27 दिसंबर 2013

न काशी न काबा, बस बाबा ही बाबा ... 4

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आजकल जितने भी ऐसे छुटभये तैयार हुए हैं उनके कई तरह के नकारात्मक प्रभाव हमारे समाज और देश पर पड़ रहे हैं और जिस धर्म की आड़ में वह यह सब कुछ कर रहे हैं वह वास्तव में धर्म को स्थापित करने जैसा नहीं है, बल्कि भोले-भाले लोगों को अधर्म की तरफ ले जाने वाला मार्ग है. गतांक से आगे ......

हम किसी से सहज शब्दों में पूछे कि धर्म क्या है ? तो संभवतः हमें संतुष्ट करने वाला उत्तर नहीं मिल पायेगा.
कोई कहेगा जिसमें यह सब निशानियाँ होंगी वह धर्म है, कोई कहेगा ऐसे मतों से भरा हुआ जो है वह धर्म है. धर्म के सन्दर्भ में हर किसी के अपने विचार हैं, लेकिन वह विचार स्पष्ट नहीं है. कोई कहता है हिन्दू, इस्लाम, इसाई, बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि धर्म हैं. लेकिन जब विचार करते हैं तो पाते हैं कि जितने भी नाम लिए जा रहे हैं वह वास्तविकता में धर्म नहीं हैं . हम जो नाम ले रहे हैं हमें इन नामों और इनके इतिहास पर चिंतन करने की जरुरत है, क्योँकि जब इनका उद्भव हुआ था तब यह सब नाम अध्यात्म के नाम से जाने जाते थे. सिक्खजिसे हम धर्म का नाम दे रहे हैं उस पर ही हम विचार करें तो पायेंगे कि जो इस शब्द का वास्तविक अर्थ था वह कहीं खो गया है और एक औपचारिक अर्थ हमारे सामने रह गया. कालान्तर में इसी से कई और विचारधारों का जन्म हुआ और आज हर कोई अपनी दुकान चला रहा है . ऐसी स्थिति विश्व के बाकी विचारों के साथ भी है और आज भी यही हो रहा है.

आज की स्थिति बहुत गंभीर है, धर्म और अध्यात्म बाजार भाव के आधार पर चल रहे हैं, उनके माध्यम से राजनीति की जा रही है, खरीद और फरोख्त के कामों को अंजाम दिया जा रहा है, भोले-भाले लोगों को ईश्वर के नाम का डर दिखाकर उनका सब कुछ लूटा जा रहा है, और ऐसी स्थिति में धर्म का प्रचार करने वालों की फौज खड़ी हो गयी है. हर कोई अपनी दुकान चला रहा है और हर कोई ग्राहक बनाने के चक्कर में जगह-जगह नुमाइश लगा रहा है. ऐसे में कहाँ हम धर्म की स्थापना कर पायेंगे और कहाँ हम एक अंधकार में भटक रहे मनुष्य को सही राह दिखा पायेंगे, यह सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न है? ओ माय गॉड फिल्म में एक संवाद है जहाँ धर्म है वहां सत्य नहीं, और जहाँ सत्य है वहां धर्म की जरुरत नहीं”. यह संवाद सत्य और धर्म के बारे में सारा निचोड़ हमारे सामने रखता है. जहाँ सत्य है ...और सत्य सिर्फ ईश्वर को कहा गया है, बाकी जिसे हम सत्य कहते हैं उसके पैमाने तो अलग-अलग जगह पर बदलते रहते हैं, लेकिन ईश्वर एक ऐसा सत्य है जिसका पैमाना कहीं नहीं बदलता, जो आज है वह कल भी होगा और हजारों वर्षों बाद भी वैसा ही रहेगा. 

