16 जुलाई 2014

तुम

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'मैं' और 'आप'
जब ‘हम’ हो गए
सत्ता समाप्त हो गयी ‘दो’ की
एकाकार हो गए, शब्द और भाव
शब्द संकुचित-अर्थ विस्तृत
अहसासों के गर्भ में
शब्दों के अर्थ खो गए
पता नहीं हम 'दो' थे
कैसे दो से 'एक' हो गए

ना जाने कैसे
हमारे अहसास एक हो गए
दूरियां मिट गयी जो दरमियाँ थीं
जीवन के रंग बदल गए
चारों और छा गयी खुशियाँ
महसूस होने लगा
इस जहान में
तुम सा कोई भी नहीं.
सच में तुम सा कोई नहीं

तुम, बस तुम ही तुम.....!!!  

28 जून 2014

धूल चेहरे पर थी और मैं आईना साफ करता रहा

7 टिप्‍पणियां:
दुनिया भर के श्रेष्ठ साहित्य का जब हम बहुत गहराई से अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि दुनिया भर का अधिकतर साहित्य एक बिन्दु पर केन्द्रित है और वह बिन्दु है मानवीय मूल्यों का विकास या मानवीय मूल्यों की स्थापना.  आखिर ऐसा क्या है कि मानव को अपने मूल्यों का विकास करना पड़ता है. जबकि धरा पर जितने भी प्राणी रहते हैं उन पर यह नियम लागू नहीं होता. दुनिया भर में लिखे गए साहित्य का अधिकतर भाग मानवीय मूल्यों की स्थापना का है. भाषा चाहे कोई भी हो. रचना की विधा चाहे कोई भी हो. लेकिन सबके मूल में मानवीय मूल्यों को तरजीह दी गयी है. हमारे देश में ही वेदों से लेकर आज तक जितना भी साहित्य रचा गया है उसके केन्द्र में मानव रहा है और मानवीय मूल्यों की स्थापना इन सब रचनाओं का मूल उद्देश्य है. वेद को भारतीय जीवन की आत्मा के रूप में चिन्हित किया जाता है, तो उपनिषद को उसका संगीत माना जाता है, रामायण को हृदय की संज्ञा से अभिहित किया जाता है तो, महाभारत को उसका मस्तक माना जाता है, पुराण प्रज्ञा, दर्शन उसका गाम्भीर्य, धर्म मर्यादा और आचार को उसके मूल्यबोध के रूप में चिन्हित किया जाता है. साहित्य का यह संसार एक परिपूर्ण मानव की परिकल्पना से भरा पडा है और आज भी इस परिकल्पना को मूर्त रूप देने के प्रयास किये जा रहे हैं.
जब हम गहराई से इस दुनिया के इतिहास को समझने का प्रयास करते हैं तो पाते हैं कि इस दुनिया का ज्यादातर इतिहास मानव का मानव से प्रेम का नहीं, बल्कि मानव का मानव से संघर्ष का इतिहास है. इस धरा पर अनेक सभ्यताएं और संस्कृतियाँ जन्मी, उन्होंने अपने शीर्ष को हासिल किया और फिर काल का ग्रास बन गयी. समय के साथ-साथ उनका अस्तित्व मिटता गया. फिर एक नयी सभ्यता और नई संस्कृति ने जन्म लिया. देश काल और वातावरण के अनुरूप उस सभ्यता और संस्कृति ने अपने को स्थापित किया और फिर एक समय ऐसा आया कि वह भी समाप्त गयी. यह क्रम अनवरत रूप से चल रहा है सृष्टि के प्रारम्भ से और चलता रहेगा जब तक इस धरा पर मानव जीवन है. इसे ही हम परिवर्तन कहते हैं, और परिवर्तन को प्रकृति का एक अनिवार्य नियम माना जाता है. यहाँ यह बात गौर करने योग्य है कि प्रकृति के परिवर्तन और मानव के परिवर्तन में बहुत बड़ा अन्तर है.
हालाँकि यह बात भी हमें ध्यान में रखनी चाहिए कि मानव भी प्रकृति का एक हिस्सा है. इसकी संरचना और उसके जीवन का हर एक पक्ष प्रकृति से निसृत है. हम मनुष्य के शरीर की अवस्था से भी इस परिवर्तन और प्रकृति के नियम को समझ सकते हैं. मनुष्य के शरीर की अवस्थाओं बचपन, जवानी, प्रौढ़ावस्था, बुढापा या विकास मनुष्य की अपनी इच्छानुसार नहीं होता. यह प्रकृति का नियम है कि बचपन से बुढ़ापा आएगा ही उसे कोई रोक नहीं सकता. अर्थात प्रकृति, पर्यावरण, समाज एवं जीवन में घटने वाली घटनाओं एवं परिस्थितियों को रोक पाना इसके वश में नहीं है. इसलिए मनुष्य भी परिवर्तन से अछूता नहीं है. लेकिन मानवीय सभ्यता और संस्कृति में जो परिवर्तन आते हैं वह मानव को पूरी तरह से परिवर्तित कर देते हैं. लेकिन प्रकृति में जो परिवर्तन आते हैं वह उसके काल चक्र का हिस्सा होते हैं. लेकिन मनुष्य में आये परिवर्तन काल चक्र का नहीं बल्कि उसकी प्रवृतियों में आये परिवर्तन का हिस्सा होते हैं.
इसे यूं भी समझा जा सकता है. प्रकृति अनवरत रूप से परिवर्तित होती रहती है. लेकिन वह एक चक्र के बाद वहीँ पहुँच जाती है, जहाँ से वह शुरू होती है. छोटे से छोटे स्तर से लेकर बड़े से बड़े स्तर तक इस चक्र को विश्लेषित किया जा सकता है. लेकिन मनुष्य के मामले में ऐसा नहीं है. आज हम सतयुग या त्रेता की सभ्यता और संस्कृति में नहीं जा सकते. वह घटित हो गया और अब उसकी पुनरावृति किसी भी स्थिति में नहीं हो सकती. अब न तो राम इस धरा पर आ सकते हैं और न ही कृष्ण. न तो रावण का जन्म हो सकता है और न ही कंस का बध किया जा सकता है. राम और कृष्ण हमारी सभ्यता और संस्कृति के प्रतिक ही नहीं, बल्कि इन दोनों व्यक्तित्वों ने हमारी सभ्यता, संस्कृति और मानवीय मूल्यों को बहुत गहरे तक प्रभावित किया है. हालाँकि और भी बहुत से कारण और व्यक्ति रहे हैं जिन्होंने मानवीय जीवन के अनेक पक्षों को प्रभावित किया है, लेकिन इन दोनों (राम और कृष्ण) का प्रभाव हमारे साहित्य, समाज, संस्कृति आदि पर व्यापक रूप से पडा है.
भारतीय साहित्य में राम और कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को बहुत बृहत् रूप में उदघाटित किया गया है. इन दोनों का जीवन और कर्म हमारे लिए प्रेरक हैं और आज ही नहीं, बल्कि जब तक मानव इस धरा पर रहेगा वह इन दोनों से प्रभावित होता रहेगा. यह दोनों सभ्यता और संस्कृति के निर्माण और विध्वंस के नायक रहे हैं. इसलिए इन दोनों के जीवन को समझने के लिए हमने एक निरपेक्ष दृष्टिकोण की आवश्यकता के साथ-साथ एक मानवीय दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. आज तक श्रीराम और श्रीकृष्ण को आस्था के दृष्टिकोण से ही देखने का प्रयास किया गया है. उन्हें कभी इतिहास और मानवीय दृष्टिकोण से नहीं देखा गया. अगर राम और कृष्ण को इतिहास के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया जाए तो इन दोनों के जीवन का मकसद ही मानवीय मूल्यों की स्थापना करना रहा है. मानवीय मूल्यों की श्रेष्ठता के लिए महाभारत का यह कथन कितना सार्थक है. ‘तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः’ अर्थात “सभी तीर्थों में हृदय ही परम तीर्थ है, पवित्रता में हृदय की शुचिता ही प्रमुख है”. हृदय की शुचिता को भारतीय साहित्य में बहुत गहराई से समझाया गया है और इसके अनेक उदहारण हमें देखने को मिल जाते हैं. हृदय से पवित्र व्यक्ति अपनी पवित्रता के कारण ईश्वर तक को पाने में समर्थ हो सकता है, वह उससे मनचाहा वर प्राप्त कर सकता है. अपने व्यक्तित्व को और उज्जवल बना सकता है. इसलिए हमारे देश में व्यावहारिक जीवन में भी पवित्र हृदय व्यक्ति को ऊँचा स्थान दिया जाता है.
लेकिन वर्तमान सन्दर्भों में हम देखें तो परिस्थितियाँ कुछ बदली हुई नजर आती हैं. आज हम प्रत्येक कर्म के लिए दूसरे को दोषी ठहराना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं. जबकि हम भी कहीं न कहीं उसमें भागीदार होते हैं. जैसे आजकल एक जूमला बड़ा प्रयोग हो रहा है कि यह अमरीकी संस्कृति का प्रभाव है, या हमारे देश के युवा पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण कर रहे हैं, आज नशा करना, चोरी करना, डकैती करना, मारपीट करना तो व्यक्ति के जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है. इससे भी आगे व्यक्ति अब व्यक्ति के खून का प्यासा बना फिरता है. आज पूरे विश्व के हालात ऐसे हैं कि व्यक्ति कहीं भी अपने को सुरक्षित महसूस नहीं करता. उसके अंतर्मन में डर बना रहता है और वह डर उसे विचलित करता रहता है. आम व्यवहार में भी ऐसी स्थितियां पैदा हो चुकी हैं कि व्यक्ति अपनी भौतिक लालसाओं के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है और गिर रहा है. जब स्थितियां ऐसी हैं तो एक सुन्दर और स्वस्थ समाज की परिकल्पना करना बेमानी साबित होती है.
हमें आज ऐसा माहौल तैयार करने की जरुरत है जहाँ व्यक्ति अपने जीवन के सर्वांगीण विकास की तरफ प्रवृत हो. भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति या संसारिक उपलब्धियां व्यक्ति के जीवन का एक पक्ष हो सकती हैं, लेकिन जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए उसे अन्य पहलूओं की तरफ भी ध्यान देने की जरुरत है. वैसे भारतीय जीवन पद्धति कितनी वैज्ञानिक थी. जीवन को 16 संस्कारों और चार वर्गों में विभाजित किया गया था और जीवन के हर एक पड़ाव का लक्ष्य निर्धारित किया गया था. लेकिन आज ऐसा नहीं है, माता-पिता बच्चों को सिर्फ और सिर्फ हॉट कलर जॉब के लिए तैयार कर रहे हैं और जब वह बच्चे बड़े होते हैं तो वहीँ कहीं न कहीं उनके लिए दुःख का कारन भी बन रहे हैं. आज आवश्यकता है दूसरों पर दोषारोपण के बजाय अपने आसपास के वातावरण को बदलने की, ताकि आने वाली पीढ़ियों के हाथ में हम एक सुन्दर सामाजिक व्यवस्था सौंप कर जाएँ.

