23 मई 2012

दुआ का एक लफ्ज, और वर्षों की इबादत...2

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गतांक से आगे.......! नुष्य ने सृष्टि के प्रारंभ से लेकर आज तक कर्म और भाग्य के द्वंद्व को समझने की कोशिश की है और इस दिशा में उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है. कठोपनिषद में कर्म की अनित्यता पर विचार किया गया है "जानाम्यह शेवधिरित्यनित्यं, न ह्यध्रुवै: प्राप्यते हि ध्रुवं तत्”. (10/217) अर्थात मैं यह जानता हूँ कि कर्मफल निधि अनित्य है, क्योँकि अनित्य साधनों द्वारा वह नित्य (परमात्मा) को प्राप्त नहीं कर सकता. अगर इस बात पर गहनता से विचार करें तो हम पाएंगे कि मनुष्य कर्मफल के मोह से बच नहीं सकता, और इसलिए जब वह कर्म करता है तो हर प्रकार के कर्म में उस कर्म की सफलता के लिए प्रार्थना को महत्व देता है. यह अनुभव रहा है कि जीवन में जब भी कर्म को सिर्फ कर्म के दृष्टिकोण से किया जाता है तो सफलता की सम्भावना ज्यादा बलवती हो जाती है, और अगर कर्म सिर्फ और सिर्फ प्राणी मात्र की भलाई के लिए किया जा रहा है तो वह सफलता के साथ-साथ आनंद देने वाला भी होता है. अगर यह भाव जीवन में बन जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति कर्म और भाग्य के द्वंद्व से मुक्त होकर सिर्फ और सिर्फ कर्म को ही महता देगा, और ऐसी स्थिति में वह बहुत सी भ्रांतियों का शिकार होने से बचा रहेगा, जिसे वह भाग्य मानकर अपने को कोसता रहता है उसके लिए उसके मन में कर्म का भाव पैदा होगा और इस कर्म के भाव का पैदा होना उसके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाएगा. गीता में श्रीकृष्ण जी अर्जुन को इस भाव को यूं समझाते हैं :-काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः / क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा. (4/12 /158) कि इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों की सिद्धि चाहते हैं, फलस्वरूप वह देवताओं की पूजा करते हैं. निसंदेह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का फल शीघ्र ही प्राप्त होता है. लेकिन दूसरी तरफ इस बात पर भी बल देते हैं कि "कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः / अकर्मणश्च बोद्धव्यं  गहना कर्मणो गतिः”. (4 /27/163). कर्म की बारीकियों को समझना अत्यंत कठिन है. अतः मनुष्य को चाहिए की वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है? विकर्म क्या है और अकर्म क्या है? अगर मनुष्य यह निर्णय लेने में सक्षम हो जाता है कि किया जाने वाला कर्म जीवन में क्या भूमिका निभाएगा, उसका फल क्या होगा और उस कर्म की चरम परिणति क्या होगी यह सब जानना आवश्यक है. अगर इस चिंतन से कोई भी कर्म किया जाता है तो निश्चित रूप से व्यक्ति ब्रह्म भाव में खुद को स्थापित कर लेगा और उसकी एक-एक दुआ उसके जीवन को बदलने वाली होगी, और निश्चित रूप से वह महसूस करेगा कि किस तरह से दुआ का एक लफ्ज जीवन की दिशा को परिवर्तित करता है. 