अगर हम इस सच को समझ जाते हैं तो फिर हमें कुछ करने की जरुरत ही कहाँ रह जाती है, और ऐसा नहीं है कि हमारे सामने इस बात के प्रमाण नहीं हैं हमारे सामने ऐसे अनेक प्रमाण हैं, हमारे रब्बी पुरुषों की वाणियां इस बात की गवाही हमारे सामने हमेशा देती रहती हैं, और दे रही हैं , लेकिन हम हैं कि किसी जाल में हमेशा फंस जाते हैं और इस कारण में ऐसे अवसरवादी लोगों के स्वार्थ का शिकार बन जाते हैं, जिन्हें हम बड़े अदब से बाबा कहते हैं, जिन्हें हम गुरु के सामान समझते हैं. लेकिन वास्तविकता में न तो वह गुरु हैं और न ही वह ऐसी कोई योग्यता रखते हैं. तो फिर हम क्योँ ऐसे लोगों की शरण में हैं, जिनका न तो धर्म से कोई सम्बन्ध हैं और न ही जिन्हें अध्यात्म की कोई समझ है, न ही जिन्हें इस मार्ग का कोई अनुभव है. जितने भी आज टेलीविजन पर प्रवचन करने आते हैं उनमें से तो आधे से ज्यादा सिर्फ भाषण वाजी के अलावा और कुछ नहीं करते, उनके पास उसके अलावा कुछ है भी नहीं, सिर्फ राम और कृष्ण के अलावा उन्हें कुछ आता भी नहीं और इनके बारे में भी जो जानकारी इन प्रवचन कर्ताओं के पास है वह भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं. फिर ऐसे में एक प्रश्न सहज ही उठता है कि हम जा कहाँ रहे हैं और हमारी मंजिल कहाँ है ???? यह सब तो हम सभी को विचार करना होगा न.....!!!! 

27 अक्तूबर 2013

न काशी न काबा, बस बाबा ही बाबा ... 3

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इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पडा है, खासकर मध्यकाल के बाद का इतिहास जब इस देश की शासन व्यवस्था का जिम्मा विदेशी शासकों ने अपने हाथ में ले लिया था और अपने मकसद को पूरा करने के लिए वह तरह-तरह हथकंडे अपनाते थे और यह परम्परा आज तक भी जारी है. गतांक से आगे 

भारत जैसे देश में आज जो कुछ हो रहा है वह बहुत ही खेदजनक है. हालाँकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले यहाँ
ऐसा कुछ ऐसा था ही नहीं, कुछ लोग इतिहास के नाम पर भ्रम फैलाते हैं कि भारत एक समृद्धशाली, वैभवशाली देश नहीं रहा है. भारत का अतीत बहुत स्वर्णिम रहा है. लेकिन उसके पक्षों पर कभी विचार नहीं करते कि हम किस पक्ष से समृद्ध और सम्पूर्ण रहे हैं. जहाँ तक भारत के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि यहाँ युद्ध होते रहे हैं. असुरी शक्तियों से देवताओं का लड़ना होता रहा है और उनकी जीत भी होती रही है. ऐसे बहुत से प्रमाण हैं जहाँ पर हमारे ऋषियों ने अपने प्राणों को दाव पर लगाकर मानवता के हित को साधने के लिए कार्य किया है. आज हम जिस उच्च संस्कृति और सभ्यता की बात करते हैं वह हमारे चिरंतन साधना और सकारात्मक सोच का परिणाम है, आज जो भी हम अपने इतिहास पर गर्व कर पाते हैं वह उस काल के प्रतापी लोगों का ही फल है. 

हालाँकि यह बात भी सच है कि भविष्य का निर्माण वर्तमान की नींव पर टिका होता है और वर्तमान ही भविष्य को तय करता है. आज जो वर्तमान है कल वह अतीत बन जाएगा, लेकिन भविष्य के लिए आधार आज ही तैयार करता है. हम देखते हैं कि एक पल में लिए गए निर्णय जीवन में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, और इन निर्णयों का प्रभाव उतना ही सामने वाले के जीवन पर भी पड़ता है. आपका जीवन जितना सार्वजनिक होगा उतना ही प्रभाव आपके साथ जुड़े लोगों पर आपके निर्णयों का पडेगा. हम इतिहास से कितना सीखे हैं. दुर्योधन के एक हठ ने महाभारत रचा दिया और संस्कृति का नाश हो गया, जो कुछ भी तत्कालीन राजाओं ने अर्जित किया था वह बिना बजह के समाप्त हो गया, रावण के एक निर्णय ने उसकी सभी खूबियों को मटियामेट कर दिया और भी ऐसे कई उदाहरण आज हमारे सामने हैं, लेकिन हम हैं कि आज भी कुछ सीख नहीं ले पाए हैं और ना ही हम कुछ सकारात्मक करने की पहल कर पाए हैं . 