26 जून 2014

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

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जीवन का क्रम है ही कुछ ऐसा कि आपको कहीं भी किसी भी परिस्थिति का सामना कर पड़ सकता है. लेकिन अगर आप अपने दृढ निश्चय के साथ आगे बढ़ रहे हैं तो फिर आपके लिए हर परिस्थिति एक नया जोश, एक नयी ऊर्जा पैदा करती है. हालाँकि जीवन का यह क्रम भी है कि गिरते वही हैं जो चढ़ने की कोशिश करते हैं, और जब आप गिर रहे हों तो जिसने आपको उठाया है वह आपके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. जब आप चढ़ने का प्रयास कर रहे हैं तब भी अगर कोई आपको आपके लक्ष्य तक पहुंचाने का सहभागी बनता है तो वह भी आपके लिए किसी ईश्वर से कम नहीं होता.

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और यही इसके जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है. यह अपनी बुद्धि के बल पर पूरी सृष्टि के रहस्यों को समझने की चेष्टा करता है और ऐसा प्रयास उसने आज तक किया भी है. लेकिन समय के साथ-साथ उसकी रुचियाँ और जीवन की प्राथमिकतायें बदलती रही हैं. फिर भी उसके जीवन का आधार नहीं बदला है और न ही वह बदल सकता है. क्योँकि जीवन तो प्रकृति का हिस्सा है और जब तक जीवन है तब तक हमें प्रकृति से जुड़े रहना होगा. हमारे जीवन का निर्माण ही प्रकृति के अनुकूल हुआ है तो फिर हम किस तरह से प्रकृति से अलग रह सकते हैं. लेकिन आज का मनुष्य इस बात को समझने की चेष्टा नहीं कर रहा है. उपभोगतावादी संस्कृति ने उसे बहुत संकुचित बना दिया है. अब वह समाज के लिए नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ अपने लिए कार्य करने में विश्वास करता है. मनुष्य की इस संकुचित सोच ने कई बार इस सृष्टि में भयंकर तहस-नहस मचाई है और अनेक निर्दोष लोगों का ही नहीं बल्कि प्रकृति के अनेक जीवों के जीवन के लिए भी संकट पैदा किया है.

व्यावहारिक स्तर पर हम सोचें तो यह बात हमें समझ आ जाएगी कि जीवन की वास्तविकता क्या है? मैं
इस प्रश्न का उत्तर वर्षों से खोज रहा हूँ और अब तक के अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि जीवन एक क्षण है. हम जीवन को बेशक दिन, सप्ताह, महीने और साल के आधार पर गिनते हैं. लेकिन वास्तविकता यह है कि जीवन एक क्षण है. हमारे एक क्षण में लिए गए निर्णय कई बार सिर्फ हमें प्रभावित करते हैं, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि वह निर्णय हम पर प्रभाव कम डालते हैं और किसी दूसरे को अधिक प्रभावित करते हैं. उसके पीछे एक स्पष्ट सिद्धांत है कि व्यक्ति समाज की एक इकाई होता है, और उसका प्रत्यक्ष और परोक्ष सम्बन्ध समाज के प्रत्येक प्राणी से होता है. इसी कारण एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने हर निर्णय को सोच समझ कर लेता है. ताकि समाज में उसके किसी निर्णय का कोई विपरीत असर न पड़े. जहाँ तक मुझे लगता है व्यक्ति को इसी तरह का जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि समाज का एक सुन्दर और स्वस्थ रूप सामने आ सके.

हमारे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं कि हम कितने वर्ष जीवन जीते हैं, बल्कि इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि हम जीवन को किस तरह से जीते हैं. हमारे देश में ही नहीं बल्कि विश्व में अनेक ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिनकी जीवन यात्रा बहुत थोड़ी सी है लेकिन कर्म इतना ऊँचा कर गए हैं कि कोई सौ वर्षों तक भी जी ले उनके स्तर तक नहीं पहुँच सकता. इसलिए मुझे लगता है जीवन वर्षों से नहीं बल्कि कर्मों से समझा जाता है. एक बात और जिसे में कुछ वर्षों से गहरे से अनुभव करता हूँ कि बुद्धिमता का उम्र से कोई लेना देना नहीं है. हालाँकि हमारे देश में ऐसी परम्परा है कि हमें अपने से बड़ों का आदर सम्मान करना चाहिए, लेकिन इसका कोई ठोस आधार नहीं है कि किस आधार पर करना चाहिए. उम्र के किसी भी पढाव तक जरुरी नहीं है कि व्यक्ति बुद्धिमान हो, बुद्धिमता का गुण किसी बालक में भी हो सकता है और किसी बुजुर्ग में उसी बुद्धिमता का अभाव देखा जा सकता है. शायद बुद्धिमता और श्रेष्ठ कर्म का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता. इसलिए हमें जीवन में बहुत सोच समझ कर कदम उठाने की आवश्यकता होती है. आदर्श जीवन लम्बे समय जीने का मोहताज नहीं होता, वह श्रेष्ठ कर्म का मोहताज होता है. हम जीवन में जितना अपने लिए सोचते और करते हैं उसका एक हिस्सा भी दूसरों के लिए सोचें और करें तो हमारे जीवन और समाज की स्थिति ही बदल जायेगी, और यही मनुष्यता की सबसे बड़ी पहचान है.

जीवन में एक और सिद्धांत बहुत मायने रखता है वह है दूसरों को आगे बढ़ाना. अगर हम दूसरों को आगे बढ़ा रहे होते हैं तो हम खुद भी आगे बढ़ रहे होते हैं. इसके पीछे एक स्पष्ट मान्यता है कि मनुष्य की सामाजिकता और उसकी बुद्धिमता उसे यह सब करने के लिए प्रेरित करती है. जब मनुष्य खुद पीछे रहकर किसी दूसरे को आगे बढ़ाने का कार्य करता है तो वह खुद भी आगे बढ़ रहा होता है. लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य के स्वार्थ का क्या होगा? यह एक यक्ष प्रश्न है. लेकिन उसके लिए कोई प्रश्न नहीं है जिसे यह पता है कि जीवन एक क्षण है, जब हम जीवन की क्षण भंगुरता को समझ जायेंगे तो अपने आप इन भौतिक स्वार्थों से से ऊपर उठ जायेंगे और जीवन के हर पल को किसी दूसरे की भलाई के लिए लगाने का प्रयास करेंगे. लेकिन ऐसा होता बहुत कम है और आज तक का इतिहास ऐसा ही कहता है. एक मछली कई बार पूरे तालाब को गंदा कर देती है, लेकिन फिर भी हमें व्यक्तिगत स्तर पर एक सुन्दर और स्वस्थ जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए. हमारा पुरुषार्थ तो यही है कि हम एक बार जो भी निर्णय लें उसे किसी भी परिस्थिति में नहीं बदलें, और जो बार-बार अपने निर्णयों को बदलते हैं उनकी बुद्धिमता पर हमें भी चिन्तन करना चाहिए.  

मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपनी असीम लालसाओं के लिए दिन रात प्रयास करता है, लेकिन अंत में उसे क्या हासिल होता है यह सबके सामने है. कल मोनिका शर्मा जी ने अपनी फेसबुक वाल पर एक चिंतन करने योग्य बात लिखी थी “कभी कभी इस विषय में सोचकर डर लगता है कि हमारा कमाया पैसा, धन दौलत, प्रोपर्टीज इस दुनिया से जाते समय भी हम अपने साथ ले जा सकते तो क्या होता ...? जानते समझते हैं कि सब कुछ यहीं छूट जाना है तो ये हाल है ... कमाए गए धन को जन्मजन्मांतर तक साथ रख सकते तो ...? तो शायद इंसानियत कहीं ढूंढें ना मिलतीहमें भी इस प्रश्न पर गहरे से विचार करना चाहिए और जीवन को सकारात्मक दिशा में जीने का स्वस्थ और सुन्दर प्रयास करना चाहिए.  

