04 मई 2013

मात्र देह नहीं है नारी...5

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गतांक से आगे  आत्मानुशासन जीवन की अनिवार्यता है. जो व्यक्ति इसे अपना लेता है वह अपने लिए और दूसरों के लिए प्रेरणा और ख़ुशी का कारण बनता है. जीवन का यह अनुभूत सत्य है जब हम आत्मानुशासन को साथ लेकर चलते हैं तो बहुत सी बुराइयों से बचे रह सकते हैं और अपने परिवार और समाज को एक नयी दिशा दे सकते हैं. आज के दौर में सबसे बड़ी कमी आत्मानुशासन की दिखती है, जिस कारण सारी की सारी व्यवस्थाएं चरमरा गयी है. व्यक्ति का चमक-दमक की और बढ़ना, भौतिक लालसाओं की पूर्ति के लिए अपना सब कुछ दांव लगा देना ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनके कारण हम आज ऐसे मोड़ पर पहुँच चुके हैं जहाँ असुरक्षा है, बेकारी है, संवेदनहीनता है और अन्धानुकरण है. ऐसे माहौल में हम ऐसी अपेक्षाएं लिए बैठे हैं जहाँ हम अपने लिए सब कुछ सहज और सुलभ चाहते हैं, लेकिन दुसरे के लिए नहीं और इसी कारण एक ऐसा माहौल बन गया है जहाँ कोई भी सुरक्षित नहीं और आने वाले दिनों में यह सब कुछ और बढेगा, क्योँकि अब विकल्पहीन दुनिया की बात की जा रही है और संभवतः हम अब विकल्पों पर विचार भी नहीं करना चाहते, क्योँकि आधुनिक और उत्तर आधुनिक होने की होड़ में हम अपना सब कुछ गवांते जा रहे हैं और निश्चित रूप से यह सबके अस्तित्व को मिटाने के लिए पर्याप्त है. 

आज हर तरफ नारी को लेकर बहस का माहौल है और कुल मिलाकर स्थिति बहस के बाद भी निरर्थक है. आज बड़ा मुद्दा यह है कि जिस नारी को हम प्रेरणा, आशा, त्याग, प्रेम आदि मूल्यों के लिए जानते थे आज नारी के जहन से वह सब कुछ ख़त्म हो गया है. समाज निर्माण हो या सृष्टि निर्माण दोनों में नारी की भूमिका कम नहीं है. लेकिन शयद नारी के लिए यह समझ से परे है, अगर मैं यह कहूँ कि आज जिस मौड़ पर हम खड़े हैं वहां तक पहुँचने में नारी की भूमिका कम नहीं है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. आज सब कुछ फैशन बन गया है और हम बदलाव के नाम पर इसे करते हैं लेकिन उसके क्या नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं यह हम नहीं सोचते. बस यहीं से बात बिगड़ जाती है और अंततः हमें वह सब कुछ मिलता है जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती और आज यही सब कुछ हो रहा है. जहाँ तक नारी को देह समझने का सवाल है अगर यह बात मान भी ली जाये कि पुरुष उसे मात्र देह समझता है तो नारी भी हमेशा उसे यही समझाने का प्रयास करती है  कि वह देह ही है. ऐसे अनेकों उदाहरण दिए जा सकते हैं. बीते वर्षों में तो स्थिति और भयावह हुई है और आने वालों वर्षों में यह और भी दर्दनाक होगी यह किसी से छुपा नहीं है, लेकिन हम हैं कि चीजों को बहुत सतही तौर से ले रहे हैं. 