आज के दौर में जो कुछ भी हमारे सामने हो रहा है उसके कुछ पहलू ऐसे हैं जो हमें आगाह करते हैं कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस धरा पर मानवीय पहलू मात्र पुस्तकों में ही पढने को मिलेंगे, व्यावहारिक जीवन से उनका कोई सरोकार नहीं होगा और जो त्राहि-त्राहि आज हमारे सामने हो रही है वह इतनी बढ़ जायेगी कि मानव-मानव के लिए ही नाश का कारण बनेगा. हालाँकि यह सब आज भी घटित हो रहा है, लेकिन अभी कुछ सीमा तक, हाँ यह बात अलग है कि आज ऐसी व्यवस्था का निर्माण हो चुका है जहाँ मनुष्य हमेशा तनाव में जीता है और उसके जीवन का हर पल संघर्षमय है. इतना कुछ होने के बाबजूद भी वह संतुष्ट नहीं है वह सदा दूसरों से आगे बढ़ने की होड़ में सब कुछ भूल गया है. लेकिन यह बात भी सच है कि जिसे वह उन्नति-प्रगति आदि कह रहा है वह उसका पतन भी है, जिस मार्ग पर आज का इंसान दौड़ रहा है उसका अंत सिर्फ और सिर्फ विनाश ही है. वह इंसान से खुद को बचाने के लिए बहुत जहरीले हथियारों का निर्माण निरंतर कर रहा है और आज हर जगह ऐसे प्रयोगों और अविष्कारों की होड़ लगी हुई है कि कहना ही क्या. एक तरफ तो ऐसे हालत हैं वहीँ दूसरी और पूंजी के दम पर सब कुछ खरीदा और बेचा जा रहा है आज मानवीय पहलूओं का कहीं कोई प्रचार नहीं है और न ही उस तरफ किसी का ध्यान जाता है, हाँ कुछ पाखण्ड जरुर इस पहलू पर किया जाता है, लेकिन सिर्फ बातों में ही. जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं उनका अपना जीवन भी उस बात पर अमल नहीं करता, लेकिन सभी ऐसे भी तो नहीं हैं पर जो सही मायने में मानवीय पहलूओं के पक्षधर हैं उनका कोई नामलेवा नहीं है, ना आज है, ना कल था और भविष्य में भी ऐसी कोई संभावना नजर नहीं आती. 

इतिहास इस बात का गवाह है जिसने भी इस धरा पर नेकी से मानवीय पहलूओं को स्थापित करने की कोशिश की, उसे हमने ही नहीं बख्शा. किसी को तत्ते तवे पर चढ़ा दिया तो किसी को दीवारों में चिनवा दिया. किसी को गोली मार दी तो किसी को ढेरों यातनाएं दी. फिर भी वह मानवता के पुजारी दुनिया को समझाते रहे और अपने कर्तव्य पथ पर अंतिम सांस तक आगे बढ़ते रहे, दुनिया ने जो कुछ भी उनके साथ किया वह फिर भी दुनिया को माफ़ ही करते रहे और आज भी ऐसे कई संत इस धरा पर हैं जो मानवता की स्थापना के लिए निरंतर प्रयासरत हैं और दूसरी तरफ धर्म के नाम पर जो पाखण्ड रचे जा रहे हैं वह किसी से छुपे नहीं है, आये दिन दुनिया में कोई न कोई परमात्मा पैदा हो जाता है और भक्तों का तो कहना ही क्या? ऐसा लगता है कि वह अपने इस पाखंडी परमात्मा के जन्म के लिए वर्षों से इन्तजार कर रहे हों और उसके दीदार के लिए राह में पलकें बिछाए बैठे हों, और वह पाखंडी परमात्मा जनता को ऐसे गुमराह करता है जैसे वह ही इस सृष्टि का कर्ता-धर्ता हो. आजकल जितने भी ऐसे छुटभये तैयार हुए हैं उनके कई तरह के नकारात्मक प्रभाव हमारे समाज और देश पर पड़ रहे हैं और जिस धर्म की आड़ में वह यह सब कुछ कर रहे हैं वह वास्तव में धर्म को स्थापित करने जैसा नहीं है, बल्कि भोले-भाले लोगों को अधर्म की तरफ ले जाने वाला मार्ग है ....!!!          

