18 फ़रवरी 2012

सार्थक ब्लॉगिंग की ओर...2

35 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे....जैसे ही सृजन का क्रम प्रारंभ हुआ वैसे ही उसे और बेहतर बनाने के लिए कुछ मूल बिंदु भी निर्धारित किये गए. यह आप किसी भी क्षेत्र में देख सकते हैं. संगीत, साहित्य, शिल्प, वास्तुशास्त्र, ज्योतिष, विज्ञान, योग आदि  ना जाने कितने आयाम हैं सृजन के, सभी के अपने  नियम है और उन्हीं नियमों के तहत वह आगे बढ़ते हैं, और जो उन नियमों का अनुसरण करते हुए नव सृजन करता है. वह उस क्षेत्र का ज्ञाता माना जाता है. इस पोस्ट के पहले भाग पर टिप्पणी करते हुए आदरणीय राहुल सिंह जी ने टिप्पणी करते हुए लिखा है ‘ब्‍लागिंग का स्‍वभाव और प्रकृति की सीमा व्‍यापक है, निर्धारित करना कठिन जान पड़ता है’. काफी हद तक इनकी यह बात प्रासंगिक प्रतीत होती है. ब्लॉगिंग के स्वभाव और प्रकृति को समझना कठिन जरुर हो सकता है लेकिन असंभव नहीं और ऐसा कुछ भी नहीं जो हमारी समझ से बाहर हो, क्योँकि किसी नयी चीज को समझना मुश्किल हो सकता है.

लेकिन जब हम उससे प्रत्यक्ष ताल्लुक रखना शुरू करते हैं तो निश्चित रूप से हम उसके प्रति संवेदनशील
होते हैं और वहीँ से हमारी समझ विकसित होना शुरू होती है, और अगर हम अनमने ढंग से जुड़े हैं या कहीं पर हमारा स्वार्थ जुड़ा है तो हम उस स्वार्थ की पूर्ति करने में सफल तो हो सकते हैं लेकिन सार्थकता का जहाँ तक सवाल है वह नहीं हो सकता. इसे यूँ भी समझाया जा सकता है. जैसे कि टिप्पणी या लगातार लिखना किसी के लिए महत्वपूर्ण है तो कुछ भी लिखकर वह टिप्पणी हासिल कर सकता/सकती है. टिप्पणी के लिहाज से तो उसने सफलता प्राप्त कर ली लेकिन उस लिखे हुए की सार्थकता कितनी है यह बात बहुत महत्वपूर्ण है (मात्र संकेत किया है कृपया अन्यथा न लें) सफलता और सार्थकता में अंतर जान पड़ता है और उस अंतर को समझे बिना हम किसी दिशा में आगे नहीं बढ़ सकते. भाव और कर्म के दृष्टिकोण से सफलता के अनेक बिंदु हो सकते हैं. सफलता के मानक व्यष्टिगत और समष्टिगत दोनों होते हैं, लेकिन सार्थकता के मानक हमेशा समष्टिगत रहे हैं. सफलता के मानक निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों हो सकते हैं लेकिन सार्थकता के मानक सापेक्ष ही रहे हैं. सफलता और सार्थकता पर ऐसी बहुत सी विचारणीय बाते कही जा सकती हैं लेकिन यहाँ सिर्फ संकेत रूप में कहूँ तो बेहतर है. सफल और सार्थक ब्लॉगिंग के लिए कुछ बिंदु हो सकते हैं, अगर हम उन्हें ध्यान में रखकर आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से हम काफी हद तक बेहतर योगदान कर सकते हैं. हालाँकि यह सभी  बिन्दु मेरा एक दृष्टिकोण हैं....और इसे आगे बढाने में आप अपनी सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं :-