स सृष्टि में मानव जीवन की उत्पति और इसके जीवन रहस्यों को समझने की जब हम चेष्टा करते हैं तो पाते
हैं कि इस जीवन की कुछ पहेलियाँ ऐसी हैं जिहें समझना कठिन है, और प्रार्थना और दुआ के सन्दर्भ में तो और भी रोचक और असमंजस की स्थिति है . मनुष्य कहीं ईश्वर की सर्वव्यापकता को स्वीकारता है तो उसे मंदिर, मस्जिद, चर्च और गुरुद्वारों की आवश्यकता नहीं पड़ती जहाँ कहीं उसके मन का भाव प्रार्थना के जाग्रत हुआ उसके हाथ उठ गए वह झुक गया उसने ईश्वर को याद कर लिया उसके सामने अपनी फरियाद रख दी अपनी मांग रख दी, जो कुछ उसे चाहिए वह इस निराकार और सर्वव्यापी सत्ता से कह दिया और खुद चिंता मुक्त हो गया. लेकिन कहीं पर ऐसा भी भाव है जहाँ वह इबादत के लिए, प्रार्थना के लिए मीलों की दूरी तय करता है, दिनों का समय लगाता है और फिर किसी विशेष स्थान पर पहुँच कर वह प्रार्थना करता है, लेकिन फिर भी प्रार्थना पूरी नहीं होती उसका वहां से विश्वास उठ जाता है. वह दूसरी तरफ चल पड़ता है और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है. लेकिन मनुष्य है कि वह कर्म तो कर रहा है लेकिन उसकी दिशा सही नहीं है. अगर जब दिशा ही सही नहीं है तो फिर दशा कैसे बदलेगी. अपनी दशा को बदलने के लिए उसे अपनी दिशा में परिवर्तन करना होगा और वह परिवर्तन बड़ी आसानी से हो सकता है. सबसे पहले उसे ईश्वर के साकार और निराकार स्वरूप को समझना होगा और इस बात को गहनता से मन में बिठाना होगा कि साकार सत्ता की एक सीमा है उसका हर स्तर पर एक दायरा है, लेकिन निराकार-सर्वव्यापक सत्ता सीमा से परे है, वह हमारी कल्पना का हिस्सा नहीं है, इसलिए साकार और निराकार-सर्वव्यापक दोनों सत्ताओं के सामने की गयी प्रार्थना का अपना महत्व है . 

गर हम इस सृष्टि का गहनता से विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इस दृश्यमान जगत में जितनी भी योनियाँ हैं वह सब भोग योनियाँ है, मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है. इस आधार पर देखें तो भोग योनियाँ और कर्म योनी और इन सबकी (अंडज, पिंडज, उतभुज, सेतज) रचना में ईश्वर की भूमिका महत्वपूर्ण है. इस आधार पर देखें तो मनुष्य ही ईश्वर की एक ऐसी कृति है जिसे उसने चेतना का चरम सोपान प्रदान किया है, और हमारे ऋषि मुनि हमेशा इस बात पर चिंतन करते रहे कि आखिर इस चेतना का क्या औचित्य है ? क्योँकि उन्हें लगता है कि "भोजन भोग निद्रा भय, यह सब पशु पुरख सामान " अगर यह चारों लक्षण इंसान और पशुओं में एक जैसे हैं तो फिर इंसान कि क्या महता है ? क्योँ उसे यह जीवन प्रदान किया गया है ? हालाँकि हम संसार में विचरते हैं लेकिन शायद इस बात पर ध्यान नहीं देते हैं, कि हमारे इस जीवन की क्या महता है ? हम तो मायावी संसार को देखकर इसमें इतने रम जाते हैं की अपनी वास्तविक स्थिति को ही भूल जाते हैं, और अगर ऐसा नहीं होता तो आज संसार के यह हालात नहीं होते. कुछ बिंदु अगले अंक में..! 

14 मई 2012

दुआ का एक लफ्ज, और वर्षों की इबादत...1

16 टिप्‍पणियां:
स ब्रह्माण्ड को जब भी हम देखते हैं, महसूस करते हैं, इसके रहस्यों को जानने की जब कोशिश करते हैं तो कहीं पर हम सीमित हो जाते हैं. हमारी सोच का दायरा, कल्पना की उड़ान, समझ की सीमा सब छोटा पड़ जाता है. जब भी इस विश्व को देखते हैं तो ऐसा लगता है कि आखिर यह सब कुछ व्यवस्थित कैसे है? जितनी भी कायनात है उसके जर्रे-जर्रे में एक अदृश्य सत्ता का आभास हमें होता है और जब भी हम इसे और गहराई से महसूस करते हैं तो भी हम इसका अंदाजा नहीं लगा सकते. दुसरे शब्दों में हम इसे  नेति-नेति कहते हैं अर्थात “न इति" जिसका कोई आदि -मध्य और अंत नहीं. जो जन्म और मृत्यु से मुक्त है जिसे हम खुदा, ईश्वर, सृष्टा, भगवान, अल्लाह, वाहेगुरु, गॉड आदि नामों से पुकारते हैं. अवतारी पुरुषों के रूप में हम इस सत्ता को राम- कृष्ण, गुरु नानक, हजरत मुहम्मद, ईसा मसीह आदि कई नामों से अभिहित करते हैं, और समग्र रूप से हम इस अदृश्य सत्ता को सर्वव्यापी, सर्व समरथ, सर्वगुणसंपन्न, कालातीत आदि कई विश्लेषणों से अभिव्यक्त करते हैं.  इसकी सर्वव्यापकता को सिद्ध करने के लिए हम इसे अखंड भी कहते हैं