22 अक्तूबर 2013

न काशी न काबा, बस बाबा ही बाबा ... 2

3 टिप्‍पणियां:
हमारी संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसमें अध्यात्म शामिल न हो, धर्म की बात न हो, सब पहलूओं में सब कुछ शामिल होने के कारण भी हर पहलू की अपनी विशेषता होना भारतीय संस्कृति को अद्भुत बनाता है और यही इसकी जीवटता का सबसे सशक्त प्रमाण है. गतांक से आगे..!!

भारतीय संस्कृति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव का इतिहास. इस देश की सभ्यता भी
उतनी ही पुरानी है. दुनिया में अनेक परिवर्तन आये, अनेक दर्शन आये, अनेक धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ, अनेक देश बने, अनेक संस्कृतियाँ बनी और उनका प्रभाव इस देश की संस्कृति पर भी पडा. जो भी जहाँ से आया अपनी भाषा, अपनी भूषा, अपनी बोली, अपना खान-पान, रहन-सहन सब कुछ साथ लेकर आया और इतिहास इस बात का गवाह है कि इस देश पर दुनिया की नजरें हमेशा टिकी रहीं, और यह देश सबके सपनों का देश बना रहा. हर कोई यहाँ बसने की चाहत अपने मन में पाले हुए इस देश की तरफ बढ़ा और काफी हद तक उन्हें सफलता भी मिली, लेकिन हर किसी ने यहाँ के लोगों की ईमानदारी, सेवा भाव और समदृष्टि का लाभ उठाकर अपने स्वार्थों को सिद्ध किया है, फिर भी इस संस्कृति की सबको समान देखने के भाव ने किसी के प्रति कोई गिला शिकवा नहीं किया, और आज तक भी यह भाव सदा जीवित है और इसके गहरे अर्थ हैं. जब हम गहराई में जाकर विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि यह सब कुछ तभी संभव है जब हमारे मार्गदर्शक हमें निरंतर इस मार्ग पर बढ़ने की प्रेरणा देते रहते हैं. 

भारत एक अद्भुत देश है, यहाँ विज्ञान और तकनीक का विकास सबसे पहले हुआ है. दुनिया के इतिहास को देखने पर यह बात स्पष्ट रूप से समझ आती है कि जितनी भी प्रगति आज हम दुनिया में देख रहे हैं उसका आधार भारतीय जीवन दर्शन, तकनीक और विज्ञान का हिस्सा है. दुनिया के अनेक शासक, अनेक व्यापारी, अनेक कम्पनियां यहाँ आयी और यहाँ से अकूत धन और सम्पति लूट कर चली गयीं, लेकिन फिर भी भारत अपनी मूल भावना को नहीं भूला और आज तक भी वह भाव बना हुआ है. दुनिया के विकास का प्रत्येक पहलू इस देश से जुडा हुआ है, दूसरे शब्दों में इसे ऐसे कहा जा सकता है कि दुनिया में हर प्रकार के विकास का प्रेरक भारत रहा है और इस सबके पीछे हमारे ऋषि-मुनियों की मेहनत निहित है, उनका निस्वार्थ सेवा भाव और निरंतर मानव कल्याण के लिए कार्य करना किसी से छुपा नहीं है. दुनिया जब अपने जीवन को जीने की जद्दोजहद में लगी हुई थी हमारे यहाँ के वैज्ञानिक तब सूर्य और नक्षत्रों पर शोध कर रहे थे, तब तक हम इस ब्रहामंड के रहस्यों को खोज चुके थे और अपने निष्कर्षों को दुनिया के सामने रख चुके थे.  