सृजन की प्राथमिकता : सृजन मानवीय स्वभाव है. लेकिन सृजन करते वक़्त सर्जक को यह सोचना अवश्यम्भावी हो जाता है कि वह जिस दिशा या विधा में आगे बढ़ रहा है वह समाज और देश के लिए कितनी सार्थक है. उसकी दृष्टि क्या? उसका दृष्टिकोण क्या है? उसे क्या नया करना है? किस चीज को आगे बढ़ाना है. उस विधा में क्या सार्थक है और समय के साथ-साथ उसे उसमें क्या निरर्थक लगता है? ऐसे बहुत से प्रश्न है जो सृजन से पहले सर्जक के मन में कौंधने चाहिए. दूसरा महत्वपूर्ण पहलू यह है कि क्या सच में वह-वह करना चाहता है जिसके विषय में वह सोच रहा है. निश्चित है व्यक्ति किसी काम को करने से पहले अपना लाभ भी सोचता है. यह व्यक्ति का स्वभाव है. उसे उस सृजन से क्या लाभ होने वाला है यह भी विचारणीय है. यह सब कुछ सोचने के बाद उसे अपनी सक्षमता पर भी ध्यान देना होगा. क्या जो कुछ वह सोच रहा है उसे कर पाने में वह सक्षम है या नहीं, उसकी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक आदि स्थितियां उसे यह सब कुछ करने के लिए सहायक हैं या नहीं. हालाँकि सृजन इन सबका मोहताज नहीं होता लेकिन ऐसा सर्जक भी तो कोई-कोई ही होता है जो सब कुछ दावं पर लगाकर सिर्फ और सिर्फ सृजन के लिए जीता है. सृजन ही उसका ‘धर्म’ बन जाता है. लेकिन बहुतर ऐसा नहीं होता इसलिए इन स्थितियों पर भी ध्यान दिया जाये तो बेहतर है.

सृजन का एक पहलू यह भी है कि हम किस विधा को अपनाना चाहते हैं, और उस विधा में हम कितना जानते हैं पूर्ववर्तियों के बारे में जो हमसे पहले इस दिशा में अग्रसर हैं. उनकी क्या उपलब्धियां हैं, क्या कुछ उन्होंने किया है. जब हम किसी दिशा में कदम बढ़ाते हैं तो यह सब जानकारी हमारे लिए अपेक्षित हो जाती है. अगर हम थोडा सा इस बिंदु पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं तो निश्चित रूप से हम अपनी एक महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा सकते हैं और उस विधा में नव सृजन के द्वारा उसके किसी महत्वपूर्ण पक्ष को आगे बढ़ा सकते हैं. जिस निश्चित विधा की तरफ आप बढ़ रहे हैं उस विधा के भी अपने कई आयाम हैं और उनमें से आप किसी एक का चुनाव करके भी सार्थकता को लेकर आगे बढ़ते हैं तो आपका योगदान निश्चित रूप से रेखांकित करने योग्य हो जाता है. इतिहास में जिन व्यक्तियों का नाम आज दर्ज है उनके व्यक्तित्व में यह विशिष्ट गुण देखने को मिलता है. भाव के स्तर पर भी कई आयाम देखे जाते हैं जिनको आगे बढ़ाना महत्वपूर्ण होता है. लेकिन यह सब कुछ करने से पहले आपको सृजन की प्राथमिकता को तय करना होगा और जैसे ही आप यह तय करने में सक्षम हो जाते हैं आपके सामने सृजन के नए आयाम खुलते जाते हैं और फिर आप निर्बाध गति से आगे बढ़ते हुए ऊँचाइयों को प्राप्त करते हैं. लेकिन सृजन के बदले किसी पुरस्कार की कामना या किसी चर्चा में आने के लिए सृजन करना एक निम्न पहलू है. आपके सृजन का पहला और अंतिम पुरस्कार आपके वह प्रशंसक हैं जिन्हें आपसे व्यक्तिगत रूप से कोई लेना देना नहीं लेकिन फिर भी वह आपके लिए दिल में सम्मान रखते हैं. अब हमें यह निर्धारित करना होगा कि हमारा सृजन का मुख्य पहलू क्या है??? मात्र और मात्र सार्थक सृजन, चर्चा के लिए सृजन या पुरस्कार के लिए सृजन? या फिर सृजन ही मेरा धर्म है. जैसे कहा जाता है कि कला-कला के लिए, कला जीवन के लिए. शेष अगले अंक में...!!!