24 मई 2014

वास्तविकता को समझने की जरुरत...2

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जब समाज में मानवीय मूल्यों के विपरीत कुछ भी देखता हूँ तो एक पीड़ा का अनुभव होता है, एक टीस मन में पैदा होती है. एक दर्द उठता है और फिर जीवन की वास्तविकता को समझने का सिलसिला शुरू होता है.
गतांक से आगे......!!! जब हम मानवीय मूल्यों की बात करते हैं तो हम बहुत बृहत् परिप्रेक्ष्य को सामने रखकर विचार करते हैं. मानवीय मूल्य शब्द सिर्फ मानव का मानव के प्रति प्रेम का, सम्मान का ही परिचायक नहीं है. बल्कि मानवीय मूल्य शब्द मानव के साथ-साथ इस धरा पर रहने वाले हर जीव के प्रति, प्रकृति के प्रति और इन प्राकृतिक संसाधनों के प्रति मानव द्वारा किये गए व्यवहार का परिचायक भी है. मनुष्य को संवेदनशील प्राणी कहा जाता है, लेकिन उसकी संवेदना का दायरा जब व्यक्तिगत लाभों के इर्द गिर्द घूमता है तो फिर उसके मनुष्य होने के भाव तिरोहित हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में वह सिर्फ अपने लाभ के विषय में ही सोचता है, वह अपने हर कर्म में, हर फैसले में, अपने हर सम्बन्ध में सिर्फ और सिर्फ अपने लाभ और अपने हितों को ही तरजीह देता है. ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं कि मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है. दुनिया भर के सम्यक परिप्रेक्ष्य पर अगर हम नजर डालें तो हम बहुत आसानी से समझ सकते हैं कि आज के मनुष्य ने अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किस कदर मानवीय मूल्यों को ताक पर रखा है. यह बात भी दीगर है कि आज मनुष्य अपनी लिप्साओं के कारण मनुष्य के ही खून का प्यासा बना फिरता है और दूसरी और उसने समाज में ऐसी व्यवस्थाएं कायम की हैं कि उनके बल पर वह किसी दूसरे व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक शोषण करने के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहता है. ऐसी स्थिति में मानवीय मूल्यों पर बहुत गहरे प्रश्न चिन्ह खड़े हो जाते हैं और समय रहते अगर इन प्रश्नों का समाधान न किया जाए तो फिर यह समाज के लिए तो घटक होते ही हैं, लेकिन मनुष्य के अस्तित्व के लिए भी यह खतरा बने रहते हैं. 

मनुष्य जब तक वास्तविकता को समझने की तरफ कदम नहीं बढाता तब तक उसके सामने भ्रम बने रहते हैं और जब तक यह भ्रम बने रहते हैं तब तक वह अपने आप को दुनिया में सर्वश्रेष्ठ समझता रहता है और इस भाव के साथ जिन्दगी जीता है कि वह जो कुछ भी करेगा वह सही ही होगा. लेकिन इस बात के दूसरे पहलू की तरफ उसका ध्यान ही नहीं जाता. जाए भी कैसे, उसके सामने बचपन से ऐसा वातावरण तैयार किया है कि उसे हर हाल में श्रेष्ठ बने रहना है. हर हाल में दूसरे से आगे निकलना है, चाहे उसके लिए उसे कुछ भी करना पड़े, लेकिन खुद को श्रेष्ठ बनाना उसके जीवन का मंतव्य है. एक स्थिति में यह बात सही भी लगती है, क्योँकि मनुष्य कर्म योनि है और उसे हर हाल में कर्म के माध्यम से खुद को श्रेष्ठ सिद्ध करना है, क्योँकि जब एक मनुष्य अपने बल पर बिना किसी स्वार्थ और प्रतिस्पर्धा के श्रेष्ठ कर्म कर्ता है तो उस कर्म का लाभ मानव को तो मिलता ही है साथ ही साथ ऐसा वातावरण बनता है कि बाकी लोग भी उससे प्रेरणा लेकर आगे बढ़ते हैं और वैसे कर्म में प्रवृत होते हैं. जिससे सबको सकून मिलता है, शांति मिलती है और ऐसे कर्म करने वाले दुनिया भर के प्राणियों के लिए आदर्श साबित होते हैं. 

मनुष्य का मनुष्य के लिए आदर्श स्थापित होना बहुत गहराई से सोचने को विवश करता है. आखिर क्या
ऐसा कोई मनुष्य अपने जीवन रहते कर जाता है कि वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरक साबित होता है. उसके वचन, कर्म, जीवन को जीने का सलीका, मानवता के लिए किये गए उसके कार्य सब कुछ इतना आदर्श होता है कि आम मनुष्य अपने आप को बौना समझने लगता है, और हो भी क्योँ न, क्योँकि जिस व्यक्ति के विषय में हम सोच रहे हैं वह मनुष्य अपने जीते जी मानवता के उन आदर्शों को जीने में कामयाब हुआ है जिसके विषय में हम सोच भी नहीं सकते हैं. ऐसी स्थिति में हम उस व्यक्ति के जीवन का आकलन करते हैं, उसके विचारों और कर्म को समझने की कोशिश करते हैं उसने जीवन में जो कुछ अर्जित किया, जिस तरह से किया उसे समझने का प्रयास करते हैं तो भी हम जीवन को किसी हद तक बेहतर तरीके से जी सकते हैं. लेकिन यह सब तब ही संभव हो पायेगा जब हमारा चिन्तन और हमारा दृष्टिकोण मानवीय मूल्यों के अनुरूप होगा. वर्ना बिना किसी उद्देश्य के  जीवन तो हर कोई जी कर यहाँ से रुखसत होता ही है. 

जीवन और मृत्यु हर प्राणी के जीवन के दो किनारे हैं. मनुष्य को इस धरा पर रहने वाले प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. इस सर्वश्रेष्ठता के पीछे कई तर्क दिए जाते हैं, कई तरह के सिद्धांत, कई तरह की अवधारणायें आज तक मनुष्य की श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए प्रचलन में आई हैं. सैद्धांतिक तौर पर बेशक मनुष्य को कितना भी श्रेष्ठ क्योँ न कहा गया हो लेकिन उसे खुद को व्यावहारिक तौर पर श्रेष्ठ सिद्ध करना है, और जब तक वह ऐसा नहीं कर पाता तब तक लिखने और कहने को चाहे कुछ भी कहा जाए लेकिन यह सब वास्तविकता से दूर ही होगा, और इसे एक तरह से मनुष्य की हार भी कहा जा सकता है. क्योँकि अपने विषय में जो धारणा उसने बनाई है वह उसकी अनुपालना में ही सक्षम नहीं है. ऐसी स्थिति को हम मनुष्य की हार न कहें तो क्या कहें? इसलिए कुछ भी करने से पहले हमें वास्तविकता को समझने की जरूरत है, क्योँकि यह इसलिए जरुरी है कि जब हम वास्तविकता को सामने रखकर अपने मंतव्यों को पूरा करने की कोशिश करेंगे तो बेशक हम शत-प्रतिशत सफल न हो पायें, लेकिन आंशिक रूप से भी सफल हो पाते हैं तो यह हमारे लिए सबसे सुखद होगा. 

आज दुनिया ने तकनीकी और भौतिक रूप से बहुत विकास कर लिया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इससे पहले हुए युगों में भी मनुष्य ने इससे कहीं अधिक विकास तकनीकी रूप से किया है, अपनी सुख सुविधाओं के साधनों के साथ-साथ उसने कई अन्य वैज्ञानिक और अध्यात्मिक प्रयोग मनुष्य के जीवन और प्रकृति के रहस्यों को समझने के लिए किये हैं. लेकिन उसे जितनी भी सफलता मिली है उसे उसने अपने जीवन का, कर्म का हिस्सा बनाया है और आज हमारे सामने वह सब आदर्श के रूप में हैं. लेकिन आज हम देखते हैं कि मनुष्य में भौतिकता की एक लिप्सा सी है और इसी लिप्सा के चलते वह वास्तविकताओं से दूर हटकर अपने जीवन को जीने की कोशिश कर रहा है. एक ऐसा जीवन जिसका लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ भौतिकता को हासिल करना है और उसके बल पर वह सुख और शांति की तलाश में है, लेकिन भौतिक चकाचौंध में वह यह भूल गया है कि सुख और शांति भौतिकता को अपनाने से नहीं आने वाली, अगर इन्हें जीवन का हिस्सा बनाना है तो उसे वास्तविकता को समझना होगा. शेष अगले अंक में.....!!!        

19 मई 2014

वास्तविकता को समझने की जरुरत...1

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दुनिया जिस रफ़्तार से बदल रही है वह हमारे लिए एक अद्भुत सत्य है. भौतिक संसाधनों का जिस तरीके से फैलाव आज हम दुनिया में देख रहे हैं वह मनुष्य की प्रगति का सूचक है. इस पड़ाव पर पहुँचने के लिए मनुष्य ने अपने जीवन के सभी साधनों को समर्पित किया है. मनुष्य के आज तक के इतिहास पर अगर हम एक निगाह डालें तो हमें यह आसानी से समझ आयेगा कि मनुष्य ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से ही प्रकृति के रहस्यों को समझने की चेष्टा की है और अपने जीवन को साधन सम्पन्न बनाने के लिए निरंतर प्रयास किया है. उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती जीवन को समझने की भी रही है. भौतिक साधनों की पूर्ति, उनका उत्पादन, जीवन में उनकी महत्ता और प्रयोग, विज्ञान और तकनीक के माध्यम से प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने के अलावा मनुष्य के चिन्तन का विषय इस जीवन के पार झाँकने का भी रहा है, और उसने उसे जीवन की वास्तविकता को समझना कहा है.