आज नारी बीडी से लेकर बिस्तर तक हर जगह नजर आती है. कैसे नजर आती है यह तो आपसे भी छुपा
नहीं. जितनी भी कलात्मक दुनिया है वहां अगर हम देखें तो उन सब चीजों का उद्देश्य दुनिया के मनोरंजन के साथ-साथ एक सार्थक सन्देश देना है ताकि देश और दुनिया में बसने वाले लोग उन सबसे प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सही ढंग से जी पायें. लेकिन आप खुद ही देखिये कोई भी ऐसा माध्यम नहीं है जहाँ पर नारी अपने देह का प्रदर्शन ना करती हो. स्थिति तो यहाँ तक पहुँच चुकी है कि उसने देह को एक माध्यम बना लिया है अपने आगे बढ़ने का जिसे हम दूसरे शब्दों में सफलता भी कहते हैं. आज फिल्म और विज्ञापन की ही अगर हम बात करें तो क्या स्थिति है. बस पैसा दो और कुछ भी करवा लो?? सभ्यता और संस्कृति की बात सोचना तो बहुत दूर,  हम अपनी अस्मिता को ही दांव पर लगा रहे हैं और सिर्फ धन अर्जन को ही सफलता का पर्याय मान रहे हैं. ऐसी स्थिति में जीवन मूल्य तो बदले ही हैं और जब सब कुछ परिवर्तन की राह पर अग्रसर है तो फिर हम क्योँ एक ही आँख से देखते हैं, जब कोई अप्रिय घटना होती है. 

व्यक्ति की सोच का पहला परिचय उसका पहनावा होता है, हम किसी व्यक्ति को दूर से ही देखकर उसके पहनावे से उसका प्रथम परिचय ले सकते हैं और जैसा उसका पहनावा होगा उसके प्रति वैसी सोच बना सकते हैं. लेकिन आज देखता हूँ तो व्यक्ति में इसी चीज के प्रति संवेदनशीलता नहीं है. हमने कपडे का आविष्कार किया शरीर को ढंकने के लिए लेकिन आज हम फिर उस आदिम युग की तरफ बढ़ रहे हैं, एक तरफ पहनावा और दूसरी तरफ कामुक अदाएं माहौल कुछ ऐसा की व्यक्ति कुछ सोच ही नहीं पाता, किसी हद तक तो मानसिकता की बात स्वीकारी जा सकती है लेकिन शत प्रतिशत ऐसा भी नहीं है. मानसिकता बनी है तो उसके भी कारण रहे होंगे और वह निश्चित रूप से ही होते हैं. हमें उन कारणों पर गहनता से विचार करने की जरुरत है और फिर कोई सार्थक निर्णय लिया जा सकता है. 

सही मायनों में हम अगर दुनिया को भविष्य में सुंदर और खुशहाल रूप में देखना चाहते हैं तो हम सबकी यह जिम्मेवारी है की हम सबसे पहले अपने जीवन मूल्यों का निर्धारण करें फिर समाज की वर्तमान प्रवृतियों का विश्लेष्ण करें और फिर कोई सार्थक निर्णय लें. अगर हम ऐसे माहौल के निर्माण के लिए जिम्मेवार हैं तो हम एक सौहार्दपूर्ण माहौल भी अख्तियार कर सकते हैं और यह आज के युग की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी, वर्ना आने वाली पीढियां किस गर्त की तरफ जायेंगी यह तो सोच कर ही डर लगता है. जैसे आज हम इतिहास से प्रश्न करते हैं आने वाली पीढियां हमसे भी वाही प्रश्न करेंगी. इसलिए सही मायनों में मान्विस्य मूल्य स्थापित करने हैं तो किसी कानून के बजाए हम आत्मनिरीक्षण को ज्यादा पहल दें. हर चीज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलूओं को देखें, कहीं पर विरोध करने का अवसर मिले तो उसके पीछे के कारणों को समझने की कोशिश जरुर करें . तभी एक बेहतर समाज की परिकल्पना की जा सकती है और नारी को देह नहीं, देवी स्वीकार किया जा सकता है. अगर नारी भी ऐसा माहौल तैयार करने में सहयोग करे तो....बाकी आपकी इच्छा ???