14 फ़रवरी 2012

सार्थक ब्लॉगिंग की ओर...1

36 टिप्‍पणियां:
सृजन मानव का स्वभाव है. यही उसकी चेतना का प्रतिबिम्ब भी है. मानव मन-मस्तिष्क में चलने वाली हलचल, भावनाओं और विचारों का अनवरत प्रवाह सृजन के माध्यम से बाहर की दुनिया में प्रवेश करता है. जब तक सब कुछ हमारे मन-मस्तिष्क में घटित हो रहा है, तक वह हमारा है. जैसे ही हमनें उसे अभिव्यक्त किया वह सबका हो गया. हमारी चेतना के मूल में सृजन स्वभाव के रूप में स्थापित है. (स्वभाव के बारे में बात फिर कभीऔर इसी का परिणाम है कि मानव अपने अस्तित्व में आने से लेकर निरंतर सृजन में प्रवृत है. सृजन की उद्भट प्रतिभा ने उसे ‘सृष्टा’ के समकक्ष ला दिया. सृजन के मूल में उसकी भावना ने महती भूमिका अदा की. अनवरत चिंतन और दनिया में कुछ नया करने के भाव ने उसे हमेशा जगाए रखा. प्रकृति उसकी पहली प्ररणा रही है और परमात्मा उसके जीवन का ध्येय. उसने सारी प्रकृति को परमात्मा का प्रतिबिम्ब स्वीकार कर लिया और प्रकृति में ही उसने सृजन के विविध आयाम खोजे. अगर हम संस्कृत वाङ्मय पर गहराई से ध्यान देते हैं तो यही पाते हैं. ‘ऋग्वेद के प्रत्येक मंडल में ऐसा बहुत कुछ हमें देखने को मिलता है. जहाँ सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वर्षा आदि के लिए ऋचाएं वर्णित है. कालान्तर में इन्हीं ऋचाओं का रूपांतरण मन्त्र के रूप में हुआ. हालाँकि ‘मन्त्र-तंत्र’ के लिए लिखित साहित्य को आज तक साहित्य की कोटि में नहीं रखा गया है. लेकिन कहीं न कहीं पर इनकी प्रमाणिकता पर भी ध्यान देने की जरुरत है. ‘मन्त्र–तंत्र’ के लिए लिखी गयी बातें सिर्फ उन्हीं लोगों का विषय बनी रही हैं जिनका इससे सम्बन्ध रहता है. हालाँकि अब यह कहा जाता है कि यह सब वैज्ञानिक नहीं है, और यह सब ढोंग है. लेकिन एक बात बताता चलूँ कि 'विज्ञान जहाँ अपनी हद मान लेता है वहीँ से अध्यात्म शुरू होताहै और उसका आज तक कोई अंत नहीं पा सका. सृजन भी एक अनन्त और अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है. समय और स्थिति का प्रभाव बेशक इस पर पड़ता है लेकिन यह भावनात्मक रूप से एक सी रहती है. कालिदास के ‘अभिज्ञानशकुन्तलम’ में जिस प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसी प्रेम को आज तक विभिन्न रूपों में, विभिन्न शैलियों में विभिन्न देशों और भाषाओँ के रचनाकारों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता रहा है, लेकिन न तो कालिदास द्वारा अभिव्यक्त प्रेम पुराना पड़ा, और न ही परवर्ती रचनाकारों द्वारा अभिव्यक्त प्रेम. इसीलिए यह बात हमें स्वीकार करनी पड़ेगी कि सिर्फ भावनाओं को अभिव्यक्त करने के तरीके बदले हैं, लेकिन भाव तो शाश्वत है. 

आचार्य भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र में भाव को लेकर बहुत कुछ वैज्ञानिक तरीके से अभिव्यक्त करने
का प्रयास किया गया है. भाव, विभाव, अनुभाव, संचारी आदि भावों को लेकर बहुत सटीक व्याख्याएं भरतमुनि के बाद के आचार्यों ने प्रस्तुत की हैं. भट्ट लोल्लट, भट्ट शंकुक,  भट्ट नायक और अभिनवगुप्त इस सिद्धांत को आगे बढाने का काम करते हैं और काफी हद तक विषद विवेचन के आधार पर अपनी मान्यताओं को पुष्ट करते हुए भाव और उसके अंगों को पुष्ट करने का प्रयास करते हैं और यह भी समझाने की कोशिश करते हैं कि काव्य में क्या जरुरी है. हालाँकि उनके इस सिद्धांत पर कई पोस्ट्स लिखी जा सकती हैं, और आदरणीय मनोज जी के ब्लॉग मनोज पर आपको यह जानकारी सहज मिल सकती है. सृजन के सन्दर्भ  में इसी तरह की मान्यता पाश्चात्य विचारक प्लेटो ने भी अभिव्यक्त की है. काव्य के सन्दर्भ में अपनी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए प्लेटो कहता हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति है’. हालाँकि बाद में प्लेटो की इस मान्यता का खंडन उनके शिष्य अरस्तु करते हैं और यह कहते हैं कि ‘काव्य प्रकृति की अनुकृति नहीं, बल्कि उसकी प्रतिकृति हैयहाँ अनुकृति और प्रतिकृति शब्दों ने एक दुसरे में भेद कर दिया और एक ही विषय पर दो सिद्धांत प्रचलन में आ गए. इससे भी यह स्पष्ट होता है कि सृजन के मूल में प्रकृति की महता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. भरतमुनि ने जो मंतव्य अपने नाट्यशास्त्र में रस के सम्बन्ध में अभिव्यक्त किया है, उसी तरह के भाव मुझे अरस्तु के विरेचन सिद्धांत में देखने को मिलते हैं, और कभी-कभी मुझे इन दोनों आचार्यों की काव्य के सन्दर्भ में लगभग एक सी मान्यताओं ने ( रस और विरेचन के सम्बन्ध में ) आश्चर्यचकित किया है. भारतीय और पाश्चात्य आचार्यों ने काव्य की सार्थकता, उसकी उपयोगिता, सृजन की प्राथमिकता को लेकर व्यापक बहस की है, और कुछ सार्थक निष्कर्ष भी निकाले हैं. उनके यह निष्कर्ष आज सिद्धांत के रूप में मान्यता प्राप्त है, और उन्हीं के आधार पर समस्त साहित्य रचना  हो रही है. हालाँकि समय -समय पर इनमें भी बदलाव आया है, यह बदलाव पूर्व प्रचलित मान्यता को खंडित तो करता है, लेकिन उसकी उपयोगिता को नजरअंदाज नहीं करता, और यही सार्थक बहस से ही संभव हो सकता है. 