हमारा अतीत बहुत गौरवमय है, हमारे इतिहास में कभी कोई ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि हमने अपने स्वार्थ के लिए कभी किसी के हितों को नुक्सान पहुँचाया हो, लेकिन इतना जरुर किया है कि जब भी दुनिया में अन्याय, अत्याचार, स्वार्थ का बोलवाला हुआ है तब हमने उसे मिटाने के लिए हर संभव प्रयास किये हैं और उन प्रयासों से हमने हर किसी के लिए शांति और सकून का वातावरण तैयार करने का प्रयास किया है. हमारे यहाँ पर ऋषि-मुनियों और साधू-संतों का बहुत सम्मान हुआ है, लेकिन कहीं पर अगर किसी साधू संत का अपमान हुआ है तो भी उन्होंने मानव हित के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से भी गुरेज नहीं किया है. इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पडा है, खासकर मध्यकाल के बाद का इतिहास जब इस देश की शासन व्यवस्था का जिम्मा विदेशी शासकों ने अपने हाथ में ले लिया था और अपने मकसद को पूरा करने के लिए वह तरह-तरह हथकंडे अपनाते थे और यह परम्परा आज तक भी जारी है.   शेष अगले अंकों में ......!!!

12 अक्तूबर 2013

जन्मदिन के बहाने

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जन्मदिन हर किसी की जिन्दगी का अहम् दिन होता है. जीवन में चाहे कैसी भी स्थिति हो हम इस अवसर पर खासे रोमांचित होते हैं और माता-पिता के साथ-साथ ईश्वर को भी धन्यवाद देते हैं. जीवन में माता-पिता हमारे लिए पूजनीय होते हैं और ईश्वर अराध्य, माता-पिता साधन होते हैं तो ईश्वर साध्य, माता-पिता साकार हैं तो ईश्वर निराकार, माता-पिता के बगैर हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते, तो ईश्वर के बिना जीव की, ईश्वर और माता-पिता के गुणों और कर्मों का सम्बन्ध इतना गहरा है कि उसे एक दुसरे से अलग करना मुमकिन नहीं. इसलिए भारतीय संस्कृति में माता-पिता को ही ईश्वर की संज्ञा से अभिहित किया जाता रहा है. जीवन का कोई भी पक्ष हो हर पक्ष का शृंगार माता-पिता और ईश्वर के माध्यम से ही होता है, हम जीवन में किसी भी मुकाम तक पहुँच जाएँ लेकिन माता-पिता के लिए हम हमेशा बच्चे ही बने रहते हैं और इसी कारण हमें उनका प्रेम अनवरत मिलता रहता है और हमारा जीवन धन्य होता रहता है. 

जीवन के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं और अनेक विश्लेषण भी, लेकिन अभी तक जीवन के विषय में कोई 
एक सर्वसम्मत मत प्रचलन में हो, ऐसा नहीं है. संसार में जितने भी दर्शन, मत और विचार आये सब जीवन की व्याख्या अपने-अपने तरीके से करते हैं और अभी तक कर रहे हैं, लेकिन कोई किसी निश्चित निष्कर्ष तक नहीं पहुंचता. जैसे हम जीवन के प्रति किसी निश्चित निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सके वैसे ही हम ईश्वर के प्रति भी एकरूप दृष्टिकोण नहीं बना पाए और इसीलिए हम जीवन और मृत्य के बीच में जूझते हुए आगे बढ़ रहे हैं. जिसे हम जीवन कह रहे हैं वह तो ठीक है, लेकिन जिसे हम मृत्यु कह रहे हैं वह कहीं एक पक्षीय है. क्योँकि हम जब इस कायनात को देखते हैं तो हम पाते हैं कि यह पूरी सृष्टि पांच तत्वों से बनी हुई है और इस सृष्टि का संचालन-पालन करने वाला ईश्वर है और यह निराकार है, अजर है, अमर है, अविनाशी है, अखंड है तो फिर यह बात स्वाभाविक है कि ईश्वर का अंश जो शरीर में रहता है वह शरीर के न होने पर भी उसी स्थिति में रहता है, और जहाँ तक पांच तत्वों का सवाल है यह भी अपने-अपने मूल में मिलते हैं इसलिए मृत्यु का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं होता. अब यह एक कपोल कल्पना जैसा है कि मृत्यु के बाद जीवन समाप्त हो जाता है, हाँ यह बात तो सच है कि जिस रूप में यह हमारे सामने होता है, वह रूप मिटता जरुर है, लेकिन वह ही कहीं नव जीवन का आधार बनता है, इसलिए जितना सकारात्मक दृष्टिकोण हम जीवन के प्रति रखते हैं उतना ही सकारात्मक दृष्टिकोण हमें इसके न होने पर भी रखना चाहिए. जब तक जीवन है तब तक हम पूरे संसार के प्रति सकारात्मक बने रहें और यह तब ही हो सकता है जब हम जीवन की वास्तविकता को समझते हों.