वेद में इसे "अखंड मंडलाकार व्यापतेन चराचरम" (अर्थात जो खंडित नहीं हो सकता और जो इस सृष्टि के
कण-कण में व्याप्त है) कहा गया है. निर्गुण रूप में जो ब्रह्म वाणी और शब्दों द्वारा वर्णन की सीमा में न बंध सकने से साधारण मनुष्यों की पहुँच (उपासना) से परे होता है, उसका रूप चाहे साकार हो या निराकार लेकिन मनुष्य के लिए उसकी थाह लेना मुश्किल होता है."निर्गुणमपि सत ब्रह्म नामरूपगतैर्गुनै सगुणं-उपस्नार्थमुपदिश्यते " फिर भी यह दयालु ईश्वर इस धरती के जीवों पर अपनी कृपाएं करता रहता है और उन्हें सुख के साधन प्रदान करता रहता है. यह इस सृष्टि में समस्त कर्मों को करता हुआ भी कर्म बंधन में नहीं फंसता, जबकि इंसान है कि इन कर्म बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता:- न मां कर्माणि लिम्पन्ति न कर्मफले स्प्रहा. / इति मां योऽभिजानाति  कर्मभिर्न स बध्यते. कर्मों में लिप्त न होने के कारण इस इस ईश्वर में सुख-दुःख मोहादि गुण भी व्याप्त नहीं होते हैं. वह सदा आनंदयुक्त है. ईश्वर स्वयं आनंद युक्त है और मनुष्य उससे प्रार्थना करके इस आनंद को पाने की चेष्टा करता है. लेकिन फिर भी उसका आकर्षण भौतिक जगत में बना रहता है. इसलिए उसकी पहली प्रार्थना इन भौतिक साधनों को पाने की ही होती है. वह सदा प्रत्यनशील रहता है अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु.

ब प्रश्न यह उठता है कि क्या मनुष्य ही प्रार्थना करता है, या धरती के और जीव भी इस ईश्वर से प्रार्थना करते हैं. यह गहन शोध का विषय हो सकता है. इस विषय पर अभी कोई ऐसी बात सामने नहीं आई कि मनुष्यों के अलावा भी धरती पर रहने वाले जीव ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, और अगर करते हैं तो उनकी प्रार्थना में क्या शामिल रहता है? किस तरह के सुख की मांग वह ईश्वर से करते हैं. यह बड़ा रोचक और शोधपूर्ण विषय हो सकता है. अगर हम इस दिशा में कदम बढाते हैं तो ....! जहाँ तक मनुष्य की बात है वह इस दिशा में एकदम भिन्न किस्म की मानसिकता रखता है, और कभी-कभी तो ऐसा आभास होता है कि इस विविधता के पीछे भी कोई ईश्वरीय विधान छुपा है. लेकिन जहाँ तक प्रार्थना की बात है वह किसी तर्क और तथ्य से परे होती है. उसमें व्यक्ति का कर्म और उसके मन की पवित्रता भी मायने रखती है. कई बार देखा गया है कि कोई मनुष्य प्रार्थना करता है तो वह पूरी नहीं होती, और कई बार उसे उसकी प्रार्थना के बदले में उसकी सोच से भी बढ़कर मिलता है. ऐसी स्थिति में व्यक्ति हमेशा असमंजस की स्थिति में रहता है और जीवन के अंतिम पड़ाव तक वह यह तय नहीं कर पाता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं? उसे प्रार्थना के बल पर सब कुछ मिल जायेगा या उसे कर्म करना चाहिए. दुआ और कर्म इन दोनों के बीच वह हमेशा पिसता रहा है. धर्म गुरु कहते हैं कि तेरे कर्मों से कुछ भी नहीं होने वाला है, जो कुछ भी होगा ईश्वर की कृपा से ही होगा और दूसरी बात वह यह भी कहते हैं कि "भगवान हमेशा भक्त के वश में रहता है. "दोनों बातों पर अगर विचार करते हैं तो विरोधाभास स्वतः ही पैदा हो जाता है. अब मनुष्य क्या करे भाग्य को देखे या कर्म के फल को? यह ऐसी बातें हैं जिन पर हम सोच विचार तो कर सकते हैं लेकिन किसी अंतिम निर्णय तक पहुंचना टेढ़ी खीर के समान है. शेष अगले अंकों में...!!!!! 

