22 मार्च 2013

पुस्तकें और पाठक .. 3

एक रचनाकार ने किसी पुस्तक में बेशक अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, अनुभूतियों और चिंतन को अभिव्यक्ति दी है , लेकिन जब वह कला के माध्यम से अभिव्यक्त  हुई है तो वह पाठक के लिए रोचक और उसके जीवन, उसकी दृष्टि को बदलने वाली होती है .....!! गतांक से आगे…!!

एक पुस्तक के माध्यम से ही रचनाकार पाठक के मानसपटल पर प्रभाव डालने में सक्षम होता है . यह बात भले ही पाठक को पता होती है कि रचनाकार ने जिस भाव, विचार को अभिव्यक्ति दी है वह उसका अपना अनुभव है , उसका अपना चिंतन है . लेकिन फिर भी पाठक सहज ही आकर्षित होता है उस पुस्तक की ओर, जिसके रचनाकार से वह अनभिज्ञ  होता है . पुस्तक को पढ़ते वक़्त पाठक अपनी मानसिक अवस्था को भूल जाता है और वह रम जाता है कुछ नया पाने की जिज्ञासा से उस पुस्तक में जो उसके हाथ में है, जिसे वह पढने की चेष्टा कर रहा है . जब पाठक को अपने मन के अनुकूल किसी पुस्तक में कुछ पढने को मिलता है तो वह संवाद की स्थिति तक पहुँच जाता है और यही एक रचनाकार की सफलता है और पाठक की पठनीयता . 

पुस्तकें जीवन का सार है , सृष्टि की व्याख्या हैं , अनुभूतियों और विचारों का जीवंत दस्तावेज हैं . हमें इस बात को स्वीकारना होगा कि रचनाप्रक्रिया कोई आसान नहीं है . व्यक्ति जब संवेदना के चरम पर होता है तो वह रचनाशीलता की तरफ अग्रसर होता है, और जो कुछ उसने अनुभूत किया होता है उसे अपनी कला के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयास वह करता है, यह भी सच है कि रचनाकार के मन में कुलबुला तो बहुत कुछ रहा होता है , लेकिन वह अभिव्यक्त बहुत कम कर पाता है , क्योँकि हर भाव को , हर अनुभूति को शब्द देना इतना आसान तो नहीं . जो स्थिति रचनाकार की रचना करते वक़्त होती है , लगभग वही स्थिति पाठक की किसी रचना को पढ़ते वक़्त होती है , किसी नाटक को देखते वक़्त होती है , किसी चित्र को निहारते वक़्त होती है . जब तक हम रचनाकार की किसी कृति में पूरी तन्मयता से नहीं समाते तब तक हम ना तो रचना का मंतव्य समझ पाते हैं और न ही हम आनंद की अवस्था को ग्रहण कर पाते हैं . जब पाठक  रचना / पुस्तक के माध्यम से रचनाकार की भावभूमि तक पहुँच जाता है तो वह वास्तविकता में आनंद से सराबोर हो जाता है और यहीं से उसके जीवन में चिंतन की प्रक्रिया आरंभ होती है . वह रचनाकार के मंतव्यों को समझना शुरू करता है और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए अपने आपको तैयार करता है . मुझे आज तक किसी रचना / कृति / पुस्तक को देखने / पढने के बाद यही लगा कि रचना करना किसी हद तक आसान है , लेकिन पढ़ना कहीं मुश्किल है . क्योँकि रचनाकार ने जिस वक़्त रचना की है या रचना करने की तरफ उसका ध्यान जा रहा है तो वह काफी हद तक सहज है , और यह भी सच है कि उसके मानसपटल में वह सब कुछ चल रहा है बस उसने उसे अभिव्यक्ति दे दी . लेकिन पाठक के साथ ऐसा नहीं है उसे पुस्तक पढने के लिए अपने आपको तैयार करना होता है , खुद को एक निश्चित भाव भूमि पर स्थापित करना होता है .