वर्तमान परिवेश को जब हम गहराई से विश्लेषित करते हैं तो हम पाते हैं कि जीवन के प्रति अनेक प्रकार के विरोधाभास प्रचलित हैं और यही हमारे बीच विरोध का कारण हैं. इन्ही विरोधों के कारण हम एक दुसरे को भिन्न समझते हैं और यहीं से क्रम शुरू होता है मनुष्य का मनुष्य के प्रति वैर भाव का और यही वैर भाव हमें गहन अन्धकार की तरफ ले जाता है और हम इतने क्रूर होते हैं कि हम मनुष्य को मनुष्य समझते ही नहीं और इस हद तक गिर जाते हैं कि हम उसके शरीर से प्राणों तक को जुदा करते हैं. फिर ऐसी स्थिति में न तो हमारे जीवन का कोई लाभ है और न ही जन्मदिन की कोई महता. हम जन्मदिन मनाएं एक उत्सव की तरह और जीवन जिएँ एक महोत्सव की तरह तो जीवन और जन्मदिन दोनों की महता बनी रहेगी.....इस ख़ास अवसर पर शुभकामनाओं के लिए आप सबका तहे दिल से शुक्रिया.     

16 सितंबर 2013

न काशी न काबा, बस बाबा ही बाबा...1

7 टिप्‍पणियां:
भारतीय सभ्यता और संस्कृति को जब हम गहराई से विश्लेषित करते हैं तो इसकी जड़ें और गहरी होती जाती हैं, हम जितना इसको समझने की कोशिश करते हैं, उतना ही हमें ऐसा आभास होता है कि अभी हम कुछ जान ही नहीं पाए हैं और यही इस संस्कृति की विशेषता है. इसके पीछे स्पष्ट बात तो यह है कि आप किस दृष्टि से इसे समझने की कोशिश करते हैं और आपका प्रयास कितना दृढ है, आपकी सोच कितनी स्पष्ट है. क्योँकि आप पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर इस संस्कृति को नहीं समझ सकते, इसके लिए आपको निश्छल भाव की आवश्यकता है, इस संस्कृति से दृढ प्रेम और इसके प्रति समर्पण की आश्यकता है. तभी आप इसका कुछ अनुमान लगा सकते हैं और इसके गर्भ में जो कुछ छुपा है उसे समझ सकते हैं. लेकिन शायद एक जीवन के अगर हम सौ वर्ष भी जी लेंगे तो इसका पार नहीं पाया जा सकता, हां ऐसी अवस्था हो सकती है. जैसे कोई हजारों मील दूर से चलकर सागर के किनारे पहुँच गया हो और सागर को निहार कर ऐसा समझ ले कि वह अपने लक्ष्य तक पहुँच गया है. असली शुरुआत तो सागर के किनारे पर पहुँचने से होगी अब वास्तविकता तो उसके सामने तब आती है और वास्तविक यात्रा भी यहीं से शुरू होगी. अभी तक उसने जो कुछ किया वह एक तरह से पूर्वाभ्यास था जिसके दम पर वह यहाँ तक पहुँच गया. लेकिन जैसे ही वह सागर में गोता लगाएगा उसे ऐसा लगेगा कि उसकी मंजिल तो अभी बहुत दूर है और जितनी-जितनी गहराई में वह जाएगा उतना ही उसे लगेगा कि उसके हाथ से मंजिल दूर होती जा रही है. 

