14 मई 2012

दुआ का एक लफ्ज, और वर्षों की इबादत...1

स ब्रह्माण्ड को जब भी हम देखते हैं, महसूस करते हैं, इसके रहस्यों को जानने की जब कोशिश करते हैं तो कहीं पर हम सीमित हो जाते हैं. हमारी सोच का दायरा, कल्पना की उड़ान, समझ की सीमा सब छोटा पड़ जाता है. जब भी इस विश्व को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि आखिर यह सब कुछ व्यवस्थित कैसे है? जितनी भी कायनात है उसके जर्रे-जर्रे में एक अदृश्य सत्ता का आभास हमें होता है और जब भी हम इसे और गहराई से महसूस करते हैं तो भी हम इसका अंदाजा नहीं लगा सकते. दुसरे शब्दों में हम इसे  नेति-नेति कहते हैं अर्थात “न इति" जिसका कोई आदि -मध्य और अंत नहीं. जो जन्म और मृत्यु से मुक्त है जिसे हम खुदा, ईश्वर, सृष्टा, भगवान, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड आदि नामों से पुकारते हैं. अवतारी पुरुषों के रूप में हम इस सत्ता को राम- कृष्ण, गुरु नानक, हजरत मुहम्मद, ईसा मसीह आदि कई नामों से अभिहित करते हैं, और समग्र रूप से हम इस अदृश्य सत्ता को सर्वव्यापी, सर्व समरथ, सर्वगुणसंपन्न, कालातीत आदि कई विश्लेषणों से अभिव्यक्त करते हैं.  इसकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करने के लिए हम इसे अखंड भी कहते हैं

वेद में इसे "अखंड मंडलाकार व्यापतेन चराचरम" (अर्थात जो खंडित नहीं हो सकता और जो इस सृष्टि के
कण-कण में व्याप्त है) कहा गया है. निर्गुण रूप में जो ब्रह्म वाणी और शब्दों द्वारा वर्णन की सीमा में न बंध सकने से साधारण मनुष्यों की पहुँच (उपासना) से परे होता है, उसका रूप चाहे साकार हो या निराकार लेकिन मनुष्य के लिए उसकी थाह लेना मुश्किल होता है."निर्गुणमपि सत ब्रह्म नामरूपगतैर्गुनै सगुणं-उपस्नार्थमुपदिश्यते " फिर भी यह दयालु ईश्वर इस धरती के जीवों पर अपनी कृपाएं करता रहता है और उन्हें सुख के साधन प्रदान करता रहता है. यह इस सृष्टि में समस्त कर्मों को करता हुआ भी कर्म बंधन में नहीं फंसता, जबकि इंसान है कि इन कर्म बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता:- न मां कर्माणि लिम्पन्ति न कर्मफले स्प्रहा. / इति मां योऽभिजानाति  कर्मभिर्न स बध्यते. कर्मों में लिप्त न होने के कारण इस इस ईश्वर में सुख-दुःख मोहादि गुण भी व्याप्त नहीं होते हैं. वह सदा आनंदयुक्त है. ईश्वर स्वयं आनंद युक्त है और मनुष्य उससे प्रार्थना करके इस आनंद को पाने की चेष्टा करता है. लेकिन फिर भी उसका आकर्षण भौतिक जगत में बना रहता है. इसलिए उसकी पहली प्रार्थना इन भौतिक साधनों को पाने की ही होती है. वह सदा प्रत्यनशील रहता है अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु.

ब प्रश्न यह उठता है कि क्या मनुष्य ही प्रार्थना करता है, या धरती के और जीव भी इस ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. यह गहन शोध का विषय हो सकता है. इस विषय पर अभी कोई ऐसी बात सामने नहीं आई कि मनुष्यों के अलावा भी धरती पर रहने वाले जीव ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, और अगर करते हैं तो उनकी प्रार्थना में क्या शामिल रहता है? किस तरह के सुख की मांग वह ईश्वर से करते हैं. यह बड़ा रोचक और शोधपूर्ण विषय हो सकता है. अगर हम इस दिशा में कदम बढाते हैं तो ....! जहाँ तक मनुष्य की बात है वह इस दिशा में एकदम भिन्न किस्म की मानसिकता रखता है, और कभी-कभी तो ऐसा आभास होता है कि इस विविधता के पीछे भी कोई ईश्वरीय विधान छुपा है. लेकिन जहाँ तक प्रार्थना की बात है वह किसी तर्क और तथ्य से परे होती है. उसमें व्यक्ति का कर्म और उसके मन की पवित्रता भी मायने रखती है. कई बार देखा गया है कि कोई मनुष्य प्रार्थना करता है तो वह पूरी नहीं होती, और कई बार उसे उसकी प्रार्थना के बदले में उसकी सोच से भी बढ़कर मिलता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति हमेशा असमंजस की स्थिति में रहता है और जीवन के अंतिम पड़ाव तक वह यह तय नहीं कर पाता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? उसे प्रार्थना के बल पर सब कुछ मिल जायेगा या उसे कर्म करना चाहिए. दुआ और कर्म इन दोनों के बीच वह हमेशा पिसता रहा है. धर्म गुरु कहते हैं कि तेरे कर्मों से कुछ भी नहीं होने वाला है, जो कुछ भी होगा ईश्वर की कृपा से ही होगा और दूसरी बात वह यह भी कहते हैं कि "भगवान हमेशा भक्त के वश में रहता है. "दोनों बातों पर अगर विचार करते हैं तो विरोधाभास स्वतः ही पैदा हो जाता है. अब मनुष्य क्या करे भाग्य को देखे या कर्म के फल को? यह ऐसी बातें हैं जिन पर हम सोच विचार तो कर सकते हैं लेकिन किसी अंतिम निर्णय तक पहुंचना टेढ़ी खीर के समान है. शेष अगले अंकों में...!!!!! 

