17 मार्च 2013

पुस्तकें और पाठक .. 2

पुस्तक की महता का कोई पैमाना शायद आज तक निश्चित नहीं हो पाया है कि वह कितनी महत्वपूर्ण है, लेकिन एक संकेत देता चलूँ कि आज जिन रचनाकारों के सामने हम नतमस्तक होते हैं उन चिंतन और व्यक्तित्व अगर किसी माध्यम से हमारे सामने आया है तो वह हैं 'पुस्तकें' ....!गतांक से आगे .....!!! 

पुस्तक रचनाकार के भावों और विचारों का जीवंत और स्थायी दस्तावेज है. पुस्तक के माध्यम से ही रचनाकर अपने व्यष्टि भाव को समष्टि के साथ सांझा करता है . भारतीय रचना चिंतन में रचनाकार और रचनाओं के महत्व पर व्यापक बहस हुई है और यह समझने का प्रयास बराबर होता रहा है कि आखिर कोई सामान्य व्यक्ति रचनाशीलता की तरफ कैसे और क्योँ प्रवृत होता है ? रचनाशीलता के प्रति उसका लगाव और उसकी क्या प्राथमिकताएं रहती हैं ? इसे कभी प्रयोजन कहा गया तो, कभी हेतु . लेकिन मूल प्रश्न तो रचनाकार की रचनाशीलता को समझने का रहा . इसी प्रकार पाठक और उसकी मानसिकता को समझने के प्रयास भी प्रारंभ से होते रहे और आज भी हो रहे हैं औरआगे भी  निरंतर जारी  रहेंगे, लेकिन यह बात भी सच है कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह कुछ नया किये बिना नहीं रह सकता . मनुष्य ही नहीं स्वयं प्रकृति भी परिवर्तन को अपनी महती आवश्यकता मानती है और यह आवश्यक भी है .

रचनाकार और प्रकृति का गहरा सम्बन्ध है . इसे यूं भी अभिव्यक्त किया जा सकता है कि प्रकृति ही किसी संवेदनशील व्यक्ति को रचनाशीलता की तरफ प्रेरित करती है . भारतीय और पाश्चात्य जगत के विद्वान इस मत पर एकमत है,  जहाँ वह कहते हैं कि रचनाशीलता का आदिस्रोत दैवीय प्रेरणा है तो सीधी सी बात है कि रचनाकार प्रकृति और इसके रहस्यों की तरफ जिज्ञासा से आगे बढ़ता है और उसे जो कुछ भी समझ आता है, अनुभूत होता है, उसे वह अभिव्यक्त करने की कोशिश करता है और उसी कोशिश में किसी कविता का जन्म होता है , किसी मूर्ति का खाका बनता है, कहीं संगीत की कोई धुन बजती है तो कहीं केनवास पर कोई जीवंत चित्र . इस परिप्रेक्ष्य में अगर हम देखें तो रचनाशीलता का संसार बड़ा अद्भुत है, और किसी हद तक रहस्यमयी भी .  जब रचनाकार स्वयं ही कह रहा है " वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान". तो निश्चित रूप से रचनाकार अपने मन के खालीपन को, मन की टीस को, भीतर के द्वंद्व के साथ - साथ अपनी हर अनुभति को अपनी कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है और यह अभिव्यक्ति का संसार जितना विविधता भरा है, उतना ही यह व्यापक भी है . एक तरफ तो यह बात वहीँ दूसरी तरफ अभिव्यक्ति के बिना जीवन के निरीह और रसहीन होने की बात भी स्वीकार की जाती है और साहित्य, कला और संगीत के बिना मनुष्य को साक्षात पशु तक कहा गया है भर्तृहरि के अनुसार " साहित्य, संगीत कला विहीनः , साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः". तो निश्चित रूप से कला मनुष्य के लिए कला महत्वपूर्ण है और कला जीवन की सक्रियता, संवेदना, अनुभति  और अभिव्यक्ति की परिचायक है . 

एक पुस्तक रचनाकार के संवेदनशील होने का जीवंत प्रमाण है. उसकी अभिव्यक्ति और उसके चिंतन के गतिमान होने का सबूत है और काफी हद तक उसकी चिन्ताओं, अनुभवों, आकांक्षाओं , प्राथमिकताओं और दृष्टि का परिचय है . पुस्तक के माध्यम से रचनाकार ने जिस भाव को, चिंतन को अभिव्यक्त किया है उसकी प्रासंगिकता और महता का निर्धारण तो समाज को करना है और समाज व्यक्तियों से बनता है . समाज से कटी हुई अभिव्यक्ति कभी भी कालजयी नहीं हो सकती और फिर रचनाकार के समाज चिन्तक और हितकारी होने के का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. इसलिए रचनाकार कभी भी समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता और जो ऐसा रचनाकर है उसे समाज कभी स्वीकार भी नहीं करता . एक पुस्तक रचनाकार के विचारों का प्रतिनिधित्व करती है, उसकी सोच को , उसके चिंतन को पाठकों से सांझा करती है और रचनाकर के प्रति पाठक के सम्मान का कारण बनती है . एक रचनाकार ने किसी पुस्तक में बेशक अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, अनुभूतियों और चिंतन को अभिव्यक्ति दी है , लेकिन जब वह कला के माध्यम से अभिव्यक्त  हुई है तो वह पाठक के लिए रोचक और उसके जीवन, उसकी दृष्टि को बदलने वाली होती है .....!!

8 टिप्‍पणियां:

  1. ek achhi shuruyaat होली के अवसर पर थोडा गुलाल मेरे तरफ से भी स्वीकार करे

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  2. सार्थक लिखा है ... सृजन प्राकृति के गर्भ से ही होता है ... फिर वो कैसा भी हो ...

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  3. सहमत हूँ... रचनाकार की कलापूर्ण अभिव्यक्ति पाठक को रोचकता प्रदान करती है और वह अपनी भावनाएं पूरी तरह पाठकों तक पहुँचाने में सफल होता है... बढ़िया आलेख

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.