जीवन की इस वास्तविकता को समझने के चक्कर में उसने कई अवधारणाओं को जन्म दिया. कई सिद्धांत
बनाए, कई मार्गों का निर्माण किया, कई पद्धतियाँ विकसित की और अंततः जिस लक्ष्य को उसने निर्धारित किया उसे उसने मोक्ष (जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्ति) की संज्ञा दी. ऐसी स्थिति में व्यक्ति जीवन में चाहे कुछ भी कर ले लेकिन मोक्ष के रास्ते पर चलना उसके लिए अनिवार्य हो गया. ऐसी स्थिति में समाज में उसके लिए कुछ नियम और कायदे बनाये गए. अब दुनिया को अलग-अलग तरीके से विश्लेषित किया जाने लगा. सनातन धर्म से लेकर आज तक जितने भी धर्म, जितनी भी विचारधाराएँ, जितनी भी दार्शनिक अभिव्यक्तियाँ हमारे सामने हैं उन सभी को जब हम गहराई से विश्लेषित करते हैं तो पाते हैं कि इन सभी का लक्ष्य मनुष्य को मोक्ष की तरफ ले जाने का रहा है, और अगर मनुष्य को इस दिशा में बढ़ना होता है तो उसे इस दुनिया और इसके भौतिक साधनों का त्याग करना होगा. बौद्ध और जैन धर्म में हम इस पराकाष्ठा को देख सकते हैं. जहाँ एक साधक के लिए न तो भौतिक जगत के मायने हैं और न ही उन्हें इस जगत से कोई ख़ास सरोकार है. उनके लिए समाज के कोई ख़ास मायने नहीं, शारीरिक सुख सुविधाओं का कोई ज्यादा मोल नहीं. धन संचय का कोई ख़ास स्थान नहीं बस जीवन को चलाने के लिए जो आवश्यक है उससे ही उन्हें जीवन चलाना है और इस जीवन के पार जो कुछ है उसे पाने का प्रयास इस जीवन के रहते हुए करना है. 

इस सबको करने के लिए मनुष्य की एक ख़ास मानसिकता तैयार की जाती है, उसे ऐसा वातावरण प्रदान किया जाता है और अंततः वह इस दिशा में सर्वस्व अर्पित करते हुए आगे बढ़ता है. मोक्ष को प्राप्त करने की दिशा में अनेक प्रयास वह करता है और जीवन के रहते हुए वह इस शरीर को, इसकी मूलभूत आवश्यकताओं को और अपनी इच्छाओं की परवाह किये वगैर आगे बढ़ता है और यही सोचता है कि इस जीवन के न रहने के बाद उसे जो कुछ भी मिलेगा वह उसके लिए सुखद होगा और वहां पहुँच कर वह उन सभी तमाम सुख सुविधाओं का उपभोग करेगा जो मनुष्य जन्म में उसकी साधना और तपस्या के बल पर उसे मिलेंगी. कमोबेश हर धर्म के मूल में यह बात प्रचलित है और इसलिए कुछ लोग जन्म के बाद ही उस दिशा में बढ़ते हैं और अपने जीवन को किसी ख़ास विचारधारा, जीवन पद्धति, फिर किसी गुरु के हवाले करके अपने आप को मोक्ष के हकदार मान बैठते हैं और उनके जीवन की हर गतिविधि, हर कर्म उसी अनुरूप होता है, यदा-कदा वह अपने गुरु के माध्यम से ईश्वर  साक्षात्कार की बात भी करते हैं और खुद को आनन्द से सराबोर कहते हुए दूसरों को भी इस मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देते हैं, और जो उनका गुरु होता है वह किसी मनुष्य के उससे जोड़ने और जुड़ने को सबसे बड़ा कर्म मानता है. 

यह क्रम न जाने कब से चला आ रहा है और संसार के लोग इन सब गतिविधियों में न जाने कब से शामिल हैं और आज के सन्दर्भ में अगर हम देखें तो ऐसी संस्थाओं और मोक्ष की प्राप्ति करने और करवाने वालों की बाढ़ सी आ गयी है. हर चौराहे पर एक ऐसी दुकान जरुर होगी जहाँ से आप अपने मोक्ष जाने का रास्ता पूछ सकते हैं और उस दुकान के नियमित ग्राहक बनकर आप अपनी आने वाली सात पीढ़ियों का कल्याण कर सकते हैं. बस इसी चक्कर में लोग दिन रात भाग दौड़ कर रहे हैं और उनका मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इस बात को पहुंचाने का रहता है कि जिस तरह से हमने अपने मोक्ष का रास्ता पक्का कर लिया है उसी तरह तुम भी अपने मोक्ष का रास्ता पक्का कर लो. यह दुनिया कुछ भी नहीं है, जो कुछ इस दुनिया में है वह सब तो यहीं रह जाएगा, हम क्या लाये थे और क्या हमें लेकर जाना है. बस हम अच्छे कर्म करें और आगे के रास्ते को सुगम बना लें. नहीं तो आगे का मार्ग बहुत कठिन है, वहां बहुत यातनाएं मिलती है और उन यातनाओं के बारे में जानकारी देने के लिए एक विशेष प्रकार का साहित्य तैयार किया गया है, जिसके उदहारण देकर व्यक्ति को यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि इस जीवन के बाद का मार्ग कैसा है और तुम्हें वहां से बचने के लिए क्या-क्या करना है. तुम उस मार्ग पर जाओ ही नहीं इसके इंतजाम तुम्हें इस जीवन में रहते हुए करने होंगे. ऐसे माहौल में व्यक्ति अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा ऐसे कामों में लगता है जिसका उसके जीवन से कोई खास सरोकार नहीं होता. वह अपने अगले जीवन को सुखद बनाने के चक्कर में इस जीवन को ही स्वाहा कर देता है. 

ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए. यह एक बड़ा प्रश्न है. हमारे समाज की व्यवस्था ही कुछ ऐसी बन गयी है कि अब हमें इन सब भ्रमों से निकलने के रास्ते तलाशने चाहिए. हालाँकि व्यक्तिगत रूप से न तो मैं किसी विचारधारा का विरोध करता हूँ और न ही मुझे ऐसा करने का कोई अधिकार है. लेकिन जब समाज में मानवीय मूल्यों के विपरीत कुछ भी देखता हूँ तो एक पीड़ा का अनुभव होता है, एक टीस मन में पैदा होती है. एक दर्द उठता है और फिर जीवन की वास्तविकता को समझने का सिलसिला शुरू होता है .....शेष अगले अंकों में ....!!!!                                                               