16 टिप्‍पणियां:

  1. उस सत्ता को सादर नमन ।

    आभार ।।

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  2. कर्म और भाग्य से सम्बंधित विरोधाभास हमारी जीवन शैली में है , क्या सुलझ पायेगी ...पढ़ते रहेंगे आपकी श्रृंखला !

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  3. लेकिन जहाँ तक प्रार्थना की बात है वह किसी तर्क और तथ्य से परे होती है . उसमें व्यक्ति का कर्म और उसके मन की पवित्रता भी मायने रखती है .

    जिस प्रार्थना में कर्म शामिल हो वो पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाती है ...!!
    सोच को एक दिशा देता ...सार्थक आलेख ....!!
    शुभकामनायें ...!!

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  4. दोनों बातों पर अगर विचार करते हैं तो विरोधाभास स्वतः ही पैदा हो जाता है .

    सुंदर अभिव्यक्ति से भरा आलेख ,...

    MY RECENT POST ,...काव्यान्जलि ...: आज मुझे गाने दो,...

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  5. भगवान और भक्त का संबंध अचिन्त्य हो जाता है...प्रभु के रंग निराले हैं।

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  6. कुछ तो है जिसे सर्वोच्च शक्ति कहते हैं..बेशक वो हमारे अपने ही अंदर है.और प्रार्थना हमारी अपनी ही इच्छा शक्ति हो सकती है.
    बस कर्म किये जाओ बाकी उसी शक्ति पर छोड़ दो.
    यही फलसफा सबसे आसान लगता है.

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  7. सार्थक लेख,
    बिल्कुल हट कर विषय।
    बहुत बढिया

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  8. बहुत उम्दा चिंतन..... सहमती है आपके विचारों से .....

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  9. मैं भी शिखा जी की ही तरह से मानती हूँ, कि कोई तो है जिसे हम सर्वोच्च शक्ति कहते हैं, उसे देख नहीं सकते लेकिन महसूस करते हैं ... और उस शक्ति पर विश्वास रखते हुए कर्म करना ही महत्वपूर्ण मानते हैं. कर्म और भाग्य के विरोधाभास पर आपके विचार जानने कि उत्सुकता है ... सुन्दर आलेख के लिए आपका आभार

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  10. अभिव्यक्ति तो इतनी गहन है कि मनुष्य डूब जाए तो निकले ही न……सीधा ही उस पार (मोक्ष) हो जाए। लेकिन दुनिया के रंग चाव भी करने हैं इसलिए अभी मुमुक्षू बोध जगाना उचित नहीं। संभवत: आगे चल कर इसकी आवश्यकता पड़े, जब आवश्यक होगा…… "दूआ का एक लफ़्ज और वर्षों की इबादत । अभी तो मायावी संसार से ही वास्ता रखना पड़ेगा।

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  11. सार्थक लेख,
    बिल्कुल हट के
    बहुत बढिया......!!

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  12. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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  13. aapki baton se puri tarah se sahmat hun aisee isthiti me hmare pas siraf ik bat hoti hai voye hai ki ham hmesha apni taraf se accha kam karen ....

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  14. तब तो स्वयं को समझाने के लिए दुहराना पड़ता है - किसी की झोली फूल भरे है , किसी को केवल कांटे मिले हैं..सब उसकी मर्जी..सब उसी मर्जी...शायद ये निर्गुण भजन है..

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जब भी आप आओ , मुझे सुझाब जरुर दो.
कुछ कह कर बात ऐसी,मुझे ख्वाब जरुर दो.
ताकि मैं आगे बढ सकूँ........केवल राम.