हालाँकि पाठक पुस्तक पढने के लिए बाध्य नहीं है . लेकिन जो सच्चा पाठक है , जिसमें कुछ सीखने की ललक है उसके लिए कई बार पुस्तक पढना बाध्यता बन जाती है . किसी मंतव्य के लिए पढना और सहज में ही पढना, अगर देखा जाये तो दोनों में बहुत अंतर है . हम किसी परीक्षा के लिए , किसी अन्य उद्देश्य के लिए पढ़ रहे होते हैं तो हमारी भावभूमि अलग होती है . वहां हमें पुस्तक से प्रेम नहीं , हमें पठन से कोई लगाव नहीं , लेकिन एक बाध्यता है हमारे सामने एक लक्ष्य है जिसे पूरा करने के लिए हम पढ़ रहे हैं . जैसे ही हम उसे हासिल कर लेंगे फिर तो शायद हजारों रुपये खर्च करके लायी गयी उन पुस्तकों को हम देखने की जहमत ही ना उठाएं . लेकिन वास्विकता में पढना वह नहीं है . एक साक्षर और शिक्षित व्यक्ति में अंतर होता है , और वह अंतर हमारी पठनीयता के कारण होता है . हम मात्र जानकारी के लिए, किसी परीक्षा को पास करने के लिए, किसी ओहदे को पाने के लिए अगर पढ़ रहे हैं तो वह हमारे साक्षर होने की प्रक्रिया का हिस्सा है और यह बात सच भी है . अगर ऐसा नहीं होता तो शायद आज यह हालत पैदा नहीं होते . आज की पठनीयता में साक्षर तो पैदा हो रहे हैं लेकिन शिक्षित बहुत कम . 

हमें सही मायनों में शिक्षित होना है , बुद्धिजीवी होना है तो सहज में पुस्तक की शरण में जाना होगा और खुद को उसे समर्पित करना होगा , लेकिन यह ध्यान रहे कि जिस पुस्तक को हम पढ़ रहे हैं उसकी अभिव्यक्ति भी तो श्रेष्ठ होनी चाहिए . क्योंकि अगर हम पुस्तक के चुनाव में सफल नहीं हो पाए तो हो सकता है कि हम जीवन में भी सफल ना हो पायें और यह भी हो सकता है कि हमारे जीवन की दिशा ही बदल जाये . एक सफल रचनाकार होना अलग बात है , लेकिन एक सफल पाठक होना उससे भी कहीं बड़ी बात है .

11 टिप्‍पणियां:

  1. हम तो जितना लिखते हैं, उतना ही पढ़ने की इच्छा बलवती होती है।

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  2. बिना पढे तो लिखना मुश्किल है. शायद पधे का एक प्रतिशत भी नही लिखा जा सकता. बहुत सुंदर आलेख.

    रामराम.

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  3. किताबों का साथ सदा बन रहे यही इच्छा है हमारी भी ...... सुंदर चिन्तन

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  4. कि‍ताबों से दोस्‍ती संस्‍कारों का ही हि‍स्‍सा होनी चाहि‍ए

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (23-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  6. लेखक की दृष्टि बहुत पारखी होती है ..
    इसलिए पुस्‍तकें ज्ञानप्राप्ति का बहुत अच्‍छा साधन है ..
    अच्‍छा लिखा है आपने !!

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  7. कहते हैं कि हर ज्ञानी शिक्षक को जिंदगी भर एक जागरूक विद्यार्थी बनकर ज्ञान की खोज में लगे रहना चाहिए ,तभी वह सफल शिक्षक बन सकता है .लेखक को भी पड़ते रहना चाहिए अच्छा लेखक बननेके लिए
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  8. जब से लेखन के क्षरत में कदम रखा है तब से ये तो अच्छे से जान लिया है कि पढ़ने लिखने की कोई उम्र नहीं होती ...और पुस्तके तो जीवन में सच्चे साथी की भूमिका अदा करती हैं

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  9. अपनी भावनाओं को शब्द देना और उन शब्दों को पढ़कर भावनाओं को समझना दोनों ही महत्वपूर्ण है... होली की हार्दिक शुभकामनायें...

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  10. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.