27 अप्रैल 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...6

5 टिप्‍पणियां:
ब्लॉग को हम कोई कमतर माध्यम न समझें, अगर ब्लॉग के विषय में हमारी समझ ऐसी है तो हमें अपने मंतव्य पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. गतांक से आगे......इस बात में कोई दो राय नहीं कि आज के सन्दर्भ में ब्लॉग अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है, इसके माध्यम से हम अपनी अभिव्यक्ति को वह विस्तार दे सकते हैं जो हम किसी और माध्यम से कल्पना भी नहीं कर सकते. इसके साथ-साथ ब्लॉग पर लिखी गयी सामग्री को हम विशेष सन्दर्भ के साथ उल्लेख करते हुए उसे और आकर्षक प्रस्तुति देते हुए पाठक का ध्यान उस और आकृष्ट कर सकते हैं. हमारे पास अपने लिखे हुए को प्रचारित करने के अनेक तरीके हैं. लेकिन प्रचार से ज्यादा महत्वपूर्ण है सामग्री की गुणवता को बनाये रखना. अगर हम अपने ब्लॉग पर सामग्री की गुणवता को बनाये रखते हैं तो फिर कोई ख़ास बजह नहीं कि हम अपने लेखन में किसी मुकाम को हासिल न कर पायें. हमें अपने सृजन में हर हाल में ब्लॉग पर प्रस्तुत की गयी सामग्री की गुणवता को बनाये रखना है.
इसके साथ ही बेहतर यह भी होगा कि हम नीश ब्लॉगिंग की तरफ बढ़ें. अगर हम ऐसा करने में सक्षम हो पाते हैं तो फिर पाठक हमें एक विशेषज्ञ की नजर से देखेगा. हमें पाठक को अपने किसी विषय पर विशेषज्ञ होने का अहसास करवाना है या नहीं, यह महत्वपूर्ण नहीं है. हम पाठक के लिए उस खास विषय पर एक नयी दृष्टि लेकर आयें, किसी एक बिन्दु पर नया और प्रासंगिक दृष्टिकोण लेकर आयें तो हमें फिर कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है. क्योँकि ऐसा तो है नहीं कि नवीनता के नाम हम कोई बिलकुल नई विधा लेकर यहाँ अवतरित हों, या फिर हम बिलकुल कोई नया विषय लेकर पाठक के सामने रख दें, यह तो काफी हद तक हर व्यक्ति की पहुँच से बाहर है, लेकिन हम जिस भी विषय को लेकर आगे बढ़ रहे हैं वहां हमारी मौलिक सोच प्रकट होनी चाहिए. अगर हम ऐसा करने में सक्षम हो पाते हैं तो पाठक खुद व खुद हमारी तरफ आकृष्ट होता चला आयेगा.
हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में अभी हमें नीश ब्लॉगिंग की तरफ बढना बाकी है. ऐसा नहीं है कि यहाँ ऐसे ब्लॉग
नहीं हैं जिन्हें नीश ब्लॉग कहा जा सके, यहाँ ऐसे ब्लॉगस तो हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है. आदरणीय ललित कुमार जी ने ब्लॉग के विषय में कुछ मानकों को निर्धारित करते हुए बेहतर ब्लॉगस को तलाशने का बीड़ा उठाया है. इनके अनुभव और निष्कर्ष ने कुछ बेहतरीन हिन्दी ब्लॉगस को हमारे सामने रखा भी है. हालाँकि कोई ब्लॉग किस श्रेणी का है यह बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है, लेकिन अगर हम किसी विशेष भाव क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान हासिल करना चाहते हैं तो उसके लिए हमें उसी तरह से अपने को प्रस्तुत करना होगा. हिंदी ब्लॉगिंग में हम ऐसे कई ब्लॉगस को देख सकते हैं. जैसे शब्दों का सफ़र, हुंकार, समाजवादी जन परिषद्, सिंहावलोकन, मीडिया डॉक्टर, समय के साए में, जनपक्ष, मुसाफिर हूँ यारो, साइंटिफिक वर्ल्ड, स्वाद का सफ़र, पढ़ते-पढ़ते, रेडियोवाणी, हिन्दी ब्लॉग टिप्स आदि. ऐसे ब्लॉगस की सूची मेरे पास बहुत लम्बी है, लेकिन यहाँ सिर्फ इन ब्लॉगस के नाम सिर्फ उदाहरण स्वरूप पेश कर रहा हूँ. हम सहज में ही किसी विषय आधारित सामग्री की खोज के लिए इन ब्लॉगस का सहारा ले सकते हैं. लेकिन अगर यहाँ भी किसी प्रकार के तथ्य की पुष्टि में अगर कोई कमी होती है तो इसका दूसरा असर भी हम पर हो सकता है.
ब्लॉग के माध्यम से हम अपने नवीन दृष्टिकोण को सामने लाने का बेहतर प्रयास कर सकते हैं. कुछ लोगों का यह मत भी है कि ब्लॉग पर गंभीर लेखन का कोई खास मतलब नहीं होता. यहाँ तो सिर्फ टिप्पणी और पोस्ट का ही खेल है, और इसके लिए आपको अपनी पोस्ट को टिप्पणी के अनुकूल बनाना है, और टिप्पणियों के इस चक्कर में कुछ महानुभाव अपने लेखन का स्तर तक गिरा देते हैं. लेकिन जहाँ तक मैंने महसूस किया है कि ब्लॉगिंग के इन षटकर्मों में टिप्पणी एक पड़ाव है. अगर हमें सार्थक ब्लॉगिंग करनी है तो फिर हमें टिप्पणी के मोह से बचने की कोशिश करनी चाहिए. हाँ टिप्पणियाँ हमें नवीन जानकारी जानकारी भी दे सकती हैं, और प्रोत्साहन तो हमें मिलता ही हैं. लेकिन अगर हर आलेख पर हम बहुत सुन्दर, वाह और आह के साथ बहुत खूब जैसे शब्दों को ही टिप्पणी के रूप में पाएं तो हमारा टिप्पणी के प्रति मोह कुछ दिन में ही कम हो जाएगा. हम टिप्पणी की चाहत रखें, लेकिन लेखन को सतही बनाने की कीमत पर नहीं.
जहाँ तक ब्लॉग पर गंभीर और शोधपूर्ण लेखन का सवाल है तो हमें इस बात को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए कि श्रेष्ठ लेखन ही हमें एक नयी पहचान दिला सकता है. इस सन्दर्भ में हमें शब्दों का सफ़र ब्लॉग को एक मानक ब्लॉग के रूप में लेना चाहिए. हिन्दी में रचे गए इस ब्लॉग ने शब्दों का जो ताना बाना हमारे सामने प्रस्तुत किया है वह हमें शब्द के विषय में गहन जानकारियाँ देने में बहुत मदद करता है. शब्दों का इतिहास, भूगोल, विभिन्न भाषाओँ में उनका शब्द रूप और उनका अर्थ सब कुछ हमें एक क्रम में यहाँ मिलता है. अपने अनुभव के आधार पर कहूँ तो इस ब्लॉग ने शब्दों के प्रति मुझमें एक दीवानगी पैदा की है, और शब्दों को समझने में मेरी दृष्टि को व्यापक रूप से प्रभावित किया है.
यह जरुरी नहीं कि हम सिर्फ गद्य में ही रचनाएँ करके आगे बढ़ सकते हैं. पद्य और गद्य जिसमें भी हम अपने को सहज रूप में प्रस्तुत कर सकें उसके माध्यम से हम अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं. लेकिन चाहे हम सृजनात्मक साहित्य रच रहे हैं या वैचारिक अभिव्यक्ति कर रहे हैं, दोनों में हमें अभिव्यक्ति और तथ्यों के प्रति सजग रहना होगा. अगर हम नयी दृष्टि और समयानुकूल परिप्रेक्ष्य में अपने सृजन को प्रस्तुत कर पाते हैं तो यह हमारे सृजन की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. ब्लॉग पर सृजन के विषय में समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि यहाँ सृजन की अनंत संभावनाएं हैं और यह तकनीक और अभिव्यक्ति का ऐसा ताना-बाना है जिसके माध्यम से हम समाज की तस्वीर को बदलने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. इसके साथ ही हिन्दी जैसी भाषा को हम तकनीक की भाषा के रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.

20 अप्रैल 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...5

7 टिप्‍पणियां:
ब्लॉग को विधा नहीं बल्कि माध्यम कहना ज्यादा प्रासंगिक लगता है. कुछ लोग ब्लॉग को विधा का नाम भी देते हैं लेकिन यह प्रासंगिक नहीं. गतांक से आगे......ब्लॉग हमारे लिए अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है, इसे अभिव्यक्ति की नयी खोज भी कहा जाता रहा है. कुछ ब्लॉगर साथी इसे अभिव्यक्ति की नयी क्रान्ति भी कहते हैं. ब्लॉग के विषय में चाहे जितने भी मत और धारणाएं प्रचलन में हों, लेकिन यह सच है कि ब्लॉग जैसे माध्यम से अभिव्यक्ति को एक नया आयाम मिला है, सृजन को नयी दिशा और चिंतन को एक नयी राह मिली है. ऐसे में ब्लॉग की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है. क्योँकि ब्लॉग ने सृजन के परिदृश्य पर व्यापक प्रभाव डाला है और उसे कई आयामों से अभिव्यक्त करने में सहायता की है. 

ब्लॉग ने एक आम व्यक्ति के हाथ में सृजन और चिंतन की चाबी दे दी है, जिससे सृजन का दायरा बढ़ा है. ब्लॉग के माध्यम से किसी भी व्यवसाय और समुदाय से जुडा व्यक्ति सृजन की दुनिया में प्रवृत है. यहाँ सृजन के लिए किसी व्यक्ति का साहित्यिक या लेखकीय आधार होना जरुरी नहीं. ब्लॉग हमसे एक ही मांग करता है कि हम सृजन के लिए मानसिक रूप से तैयार हों, और हममें वैचारिक दृढ़ता होनी चाहिए. सृजन के लिए अगर हम मानसिक रूप से तैयार हैं तो हम इस आभासी दुनिया के कई झमेलों से आसानी से बच सकते हैं और अगर हममें वैचारिक दृढ़ता है तो हम किसी भी परिस्थिति का मुकाबला करने में सक्षम हो सकते हैं. क्योँकि अगर हम ब्लॉग के माध्यम से कुछ भी अभिव्यक्त करने के लिए स्वतन्त्र हैं तो, किसी पाठक को भी यह अधिकार है कि वह अपनी बेबाक राय हमारे द्वारा अभिव्यक्त किये गए विचार पर व्यक्त कर सकता है. ऐसी स्थिति में कई बार तनाव पैदा होता है, उलझन भरा वातावरण बनता है और सब अपने-अपने मत की पुष्टि करने का प्रयास करते हैं. यह होना भी चाहिए इससे सृजन को एक नया आधार मिल सकता है. बहस से निकले हुए तथ्य हमारी जानकारियों को बढ़ा सकते हैं और इस दिशा में हमारे चिंतन को नया आधार प्रदान कर सकते हैं. 

हालाँकि यह माना जाता रहा है कि ब्लॉग व्यक्तिगत भावनाओं और किसी सामयिक विषय पर त्वरित
अभिव्यक्ति का माध्यम भर है. लेकिन ऐसा किसी भी स्थिति में नहीं है. क्योँकि ब्लॉग की दुनिया को जब हम देखते हैं तो पाते है कि रचनात्मकता और चिन्तन का कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर ब्लॉग के माध्यम से हमें जानकारी न मिलती हो. सृजन का कोई आयाम ऐसा नहीं है जिसे ब्लॉग के माध्यम से नयी चेतना न मिली हो. हाँ यह बात अलग है कि व्यक्तिगत भावनाओं और सामयिक विषयों पर त्वरित प्रतिक्रया वाले ब्लॉग और ब्लॉगरों की संख्या अधिक हो सकती है. लेकिन उस स्थिति में हम ऐसा नहीं कह सकते कि किसी और विषय पर ब्लॉग के माध्यम से कुछ भी अभिव्यक्त नहीं किया जा रहा है. जिस प्रकार भूमंडल के एक स्तर पर सभी प्रकार की सांसारिक सीमायें समाप्त हो जाती हैं. वैसे ही यहाँ पर भी किसी तरह की कोई सीमा नहीं है, आपकी भाषा कोई भी हो, आपका देश कोई भी, आप किसी भी दर्शन से प्रभावित हों, आपके जीवन के मूल्य चाहे जो भी हों. आप उन सबको साथ रखते हुए भी एक स्वतन्त्र, मौलिक और  वैचारिक सोच के साथ ब्लॉग की दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं. ब्लॉग ने दुनिया को वैचारिक और भौतिक स्तर पर सीमाहीन करने का एक सुअवसर हमें दिया है.   ब्लॉग की इस दुनिया ने इस मिथक को तकनीक के माध्यम से तोड़ने का पूरा अवसर हमें प्रदान किया हुआ है कि हमारी मानसिक और शरीरी सीमाएं हो सकती हैं, लेकिन विचार और भाव की अभिव्यक्ति को दुनिया के किसी भी शख्स तक बिना किसी बाधा के स्थायी रूप से यथावत (जैसा हम चाहते हैं) पहुंचाया जा सकता है.   