सूचना तकनीक के विकास के इस दौर में अभिव्यक्ति और सृजन के साधनों का भी विकास होता रहा .सृजन की विधाएं अनन्त हैं. लेखन उनमें से एक है.  कभी पत्थरों पर लिखा गया तो कभी भोजपत्रों पर. लेखन का इतिहास सृजन के इतिहास से ही जुड़ा है. लेखन पर भी विकास का प्रभाव पड़ा. कभी शैली तो कभी भाव पर और यह विकास निरंतर जारी है. इन्हीं विकास के पडावों को पार करते हुए हमने इन्टरनेट की दुनिया में प्रवेश किया. इन्टरनेट ने दुनिया को एक क्लिक तक सीमित कर दिया और अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में हमें एक नायाब तोहफा दिया ‘ब्लॉगिंग’. आज दुनिया के तमाम लोग तरह-तरह के माध्यमों से एक-दुसरे से जुड़ रहे है. मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्ति के नए साधन मिले हैं, इन साधनों ने मनुष्य में रचनाशीलता का जो संचार किया है वह कभी-कभी सोचने पर मजबूर करता है. ब्लॉगिंग भी मनुष्य की रचनाशीलता को अभिव्यक्त करने के एक सशक्त माध्यम के रूप में आज हमारे सामने है. ब्लॉगिंग की दुनिया अद्भुत है. रचनाशीलता का यहाँ व्यापक प्रसार है. एक ही मंच पर सब कुछ अभिनीत किया जा रहा है और दर्शक दांतों तले अंगुली दवाने पर मजबूर है. हालाँकि ब्लॉगिंग का अपना एक स्वभाव है, उसकी अपनी एक प्रकृति है (यह विषय फिर कभी) इन सभी के बाबजूद ब्लॉगिंग करने के लिए कुछ बाते निर्धारित की जा सकती हैं. जिनके आधार पर हम सफल ब्लॉगिंग की और बढ़ सकते हैं. शेष अगले अंकों में....!!!  