भारतीय संस्कृति के विषय में भी कुछ ऐसा ही है. ठीक सागर की यात्रा की तरह, हम इसे जितना भी देखते
हैं उतना ही यह गहरी होती जाती है. हम तो इस संस्कृति के साथ यात्रा ही तय करते हैं, लेकिन डुबकी नहीं लगाते, क्योँकि इतना अवसर हमारे पास है ही नहीं और आज के दौर की अगर बात की जाए तो शायद हमारे पास वक़्त ही नहीं, और संभवतः इस और हम ध्यान ही नहीं देते, यह सबसे बड़ी विडंबना है और आये दिन हम इसका खामियाजा भुगत रहे हैं और आने वाले दिनों में तस्वीर कितनी भयानक होगी यह तो कल्पना करने से भी डर लगता है, ऐसे में हमें एक गहरे विश्लेषण की आवश्यकता पड़ती है और सार्थक निष्कर्षों तक पहुँच कर उनके क्रियान्वन, उनके अनुपालन की आवशयकता पड़ती है . जो लोग भारतीय संस्कृति की थोड़ी सी भी समझ रखते हैं वह जीवन को ऐसा जीते हैं, जैसे उनके जीवन में कोई असमंजस ही ना हो, कोई दुविधा ही न हो, कोई संघर्ष ही न हो, उपरी तौर पर देखने में हमें ऐसा लग सकता है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि संस्कृति के माध्यम से जिस सच को उस व्यक्ति ने समझा है वह उसे जीवन में हमेशा ही सहज बनाए रखता है. यह संस्कृति की विशेषता है. भारतीय जीवन दर्शन और भारतीय संस्कृति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. भारतीय जीवन दर्शन हमें पूरे विश्व के प्राणियों से प्रेम करना सिखाता है, सबके प्रति आदर का भाव सिखाता है और सबके साथ रहते हुए इस विश्व को सुंदर रूप देने की प्रेरणा देता है और भारतीय संस्कृति तो और भी उदार भाव रखते हुए सबको अपने में समाहित करने की क्षमता रखती है. यह सिर्फ कहने को ही नहीं बल्कि ऐसा यहाँ हुआ है और बहुत प्रयासों के बाबजूद भी यह संस्कृति अपने गौरव को बनाए हुए है.

हम इतिहास को देखें इस दुनिया में कितनी ही सभ्याताएं और संस्कृतियाँ पनपी लेकिन वक़्त के साथ वह मिट भी गयी, लेकिन भारतीय संस्कृति की यह अद्भुत विशेषता है कि यह अभी तक अपने आप को अक्षुण बनाये हुए है, लेकिन इस अक्षुणता के पीछे बहुत से कारण है और उनमें से एक कारण यह है कि यह हमारे जीवन दर्शन का हिस्सा है, हमारे जीवन का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जो संस्कृति के माध्यम से अभिव्यक्त न होता हो और जीवन दर्शन में कुछ भी ऐसा नहीं जो संस्कृति के लिए अवरोध उत्पन्न करे, और इसी कारण लाखों-करोड़ों वर्षों से हमारी संस्कृति अक्षुण बनी हुई है . हालाँकि यह भी सच है कि इस संस्कृति को नष्ट करने के अनेकों प्रयास हुए हैं लेकिन यह आजतक अपने गरिमा को बनाए हुए है, इसके बने रहने के कारणों पर जब हम विचार करते हैं तो समझ आता है कि यह हमारी सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और साहित्यिक व्यवस्था के कारण समझ आते हैं. हमारी संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसमें अध्यात्म शामिल न हो, धर्म की बात न हो, सब पहलूओं सब कुछ शामिल होने के कारण भी हर पहलू की अपनी विशेषता होना भारतीय संस्कृति को अद्भुत बनाता है और यही इसकी जीवटता का सबसे सशक्त प्रमाण है .....बाकी के बिंदु  अगले अंक में ....!!!