ब्लॉग के माध्यम से हम किसी भी विषय पर कुछ भी लिखने के लिए स्वतन्त्र है, अपने विचार और भाव अभिव्यक्त करने का पूरा अधिकार हमें ब्लॉग के माध्यम से मिला है. ब्लॉग हर दृष्टि से सीमा हीन है, ऐसा तो हम नहीं कह सकते, लेकिन कुछ बिंदु ऐसे हैं जहाँ ब्लॉग हमें असीमित अधिकार अवश्य देता है. लेकिन हम इन असीमित अधिकारों का प्रयोग हम कैसे करते हैं यह हम पर निर्भर करता है. सतही तौर पर देखने से यह लगता है कि ब्लॉग के माध्यम से हम एक काल्पनिक दुनिया में प्रवेश करते हैं, लेकिन यह दुनिया जितनी काल्पनिक है उतनी ही यथार्थ के धरातल पर अवस्थित है. लेकिन कुछ लोग इस बात का ध्यान नहीं रखते. वह कभी किसी का विरोध करते हैं तो कभी किसी की प्रशंसा के कसीदे गढ़ते हैं. प्रशंसा और विरोध कोई बुरी बात नहीं है. अगर कोई तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करके अपने आपको प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा है तो हमें उसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन हमें यह विरोध या असहमति तथ्य और तर्क के आधार पर करनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत समबन्धों के आधार पर. लेकिन ज्यादातर ऐसा देखने में आया है कि यहाँ प्रशंसा और विरोध यहाँ व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर किये जाते हैं. जो कई बार अविश्वसनीय माहौल को अख्तियार करते हैं और किसी हद तक यह दोनों (विरोध और प्रशंसा) एक तरह से वैचारिक प्रदुषण पैदा करते हैं, और ऐसी स्थिति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता है. क्योँकि ब्लॉग को हम कोई कमतर माध्यम न समझें, अगर ब्लॉग के विषय में हमारी समझ ऐसी है तो हमें अपने मंतव्य पर पुनर्विचार की आवश्यकता है ......!!!  शेषअगले अंक में.......!!!!

17 अप्रैल 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...4

7 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे.......ब्लॉग एक ऐसा शब्द जो web-log के मेल से बना है. जो अमरीका में सन 1997 के दौरान इन्टरनेट पर प्रचलित हुआ. तब से लेकर आज तक यह शब्द मात्र शब्द ही बनकर नहीं रहा है, बल्कि ब्लॉग जैसे माध्यम से अनेक व्यक्तियों ने सृजन के क्षेत्र में कई नए आयाम स्थापित किये हैं. ब्लॉग की अपनी अवधारणा है और इससे जुड़े लोगों ने इसे प्रचलित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ब्लॉग तकनीक और सृजन का ऐसा ताना-बाना है जिसने दुनिया में वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया. प्रारंभ में बेशक ब्लॉग मात्र अपने मन की भावनाओं या निजी अभिव्यक्तियों के साधन रहे हों. लेकिन कालान्तर में इस दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया है. अब इसे अभिव्यक्ति की नयी क्रांति के नाम से भी अभिहित किया जा रहा है. हो भी क्योँ न, क्योँकि अब साइबर स्पेस में आप कहीं भी कुछ भी लिखने के लिए स्वतन्त्र हैं. आप पर किसी तरह का कोई दबाब नहीं है. न ही कोई झंझट. आपके पास बस कुछ मुलभुत सुविधाएं हों तो आप कहीं पर भी ब्लॉगिंग कर सकते हैं, और अपने विचारों को दुनिया के किसी भी व्यक्ति तक पहुंचा सकते हैं. आपके पास सृजन का एक अनंत आकाश हैं, और अनेक प्रारूप भी. आप अपने विचार और भाव चाहें तो लिखित रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं, या फिर दृश्य और श्रव्य माध्यम का सहारा ले सकते हैं. इतना ही नहीं आप चित्र, कार्टून  आदि के माध्यम से भी अपने भावों और विचारों से दुनिया को अवगत करवा सकते हैं.

पिछले कुछ वर्षों में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हुई उथल-पुथल में ब्लॉग जैसे माध्यम की महती भूमिका है. क्षेत्र कोई भी हो, देश कोई भी हो, भाषा कोई भी हो ब्लॉग ने हमें इन सब बन्धनों से आजाद किया है. यूनीकोड जैसी भाषाई तकनीक ने हर व्यक्ति की अँगुलियों को की-बोर्ड पर चलाने के लिए विवश किया है. अनुवाद के विभिन्न तकनीकी साधनों ने हमारी भाषाई समझ को बढाने में कारगर भूमिका अदा की हैं. इस माध्यम से हम विश्व की विभिन्न भाषाओँ में रचे जा रहे साहित्य और उन भाषाओँ में अभिव्यक्त किये जा रहे विचारों से अवगत हो सकते हैं. विश्व के किसी भी देश की संस्कृति, इतिहास, साहित्य, संगीत आदि की जानकारी हमें ब्लॉग के माध्यम से सहज ही मिल जाती हैं. ब्लॉग के माध्यम से हम सृजन की एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं, जहाँ हम चिंता मुक्त होकर सृजन कर सकते हैं, और जहाँ तक पठनीयता का प्रश्न है वहां हम किसी भी हद तक कुछ भी पा सकते हैं. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ब्लॉग की दुनिया एक काल्पनिक दुनिया की तरह है. लेकिन यहाँ पर जो कुछ भी घटित हो रहा है वह सब कुछ यथार्थ में घटित हो रहा है. हम एक अनंत सागर में गोते लगा रहे हैं, बस यह हम पर निर्भर करता है कि हम कितनी गहराई में उतर पाते हैं और जितना गहरे हम उतरेंगे उतना ही लाभ हमें होगा. 

सृजन के सन्दर्भ में ब्लॉग की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहाँ पाठक और
रचनाकार के बीच में कोई दीवार नहीं है. पाठक अपनी प्रतिक्रिया से रचनाकार (ब्लॉगर) को अवगत करवा सकता है. यहाँ सिर्फ कोई लेख या विचार पसंद और नापसंद के  आधार नहीं परखा जाता, बल्कि उस लेख के माध्यम से अभिव्यक्त किये गए विचार के आधार पर विचार किया जाता है. पाठक के लिए विचार और जानकारी महत्वपूर्ण है. इससे आगे उसकी समझ विश्लेषण और तथ्यों को लेकर है. जब कोई पाठक अपने मनमाफिक तथ्यपूर्ण और गहन जानकारी किसी ब्लॉग पर पाता है तो यक़ीनन वह उस ब्लॉग को पढने के लिए बेताब रहता है. पाठक और रचनाकार (ब्लॉगर) के इस संवाद के कारण रचनाकार (ब्लॉगर) को बहुत संभल कर चलने की जरुरत होती है. क्योँकि रचनाकार (ब्लॉगर) को इस बात का अहसास होना चाहिए कि उसके द्वारा अभिव्यक्त किये गए विचारों एक सीमा हो सकती है. लेकिन पाठकों की नहीं. उसके पाठक वर्ग में कोई दीवार नहीं है. स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, वृद्ध-जवान, हिन्दू-मुस्लिम हर कोई उसके विचारों को पढ़ सकता है, कभी भी कहीं भी. ऐसी स्थिति में अगर पाठक प्रशंसा कर रहा है तो वह आलोचना भी कर सकता है. आलोचना और प्रशंसा के बीच पाठक और रचनाकार के लिए विभिन्न पाठकों की प्रतिक्रियाएं भी महत्वपूर्ण होती है. कई बार यह प्रतिक्रियाएं किसी वैचारिक लेख को, कविता को, कहानी को, निबंध को विमर्श का हिस्सा बना देती है और ऐसे में पाठकों और पाठकों के बीच विमर्श चलता है और कई बार रचनाकार (ब्लॉगर) और पाठक के बीच में यह बहस चलती रहती है.  

इस स्थिति में किसी लेख से सम्बन्धित ऐसे तथ्य उभर कर सामने आते हैं जिनके विषय में सभी अवगत नहीं होते. ब्लॉग की यह एक अन्यतम विशेषता है. क्योँकि जब हम कोई पुस्तक पढ़ रहे होते हैं तो हमारे जहन में कुछ विचार उभरते हैं, लकिन हम उन विचारों से लेखक तक को अवगत नहीं करवा सकते, लेकिन ब्लॉग की दुनिया में ऐसा नहीं है. ब्लॉगर द्वारा अपने ब्लॉग पर लिखी गयी किसी भी पोस्ट पर आप अपनी प्रतिक्रिया से ब्लॉगर को तुरंत अवगत करवा सकते हैं. सृजन के इतिहास में यह नया उपक्रम है. यक़ीनन इस उपक्रम ने सृजन की प्राथमिकताओं में भी परिवर्तन किया है, लेकिन यह परिवर्तन वैचारिक है. सैद्धांतिक रूप से सृजन की प्राथमिकताएं वैसी ही हैं जैसे अन्य माध्यमों के रचनाकारों की हैं. क्योँकि हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि ब्लॉग मात्र एक माध्यम है अपने भावों और विचारों को अभिव्यक्त करने का, इससे ज्यादा कुछ नहीं. हम कागज पर लिखने की बजाय इन्टरनेट के माध्यम से लिखें. बस माध्यम बदला है, विचार, भाव और विधाएं तो वही हैं, काफी हद तक शैली भी, ऐसे में ब्लॉग को विधा नहीं बल्कि माध्यम कहना ज्यादा प्रासंगिक लगता है. कुछ लोग ब्लॉग को विधा का नाम भी देते हैं लेकिन यह प्रासंगिक नहीं. शेष अगले अंक में.......!!!!   