01 मई 2013

मात्र देह नहीं है नारी...4

13 टिप्‍पणियां:
पिछले अंक से आगे दुनिया के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब नारी और पुरुष को सामान समझा गया हो और यही बड़ी भूल है दुःख तो तब होता है जब घर में जन्म देने वाले माँ-बाप ही लड़की के साथ भेद भाव करते हैं. हालांकि आज के दौर में आप ऐसा कह सकते हैं कि स्थिति बदल गयी है तो ऐसा बहुत मुश्किल से कहा जा सकता है और ऐसे लोगों का प्रतिशत बहुत कम है. अगर जन्म देने वाले ही लड़की को सिर्फ देह के आधार पर भेद कर रहे हैं तो फिर समानता का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता और जब दो असमान चीजें साथ चल रहीं हों तो उनके एक होने का कोई सवाल पैदा नहीं होता और फिर तो यही होगा जो हो रहा है और यह तो स्थिति फिर भी नियंत्रण में है वर्ना जो ढांचा और व्यवस्था हमारे सामने हैं उसके परिणाम तो और भी भयंकर होने कि संभावना है. अगर हम वक़्त रहते नहीं संभले तो, लेकिन अभी तक सँभालने कि तरफ हमारे प्रेस बहुत कम हैं. क्योँकि जिस तरीके से भ्रूण हत्याएं, बलात्कार, दहेज़ के उत्पीडन आदि हो रहा है वह चिंताजनक ही नहीं बल्कि बहुत अफसोसजनक भी है.

आज की जिस व्यवस्था में हम जीवन यापन कर रहे हैं उसे अगर अंग्रेजियत की व्यवस्था कहूँ तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हो सकता है आप असहमत हों लेकिन मेरे विश्लेषण का तो यही निष्कर्ष निकलता है और मैं अपने निष्कर्ष पर कायम भी हूँ. भारतीय जीवन पद्धति में नारी को हमेशा ही उंचा स्थान दिया गया है और संभवतः आज भी उसकी पूरी सम्भावना है अगर हम अंग्रेजियत वाली इस गुलाम मानसिकता से ऊपर उठ जाएँ तो हम समझ सकते हैं कि नारी  भारतीय संस्कृति और सभ्यता का अभिन्न अंग रही है, जबकि हम पश्चिम के दर्शन का विश्लेषण करते हैं तो वहां पर नारी को भोग कि वस्तु माना जाता रहा है और आज भी कमोबेश यही स्थिति है. यह बात आपको अचरज करने वाली काग सकती है लेकिन अठारवीं शताब्दी तक तो पश्चिम वाले स्त्री में आत्मा ही नहीं मानते थे, वह मात्र उनके लिए एक वस्तु थी जिसका वह उपभोग करते थे और आज भी किसी स्तर पर  वह नारी के लिए सम्मान का रुख अख्तियार नहीं कर पाए हैं. ऐसी कई बातें है जिनका जिक्र किया जा सकता है और अन्धानुकरण करने वालों पर हंसा जा सकता है. आर्यवर्त की को संस्कृति रही है वह जीवन से लेकर मृत्यु तक, जड़ से लेकर चेतन तक बहुत वैज्ञानिक और सहज रही है इस बात में कोई दो राय नहीं. लेकिन हम हैं कि उस संस्कृति को समझने का ही प्रयास ही नहीं करते और आये दिन अन्धानुकरण की राह पर चलकर अपना और आने वाली पीढ़ियों का नुक्सान करते जा रहे हैं और दुहाई दे रहे हैं खुद के शालीन और चरित्रवान होने की तो यह समझ लीजिये कि आपके पास भ्रम के सिवा कुछ भी नहीं.  