05 मई 2012

'बाबा' मुझे 'निर्मल' कर दो .. 2

29 टिप्‍पणियां:
ज के सन्दर्भ में अगर हम देखें तो लोगों पर विज्ञापन बहुत हावी हो गया है . कुछ लोगों के लिए यह व्यक्तिगत प्रचार का साधन है तो कुछ के लिए यह अपनी वस्तुओं को आम लोगों तक पहुँचाने का  . यहाँ तक तो ठीक है , लेकिन जब जीवन सन्दर्भों को विज्ञापन के माध्यम से भुनाने की कोशिश की जाती है तो यह बहुत अटपटा लगता है और लोगों को देखिये जो ऐसी चीजों/ बातों / विचारों को प्रश्रय देते हैं और बाकी के लोगों के लिए भी ऐसा ही मार्ग प्रशस्त करते हैं , और यहाँ लोग भी ऐसे हैं जो बिना जांचे परखे किसी के मत/बात पर विश्वास कर लेते हैं , और फिर सब कुछ खोने के बाद खुद को ही कोसते हैं . लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है . आज के दौर में अध्यात्म की जहाँ तक बात है यह भी विज्ञापन से अछुता नहीं . आज विभिन्न तरह के ताबीज , यंत्र और ना जाने क्या -क्या विज्ञापन के माध्यम से हमें देखने को मिलता है . एक तरफ तो यह चीजें और दूसरी तरफ छदम गुरुओं की चर्चा , धर्म और अध्यात्म पर उनके विचार और उपदेश और उन उपदेशों को सुनकर झूमते भक्त सब सपने की तरह गुजरता है आँखों के सामने से और मैं सोचता हूँ अपने उज्ज्वल अतीत, अंधकारमय भविष्य को ?