13 अप्रैल 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...3

5 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे......!!! मानव की जिजीविषा और प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की उत्कट इच्छा ने उसे सृजन की तरफ प्रवृत किया, इस सबके लिए उसे जो भी आयाम सहज लगा उसके माध्यम से उसने प्रकृति के रहस्यों को सुलझाने की कोशिश की और आज तक वह इस दिशा में निरंतर प्रयासरत है. जितना कुछ भी आज तक मनुष्य ने अपनी जिज्ञासा और अनवरत संघर्ष के कारण हासिल किया है, उसका उपयोग उसने मानवता के कल्याण के लिए करने का भी प्रयास किया है. मनुष्य की बहुत सी उपलब्धियां व्यक्तिगत स्तर पर किये गए प्रयासों का परिणाम हैं, लेकिन जब भी उसे लगा कि इन व्यक्तिगत उपलब्धियों के माध्यम से मानवता का भला हो सकता है, तो उसने अपनी उन उपलब्धियों को मानवता के लिए समर्पित करके ख़ुशी की अनुभूति हासिल की है. क्षेत्र चाहे कोई भी हो साहित्य, तकनीक, कला, संगीत, चिकित्सा, योग, तन्त्र-मन्त्र या अध्यात्मिक उपलब्धियां और सिद्धियाँ. सबका प्रयोग उसने मानवता के कल्याण और मानव जीवन को सुखी और सुगम बनाने के लिए किया है.  

ऐसे में यह सहज ही सोचा जा सकता है कि सृजन के मूल में मानवीय हित ज्यादा रहे हैं. जिन्होंने भी सृजन की दुनिया में कदम रखा है, उन्होंने किसी देश विशेष, जाति विशेष या वर्ग विशेष के लिए सृजन नहीं किया है, उन्होंने तो पूरी मानवता की भलाई के लिए अपना ज्ञान और अपने चिन्तन की उपलब्धियों को समर्पित किया है. अगर हम व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसे भी सृजक हुए हैं जिन्होंने दुनिया के कुछ धूर्त लोगों द्वारा मनुष्य को बाँटने के लिए बनाई गई  विभिन्न तरह की व्यवस्थाओं और रीतियों को मानने से ही इनकार कर दिया है. उनका एक ही मंतव्य है कि सब कुछ इस ईश्वर से पैदा हुआ है, इसलिए व्यावहारिक रूप से हमें किसी भी जीव से किसी भी तरह का भेदभाव करने की कोई आवशयकता नहीं है. लेकिन अगर हम किसी भी जीव से किसी भी स्तर पर भेदभाव करते हैं तो हम मानवता के सबसे निचले पायदान पर खड़े हैं. हमें अपने चिंतन के बल पर वहां से आगे बढ़ने की जरुरत है. अगर हम बिना किसी तर्क के, निराधार किसी भी बात को स्वीकार करते हैं तो निश्चित रूप से हमें यह स्वीकारना होगा कि हम अभी भी रुढियों और भ्रामक परम्पराओं के दायरे से बाहर नहीं आये हैं, और जब तक इस दायरे को नहीं तोड़ा जाता तब तक सच्चे मानवीय धर्म की परिकल्पना हम नहीं कर सकते, और सृजन का जो मूल मकसद है उसे प्राप्त नहीं कर सकते. 

पूरी सृष्टि के मानवीय इतिहास पर जब हम नजर डालते हैं तो यह पाते हैं कि मानवता का आज तक का
ज्यादातर इतिहास आपसी संघर्षों का इतिहास रहा है. एक ऐसा इतिहास जिसमें लूट-खसूट, मार-काट, यातनाएं, गुलामी न जाने ऐसे कई प्रवृतियाँ रही हैं जिन्होंने मानव के जीवन को दूभर बनाया है. दुनिया का इतिहास हमें यह भी बताता है कि  कुछ ताकतवर व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कमजोर वर्ग के लोगों को अपना शिकार बनाते रहे हैं. कभी सामाजिक व्यवस्था के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी कानून के नाम पर. जब भी उन्हें जो अपने हितों के अनुकूल लगा उसका प्रयोग करके उन्होंने समाज के कुछ वर्गों को अपने प्रयोग का साधन बनाया है, और यह स्थिति तब की ही नहीं थी, आज भी हमें यत्र-तत्र-सर्वत्र ऐसे दृश्य देखने को मिल जाते हैं. आज बेशक हम अपने आप को आधुनिक और उत्तर-आधुनिक दौर के व्यक्ति कह रहे हों, लेकिन आज भी हम वहीँ खड़े हैं जहाँ हम हजारों वर्ष पहले खड़े थे. आज भी समाज के बहुत बड़े तबके को कहाँ सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. बिना तर्क और बिना आधार का भेदभाव आज भी कहाँ समाप्त हुआ है? आज भी हमारी नजर में कहाँ व्यक्ति समान धरातल पर खडा है? कहाँ आज मानवीय पहलूओं के आधार पर इन्सान की कदर की जाती है? ऐसे बहुत से पहलू हैं जिन पर आज भी यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि दुनिया में इतना कुछ घटित होने के बाबजूद भी आज मनुष्य का चिंतन कोई खास प्रगति नहीं कर पाया है. 

जिन व्यक्तियों ने दुनिया में अपने सृजन के दम पर मानवीय पहलूओं को उजागर कर उन्हें स्थापित करने के लिए भरसक प्रयास किया है, उनके प्रयासों को दुनिया ने हमेशा नजरअंदाज किया है. लेकिन जहाँ भी अपने स्वार्थों की पूर्ति होती हुई उन्हें नजर आई वहां उन्होंने उनका समर्थन भी किया है. इसलिए सृजन का सन्दर्भ भी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलूओं से भरा रहा है. लेकिन फिर भी हमें सकारात्मक दृष्टि अपनाते हुए आगे बढ़ने के जरुरत है. अगर हम ऐसा करने में सफल होते हैं तो एक निश्चित सीमा तक हम कुछ नकारात्मक प्रवृति के लोगों को रोकने में सक्षम हो सकते हैं. लेकन यह तभी हो पायेगा जब हम पूरे परिदृश्य का आकलन करते हुए, भविष्य की सोच रखते हुए मानवता के लिए अपने प्राणों तक का उत्सर्ग करने का साहस रखते हों, और संभवतः यही सृजन की सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकता होगी. लेकिन इस बात का भी अहसास है कि ऐसा सृजक हजारों लाखों में एक होता है, इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अँधेरा चाहे जितना भी गहरा और पुराना क्योँ न हो, अनवरत जलने वाला एक छोटा सा दीया भी अपने प्रकाश से उसे समाप्त करने की क्षमता रखता है. इसलिए सृजन के क्षेत्र में जिन्होंने भी विरोधों का सामना किया उन्होंने अपने मनोबल को कभी कम नहीं होने दिया, वह बढ़ते रहे और कुछ सकारात्मक प्रवृति के लोग उनसे जुड़ते रहे और मानव के जीवन को सुगम बनाने के लिए जितना प्रयास कर सकते थे, वह सब कुछ करते रहे.

सृजन और चिंतन के साथ-साथ मानव की अभिव्यक्ति के साधन भी बदलते रहे हैं. विचार और चिंतन पर परिवेश का भी प्रभाव रहा है. ऐसा भी हमें देखने को मिलता है कि कभी चिंतन ने परिवेश को प्रभावित किया है तो कभी परिवेश ने चिंतन की दिशा को बदला है. इसलिए तो यह कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है. लेकिन कभी-कभी समाज भी साहित्य के लिए रोचक और प्रेरक स्थितियां पैदा करता है. दोनों एक दूसरे से गहरा सम्बन्ध रखते हैं. समाज के विकास के साथ-साथ साहित्य की संवेदना का भी विकास होता है. साहित्य के सृजन के लिए बहुत कुछ समाज भी जिम्मेवार होता है. साहित्य में अभिव्यक्त होने वाले ज्यादातर पहलू समाज से ही लिए गए होते हैं. वर्तमान दौर सूचना तकनीक का दौर है. समाज बदल रहा है, मानवीय मूल्य परिवर्तित हो रहे हैं और ऐसे में सूचना-तकनीक का दखल मानव जीवन को बहुत व्यापक स्तर पर बदल रहा है. जहाँ सब कुछ बदल रहा है वहां अभिव्यक्ति के साधन भी बदले हैं और अभिव्यक्ति के तरीके भी. निश्चित रूप से अगर बदलाब आया है तो फिर मानवीय संवेदनाएं भी बदली हैं और उन्हें आज एक सशक्त माध्यम से अभिव्यक्त किया जा रहा है. जिसे हम ब्लॉग के नाम से अभिहित कर रहे हैं.....!!! शेष अगले अंक में.....!!!! 

