित है कि ईश्वर का कोई रूप-रंग-आकार नहीं है. वह निराकार हैसत्त-चित्त-आनन्द स्वरुप है. उसका कोई और ओर-छोर नहींकोई आदि-मध्य और अंत नहींवह देश और काल की सीमा से परे है. वह जाति-मजहब-वर्ण आदि से मुक्त है. इसलिए मनुष्य को भी ईश्वर से जुड़कर इन ईश्वरीय गुणों को अपनाने की सलाह दी जाती है और संसार इस दिशा में अग्रसर भी है. जैसा कि आज का वातावरण से इंगित भी होता है.
लेकिन अगर हम गहराई से विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि मनुष्य आज वास्तव में खुद से कहीं दूर चला गया है. वह भौतिक चका-चौंध में इस तरह से रम गया है कि उसे खुद के करीब जाने का कभी अवसर ही नहीं मिलता. वह जन्म से लेकर जीवन के रहते तक भौतिक चीजों को इकठ्ठा करने में ही अपना समय लगाता है और अंततः उसके हाथ क्या लगता हैइस बात से हम सभी भली-भांति परिचित हैं. लेकिन फिर भी संसार का आकर्षण ऐसा है कि मनुष्य सब-कुछ जानते समझते हुए भी इस और आकृष्ट होता चला जाता है और एक समय ऐसा आता है कि वह इसी में रम कर इसी का हो जाता है. मनुष्य का इस संसार की बेहतरी के लिए योगदान देना अलग बात है और इस संसार के वशीभूत होकर जीवन जीना अलग बात है. दोनों बातों के अन्तर को जब हम समझ जाते हैं तो जीवन के प्रति हमारा नजरिया ही बदल जाता है और हम फिर जीवन की सार्थकता के विषय में सोचना शुरू करते हैंऔर यही वह पड़ाव है जब हम संसार के कार्य करते हुए भी अपने जीवन के मूल लक्ष्य पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए आगे बढ़ते हैं.
इस शरीर की यात्रा कितनी हैयह हम में से कोई नहीं जानता. जहाँ तक जीवन का प्रश्न हैयह महीनों और सालों की यात्रा तय नहीं करताबल्कि इसकी यात्रा क्षणों में तय होती है. हम जब भी कोई निर्णय लेते हैं वह क्षण की ही उपलब्धि होती है. हमारी सफलता-असफलतासुख-दुःखलाभ-हानि सब क्षण की उपज हैं. यह बात अलग है कि इनका जीवन और जीवन के प्रति हमारे नजरिए से सीधा सम्बन्ध होता है. फिर भी विचारवान मनुष्य इन सब परिस्थितियों में विचलित नहीं होता. सुख में ज्यादा खुश महसूस नहीं करता और दुःख में ज्यादा रोना नहीं रोता. वह हमेशा एक सी अवस्था में रहने का प्रयास करता है. गीता में इसी अवस्था को ‘स्थितप्रज्ञ’ की अवस्था कहा गया है और मनुष्य से यह भी अपेक्षा की गयी है कि वह अपने जीवन में रहते हुए इस अवस्था को प्राप्त करेऔर हम सबका यह प्रयास भी होना चाहिए.
उपरोक्त बातों को केन्द्र में रखकर मैं भी जीवन के विषय में सोचने-समझने का प्रयास वर्षों से कर रहा हूँ. आज जब में जीवन के पैंतीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ तो बीते हुए पलों को विश्लेषित करने की बजाय आने वाले पलों के विषय में गम्भीरता से सोच रहा हूँ. हालाँकि बीते हुए पलों ने मुझे कुछ सीख दी हैअनुभव दिए हैंकुछ लक्ष्य दिए हैं. लेकिन अब जब मैं कुछ-कुछ जीवन के विषय में समझ रहा हूँ तो मुझे इस बात का बहुत गहराई से अनुभव हुआ है कि जीवन (शरीर) की यात्रा एक सामूहिक यात्रा हैलेकिन जीव या जिसे हम आत्मा कहते हैंउसकी यात्रा अकेली यात्रा है. आत्मा की यात्रा में हमारा कोई साथी नहींकोई सहयोगी नहींयह अकेले (जीव) की अकेली यात्रा है. लेकिन शरीर में रहते हुए जीवन की यात्रा सामूहिक सहयोग की यात्रा है. शरीर जब तक हैतब तक सांसारिक रिश्ते-नाते हैंसुख-दुःख हैंमतलब वह सब कुछ है जो हम इस दृश्यमान जगत में महसूस करते हैं. लेकिन इन सबमें हम वास्तविक आनन्द को नहीं खोज सकते. हम जीवन में जिस चीज को पाने के लिए सबसे ज्यादा संघर्ष करते हैंउस चीज की प्राप्ति के बाद हमें किसी और चीज की लालसा फिर से उत्पन्न होने लगती है और यह क्रम अनवरत चलता रहता है. लेकिन जब हम आत्मिक रूप से इस ईश्वर के साथ जुड़ जाते हैं तो फिर संसार हमें एक औपचारिकता मात्र लगता है. फिर जीवन का हर कर्म दूसरे की ख़ुशी के लिए किया जाता हैऔर ऐसा जीवन सही मायनों में जीवन कहलाता है. लेकिन यह होता तब है जब हम स्वार्थों से ऊपर उठकर जीवन को जीने की कोशिश करते हैं. वैसे जब से जीवन को समझना शुरू किया हैइसके ऐसे अनेक पहलू अनुभूत किये हैं कि सोच कर मन रोमांच से भर जाता हैऔर ऐसे भाव पैदा होते हैं कि दूसरों की ख़ुशी के लिए और कार्य किया जाए. कोशिश भी यही है और लक्ष्य भी यही है. देखते हैं अपने जीवन रहते हम कितना सफल हो पाते हैंयह भविष्य के गर्भ में हैलेकिन प्रयास जारी है.
जीवन की इस यात्रा में आप सबका सहयोग और प्रेरणा मेरे लिए हमेशा ऊर्जा का काम करते रहे हैं. पिछले छह वर्षों से मैं लगातार अंतर्जाल पर सक्रीय हूँयोगदान कितना हैयह तो नहीं कह सकता. लेकिन आप सबसे मैंने बहुत कुछ सीखा हैसमझा हैपाया है. जितना स्नेह और सम्मान मेरे अंतर्जाल के साथियों ने मुझे दिया हैउतना ही जीवन के अनेक पलों में साथी रहे बंधुओं ने दिया है. इस स्नेहसम्मान और प्रेरणा के लिए मैं हृदय से सबका आभारी हूँ.