से में कई प्रश्न मेरे सामने यकायक खड़े हो जाते हैं , मैं भी किसी गुरु का नाम लेता हूँ और कहता हूँ " बाबा मुझे निर्मल कर दो , और वहां से कोई उत्तर नहीं आता सिवा इसके कि अभी कृपा प्राप्त होने में वक़्त लगेगा या फिर उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए मुझे उनसे व्यापार करना होगा . मुझे उनके द्वारा बताई गयी धनराशि किसी माध्यम से उन तक पहुंचानी होगी और तब जाकर कहीं कृपा प्राप्त होगी . यह तो बात हुई पैसा फैंको तमाशा देखो , मैं भी किसी स्थिति से निकलना चाहता हूँ इसलिए मुझे उस धनराशि को उनके श्रीचरणों में समर्पित करने से कोई गुरेज नहीं , और बाबा हैं कि उस धनराशि से उनको कोई ख़ास संतुष्टि नहीं उनकी लालसा और बढ़ रही है और मेरा जीवन बेहाल होता है जा रहा है , एक बार फंस चूका हूँ और बार - बार वही प्रक्रिया दोहराई जा रही है , बाबा की कृपा को प्राप्त करने के लिए यही कुछ करना पड़ रहा है और मेरी चिंता कम होने की बजाय बढ़ रही है ओर मैं ऐसी स्थिति में किसी से कुछ कहने की हालत में नहीं हूँअब क्या करूँ ? ? ऐसी हालत मैंने कि लोगों की देखी है , और निर्मल बाबा प्रकरण में ऐसे कई लोग सामने आये . निश्चित रूप से ऐसे कई उदहारण हमारे सामने हैं जिसमें व्यक्ति को इन छदम गुरुओं द्वारा लूटा जाता रहा है और हम हैं कि कृपा, आशीर्वाद आदि के नाम पर सब लुटाये जाते रहे हैं . हद तो तब होती है जब शिक्षित और बुद्धिजीवी वर्ग भी इनके चुंगल में फंस जाता है .  
विज्ञापन के इस दौर में मैंने एक बात बहुत करीब से महसूस की है , वह यह कि इस दौड़ में वह सब शामिल हैं जो खुद को भुनाना चाहते हैं . इनका एक नया तरीका है , यह सब अपना विज्ञापन करते वक़्त किसी व्यक्ति का मत जरुर शामिल करते हैं जिसमें इनके द्वारा उस व्यक्ति को पहुंचे लाभ की चर्चा होती है . बस फिर क्या है धीरे - धीरे इनका बाजार जमना शुरू हो जाता है , फिर एक समय ऐसा आता है जब यह अपना अर्थशास्त्र खुद तय करते हैं . मांग अधिक और आपूर्ति कम ऐसी हालत में एक तरफ लोगों की भीड़ है और कोई ऐसा नहीं जिसकी मनोकामना इनके दर पर जाकर पूरी न हुई हो . समाज का बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी इनकी शरण में है और इनकी कृपा प्राप्त करके सबके चेहरे पर आलौकिक उर्जा का संचार हो रहा है . बस यही से खेल शुरू होता है , जो पकड़ा गया वह चोर है और जो नहीं पकड़ा गया वह अपना धंधा अनवरत चलाये रखता है . जब सब तरफ भ्रष्टाचार व्याप्त है तो फिर हर जगह यही होना है और निश्चित रूप से हो भी रहा है . निर्मल बाबा हमारे सामने एक उदहारण मात्र हैं , और उनका यह सच भी सामने नहीं आता अगर वह कुछ चैनलों के साथ अपना करार कर लेते . लेकिन विडंबना यह है कि बाबा पर तो कार्यवाही हुई लेकिन उन चैनलों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई जिन्होंने बाबा के विज्ञापन को दिखाया या फिर उनके शो आयोजित किये . मुझे लगता है कि इस दिशा में भी सोचा जाना चाहिए , अगर ऐसा होता है तो निश्चित रूप से जनता का भला होगा .  

निर्मल बाबा प्रकरण से पहले भी ऐसे कई प्रकरण हो चुके हैं , लेकिन फिर भी हम हैं कि सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं , आज जितनी भी समस्याएं हमारे सामने हैं उनमें आम जनता की भागीदारी भी कम नहीं है . लेकिन हर बार हम उसी को निशाना बनाते हैं जो इस जाल में फंस जाता है , और हमारा मीडिया तो ऐसा है जब कोई किसी एक के पक्ष में बोलता है तो सभी वही राग अलापते हैं और अगर विपक्ष में बोलता है तो तब भी यही हाल होता है . मैं कई वर्षों से देख रहा हूँ कि हमारे देश में खोजी और विश्लेष्णात्मक पत्रकारिता लगभग समाप्त हो गयी है . सिर्फ सूचनात्मक पत्रकारिता ने हमारे देश और समाज को भीतर से खोखला कर दिया है . ऐसी स्थिति में लोकतंत्र का हर स्तम्भ ढहता जा रहा है . हम किस पर विश्वास करें , कैसा विश्वास करें . अजीब सी स्थिति है एक तरफ हम विकास और सूचना तकनीक की बात करते हैं वहीँ दूसरी और हम अंधविश्वासों में फंसते जा रहे हैं . व्यक्तिवादी राजनीति और देश में पूंजीपतियों की बढती साख ने आज देश को गुलामी के कगार पर ला दिया है . ऐसी स्थिति में हर किसी का यही कहना है " बाबा मुझे निर्मल कर दो " अब जब बाबा ही नार्मल नहीं हैं तो फिर किस तरफ देखें . हमारा देश विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं का देश है , और यही समन्वय का भाव हमें पूरे विश्व को एक घर मानने की समझ देता है .  लेकिन जब इस दिशा से हम भटक जाएँ तो क्या आशा की जा सकती है ?