05 फ़रवरी 2012

उपलब्धि का आधार...2

25 टिप्‍पणियां:
गतांक से आगे...अब तो यह निश्चित हो गया कि उपलब्धि को हासिल करने के लिए साधन से महत्वपूर्ण है साध्य. साधक का लक्ष्य क्या है? जिसे वह हासिल करना चाह रहा है. उसके पीछे उसका मन्तव्य क्या हैउसकी भावना क्या है? जिसकी भावना जैसी होगी उसे उसके कर्म का वैसा ही फल मिलेगा. जाकी रही भावना जैसीप्रभु मूर्त तिन देखि तैसी. जिसका जैसा भाव होता है उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है. जैसे कि किसी भी जीव कि ह्त्या करना अपराध हैलेकिन किसी शत्रु को जब हम अपनी सीमा पर मारते हैं तो उसे क्या कहते हैंवहां एक भावना काम कर रही है. हालाँकि ऐसा किसी भी स्तर पर  होना तो नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी दुनिया का दस्तूर है, संसार के नियम हैं और उन नियमों  के तहत हम जो कुछ भी हासिल कर रहे हैं वह किसी हद तक हमें प्रासंगिक लगता है. क्योँकि किसी ऐसे व्यक्ति का कर्म बाकी इनसानों के लिए चिन्ता का सबब बन सकता हैइसलिए हम उसे किनारे लगा देते हैं.
जीवन में कर्म से पहले भाव का महत्व है. भाव बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है हमारे जीवन मेंहमारे कर्म में और निश्चित रूप से हमारी उपलब्धि का कारण भी वही है. भाव हालाँकि किसी को दिखाई नहीं देतालेकिन वह कर्म के माध्यम से बाहर आता हैप्रकट होता है. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कीमती मोतियों की माला एक साधारण से धागे में पिरोई जाती है. लेकिन वह धागा दिखाई नहीं देताऔर जब तक मोती उस धागे में बंधें हैं तब तक वह सुन्दर दिख रहे हैंउनकी कीमत है. हालाँकि मोती कीमती हैंऔर धागे की कीमत और मोतियों की कीमत में जमीन-आसमान का अन्तर हैलेकिन फिर भी मोतियों का संग पाकर धागा कीमती हो गया और जब तक धागा उन मोतियों में लगा है तब तक धागा भी उतना ही कीमती हैजितने की मोती. भाव का यही महत्व है. उपलब्धि का भी यही कारण है. अब थोडा सा पीछे झांकते हैं अपने इतिहास की तरफ . विवेकानंद ने एक बार कहा था ‘अगर आपके पास दुनिया को देने के लिए सर्वश्रेष्ठ विचार है तो उसे बेशक आप किसी पत्थर की शिला की गुफा में सोच रहे होअभिव्यक्त कर रहे होवह विचार बाहर आएगा और अपना प्रभाव जरुर छोड़ेगा’. यह विचार और भाव की शक्ति है.
जिस फूल को में देख रहा था, उस फूल ने मुझे एक भाव दिया. उसने मेरे जहन में करुणाप्रेमदयासमदृष्टि आदि भावों का संचार किया. लेकिन किसी व्यक्ति के जहन में ऐसे भावों का संचार यूं ही नहीं हो जाता. जिससे हम प्रेरित हो रहे हैं, उसमें वह भाव होना चाहिए. वह प्रेरक होना चाहिएऔर प्रेरणा भी ऐसी जिससे सभी प्रेरित हों. दुनिया में ऐसा तो बहुत बार देखने को मिलता है कि किसी विशेष व्यक्ति के व्यक्तित्व का अनुसरण कुछ विशेष लोग ही करते हैं, और कुछ के लिए वह आँखों की किरकिरी बना रहता है. लेकिन जब हम सम्पूर्ण मानवता के लिए दयाकरुणाप्रेमउदारतासहिष्णुता जैसे मानवीय भावों को धारण कर कार्य करते हैं तो हमारा जीवन सबके लिए प्रेरक बन जाता है उस फूल की तरह. जिसका किसी से कोई वैर नहीं,कोई द्वेष नहींजिसे किसी से नफरत नहीं. वह तो हर किसी की तरफ अपनी सुगन्धअपनी कोमलतासहजताशालीनता सब कुछ अर्पित कर रहा है. उसका यह निश्छल भाव ही उसकी उपयोगिता का निर्धारण करता है.
मानवीय धरातल पर अगर सोचें तो हम पाते हैं कि जीवन में हम सब कुछ बनने की चेष्ठा करते हैं और ऐसा प्रयास करना कोई बुरी बात नहीं है. मानवीय प्रगति के लिए यह आवश्यक भी हैआज जितना भी भौतिक विकास हम देख रहे हैं यह मानव की जिज्ञासा और उसके निरन्तर क्रियाशील रहने के कारण ही सम्भव हो पाया है. लेकिन इस भौतिक उन्नति ने हमसे बहुत कुछ छीन भी लियायहाँ तक कि हमारा सुख-चैन भी. आज जो त्राहि-त्राहि चारों और मची है उसके पीछे कारण अगर देखें तो इनसानी ही नजर आते हैंलेकिन इनसान है कि अपने बजूद को मिटाने पर ही तुला हैउसे अपने स्वार्थ के सिवा कुछ सूझता ही नहीं और जब ऐसी सोच इनसान की है तो फिर प्रगति तो कर लीलेकिन मूल लक्ष्य से भटक जाना सही नहीं. इसलिए आवश्यक है कि हम अपने परिवेश को देखेंवहां की विसंगतियों को महसूस करेंअच्छाइयों का प्रचार करें. बुराइयों का त्याग करें और इस धरती पर एक सुन्दर से वातावरण का निर्माण करने में अपनी भूमिका अदा करें. ताकि आने वाली पीढियां इस वातावरण को कायम रखकर एक अद्भुत प्रेम, अमनभाईचारे वाली दुनिया का निर्माण कर सके. ऐसी दुनिया में हर कोई हर किसी से प्यार करेगा उस फूल की तरह जैसा उसने मुझसे किया है.