19 फ़रवरी 2014

सृजन की प्राथमिकता, ब्लॉगिंग और हम...2

5 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे......!!! सृजन की धारणा, सृजन के मन्तव्य, सृजन की कला और तकनीक आदि में समय-समय पर परिवर्तन होता आया है. सृजन की प्राथमिकताओं के विषय में जब हम पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों का अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि सभी विद्वान इस विषय में एकमत नहीं हैं कि आखिर कोई रचनाकार जब सृजन करता है तो उसके पीछे उसका मन्तव्य क्या होता है? हालाँकि यह विषय बहुत समय से बहस का विषय रहा है, शायद तब से जब से मनुष्य ने सृजन के क्षेत्र में कदम रखा है तब से वह इस विषय पर लगातार चिन्तन करता रहा है और आज तक इस विषय पर उसका चिन्तन अनवरत जारी है. प्रारम्भ से मनुष्य सृजन को दैवीय प्रेरणा का कारण मानता रहा है, इसके साथ वह यह भी मानता रहा है कि सृजन के पीछे व्यक्ति की प्रतिभा की भी बहुत बड़ी भूमिका होती है. लेकिन हम यहाँ इस मत को ऐसे भी व्याख्यायित कर सकते हैं कि प्रतिभा के साथ अगर प्रेरणा नहीं होगी तो फिर ऐसी प्रतिभा कोई खास रचनात्मक कार्य नहीं कर सकती.

सृजन के लिए प्रतिभा एक आवशयक पहलू हो सकता है, लेकिन प्रेरणा का अपना एक ख़ास महत्व है. इस सन्दर्भ में प्लेटो की मान्यता है कि : “For not by art does the post sign, but by power Divine; had he learned by rules of art, he would have known how to speak not of them only, but of all. And reason is no longer with him; no man while he retains that faculty has the oracular gift of poetry”. (Dialogue of Plato by B. Jowett) प्लेटो की स्पष्ट मान्यता है कि इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं के पीछे दैवी प्रेरणा काम करती है. कवि भी दैवी प्रेरणा के वशीभूत होकर ही काव्य-रचना और कलाकार कला की सृष्टि करता है. उनका विचार है कि कवि के भीतर नयी उद्भावना और भावावेश कला से नहीं, वरन् दैवी प्रेरणा से अभिभूत होता है. उत्कृष्ट काव्य उच्च भावनाओं, उच्च विचारों और ज्ञान का संचार करता है. अतः वह समाज के लिए उपयोगी होता है. इसके विपरीत निम्न कोटि का काव्य अपने सामाजिक उत्तरदायित्व को नहीं निभाता और समाज में अनैतिकता और भ्रष्टाचार को फैलाता है तथा उच्च आदर्शों को क्षीण बनाता है. उनके प्रति अनास्था का भाव जगाता है. अतः ऐसा काव्य समाज के लिए घातक है. वह ज्ञान, धर्म, नीति और ईश्वर-विरोधी होने का भाव जगाता है. इसलिए प्लेटो की स्पष्ट मान्यता है कि श्रेष्ठ काव्य प्रतिभा के बल पर नहीं, बल्कि प्रेरणा के बल पर रचा जाता है. इससे यह बात स्पष्ट होती है कि किसी व्यक्ति में बेशक सृजन की प्रतिभा नहीं, लेकिन उसमें किसी विशेष रचनात्मक कार्य के लिए प्रेरणा का संचार किया जाये तो वह उसी प्रेरणा के बल पर बहुत कुछ हासिल कर सकता है. हाँ जन्मजात प्रतिभा में हमेशा मौलिकता की सम्भावना ज्यादा बलबती होती है, इसलिए जिस व्यक्ति में जन्मजात किसी विशेष क्षेत्र में कार्य करने की रूचि होती है तो वह बहुत कुछ ऐसा कर जाता है जिसकी कल्पना दुनिया ने नहीं की होती है. सृजन की प्रेरणा के पीछे मत चाहे जैसे भी हों और जो भी हों, लेकिन हमें सृजन के लिए प्रतिभा और प्रेरणा दोनों के महत्व को स्वीकारना चाहिए.

जहाँ पर साहित्य की बात आती है तो उसके उद्देश्यों और सृजनकर्ता की प्राथमिकताओं पर काफी बहस हुई
है. भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य सृजन की प्राथमिकताओं और उसके प्रयोजन को लेकर बहुत विचार किया है. भारतीय आचार्यों में भरत, भामह, वामन, कुन्तक, रुद्रट, मम्मट आदि आचार्यों  ने इस विषय पर काफी चिन्तन किया है. आचार्य भरत ने नाट्य (काव्य) के प्रयोजन पर विचार करते हुए कहा है कि : “दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्. / विश्रान्ति जननं काले नाट्यमेतद् भविष्यति.. / धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धि विवर्धनम्. / लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति्”.. (नाट्यशास्त्र) अर्थात दुःख, श्रम, शोक से आर्त तपस्वियों के विश्राम के लिए तथा धर्म, यश, आयु-वृद्धि, हित साधन, बुद्धि-वर्धन और लोकोपदेश के निमित नाट्य की रचना होगी. आचर्य भरत के बाद के आचार्यों के सामने काव्य सृजन के यह प्रयोजन रहे हैं. उन्होंने इन सबमें से अपनी बुद्धि और रूचि के अनुसार कुछ को अपना लिया है और कुछ को छोड़ दिया है. इतना ही नहीं समय और स्थिति के अनुसार उन्हें जो कुछ और सही लगा है उसे जोड़ भी दिया है. इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि काव्य का प्रयोजन समय और स्थिति के अनुसार बदलता रहा है. आचार्य भरत के बाद भामह ने काव्य के प्रयोजन पर इन शब्दों में विचार किया है : “धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च. / करोति कीर्ति प्रीतिं च साधु काव्य निबन्धनम्. (काव्यालंकर) अर्थात काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तथा कलाओं में निपुणता के उपलब्धि के निमित की जाती है. साथ ही वह कीर्ति एवं प्रीति (आनन्द) प्रदान करने वाली होती है. भामह के शब्दों में रचना और रचनाकार के उद्देश्य स्पष्ट नजर आते हैं. रचना का उद्देश्य है पाठक को आनंद की अनुभूति करवाना और रचनाकर का उद्देश्य है रचना प्रक्रिया का आनन्द प्राप्त करते हुए यश की प्राप्ति करना.

सृजन का मूल उद्देश्य मानव के सकारात्मक पहलूओं को उजागर कर मानवीय मूल्यों की स्थापना करना है. प्राचीन आचार्य इस बात पर व्यापक ध्यान देते थे. इसकी अभिव्यक्ति हमें संस्कृत वाऽ.मय में देखने को मिलती है. कालान्तर में साहित्य की भाषा में परिवर्तन, मानव मूल्यों में बदलाव, सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन के साथ-साथ सृजन और सृजनकर्ता की प्राथमिकताएं भी बदली हैं, और किसी हद तक यह बदलाव मानव की प्रगति के सूचक हैं. मानव ने जितना भौतिक विकास और अध्यात्मिक चिन्तन किया है उस सबकी अभिव्यक्ति साहित्य के माध्यम से हुई है. साहित्य मानव के चिन्तन और विकास से अछूता नहीं रह सकता. आज तक के साहित्य के इतिहास का जब हम गहन अध्ययन करते हैं तो हमें पता चलता है कि ज्यादातर साहित्य में वही अभिव्यक्त हुआ है जिसका सीधा सम्बन्ध मानव की भावनाओं, संवेदनाओं से है. बिना मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति के कोई भी साहित्य श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता. हालाँकि कई बार मनोरंजन परक साहित्य भी लिखा जाता रहा है, लेकिन उस मनोरंजन में भी मानवीय वृतियों पर कटाक्ष या उनकी प्रशंसा की जाती रही है, और यह सब कुछ साहित्य का अंग रहा है और आने वाले समय में भी यह सब कुछ साहित्य में घटित होता रहेगा. समग्र रूप से हम यह कह सकते हैं कि साहित्य या सृजन के केन्द्र में मानवीय पहलू ज्यादा रहे हैं. जिस रचनाकार ने मानवीय मूल्यों की स्थापना को अपनी रचना का उद्देश्य बनाया है वह रचनाकार कालजयी हो गया है. ऐसे रचनाकारों की कृतियाँ बेशक हजारों वर्ष पहले रची गयी हों लेकिन उनकी महता आज भी वैसी ही है, और आने वाले समय में भी यह मानव का पथ प्रदर्शन करती रहेंगी. 

सूचना तकनीक के इस दौर में सब कुछ अप्रत्याशित रूप से घटित हो रहा है. आज की दुनिया में जब हम अपने चारों और देखते हैं तो पाते हैं कि सब कुछ परिवर्तित हो गया है, और मानव का जीवन सुखद हो गया है. मानव ने चाँद-तारों तक अपनी पहुँच वर्षों पहले बना ली है, अब वह मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाओं की तलाश में जुटा है. इन सब उपलब्धियों और संघर्ष के लिए मानव बधाई का पात्र है. आज चिन्तन के जितने आयाम व्यक्ति के सामने हैं वह उसकी क्रियाशीलता और उसकी कभी हार न मानने वाली प्रवृति के परिचायक हैं. ऐसा बहुत कुछ मानव ने अपने आदिकाल से आज तक हासिल किया है जिससे उसका जीवन सहज और सुखद हो गया है. साहित्य ही नहीं विज्ञान, कला, तकनीक, संगीत, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियां गर्व करने योग्य हैं. हाँ इस सन्दर्भ में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यह जो कुछ भी मानव ने आज तक किया है उसमें उसकी जिजीविषा, यश और कीर्ति की लालसा ने भी मुख्य भूमिका निभाई है. बहरहाल स्थिति और कारण जो भी हो मनुष्य की उपलब्धियां कभी-कभी सोचने पर मजबूर कर देती हैं. शेष अगले अंकों में.....!!!