नारी की वर्तमान स्थिति के लिए अगर यह बात भी कही जाये कि आज जो दृष्टिकोण और सोच उसके प्रति
बनी है तो उसके लिए वह भी जिम्मेवार है. हम पुरुष को ही दोषी कहें तो ऐसा किसी हद तक हो सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है. आज के दौर में जो बलात्कार और अत्याचार हो रहे हैं उसमें नारी कि भूमिका कम नहीं है. लेकिन जब बहस की बात आती है तो हम वास्तविक पहलूओं को नजर अंदाज कर देते हैं और सिर्फ सतही स्तर पर बात करते हैं. अभी पिछले वर्ष दामिनी बलात्कार कांड के बाद पूरे देश में एक बहस सी छिड़ गयी थी, संसद में इस बात पर चर्चा भी हुई और एक कठोर कानून बनाके की बात भी सामने आयी, अपराधियों को मृत्यु दंड देने की बात भी कही गयी. यह बात ठीक है कि जिसने अपराध किया है उसे सजा तो मिलनी चाहिए, लेकिन क्या कानून ही सबकी रक्षा कर पायेगा. हमारे देश में बहुत हो हल्ला हुआ लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार नहीं हुए, या नहीं हो रहे हैं, स्थिति तो अब भी जस की तस है. हम सब भीड़ का हिस्सा बनाना पसंद करते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से काम करने में कोई यकीन नहीं करते. आप संगीत सुनते हैं शांति के लिए, सकून के लिए, ऊर्जा के लिए, प्रेरणा के लिए लेकिन जब आप यह सुन रहे  हों कि चिपकाले फेविकोल से,  फिर चोली के पीछे क्या है, तेरा जिस्म ओढ़ लूं आदि-आदि तो फिर क्या होगा ऐसा संगीत सुन कर. संभवतः आप जिस मंतव्य के लिए सुन रहे हों उसकी जगह आप कुछ और ही सुन लें. संगीत के साथ-साथ कमोबेश साहित्य की भी ऐसी स्थिति है. स्त्री विमर्श के नाम पर लिखा गया ज्यादातर साहित्य मात्र काम वासना ही बढाता है और कुछ नहीं. लेकिन ऐसे लोगों को हम बहुत महान कहते हैं और उनके सामने नतमस्तक होते हैं. साहित्य और संगीत जिनकी तरफ व्यक्ति सबसे पहले आकृष्ट होता है वहां तो अश्लीलता के सिवा कुछ नहीं और इसके लिए क्या नारी जिम्मेवार नहीं ???

हम अगर किसी चीज का विरोध करना चाहें तो जरुरी नहीं कि हम सड़कों पर उतरें जैसा कि अक्सर होता है और अब तो लोग सड़कों पर उतरना अपनी शान समझते हैं. लेकिन सड़कों पर उतरने से कुछ नहीं होने वाला यह बात आप मेरी मान लीजिये और अगर आप कुछ कर सकते हैं तो अपने घर में बैठकर ही. मेरा अपना अनुभव है वह यह कि पिछले दस वर्षों से जबसे मैंने टी वी देखना बंद किया है तब से मैं सकून के साथ जी रहा हूँ, अगर कुछ देखने लायक हो तो तब कोई प्रतिबन्ध नहीं लेकिन संभवतः उसे में ना देखने वाली स्थिति ही कहता हूँ, पिछले 3-4 वर्षों से मैं सुबह अख़बार नहीं पढता, क्योँकि उम्र के जिस दौर से मैं गुजर रहा हूँ उसमें सुबह अख़बार पढ़ना मेरे लिए खतरनाक है. कहीं कंडोम के विज्ञापन, हर रात सुहागरात वाले दावे, लॉन्ग ड्राइव जैसी बातें, सुन्दरता के नाम पर बिलकुल न्यूड तस्वीरें और फिर मेरा चरित्रवान बने रहना कहाँ किस दुनिया की बातें हैं. एक तरफ तो यह वहीँ दूसरी तरफ अश्लील साहित्य की दुकाने, मैंने अपने शहर  के मैंगजीन विक्रेता से कई बार पूछा है कि यह ‘मनोहर कहानियां, मनोरंजक कहानियां, जीजा साली के किस्से, जैसी मैगजीन कौन पढता है तो उसका उत्तर आश्चर्यचकित चकित करने वाला था. उसने कहा लड़के-लड़कियों का ध्यान इस तरफ हो यह बात तो समझ में आती है, लेकिन इन मैगजीनों को तो 50-60 साल तक के स्त्री-पुरुष भी पढ़ते हैं. फिर हम कहते हैं कि हम सभ्य है, सुसंस्कृत हैं, हम ऐसी चीजों का विरोध करते हैं और सख्त से सख्त क़ानून की मांग करते हैं. क़ानून के बजाय अगर हम आत्मानुशासन की तरफ कदम बढ़ाएं तो ज्यादा बेहतर होगा.....!!! शेष अगले अंक में...!!!